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जैन कर्म सिद्धान्त
श्यामलाल पाण्डवीय
भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही आध्यात्मिकता के आधार मान कर ही अपने विचार प्रकट किये हैं। अधिक निकट रही है। समय-समय पर अनेकों दिव्य तीसरा अर्थ है-जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति एवं महान आत्माओं द्वारा विभूषित इस देश का इति- के स्कन्ध । यह अर्थ अप्रसिद्ध है, केवल जैन सिद्धान्त हास धर्म एवम् दर्शन से अत्याधिक प्रभावित रहा है। ही इसका विशेष प्रकार से निरूपण करता है। भारतीय दर्शन के विविध पक्षों के रूप में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग. मीमांसा, वेदान्त, जैन, बौद्ध तथा भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्तचार्वाक दर्शन में हमें मानव जीवन के प्रति विविध
न्याय दर्शन के अनुसार मानव शरीर द्वारा मतों के दर्शन होते हैं। इनमें से चार्वाक को छोडकर
सम्पन्न विविध कर्म; राग, द्वेष और मोह के वशीअन्य समस्त भारतीय दर्शनों ने परलोक, पुनर्जन्म, कर्म
भूत होकर किये जाते हैं। अच्छा आचरण पुण्य प्रवृत्ति और मोक्ष की धारणा को ग्रहण किया है। ये सभी
है, जो धर्म को उत्पन्न करती है। धर्म करने से पुण्य मानते हैं कि मानव जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल
तथा अधर्म करने से पाप उत्पन्न होता है । धर्माधर्म को भोगता है।
अदृष्ट भी कहते हैं। अदृष्ट कर्मफल के उत्पादन में शाब्दिक दृष्टि से कर्म के तीन अर्थ प्रमख हैं। कारण होता है। किन्तु अदृष्ट जड़ है और जड़ में पहला-कर्म कारक; कर्म का यह अर्थ जगत प्रसिद्ध फलोत्पादन शक्ति चेतन की प्रेरणा के बिना संभव नहीं है। दूसरा अर्थ है-क्रिया। इसके अनेक प्रकार हैं। है। अतः ईश्वर की प्रेरणा से ही अदृष्ट फल देने में सामान्यतः विविध दार्शनिकों ने कर्म के द्वितीय अर्थ को सफल होता है।।
1. जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, प्रो. उदयचन्द्र जैन, जैन सिद्धान्त भास्कर-किरण १, प्र.
श्री देवेन्द्र कुमार जैन ओरियन्टल रिसर्च इन्सटीट्यूट, आरा । पृ. ३८ ।
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