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महापंडित टोडरमल
डा. गौतम के शब्दों में "जैन हिन्दी गद्यकारों में टोडरमलजी का स्थान बहुत ऊंचा है। उन्होंने टीकाओं और स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में दोनों प्रकार से गद्य-निर्माण का विराट उद्योग किया । टोडरमलजी की रचनाओं के सूक्ष्मानुशीलन से पता चलता है कि वे आध्यात्म और जैन धर्म के ही बेत्ता न थे, अपितु व्याकरण, दर्शन, साहित्य और सिद्धान्त के ज्ञाता थे । भाषा पर भी इनका अच्छा अधिकार था । "
ईसवी की अठारहवीं शती के अन्तिम दिनों में राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर जैनियों की काशी बन रहा था । आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी की
अगाव विद्वता और प्रतिभा से प्रभावित होकर संपूर्ण भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में संचालित तत्वगोष्ठियों और आध्यात्मिक मण्डलियों में चर्चित गूढ़तम शंका यें समाधानार्थ जयपुर भेजी जाती थीं और जयपुर से पंडितजी द्वारा समाधान पाकर तत्व- जिज्ञासु समाज अपने को कृतार्थ मानता था । साधर्मी भाई ब्र. रायमल ने अपनी "जीवन पत्रिका" में तत्कालीन जयपुर की धार्मिक स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है
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० डा० हुकमचन्द भारिल्ल
" तहाँ निरन्तर हजारों पुरुष स्त्री देवलोक की सी नांई चैत्याले आय महापुण्य उपारजे, दीर्घकाल का संच्या पाप ताका क्षय करें । सो पचास भाई पूजा करने वारे पाईए, सौ पचास भाषा शास्त्र बांचने वारे पाईए, दस बीस संस्कृत बांचने वारे पाईए, सौ पचास जनें चरचा करने वारे पाईए और नित्यान का सभा के शास्त्र बांचने का व्याख्यान विषे पांच से सात सं पुरुष तीन से चारि से स्त्रीजन, सब मिली हजार बारा से पुरुष स्त्री शास्त्र का श्रवण करें बीस तीस वायां शास्त्राभ्यास करें, देश देश का प्रश्न इहाँ आवे तिनका समाधान होय उहां पहुंचे, इत्यादि अद्भुत महिमा चतुर्थकालवत या नम्र विषै जिनधर्म की प्रवति पाईए है । "2
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हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसंधान प्रकाशन, आचार्य नगर कानपुर, पृ० 2. पंडित टोडरमल, व्यक्तित्व और कृतृत्व, परिशिष्ट 1, प्रकाशक : पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4
बापूनगर, जयपुर ।
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