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________________ इतिहास में केवल कर्म सिद्धांत में ही निहित हैं। इसमें से फलित ज्योतिष आदि का विकास स्वाभाविक है ।25 महत्त्व तब सिद्ध होता है, जब कि वह आधुनिक सिद्धान्तों की समस्याओं को हल करने में योगदान देकर नवीन फलित को निकालने का पथ-प्रदर्शन कर सके । विज्ञान-विकास सम्बन्धी शोध दिशा : कर्म सिद्धान्त में सन्निहित तत्त्वों में निम्नलिखित प्रमुख धारणाओं का सन्निवेष है : 1. अनन्तों या अनन्त राशियों का पूर्णांकों पर आधारित, धारा ज्ञान से उपधारित, अल्पबहत्वादि अनेक राशि सम्बन्धी सिद्धान्त 128 जिस प्रकार आज के विज्ञान का आधार राशिसिद्धान्त है, उसी प्रकार कर्म विज्ञान का आधारभूत गणित राशि-सैद्धान्तिक है। सिकदार द्वारा परमाणु सिद्धान्त पर विस्तृत शोध प्रबन्ध तथा अनेक शोध लेख प्रस्तुत किये गये हैं जिनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिया गया है। वास्तव में कर्म सिद्धान्त का एक आधार परमाण सिद्धान्त है। कर्म सिद्धान्त एक-स्त्री तथा संगत सिद्धान्त के रूप में अनेक उपधारणाओं (Postulates) तथा परिकल्पनाओं (Hypothesis) का आधार लेकर निर्मित किया गया। यह प्रिसपिल थ्योरी के रूप में विकसित हआ न कि कन्सट्रक्टिव थ्योरी के रूप में 126 2. समय की अविभाज्यता के आधार पर महत्तम एवं लघुत्तम प्रवेग की अवधारणा, जिससे काल और क्षेत्र के क्वांटम का प्रादुर्भाव 120 3. पुद्गल परमाणु की अविभाज्यता तथा उनकी राशि की यथार्थ गणात्मक उपधारणा। यह राशि जीव राशि से अनन्त गुनी है। 4. पुद्गल परमाणु का अनन्त पुद्गल परमाणुओं के साथ एक ही प्रदेश में अवगाहन । अभी तक जो विज्ञान सम्बन्धी अध्ययन जी. आर. जैन, एवं कोल जे. एफ. आदि द्वारा हुए हैं उनसे स्थिति आशाजनक तो प्रतीत होती है । घटनाओं का इस प्रकार का आंशिक समाधान ही किसी सिद्धान्त को संगत सिद्ध नहीं कर सकता है। अपितु सिद्धान्त का 5. द्रव्यों तथा उनके गुण पर्यायों का एक-दूसरे के गुण पर्यायों में अन्योन्याभाव एवं अत्यन्ता 25. ज्योतिष सम्बन्धी चीन में उपलब्ध सामग्री हेतु देखिये, 11, भाग 3 । मिश्र, यूनान तथा बेबिलन आदि में प्राप्त सामग्री हेतु देखिये Neugebauer, O., The Exact Sciences in Antiquity, Providence. 1957 । कर्म सिद्धान्त में फलित ज्योतिष संवाद के रूप में स्वभावतः उपस्थित हो जाता है। आय, व्यय, पुण्य, पाप आदि भावों का सत्त्व, आस्रव निर्जरा से सम्बन्ध अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। 26. इन सिद्धान्तों का विवेचन डा. आइन्स्टाईन ने The London Times, Nov. 28, 1919 में दिया था। 27. Jain, G. R., Cosmology, Old and New, Lucknow 1942, Kohl, J. F., Physikalische und Biologische Weltbild der Indischen Jaina Sekte, Aligang, 1956. 28. धाराओं से सम्बन्धित एक लेख शीघ्र प्रकाशित होने वाला है -Jain, L.C., Divergent Seque nces Locating Transfinite Sets in Trilokasara (I.J. H. S. Calcutta) 29. देखिये Jain, L. C., Mathematical Foundations of Jaina Karma System, Bhagwan Mahavira and his relevance in modern times, Bikaner, 1976, pp. 132-150. २८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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