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सूफी सन्त अबुल अली ने एक प्रसंग में लिखा है - " कसाई को छुरी चलाते देख बकरी ने कहा- हरी घास खाने पर मुझे यह सजा मिल रही है, तब मेरा माँस खानेवाले कसाई का क्या हाल होगा ।" कबीरदास कहते हैं
माँस अहारी मानवा, परतछ राक्षम अंग । तिनकी संगत मत करो, परत भजन में भंग ॥ जोरि कर जिबह करें, कहत करें हलाल । जब दफ्तर देखेगा दई, तब होगा कौन हवाल ॥
प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात, चाणक्य, जरयुक्त, पाइथागोरस, अफलातून (प्लेटो ), तिरककुरल, स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वामी विवेकानन्द आदि ने शाकाहार का प्रबल समर्थन किया है । सम्राट अकबर ने तो बड़े ही कड़े शब्दों में कहा है- मेरे लिये कितने सुख की बात होती यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि माँसाहारी लोग केवल मेरे शरीर को ही खाकर सन्तुष्ट हो जाते, ताकि वे फिर दूसरों को मारकर न खाते । " विश्व के सभी प्रमुख साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, विचारकों ने भी इस पक्ष में अपने सशक्त मत व्यक्त किये हैं । टालस्टाय ने कहा है- "माँस खाने से पाशविक प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और मदिरा पीने की इच्छा होती है । इन सब बातों के प्रमाण सच्चे शुद्ध और सदाचारी नवयुवक हैं । विशेषकर स्त्रियाँ और जवान लड़कियाँ हैं जो इस बात को साफ-साफ कहती हैं कि माँस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य पाशविक प्रवृतियाँ आप ही आप प्रबल हो जाती हैं। माँस खाकर सदाचारी बनना असंभव है ।" चार्ल्स डारविन ने लिखा है - "प्राचीन काल में मनुष्य भारी संख्या में शाकाहारी ही थे । (Descent of Man, P. 156 ) और मैं विस्मित हूँ कि ऐसे असाधारण मजदूर मेरे देखने में कभी नहीं आए. जैसे कि चिली की खानों में काम करते हैं । वे बड़े दृढ़, बलवान हैं और वे सब शाकाहारी हैं । इनके अतिरिक्त
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अलवर्ट आईंस्टीन, हमवोल्ट, ई. एल. प्रेट, मि. होरेस ग्रीले, प्रो. जोहेनरे, ए. ई. वेरिस, रवीन्द्रनाथ टैगोर, जार्ज बर्नाड शा, काका कालेलकर आदि अनेक विद्वानों ने भी शाकाहार का प्रबल समर्थन किया है ।
बीसवीं सदी में अहिंसक वैचारिक क्रान्ति के उन्नायक महानतम दार्शनिक राजनीतिज्ञ एवं सन्त महात्मा गांधी तो न केवल इसके प्रबल समर्थक ही थे, वरन् इसके प्रचारक भी थे। शाकाहार उनके गांधीवादी जीवन-दर्शन का प्रमुख अंग है। उन्होंने लिखा --- "डॉक्टर किंग्सफोर्ड और हेग ने माँस की खुराक से शरीर पर होनेवाले बुरे असर को बहुत ही स्पष्ट रूप से बतलाया है । इन दोनों ने यह बात साबित कर दी है कि दाल खाने से जो एसिड पैदा होता है, बही एसिड माँस खाने से बनता या पैदा होता है । माँस खाने से दांतों को हानि पहुँचती है, संधिवात हो जाता है । यहीं तक बस नहीं, इसके खाने से मनुष्यों में क्रोध उत्पन्न होता है । हमारी आरोग्यता की व्याख्या के अनुसार क्रोधी मनुष्य निरोग नहीं कहा जा सकता । केवल माँस-भोजियों के भोजन पर विचार करने की जरूरत नहीं, उनकी दशा ऐसी अधम है कि उसका स्वालकर हम माँस खाना कभी पसन्द नहीं कर सकते । माँसाहारी कभी निरोग नहीं कहे जा सकते ।"
सामाजिक पक्ष
सामाजिक दृष्टि से यदि हम मानवीय आहार का मूल्यांकन करें तो भी शाकाहार का पक्ष अत्याधिक प्रबल है । असामाजिक तथा आपराधिक तत्वों के सम्बन्ध में किये गए विभिन्न सामाजिक अनुधानों से जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे स्पष्ट है कि युद्ध, कलह, रक्तपात, हिंसा एवं अन्य भीषण अपराध माँसाहारियों में ही अधिक पाए जाते हैं। माँसाहार और मद्यपान का भी घनिष्ट सम्बन्ध है । सामान्यतः माँसाहारी मद्यपान की ओर प्रेरित होते हैं । इन दोनों के संयोग से यौन इच्छाएँ उग्र होने के कारण ये लोग यौन अपराधों में
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