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सूर गुरू महिमा का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि हरि और गुरु एक ही स्वरूप हैं और गुरू के प्रसन्न होने से हरि प्रसन्न होते हैं। गुरू के बिना सच्ची कृपा करनेवाला कौन है ? गुरू भवसागर में डूबते हुए को बचानेवाला ओर सत्पथ का दीपक है ।" सहजोबाई मी कबीर के समान गुरू को भगवान से भी बड़ा मानती हैं।" दादू लौकिक गुरू को उपलक्ष्य मात्र मानकर असली गुरु भगवान को मानते हैं मानक भी कबीर के समान गुरू की ही बलिहारी मानते हैं जिसने ईश्वर को दिला दिया अन्यथा गोविन्द का मिलना कठिन था | सुन्दरदास भी "गुरूदेव बिना नहीं मारग सूझय" कहकर इसी तथ्य को प्रकट करते हैं ।" तुलसी ने भी मोह भ्रम दूर होने और राम के रहस्य को प्राप्त करने में गुरू को ही कारण माना है। रामचरित मानस के प्रारम्भ में ही गुरू वन्दना करके उसे मनुष्य के रूप में करुणासिन्धु भगवान माना है। गुरू का उपदेश अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए अनेक सूर्यो के समान है -
बंदऊँ गुरुपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु वचन रवि कर निकर ॥23
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22. सुन्दरदास ग्रन्थावली, प्रथम खण्ड, पृ. 8
23. रामचरितमानस, बालकाण्ड 1-5
18. सूरसागर, पद 416-417; सूर और उनका साहित्य,
19. परमेसुर से गुरू बड़े गावत वेद पुरान संतसुधासार पृ. 182.
20. आचार्य क्षितिमोहन सेन दादू और उनकी धर्म साधना, पाटल सन्त विशेषांक भाग 1, पृ. 112.
21. बलिहारी गुरु आपण्य यो हाड़ी के बार।
जिनि मानिषतें देवता करत न लागी बार। गुरु ग्रंथ साहिब, म 1, आसादीवार, पू-1
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कबीर के समान ही तुलसी ने भी संसार सागर को पार करने के लिए गुरू की स्थिति अनिवार्य मानी है। साक्षात् ब्रह्मा और विष्णु के समान भी, बिना गुरु के संसार से मुक्त नहीं हो सकता 124 सदगुरू ही एक ऐसा कर्णधार है जो जीव के दुर्लभ कामों को भी सुलभ कर देता है
करनघार सदगुरू दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।
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मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी गुरू को इससे कम महत्व नहीं दिया। उन्होंने तो गुरू को वही स्थान दिया है जो अहंत को दिया है। पंच परमेष्ठियों में सिद्ध को देव माना और शेष चारों को गुरू रूप स्वीकारा है | ये सभी ' दुरित हरन दुखदारिद दोन" के कारण है। कवीरादि के समान कुशललाभ ने शाश्वत सुख की उपलब्धि को गुरू का प्रसाद कहा है - - " श्री गुरु पाव प्रसाद सदा सुख सपंजइ २०० रूपचन्द ने भी यही माना" बनारसी दास ने सदगुरू के उपदेश को मेघ की उपमा दी है जो सब जीवों
24. गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई भी विरंचि संकर सम होई ।
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बिन गुरु होहि कि ज्ञान-ज्ञान कि होई विराग बिनु रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, 93. 25. वही, उत्तरकाण्ड, 43/4.
26. बनारसी विलास, पंचपद विधान 1 10. पृ. 162-163.
27. हिन्दी जंन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117.
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