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भ्रातत्व, दया, प्रेम और आत्म-कल्याण के सन्देश से सर्वतोमुखी था। कैवल्य प्राप्ति होते ही वे अपने आप प्रभावित हआ, और एक नवीन समाज की रचना को एकान्त से हटाकर समाज में ले आए। वे बैठे सम्भव हुई।
नहीं, निरन्तर चलते ही गए। उन्होंने जो कुछ भी तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के ढाई हजार वर्ष
अजित किया सब में वाँट दिया। यही नहीं, उन्होंने
ग्रहण करनेवालों से भी दो टक बात कही, कि--"जो पश्चात्, आज भी जब हम उनके जीवन और दर्शन पर ।
कुछ भी मैं कहता हूँ, उसे ही प्रमाण रूप या आज्ञा से मान्य दृष्टिपात करते हैं, तो आज भी हमें उसमें आशा और
तब तक न करो, जब तक तुम्हें स्वयं आभास या ज्ञान न विश्वास की वैसी ही किरण परिलक्षित होती है, जो
हो जाय कि यह सत्य है।" उनका यह विशाल उनके समकालीन मानव समाज को उनसे प्राप्त हुई।
दृष्टिकोण उनके चिन्तन की व्यापकता और वैज्ञानिकता होगी । अणु आयुधों के कगार पर बैठी तथा पारस्परिक
को सिद्ध करता है। बैर और वैमनस्य से विचलित विश्व मानवता आज भी तीर्थकर महावीर के अहिंसा दर्शन से अहिंसा और ईश्वरवाद और अवतारवाद की पूर्वमान्य विश्वशान्ति पर आधारित मानवतावादी समाज की धारणाओं की लीक से हटकर उन्होंने आज्ञा प्रधान के रचना की सुमति प्राप्त कर सकती है । उनका दर्शन स्थान पर परीक्षा या विवेक प्रधान दर्शन प्रदान किया; आज भी मानवमात्र की हित-साधना में उतना ही और जातिवाद, वर्णभेद, विषमता, व धर्म, के नाम पर सक्षम है।
हिंसा का खण्डन किया तथा दलितों एवं पीड़ितों के तीर्थकर महावीर ने कहा था कि सच्ची वीरता प्रति उदारता का सन्देश दिया। आध्यात्मिक विकास अपने पर विजय प्राप्त करने में है, किसी अन्य पर के चरम शिखर पर पहुंचकर वर्तमान महावीर ने
मकान में नही विजयी वही होता है. आत्मविजय की सहायता से, तैरकर सांसारिक सागर जो आत्म विजय करता है। उन्होंने अपने जीवन में के पार करने, का सन्देश देकर "नवीन धर्म तीर्थ' अर्थात समाज दर्शन को एक नवीन दिशा ही नहीं दी, वरन
"तैराकर पार उतारनेवाले धर्म" की स्थापना की। इसी जो कुछ कहा उसकी सार्थकता भी सिद्ध की। एक कारण वर्द्धमान महावीर; तीर्थकर, अर्थात तीर्थ की क्षत्रिय राज परिवार में जन्मे वर्द्धमान ने अपने त्याग, स्थापना करने वाले कहलाए । तप और साधना के माध्यम से स्वयं पर विजय प्राप्त
नवीन मानवीय मूल्यों की स्थापना कर तीर्थकर की। राग-द्वेष को नष्ट कर वे आत्मविजेता बने और
महावीर ने धर्मतीर्थ की स्थापना के साथ-साथ "जिन" अर्थात स्वयं को जीतनेवाले कहलाए। उन्होंने
वैचारिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्रान्ति को जन्म अपने आत्मज्ञान से जो कुछ अजित किया,
दिया और इनके मूलभूत सामाजिक मूल्य के रूप में वह सब में बराबर बाँट दिया। उनके पंचव्रत--
उन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह, तथा अनेकान्त और स्याद्वाद अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह;
को ग्रहण किया। इनमें अहिंसा दर्शन तीर्थ कर महावीर समस्त मानव समाज के लिये उपयोगी हैं ।
के जीवन-दर्शन की आत्मा; अपरिग्रह हाथ-पैर; उन्होंने जो कुछ भी विचारा और अनुभव किया, अनेकान्त मस्तिष्क एवं नेत्रः तथा स्याद्वाद मुख हैं। उसकी सत्यता का स्वयं पर परीक्षण किया। परीक्षण में जो खरा उतरा उसे अर्जित किया। अहिंसा के बिना उनका दर्शन एक क्षण भी खड़ा समस्या उत्पन्न हई तो समस्या निदान हेतु प्रयोग नहीं रह सकता । अहिंसा मानव जाति को उनकी शाला के रूप में तप किया। उनका सम्पूर्ण जीवन अमूल्य देन है। जिस पर उन्होंने सब से अधिक बल
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