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________________ पूजा की जाती है, दुर्भाग्य से उन्हें कोई पढ़ता नहीं है, केवल नयचन्द्र की साक्षी के आधार पर यह न उनकी सूचियां बनी हैं। जिस दिन यह कार्य सम्पन्न मानना कठिन है कि शाङ्गधर जयसिंह सूरि से शास्त्रार्थ हो सकेगा, इस क्षेत्र के जैन धर्म के विकास के इतिहास में पराजित हुए थे, परन्तु यह सुनिश्चित है कि तोमरको सजीव रूप दिया जा सकेगा। राजसभा सूरिजी की ज्ञान गरिमा से बहुत अधिक प्रभावित हुई और ग्वालियर में जैन धर्म के अद्वितीय सन् 1394 ई. में ग्वालियर के तोमर राज्य की विकास का सूत्रपात हुआ। स्थापना के साथ ही इस क्षेत्र के इतिहास पटल पर से अन्धकार का पर्दा हट जाता है । राजनीतिक एवं वीरसिंहदेव के पश्चात् उनके युवराज उद्धरणदेव सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ जैनधर्म के विकास (सन 1400-1402 ई.) राजा बने। उनके छोटे-से का इतिहास भी अत्यंत सजीव रूप से प्रत्यक्ष होने राज्यकाल की कोई घटना ज्ञात नहीं हो सकी है। जैन लगता है। जैन मूर्तियों के शिलालेख और जैन मुनियों धर्म के विकास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण उद्धरणदेव एवं जैन पण्डितों की रचनाएँ बहुत विस्तृत और अत्रुट के युवराज वीरमदेव (सन् 1402 ---1423 ई.) का जानकारी प्रस्तुत करती हैं । उनके आधार पर ग्वालियर राज्यकाल है । क्षेत्र का और साथ ही जैन धर्म के विकास का इतिहास बहुत विस्तार के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। वीरमदेव स्वयं अम्बिकादेवी और शिव के भक्त थे। साथ ही वे जैन धर्म को भी प्रश्रय देते थे। उनका ग्वालियर के तोमर राज्य के संस्थापक वीरसिंहदेव प्रधान मंत्री कुशराज जैन था । (सन् 1375-1400 ई.) शिव और शक्ति के उपासक थे। वि. सं. 1439 (सन् 1382 ई.) में उन्होंने वीर- वीरम तोमर के समय में ग्वालियर में जैन धर्म का सिंहावलोक नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की थी। वे प्रभाव अपने विशिष्ट रूप में दिखाई देता है। देश के ज्योतिष, धर्मशास्त्र एवं वेदों के प्रकाण्ड पण्डित थे। अन्य भागों में उस समय हिन्दू और जैन आपस में उनके द्वारा दुर्गामक्ति तरंगिणी की भी रचना की गई पर्याप्त भेदभाव मानने लगे थे और दो नटखट भाइयों थी। परन्तु साथ ही वे जैन धर्म के प्रति भी अनूदार के समान दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुनहीं थे। उनके समय में श्रीकृष्णगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य यायी भी आपस में झगड़ते थे। परन्तु यह मनमुटाव श्री जयसिंह सूरि ग्वालियर आए थे। वीरसिंहदेव के केवल ऊपरी था। वह जो हो, वीरमदेव के समय में सभापण्डित शाई गधर तथा जयसिंह सूरि के बीच ग्वालियर में कुछ और प्रकार का दृश्य दिखाई देता है। शास्त्रार्थ भी हुआ था। उस शास्त्रार्थ का विवरण यहाँ का राजा शिव-शक्ति का अनन्य उपासक और मंत्री जयसिंह सूरि के शिष्य नयचन्द्र सूरि ने अपने हम्मीर अत्यन्त धर्मपरायण जैन था । परन्तु दोनों के निजी धर्म महाकाव्य में दिया है । नयचन्द्र सूरि ने लिखा है, एक-दूसरे के पूरक दिखाई देते हैं । उस समय ग्वालियर "सूरियों के इस चक्र के क्रम में, जिनके चरित विस्मय के जैन पट्ट के भट्टारक थे गुणकीति ( सन् 1411के आवास थे, श्री जयसिंह सूरि हुए, जो विद्वानों में 1429 ई.) । भट्टारक गुणकीर्ति ने जैन काव्य यशोधर चूडामणि थे, उनके द्वारा सारंग को वादविवाद में चरित लिखाया अजंन कवि पदमनाथ कायस्थ से । यद्यपि पराजित किया गया। यह सारंग उन कवियों में श्रेष्ठ उसी समय वीरमदेव की राजसभा में नयचन्द्र सरि जैसे था जो षड्भाषा में कविता कर सकते थे, तथा वह महाकवि भी थे, तथापि उन्होंने जैन चरित न लिखकर प्रामाणिकों (न्याय शास्त्रियों) में अग्रणी था।" हम्मीर महाकाव्य तथा रम्मा मंजरी लिखे, अर्थात जैन ३३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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