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से लेकर ईसवी बारहवीं शती तक के दीर्घकाल में मथुरा भूमि पर पत्थर और ईटों द्वारा किया जाता था। में जैन धर्म का विकास होता रहा । यहाँ के चित्तीदार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गजरात, बंगाल और मध्यप्रदेश लाल बलुए पत्थर की बनी हुई कई हजार जैन कला- मे समतल भूमि पर बनाए गए जैन मंदिरों की संख्या कृतियाँ अब तक मथुरा और उसके आसपास के जिलों बहुत बड़ी है । कभी-कभी ये मंदिर जैन स्तूपों के साथ से प्राप्त हो चुकी हैं। उनमें तीर्थ कर आदि प्रतिमाओं बनाए जाते थे । के अतिरिक्त चौकोर आयागपट्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन पर प्रायः बीच में तीर्थकर मूर्ति तथा जैन स्तूपों के संबंध में प्रचुर साहित्यिक तथा उसके चारों ओर विविध प्रकार के मनोहर अलंकरण अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं। उनसे ज्ञात होता है मिलते हैं। स्वस्तिक, नन्दयावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, अनेक प्राचीन स्थलों पर उनका निर्माण हुआ। मथूरा, भद्रासन, दर्पण, कलश और मीन युगल-इन अष्टमंगल कौशांबी आदि कई स्थानों में प्राचीन जैन स्तूपों के भी द्रव्यों का आयागपट्टों पर सुन्दरता के साथ चित्रण अवशेष मिले हैं। उनसे यह बात स्पष्ट है कि इन किया गया है। एक आयागपतृ पर क्षाठ दिवकुमारियाँ स्तूपों का निर्माण ईसवी पूर्व दूसरी शती से व्यवस्थित एक-दूसरे का हाथ पकड़े हए आकर्षक ढंग से मंडल रूप में होने लगा था। प्रारंभिक स्तूप अर्घवृत्ताकार नृत्य में संलग्न दिखाई गई हैं। मण्डल या 'चक्रवाल' होते थे। उनके चारों ओर पत्थर का बाड़ा बनाया अभिनय का उल्लेख 'रायपलेनिय सत्र' नामक जैन नथ जाता था । उसे 'वेदिका' कहते थे। वेदिका के स्तंभों में भी मिलता है । एक दूसरे आयागपट्ट पर तोरण द्वार
पर आकर्षक मुद्राओं में स्त्रियों की मूर्तियों को विशेष तथा वेदिका का अत्यन्त सुन्दर अंकन है। वास्तव में रूप से अंकित करना प्रशस्त माना जाता था। गप्त ये आयागपट्र प्राचीन जैन कला के उत्कृष्ट उदाहरण काल से जैन स्तूपों का आकार लंबोतरा होता गया। हैं। इनमें से अधिकांश अभिलिखित हैं, जिन पर बौद्ध स्तूपों की तरह जैन स्तुप भी परवर्ती काल में ब्राह्मीलिपि में लगभग ई. प. एक सौ से लेकर ईसवी अधिक ऊँचे आकार के बनाए जाने लगे। प्रथम शती के मध्य तक के लेख हैं। मथुरा की जैन
मध्य काल में जैन मंदिरों का निर्माण व्यापक रूप कला का प्रभाव मध्यप्रदेश में विदिशा, तुमैन आदि स्थानों की कला पर पड़ा।
में होने लगा । भारत के सभी भागों में विविध
प्रतिमाओं से अलंकृत जैन मंदिरों का निर्माण हआ। पश्चिमी भारत, मध्य भारत तथा दक्षिण में पर्वतों इस कार्य में विभिन्न राजवंशों के अतिरिक्त व्यापारी को काटकर जैन देवालय बनाने की परंपरा दीर्घकाल वर्ग तथा जन-साधारण ने भी प्रभूत योग दिया। तक मिलती है। विदिशा के समीप उदयगिरि की पहाड़ी में दो जैन गुफाएँ हैं । वहाँ संख्या एक की गुफा च
चन्देलों के समय में खजराहो में निर्मित जैन मंदिर में गुप्तकालीन जैन मन्दिर के अवशेष उपलब्ध हैं। प्रसिद्ध है । इन मादरा के बाहभाग खजुराहा का उदयगिरि की संख्या 20 वाली गुफा भी जैन मंदिर
विशिष्ट शैली में उकेरे गए हैं। मंदिरों के बाहरी भागो है। उसमें गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के समय में
पर समानांतर अलंकरण पद्रिकाएँ उत्खचित हैं। उनमें निर्मित कलापूर्ण तीर्थ कर प्रतिमा मिली है।
देवी-देवताओं तथा मानव और प्रकृतिजगत को अत्यन्त
सजीवता के साथ आलेखित किया गया है । खजुराहो जैन मंदिर-स्थापत्य का दूसरा रूप भूमिज मन्दिरों के जैन मंदिरों में पार्श्वनाथ मंदिर अत्यधिक विशाल है। में मिलता है। इन मंदिरों का निर्माण प्राय: समतल उसकी ऊंचाई 68 फुट है। मंदिर के भीतर का भाग
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