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जैन मूर्तिशास्त्र
(मध्यप्रदेश की जैन मूर्तिकला के सन्दर्भ में)
भारतीय स्थापत्य या भवन निर्माण कला का परंपरा विकसित हुई । उड़ीसा के भुवनेश्वर के समीप कई ऐतिहासिक विवेचन करने से ज्ञात होता है कि जैन बडी गुफाएँ पत्थर की चट्टानों को काटकर बनायी गयीं। देवालयों का निर्माण मौर्य-शासनकाल में होने लगा था। वहाँ खण्डगिरि तथा उदयगिरि नामक जैन गुफाऐं बहुत बिहार में गया के समीप बराबर नामक पर्वत गफाओं में प्रसिद्ध हैं। तीसरी गुफा का नाम हाथीगफा है। उसमें कई शिलालेख मिले हैं। उनसे ज्ञात हआ है कि मौर्य कलिग के जैन शासक खारवेल का एक शिलालेख खदा सम्राट अशोक ने आजीविक नामक एक संप्रदाय के हुआ है । लेख से ज्ञात हुआ है कि ईसवी पूर्ब चौथी सन्यासियों के निवास के लिए पहाड़ की चट्टानों को शती में मगध के राजा महापद्मनन्द तीर्थ कर की एक काटकर शैल-गहों का निर्माण कराया। उसके वंशज मूति कलिंग से अपनी राजधानी पाटिलपत्र उठा ले गए दशरथ नामक शासक ने भी इस कार्य को आगे
थे। खारवेल ईसवी पूर्व दूसरी शती के मध्य में उस बढाया। आजीविक संप्रदाय के प्रारंभकर्ता आचार्य को प्रतिमा को मगध से अपने राज्य में लौटा लाए और तीर्थकर महावीर का समकालीन माना जाता है। उसे उन्होंने अपने मुख्य नगर में प्रतिष्ठापित किया । बराबर की पहाड़ी से कुछ दूर नागार्जुनी नामक पहाड़ी है। वहाँ भी मौर्यकाल में साधूओं के निवास के लिए कई
प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी शैल-गृह बनवाए गए। भारतीय साहित्य में पर्णशालाओं के उल्लेख मिलते हैं। भूमि में मोटी लकड़ी इस शिलालेख से पता चलता है कि तीर्थ कर मतियों के बडे टुकड़ों को गाडकर उन पर पत्ते छा दिए जाते का निर्माण नन्दराज महापद्मनन्द के कुछ पहले प्रारम्भ थे । इस प्रकार पत्ते की कुटियाँ या पर्णशालाएँ बनायी हो चुका था। जैन साहित्यिक अनुश्र ति से भी पता जाती थीं । उन्हीं के ढंग पर शैल-गृहों का निर्माण चलता है कि चन्दन की तीर्थ कर मूर्तियाँ भगवान किया गया। जैन साधुओं के लिए शैल-गृह बनाने के महावीर के समय से या उनके निर्वाण के पश्चात ही कई उदाहरण तामिलनाडु में भी मिले हैं।
बनने ली थी।
ईसवी पूर्व दूसरी और पहली शती में उड़ीसा तथा पश्चिमी भारत में पर्वतों को काटकर देवालय बनाने की
उत्तर भारत में जैन कला के जितने केन्द्र थे उनमें मथुरा का स्थान महत्वपूर्ण है । ईसवी पूर्व दूसरी शती
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