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लोभ
कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो।
क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है माया मैत्री को नष्ट करती है, और लोभ सब कुछ नष्ट करता है।
उबसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे। मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥
क्षमा से क्रोध का हनन करें, मार्दव से मन को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतें ।
विनय
बिणओ मोक्खद्दार, विणयादो संजमो तवो णाणं
विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम तप और ज्ञान प्राप्त होता है।
ब्रह्मचर्यसील मोक्खस्स सोपाणं।
ब्रह्मचर्य मोक्ष की सीढ़ी है।
श्रमण
समणो त्ति संजदो त्रि थ, रिसि मुणि साधु त्ति वीदरागो ति। श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अवणामाणि सुविहिदाणं, अणगार भदत द'तो ति ।। गार, भदन्त, दान्त-ये सब शास्त्र-विहित आचरण करने
वालों के नाम हैं।
श्रमण धर्मदसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा खंती, मुत्ती, अज्जवे, महवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, वंभचेखाऐ।
श्रमणधर्म दस प्रकार का है. यथा (1) क्षमा (2) निर्लोभता (3) सरलता (4) मृदुता (5) लघुता, (6) सत्य, (7) संयम, (8) तप, (9) त्याग, (10) ब्रह्मचर्य।
संतनिम्ममो निरहंकारी निस्संगो चत्तमारवो । समो य सम्वभूएस, तऐK थावरेसु यं॥
संत,ममता रहित, अहंकार से मुक्त, सब प्रकार की आसक्ति (संग) से दूर, गौरव (मद) का त्याग कर त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों के प्रति समदष्टि रखता
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