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की संख्या कम नहीं है। कभी है तो उनके स्वाध्यायियों और उपासकों की है । इस संख्या को बढ़ाने की ओर ध्यान देना अतीव आवश्यक है। भगवान की मूर्तियां, एक एक मन्दिर में अनेक है। देव दर्शन के नियमों का पालन करने में अपनी धर्म प्रवृत्ति लगाओ। धर्म और जीवन को एकाकार करो मत समझो कि मन्दिर से लौटने पर मूर्ति आँखों से परोक्ष हो गई । भावचक्षुओं में उसे अहर्निश विराजमान रखो। दश दिनों में दश
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लक्षण पर्वो को समर्पित मत करो। प्रत्येक दिन अहिंसा का है, क्षमावाणी का है । जब तक धर्म की इस दार्शनिक व्याख्या हृदयंगम नहीं करोगे, धर्म जीवन का अंग बनेगा । अग्नि और उसका दाहकत्व, पानी और उसका शीतत्व, अग्नि से पृथक् होकर नहीं रहता। धर्म और धर्मी एक नीड होकर रहते हैं। श्रमण संस्कृति की सुरक्षा के लिए यह स्मरण रखना आवश्यक है ।
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