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________________ में में मटटारक गादियाँ स्थापित होने लगीं । राजस्थान में चित्तौड़, चम्पावती तक्षकगढ़, आमेर, सांगानेर, जयपुर, श्री महावीर जी, अजमेर, नागौर, जौवनेर, मध्यप्रदेश में ग्वालियर एव सोनागिरि जी, बागड़प्रदेश में डंगरपुर, सागवाड़ा, बासवाड़ा एवं रिषभदेव, गुजरात में नवसारी, सूरत, खम्भात, धोधा, गिरनगर, महाराष्ट्र कारंजा एवं नागपुर, दक्षिण में मूड़विद्री, हुम्मच एवं श्रवण बेलगोला आदि स्थानों में भट्टारकों की गादियाँ स्थापित हो गयीं । इन भट्टारकों ने अपने-अपने गण संघ व गच्छ स्थापित कर लिए। अपने प्रभाव से क्षेत्र बट लिए और अपनी-अपनी सीमाओं में धर्म के एकमात्र स्तम्भ बन गये । 16वीं शताब्दी में देहली गादी के भट्टारकों ने अपने ही अधीन मंडलाचार्य पद बनाये जो भट्टारकों की ओर से प्रतिष्ठा, पूजा एवं समारोह आदि का नेतृत्व करने लगे । इन भट्टारकों ने जैन साहित्य और संस्कृति के विकास में अपना महत्वपूर्ण योग दिया । 1350 से 1850 तक भट्टारक ही आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि रूप में जनता द्वारा पूजे जाते रहे तथा जैन संस्कृति के प्रधान स्तम्भ रहे। इन 500 वर्षों में जितने भी : प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुए उनमें इनकी प्रेरणा एवं आशीर्वाद ने जबरदस्त कार्य किया । संवत् 1548, 1664, 1783, एवं 1826 में देश में विशाल प्रतिष्ठा समारोह आयोजित हुए, इन सब में भट्टारकों का बोल बाला रहा। हजारों मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित होकर देश के विभिन्न मन्दिरों में विराजमान की गई। उत्तर भारत के. अधिकांश जैन मन्दिरों में आज इन संवतों में प्रतिष्ठापित मृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। आज सारा बागड़प्रदेश 'मालवा' कोटा दी एवं झालावाड़ का प्रदेश, चम्पावती, टोड़ाराम सिंह एवं रणथम्भौर का क्षेत्र जितना जैन पुरातत्व से समृद्ध है उतना देश का अन्य क्षेत्र नहीं । संवत् 1548 में भट्टारक जिनचन्द्र ने मुंडासा नगर में हजारों मुर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर सारे देश में जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में विशेष योग दिया। देश के Jain Education International गाँव-गाँव में मन्दिरों का निर्माण हुआ जिसमें संस्कृति ही पुनर्जीवित नहीं हुई अपितु मूर्तिकला, स्थापत्यकला आदि कलाओं को भी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ । 1664 में मोजमाबाद ( राजस्थान) में तीन शिखरोंवाले मन्दिर के जीर्णोद्वार के पश्चात् जो विशाल प्रतिष्ठा हुई थी उसे तो बादशाह अकबर एवं आमेर के महाराज मानसिंह का भी आशीर्वाद प्राप्त था । करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया गया : इसी तरह 1826 में सवाई माधोपुर के भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति के तत्वाधान व प्रेरणा से जो अभूतपूर्व प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुआ संभवतः वह अपने ढंग का पहला महोत्सव था । राजस्थान में आज कोई ऐसा मन्दिर नहीं है जिसमें 1826 में प्रतिष्ठापित मूर्ति न हो । जयपुर, सागवाड़ा, चांदखेड़ी, झालरापाटन में जो विशाल एवं कलापूर्ण मूत्तियाँ हैं उन सबकी प्रतिष्ठा में इन भट्टारकों का प्रमुख हाथ था । जब इन भट्टारकों की कीर्ति अपनी चरम सीमा पर पहुंचने लगी तो इनकी निशेधिकाएँ व कीर्तिस्तम्भ बनने लगे । आवां (राजस्थान) में पहाड़ पर भट्टारक प्रभाचन्द्र, जिनचन्द्र और शुभचन्द्र की इसी तरह की तीन निषेधिकाएं हैं जो भट्टारकों में तत्कालीन जनता की श्रद्धा एवं भावना को व्यक्त करनेवाली हैं । इसी तरह चित्तौड़ किले में प्रतिष्ठापित कीर्तिस्तम्भ चाकसू में बनवाया गया जिसमें भट्टारकों की मूर्तियों के अतिरिक्त उनके होने का भी समय दिया हुआ है । इसी तरह का कीर्तिस्तम्भ आमेर के बाहर की बस्ती में स्थापित किया हुआ है । ये सब कीर्तिस्तम्भ भट्टारकों के उत्कर्ष के तो प्रमाण हैं ही किन्तु उनके द्वारा सम्पा दित सांस्कृतिक सेवाओं को भी घोषित करनेवाले हैं। जयपुर के काला छावड़ा के मन्दिर में पार्श्वनाथ की एक धातु की मूर्ति है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् 1413 में वैशाख सुदी 6 के दिन हुई थी। इसमें भट्टारक प्रभाचन्द्र का उल्लेख हुआ है। इसी तरह ओवा तथा २३२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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