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ताड़पत्रों पर निर्मित चित्रों में देखने को मिलता है जहाँ बारीक रेखाओं द्वारा अल्प स्थान में ही निर्मित चित्रों में कलाकारों ने अपनी प्रतिभा एवं कौशल का पूर्ण प्रदर्शन किया है। जैन शैली के चित्रों में नेत्रों की बनावट पर विशेष ध्यान दिया गया है । ताङपत्रों पर अंकित सूक्ष्म रेखाऐं इतनी सार्थक हैं कि उनके कारण चित्र में पूर्ण सजीवता प्रतीत होती है जिन्हें देखकर कोई भी कलाकार इनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता । जैन पोथियों के बाहर सुरक्षा के लिए बँधी लकड़ियों की तख्तियों पर भी सुन्दर चित्रकारी देखने को मिलती है । जैसलमेर के जैन मन्दिरों में ऐसी जितनी भी लकड़ी को सचित्र तख्तियाँ थीं उनके चित्र लेकर उन्हें सुरक्षित रखा गया है, अन्य जैन शास्त्र भण्डारों में भी ऐसा किए जाने की आवश्यकता है ।
इस प्रकार जहाँ जैन धर्मानुयायियों ने करोड़ों रुपया व्यय कर कला का पोषण किया है वहाँ जैन मुनियों ने भी एकाग्रभाव से तन्मयतापूर्वक हजारों ग्रन्थों की प्रतिलिपि एवं स्वतन्त्र रचना कर कला की समृद्धि में महान योग दिया है । जैन ग्रन्थकारों की कृतियों में एक और विशिष्ट विशेषता देखने को मिलती है, कि अनेक कृतियों में लिखने के बीच-बीच इस ढंग से खाली स्थान छोड़ा गया है कि अपने आप छत्र, कमल, स्वस्तिक आदि उभर आते हैं । जैन चित्रकारों में जहाँ जैन परम्परा के विकास का बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है वहाँ अन्य परम्पराओं के विकास में भी कई
जैन कलाकारों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। चौदहवींपन्द्रहवीं शती में जैन कलाकारों द्वारा जहाँ " मार्कण्डेय पुराण" तथा "दुर्गा सप्तमी" जैसे जैसे वैष्णव ग्रन्थों के चित्र निर्मित किए गये हैं, वहाँ सोलहवीं सत्रहवीं शती में जहांगीर के दरबारी चित्रकारों में सालिवाहन नामक जैन चित्रकार द्वारा " आगरा का विज्ञप्ति पत्र" (1667 वि . ) तथा मतिसार चित्र " धन्नाशालिभद्रचौपई, का भी चित्रांकन किया गया । इसी प्रकार अकबर के काल में समय सुन्दर नामक जैन मुनि द्वारा "अर्थ रत्नावली" नामक एक ग्रन्थ की रचना कर बादशाह को भेंट किया गया ।
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इस प्रकार जैन धर्म के प्रति अपनी अटूट निष्ठा को स्थिर रख जैन कलाकारों ने जैन कला का जिस धैर्य, निष्ठा व विश्वास के साथ चित्रांकन किया वह विश्व में अपनी सानी नहीं रखता । राज्याश्रयों के विलासितापूर्ण वातावरण से विलग तथा धार्मिक सीमाओं से बँधे रहने के कारण जैन चित्रकला में लोक जीवन की वास्तविक अभिव्यक्ति हुई है । उसकी आकृतियों, रेखाओं और साज-सज्जा आदि सभी में लोककला का समर्थ रूप विद्यमान है उसमें वैसे ही लोक सौन्दर्य एवं लोक संस्कृति के तत्व छिपे हैं जैसे सांची और भरहुत की कृतियों में है । इसलिए लोककला का जो वास्तविक प्रतिनिधित्व जैन कला में समाहित है, वैसा न तो बौद्ध कला में दिखाई देता है और न राजपूत कला में है।"
7. भारतीय चित्रकला - वाचस्पति गरोला, पृष्ठ 143
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