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________________ धन्य-धान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्प्रहता । परिमित परिग्रहः स्यादिच्छा परिमाण नामापि । (जैन धर्मामृत चतुर्थ अध्याय) इसी प्रकार प्रत्येक श्रावक को यह जानना चाहिए कि संसार के मूल कारण आरम्भ हैं, और इन आरम्भों का मूल कारण परिग्रह है. इसलिए श्रावक को चाहिए कि वह अपने परिग्रह को दिन प्रतिदिन कम करता जात्रे । ससार मूलमारंभास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्यं परिग्रहम् ॥ जैन धर्म विश्वधर्म है और इसका प्रत्येक सिद्धांत जन-जन का हितकारी है, कल्याण कारी है मंगलकारी है । हरएक जैन साधक देव पूजा में लोक कल्याण की कामना करता है ।" तथा मानव समाज में कल्पित भेदभाव को भूल कर प्राणी मात्र के हित में अपने जीवन को समर्पित करने का संकल्प करता है । ऐसी स्थिति 6. ( जैन धर्मामृत, चतुर्थ अध्याय, 72) में दूसरों को पीड़ित कर अन्य के देय को हड़पकर दीन की कुटिया को नष्ट कर एवं जनता की हरी-भरी कामना को मिटाकर अपना महल बनाना, गुप्त गृहों को धन-धान्यादि से भरना, अपने परिवार के सदस्यों को सोने-चांदी के आभूषणों से अलंकृत करना तथा रेशमी गद्दों पर लेटकर अपनी थकान मिटाना कहाँ तक उचित ? लोक कल्याण में संलग्न हमारी माननीया प्रधान मंत्री के बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम की पूर्ण सफलता भगवान महावीर के परिग्रह में ही सन्निहित है । प्रत्येक भारतीय को इस पर विचार करना चाहिएबाँके खाइए, बैकुठ जाइए - यह एक ग्रामीण कहावत है, जिनमें जन कल्याण की भावना मुखरित हुई है । एक दूसरी कहावत है जिसका भाव है कि जो दूसरों के हाथ से छीनकर खाता है, वह नरकगामी होता है । इसलिए हमें कामनाओं को कम करके दूसरों के दुख दर्दों की चिन्ता करनी चाहिए, अन्यथा मनुष्य एवं पशु में क्या भेद है ? परिग्रह परिमाण पाँच अणुव्रतों में अंतिम है और चार व्रतों का संरक्षण करना एवं बढ़ाना इसके अधीन (क) होवे सारी प्रजा को सुख बलयुत धर्म धारी नरेशा । होवै वर्षा समं पं तिलभर न रहै ब्याधियों का अन्देशा | होबे चोरी न जारी सुसमय वरते हों न दुस्काल भारी । सारे ही देश धारें जिनवर वृषको जो सदा सौख्यकारी । (शांतिपाठ ) Jain Education International (ख) सत्त्वेषुमैत्री गुणीषु प्रमोदं । क्लिष्टेषु जोबेषु कृपादरत्वं । माध्यस्थ भाव बिपरीतवृत्तौ । सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ (सामयिक पाठ) (ग) मंत्री भाव जगत में मेरा, सव जीवों से नित्य रहे । दीन दुखी जीवों पर मेरे उर से दुर्जन-क्रूर कुमार्ग रतों पर, क्षोभ साम्य भाव रक्ख मैं उन पर ऐसी (घ) परस्परोपग्रहो जीवानाम् । ( जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत -- तत्त्वार्थ सूत्र ) करुणा स्रोत वहै । नहीं मुझको आबे । परिणति हो जाबे । (मेरी भावना) १३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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