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जीववहो अप्पवहो, जीवदय अप्पणो दया होई । ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं ।।
जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अतः आत्महितैषी (आत्मकाम) पुरुषों ने सभी तरह की जीवहिंसा का परित्याग किया
तुंग न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि ।। जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसा समं नस्थि ।
जैसे जगत में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।
हिंसा पावं ति मदो, दयापहाणो जदो धम्मो ।
हिंसा पाप है, क्योंकि दया सब धर्मों में प्रधान
तुमंसि नाम स चेव ज हतव्वं ति मनसि ।
तू जिसे मारना चाहता है (जिसको कष्ट व पीड़ा पहुंचाना चाहता है) वह अन्य कोई तेरे समान ही चेतनावाला प्राणी है, ऐसा समझ । वास्तव में वह तु
आरंभजं दुक्खमिणं ।
संसार में जितने भी दुःख हैं, वे सब आरंभज-हिंसा से उत्पन्न होते हैं।
आचार्यजह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिपए दीवो । दोवसमा आयरिया, दिपति परं च दीवेंति ।।
जैसे एकदीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं, और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं भी प्रकाशवान रहते हैं, और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
आत्मतत्वतच्चाण परम-तच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो।
सभी तत्वों में परम तत्व 'आत्म तत्व' को 'निश्चय' दृष्टि से जानो।
आत्म विजेताअप्पा बेच, दभेयम्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दंतो सूही होई, अस्सि लोए परत्थ य ।।
स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिये । अपने पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
आत्म श्रद्धाअत्थि मे आया डववाइए। ये आयावादी, लोयावादी, कम्मावादी, किरियावादी।
यह मेरी आत्मा औपपातिक है, कर्मानुसार पुनजन्म ग्रहण करती है, आत्मा के पुनर्जन्म सम्बन्धी
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