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इसी तरह एक ही समय में वस्तु एक भी है और एक का पिता और पुत्र होना परस्पर विरुद्ध जैसा अनेक भी है। पर्याय की अपेक्षा अनेक है क्योंकि वस्तु लगता है किन्तु वह अपने पिता का पूत्र और अपने पत्र प्रति समय परिणमनशील है और द्रव्य रूप से वस्तु एक का पिता है, अत: एक का पिता होने से वह सब का है। तथा एक ही समय में वस्तुभेद रूप भी और अभेद पिता या पुत्र नहीं होता। और न इन बहुत सम्बन्धों रूप भी है। द्रव्य रूप से अभेद रूप है और गुणों तथा का पुरुष के एकत्व के साथ विरोध है। इसी तरह पर्यायों के भेद से भेद रूप है। इस तरह वस्तु परस्पर अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्म भी एक वस्तु में निर्विरोध में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मात्मक होने से रहते हैं। अनेकान्तात्मक है। अन्त शब्द धर्मवाचक है। यों तो सभी दार्शनिक वस्तु में अनेक धर्म मानते है। केवल दूसरा दृष्टान्त दिया है अन्धों और हाथी का। कुछ एक ही धर्म वाली कोई वस्तु नहीं है। किन्त जन अन्ध एक ही हाथी के एक-एक अंग को स्पर्श द्वारा दर्शन अपेक्षा भेद या दृष्टि भेद से एक ही वस्तु में ऐसे
जानकर अपने जाने हुए हाथी के एक अंग को ही हाथी अनेक धर्म मानता है जो परस्पर में विरुद्ध जैसे प्रतीत
मानकर परस्पर में झगड़ते हैं। तब एक दृष्टि सम्पन्न होते हैं-जैसे सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य,
व्यक्ति जिसने पूरा हाथी देखा है उन्हें समझाता है कि भेद-अभेद आदि। आचार्य समन्त भद्र ने अपने आप्त
तुमने हाथी का एक-एक अंग देखा है, वह असत्य नहीं मीमांसा प्रकरण में और आचार्य सिद्धसेन ने अपने
है । हाथी की सूड लट्ठ सरीखी होती है अतः हाथी सन्मति प्रकरण में इसकी व्यवस्थापना की है।
वैसा भी है। उसके पैर स्तम्भ जैसे होते हैं अतः हाथी
स्तम्भ जैसा भी है। इस तरह वह सबका समन्वय करके भकलंक देव ने अपनी अष्टशती में कहा है- पूर्ण हाथी उन्हें बतला देता है । इसी तरह वस्तु के सब
धर्मों का दर्शन अनेकान्त है और एक धर्म का दर्शन 'सदसन्नित्यानित्यादि सर्व थैकान्त प्रतिक्षेपल क्षणो
एकान्त है। यदि वह एकान्त अन्य धर्मों का निषेध न अनेकान्तः' । सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य,
करके उनकी सापेक्षता स्वीकार करता है तब वह एकान्त सर्वथा अनित्य इत्यादि सर्वथा एकान्त का प्रतिक्षेप...
सम्यक् है और यदि वह अपने को ही सम्यक् मानता है लक्षणवाला अनेकान्त है अर्थात् सर्बथा एकान्त का
और अन्य एकान्तों को असत्य ठहराता है तो वह निषेधक है किन्तु अपेक्षा भेद से एकान्त को स्वीकार
एकान्त मिथ्या है। अनेकान्तवादी जैन दर्शन सम्यक करता है। यदि एकान्त को सर्वथा न माना जाये तो
एकान्तों को स्वीकार करता है किन्तु मिथ्या एकान्तों अनेकान्त भी नहीं बन सकता क्योंकि एकान्तों का समूह
का खण्डन करता है। ही तो अनेकान्त है । कहा है
एक अनेकात्मक होता है यह प्रायः अन्य दर्शनों ने 'एयंतो एयणओ होइ अणेयंत तस्स समूहो' नयचक्र १८०।
भी माना है। साख्य दर्शन में सत्व, रज और तम की
साम्यावस्था को प्रधान कहा है। सत्त्वगुण का स्वभाव एक दृष्टि को एकान्त कहते हैं और उसका समूह प्रसाद और लाधव है । रजोगुण का स्वभाव शोष और अनेकान्त है। अनेकान्त को समझाने के लिये शास्त्रकारों ताप है। तमोगुण का स्वभाव आवरण और सादन है। ने दो लौकिक दृष्टान्त दिये हैं। एक ही पुरुष में पिता, इस प्रकार इन भिन्न स्वभाववाले गुणों का न तो पुत्र, पौत्र, मानेज, भाई आदि अनेक सम्बन्ध होते हैं। परस्पर में विरोध है और न प्रधान रूप से विरोध है एक ही समय में वह पिता भी होता है और पुत्र भो। क्योंकि सांख्य दर्शन में कहा है कि इन गुणों से भिन्न
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