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________________ कालान्तर में वस्त्र ग्रहण की प्रवृत्ति बढ़ती गई और उसी प्रारम्भ हो गये थे जो भद्रबाह के काल में भिक्ष की के साथ आगमों की टीकाओं और चूणियों आदि में समाप्ति पर कुछ अधिक उभरकर सामने आये। 'परिअचेलकता के अर्थ में परिवर्तन किया जाने लगा । जिन- शिष्ट पर्वन' (9-55.76) तथा तित्थोगाली पइन्नय भद्रगणि क्षमाश्रमण के काल तक स्थिति बिलकुल बदल (गा० 730-33) के अनुसार भी पाटलिपुत्र में हुई गई। फलतः उन्हें आचार के दो रूप करना पड़े-जिन- प्रथम वाचना काल में संघभेद प्रारम्भ हो गया था । कल्प और स्थविरकल्प । जिनकल्परूप अचेलकता का यह वाचना भद्रबाहु की अनुपस्थिति में हुई थी। इसी दक बना तथा स्थविरकल्प सचेलकता का। के फलस्वरूप दोनों परम्पराओं की गुबर्बावलियों में भी जम्बस्वामी के मोक्ष जाने के बाद जिनकल्प को विच्छिन्न अन्तर आ गया। यह ग्वाभाविक भी था। उत्तरकाल बता दिया गया। व हत्कल्पसूत्र और विशेषावश्यक में इस अन्तर ने आचार-विचार क्षेत्र को भी प्रभावित भाष्य (गाथा 2598-2601) में इसका विशेष विवेचन किया और देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के काल तक दिगम्बर मिलता है। वहाँ अचेल के दो भेद कर दिये गये हैं.- और श्वेताम्बर परम्परायें सदैव के लिये एक-दूसरे से संताचेल और असंताचेल । संताचेल (वस्त्र रहते हए पृथक हो गई। भी अचेल) जिनकल्पी आदि सभी प्रकार के साधु कहलाते हैं और असन्ताचेल के अन्तर्गत मात्र तीर्थकर आते भद्रबाहु के समय तक बौद्धधर्म के मध्यममार्ग का प्रचार अपने पूरे जोर पर था। जैन संघ के आचार शैथिल्य में वह विशेष कारण बना । विचारों में भी परिवर्तन . उत्तरकाल में इस प्रकार के अर्थ करने की प्रवृत्ति हुआ जो विभिन्न वाचनाओं के बीच हुए संवादों से ज्ञात और भी बढ़ती गई। हरिभद्रसूरि ने दशवकालिक सूत्र होती है। यहाँ वस्त्र और पात्र के रखने के तरह-तरह में आये शब्द नग्न का अर्थ उपचरितनग्न और निरूप- से विधान बने । महावीर भगवान के साथ देवद्वस्य वस्त्र चरितनग्न किया है। कुचेलवान् साधू को उपचरितनग्न की कल्पना का सम्बन्ध भी ऐसे ही विधानों से रहा और जिनकल्पी साधु को निरूपचरित नग्न कहा गया होगा। इतना ही नहीं, प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों का है। बाद में अचेल का अर्थ अल्पमूल्यचेल भी किया धर्म अचेलक कहा गया तथा शेष बाईस तीर्थकरों को गया है । सिद्धसेनमणि ने भी दसकल्पों में आये आचे- अचेलक और सचेलक दोनों माना गया । लक्य कल्प का अर्थ यही किया गया है। धीरे-धीरे साधु बस्तियों में रहने लगे, कत्विवस्त्र के स्थान पर चूल- आचेलक्को धम्मो पुस्त्रिस्म य. पच्छिमस्स जिणस्स । पट का प्रयोग होने लगा और उपकरणों में वदि हो मज्झिमगाण जिणाण होइ सचेलो अचेलो य॥ पंचाशक गई। लगभग आठवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह विकास हो चुका था । आचारांग सूत्र की टीका में शीलाँक ने अचेलक का जिनकल्प का और सचेलक को स्थविरकल्य का आधार उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि शिथिलाचार की बतायः है। इस मत में दृढ़ता लाने के लिये एषणा पष्ठभूमि में सघभेद के बीज जम्बस्वामी के बाद से ही समिति में वस्त्र और पात्र एषणा को सम्मिलित किया 32. दशवकालिक सूत्र, गाथा-64 णि. 33. तत्वार्थसूत्र-9.9, व्याख्या, ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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