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________________ दिगम्बरों ने स्वीकार नहीं किया। इसका मूल कारण था 2. खरतरगच्छ-जैसा उपर कहा जा चुका है, कि वहाँ कतिपय प्रकरणों को काट-छाँट और तोड़- खरतरगच्छ की स्थापना में दुर्लभदेव का विशेष हाथ मरोड़कर उपस्थित किया गया था। श्वेताम्बर सघ में रहा है। उनके अतिरिक्त वर्धमानसरि के शिष्य जिनेनिम्नलिखित प्रधान सम्प्रदाय उत्पन्न हुए। श्वरसरि ने चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ किया था । चैत्यवासी ३. तपागच्छ-वि. सं. 1285 में जगच्चन्द्रसरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वनवासी साधुओं के विप- की कठोर साधना को देखकर मेवाड़ के राजा ने उन्हें रीत लगभग चतुर्थ शताब्दो में एक चैत्यवासी साधु 'तपा' अभिधान दिया। तभी से उनका संघ तपागच्छ सम्प्रदाय खड़ा हो गया, जिसने वनों को छोड़कर चैत्यों के नाम से पुकारा जाने लगा। कालान्तर में उन्हीं के (मन्दिरों) में निवास करना और प्रन्थ संग्रह के लिए अन्यतम शिष्य विजयचन्द्रसरि ने शिथिलाचार को आवश्यक द्रव्य रखना विहित माना । इसी के पोषण में प्रोत्साहन दिया। उन्होंने यह स्थापित किया कि साधु उन्होंने निगम नामक शास्त्रों की रचना भी की। हरि- अनेक वस्त्र रख सकता है, उन्हें धो सकता है, घी, दूध भद्रसूरि ने इन चैत्यवासियों की ही निन्दा अपने संबोध शाक, फल आदि खा सकता है, साध्वी द्वारा अजित प्रकरण में की है। चैत्यवासियों ने 45 आगमों को भोजन ग्रहण कर सकता है । प्रमाणिक स्वीकार किया है । वि. सं. 802 में अणहिलपुर पठाण के राजा ४. पार्श्वनाथगच्छ - वि. सं. 1515 में तपागच्छ चावड़ा ने अपने चैत्यवासी गुरू शीलगणसरि की आज्ञा से पृथक् होकर आचार्य पार्वचन्द्र से इस गच्छ की से यह निर्देश दिया कि इस नगर में वनवासी साधओं स्थापना की। वे नियुक्ति, भाष्य, चुणि, और छेद का प्रवेश नहीं हो सकेगा। इससे पता चलता है कि ग्रन्थों को प्रमाण कोटि में नहीं रखते थे । लगभग आठवीं शताब्दी तक चैत्यवासी सम्प्रदाय का प्रभाव काफी बढ़ गया था। बाद में वि. सं. 1070 ५. सार्ध पौर्णमीयकगच्छ-आचार्य चन्द्रप्रभसरि में दुर्लभदेव की सभा में जिनेश्वरसरि और बुद्धिसागर में प्रचलित क्रियाकाण्ड का विरोधकर पौर्णमीयक सरि ने चैत्यवासी साधूओं से शास्त्रार्थ करके उक्त गच्छ की स्थापना की। वे महानिशीथ सत्र को प्रमाण निदेश को वापिस कराया। इसी उपलक्ष्य में राजा नहीं मानते थे । कुमारपाल के विरोध के कारण इस दुर्लभदेव ने वनवासियों को खरतर नाम दिया। इसी गच्छ का कोई विशेष विकास नहीं हो पाया। कालान्तर नाम पर खरतरगक्छ की स्थापना हुई। में सुमतिसिंह ने इस गच्छ का उद्वार किया। इसलिए इसे सार्ध पौर्णमीयकगच्छ कहा जाने लगा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय कालान्तर में विविध गच्छों में विभक्त हो गया। उन गच्छों में प्रमुख गच्छ इस प्रकार हैं : 6. अचलगच्छ-उपाध्याय विजयसिंह (आर्य रक्षितसूरि) ने मुखपट्टी के स्थान पर अंचल (वस्त्र का १. उपदेशगच्छ --पार्श्वनाथ का अनुयायी केशी छोर) के उपयोग करने की घोषणा की। इसीलिए इसका संस्थापक कहा जाता है । अंचलगच्छ कहा जाता हैं । 45. विस्तार से देखें-जैन धर्म-कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 290-2. १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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