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का माध्यम बन जाता है। इस ज्ञान-पद्धति में द्रव्य और कर सकते कि सत्य के समग्र रूप को कहने की क्षमता धर्म की अभिता का बोध बना रहता है। यह प्रमा- किसी में भी नही होती। इसलिए सत्य की सारी णात्मक अनेकान्त है । द्रव्य और धर्म या पर्याय सर्वथा व्याख्या नय के आधार पर होती है। हम अखण्ड को अभिन्न नहीं है। उनकी अभिन्नता एक अपेक्षा या एक खण्ड रूप में जानते हैं और खण्ड रूप में ही उसका दृष्टिकोण से सिद्ध है। इस अपेक्षा के सूत्र को ध्यान में प्रतिपादन करते हैं । अत: किसी खण्ड को जानकर उसे रखकर धर्मी और धर्म की अभिन्नता को स्वीकार करने अखण्ड कहने का आग्रह हमें नहीं करना चाहिए । खण्ड वाली ज्ञान-पद्धति का नाम अनेकान्त है। एकान्त ज्ञान का आग्रह न बने, इसीलिए भगवान महावीर ने सापेक्ष से हम धर्मी और धर्म की अभिन्नता को स्वीकार नहीं दृष्टि का सूत्र किया। सोना पीला हैं, यह सोने का एक कर सकते। धर्मी एक द्रव्य है और धर्म उसमें होने धर्म है। उसमें और भी अनेक धर्म हैं । यह प्रत्यक्ष देखते वाले पर्याय हैं, वे दोनों अभिन्न नहीं हो सकते । अनन्त हुए भी हमें नहीं कहना चाहिए कि सोना पीला ही है। धर्मात्मक द्रव्य का किसी एक धर्म के माध्यम से प्रति- पीला रंग व्यक्त है, इसलिए हमें सोना पीला दिखाई पादन करना स्याद्वाद (या प्रमाण वाक्य) हैं। देता है । अव्यक्त में न जाने और क्या-क्या है ? उसके
सूक्ष्म रूप में प्रबेश किए बिना केवल स्थल रूप के ज्ञान पद्धति अनेकान्त है और प्रतिपादन पद्धति
आधार पर हम कैसे कह सकते हैं कि सोना पीला ही स्याद्वाद । अनेकान्त के दो रूप हैं -प्रमाण और नय।
है। क्या इससे व्यवहार का अतिक्रमण नहीं होगा? प्रतिपादन की दो पद्धतियाँ हैं-समग्र द्रव्य के प्रतिपादन
सोना जब प्रत्यक्षत: पीला दिखाई दे रहा है, हरा काला का नाम स्याद्वाद हैं और एक धर्म के प्रतिपादन का
दिखाई नहीं दे रहा है, तब हमें क्यों नहीं कहता चाहिए नाम नय।
कि सोना पीला ही है। व्यक्त पर्याय में सोना पीला ही - वस्तु के जितने धर्म होते हैं, उतने ही नय होते हैं। है, यह हम कह सकते हैं, किन्तु त्रैकालिक और अव्यक्त जितने नय होते हैं, उतने ही वचन के प्रकार हो सकते पर्यायों को दृष्टि में रखते हुए हम नहीं कह सकते कि सोना हैं। किन्तु कहा उतना ही जाता है, जितना कालमान होता पीला ही है। इसलिए सोना पीला ही है, यह निरूपण है। अनेकान्त का पहला फलित है अनाग्रह, सत्य के प्रति- सापेक्ष हो सकता है, निरपेक्ष नहीं। सोने में विद्यमान पादन की अक्षमता का बोध । सब लोगों में सत्य (या अनेक धर्मों को दृष्टि में रखते हुए भी हम यह कह सकते द्रव्य) के समग्र रूप को जानने की क्षमता नहीं होती। हैं कि सोना पीला ही है। शब्द का प्रयोग यह सूचित हम इस बात को छोड़ भी दें। सत्य को जानने का करता है कि सोने का पीला होना संदिग्ध नही है। कुछ अधिकार सब को है, सब उसे जान सकते हैं, यह मान लोग मानते हैं कि स्याद्वाद संदेहवाद है। किन्तु यह कर चलें। फिर भी हम इस तथ्य को अस्वीकार नहीं वास्तविकता नहीं है। संदेह अज्ञान की दशा में होता
1. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ४५० । उवकोसयसुतणाणी वि जाणमाणो वि तेऽभिलप्पे वि ।
ण तरित सव्वे वोत्तुग पहुप्पति जेण कालो से ॥ ' -इह तानुत्कृष्टश्र तो जाननोऽभिलाप्यानपि सर्वान् (न) भाषते, अनन्तत्वात्, परिमितत्वाच्चायुषः,
क्रमवर्तिनीत्वाद् वाच इति ।।
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