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शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई,
उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु सारी वेदनाओं को भी बिलकूल जला दिया। गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जासकता है कि जिस प्रकार संस्कार शान्त होगए; विज्ञान अस्त हो गया।
जल प्यास को शान्त करता है, निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी
उसकी एकान्त अभावत्मकता सिद्ध नहीं होती । आर्य लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बूझ जाने अथवा
(साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता फिर भी वह संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा
उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ सकता, आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते हैं निरोध
(प्राप्नोति) करता है । वस्तुतः निर्माण को अभावात्मक का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है ।
रूप में इसीलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का प्रोफेसर कीथ एवं प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त अग्गि वच्छ
निर्वचन करना भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक गोत्तमुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने
भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होती है। का अर्थ अभावात्मकता नहीं है, वरन अस्तित्व की रहस्यमय, अवर्णणीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के
निर्वाण की अनिर्वचनीयता--निर्वाण की अनिर्वचअनसार निर्वाण अभाव नहीं वरन् चेतना का अपने मूल नीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है--
शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रोफसर "भिक्षओ; न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूँ, निलनाक्षदत्त के शब्दों में निर्वाण की अग्नि शिखा के न स्थिति और न च्यति कहता है. उसे उत्पत्ति भी बझ जाने से, की जाने वाली तुलना समुचित है, क्योंकि नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरा है, न प्रवर्तित भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य उसके होता है और न उसका कोई आधार है यही दुःखों का अनस्त्तित्व से न होकर उसका स्वभाविक शुद्ध अदृश्य अन्त है । भिक्षुओ ! अनन्त का समझना कठिन है, अव्यक्त अवस्था में चला जाना है, जिसमें की वह अपने निर्वाण का समझना आसान नहीं । ज्ञानी की तृष्णा दृश्य प्रगटन के पूर्व रही हई थी। बौद्ध दार्शनिक नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं है । संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा जहाँ (निर्वाण) जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते है । वहाँ अभाव है। मिलिन्द प्रश्न के अनुसार भी निर्वाण चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता अस्ति धर्म (अस्थिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है है । जब क्षीणाश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है
45. उदान ८१६ 46. विशुद्धिमग्ग, परिच्छेद ८ एवं १६ 47. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २६४ पर उदघृत 48. उदान ८१ 49. मुल पाली में, यहाँ पाठान्तर है--तीन पाठ मिलते है १. अनत्तं २. अनत ३. अनन्तं । हमने यहाँ
"अनन्त' शब्द का अर्थ ग्रहण किया है । आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उप.
युक्त माना है लेकिन अट्ठकथा में दोनों ही अर्थ लिए गए हैं। 50. उदान ८।३
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