SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की भावना से स्तूप, मूर्ति, भवन और प्रासाद निर्माण संस्कृत भाषा को त्याग करके उन्होंने अहिंसा और करने लगे। हर-एक के पीछे जो आशय और रचना त्यागमय नैतिक जीवनयुक्त तत्वज्ञान का उपदेश का ढंग था, उसके पीछे थोड़ी-सी भिन्न (अलग) प्रेरणा लोकभाषा में दिया। इतना ही नहीं उन्होंने मोक्ष का थी परंतु कलामूल्य और कला माध्यम की दृष्टि से उन द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिया। यज्ञ कांड सब में एक विलक्षण साम्य प्रतीत होता है। गुप्त प्रचुर ब्राह्मणी वर्चस्व और जातिनिष्ठ परंपरा से कालोत्तर बनाए हुए जैन और हिन्दू मन्दिर स्थापत्य जनता को निकालकर मुक्ति का एक प्रशस्त मार्ग और कला की दृष्टि से अलग नहीं हैं। विषय अलग दिखाया । उन्होंने ब्राह्मण की व्याख्या ही बदल हो सकते हैं लेकिन उनका कलात्मक रूप सम्पूर्ण डालीएकात्मक एवं भारतीय है। इस पार्श्वभूमि में भारतीय कला में जैनों का योगदान क्या रहा है ? इसका न हि मुडिए समणो, न ओंकारेणे बम्भणो । न मणी रणवासेण, कसचीरेण, न तावसो।। सामान्य परिचय इस संक्षिप्त लेख में दिया जा रहा है। परंतु इससे पहले जैन धर्म के उद्गम और विकास समयाए समणो होई, बम्भचारेण बम्भणो : नाणेण च मुणी होई, तवेण होइ तावसो॥ पर दृष्टिपात करना उपयुक्त होगा। (उत्तराध्ययनसूत्र) श्री वर्द्धमान महावीर स्वामी जैनों के चौबीसवें तीर्थकर माने जाते हैं। इस वर्ष हम उनके महानिर्वाण ___ अर्थात् मुडन करने से कोई श्रमण नहीं होता, की 25 वीं शताब्दी मना रहे हैं । उनसे पहले ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, परंपरा के अनुसार 23 तीर्थकर हो चुके थे। उनमें अरण्यवास करने से कोई मुनि नहीं होता और कुशवस्त्र से तेईसवें तीर्थ कर पार्श्वनाथ थे, जो महावीर स्वामी पहनने से कोई तपस्वी नहीं होता। अपितु समभाव से के महानिर्वाण से 250 वर्ष पूर्व हो चुके थे। ऐसे श्रमण; ब्रह्मचर्य पालन करने से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि विश्वसनीय प्रमाण मिलते हैं कि वे एक श्रेष्ठ ऐति और तप से तपस्वी होता है। हासिक पुरुष थे। उन्होंने "चाउज्जाम धम्म” (चार व्रतों का धर्म) प्रतिपादित किया। उसी को "पंच भगवान महावीर लोकाभिमुख नेतृत्व से सामान्य सिख्खिओ" (पंच महाव्रतयुक्त) बनाकर महावीर जी ने जनों को तर्कप्रधान विचार करने में बडी सहायता पुनः प्रतिपादित किया ऐसा उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र मिली। इस प्रकार ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में लगाया में मिलता है। "चाउज्जमों या जो धम्मो, जो इमो गया नव विचार और नवधर्म का नन्हा-सा पौधा अब पच सिक्खिओ । देसिओ बद्धमाणेण पासेण य महामुनी" महावक्ष बन गया है और उसके पुष्पपरिमल से आसेतु यह चतुर्याम धर्म है, जिसका प्रतिपादन महामुनि हिमाचल पर्यन्त की भारत भूमि सुगन्धित हो गयी है। पार्श्वनाथ ने किया था और यह पंचशिखा युक्त धर्म है जिसका प्रतिपादन वर्द्धमान महावीर जी ने किया। प्राकृत (अर्ध-मागधी भाषा) में रचित आगम भगवान महावीरजी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी साहित्य, श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन साहित्य, कि उन्होंने इस धर्म का उपदेश लोक भाषा में किया, महाराष्ट्री अपभ्रंश में और संस्कृत भाषा के अन्तर्गत "सव्वाणुगामिणीए सक्कर मधुराए भाषाए" अर्थात् विविध टीका साहित्य पैतृक दैन के रूप में भारत की सबको सहजरूप से समझ में आनेवाली शर्करा के सब भाषाओं को प्राप्त हुआ है। इस साहित्य सम्पदा समान मधुर भाषा का सहारा लिया। उच्च वर्ग की का परीक्षण भारतीय संस्कृति के विकास के सभी १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy