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श्रीवीतरागाय नमः
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जनग्रन्यरत्नाकरका
-8. रत्न १ ला.
स्वर्गीय भैया भगवतीदासजीकृत
ब्रह्मबिलास.
कवि नाथूराम (प्रेमी) जैनद्वारा संशोधित..
जिसको जैनग्रन्थरनाकरकार्यालयके मालिकने
मुम्बयीके निर्णयसागर छापखानेमें छपाकर
प्रसिद्ध किया.
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సంగాలు
बोभूवाला. संधी मोतीलाल मास्टर
वीरसंवत् २४३००
प्रथमवार १००० प्रति.] [मूल्य १) रु० मात्र.
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प्रस्तावना.
प्रस्तावना.
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___ वर्तमान समयमें हिंदी भाषा कान्यके प्राचीन वा अर्वाचीन जितने अन्य देसनेमें
आते हैं. उनमेसें शतांश भी ऐसे अन्य नहिं निकलेंगे जिनमें कि वैराग्य वेदान्त
नीति वा भफिरसका स्वाद मिलसके. ऐसे अन्य जिनमें कि अलार-नायकादि । । भेदोंकी भरमार है हजारों मिलते हैं तथा विलासितापूर्ण संसारमें दिन पर दिन नय १ बनते ही चलेजाते हैं. इन प्रन्योंसे सर्वसाधारणको कितना लाभ पहुंचता है सो
तो हम नहिं कह सके परन्तु इस समय कविवर भूधरदासजीके दो संवैये याद आगये हैं, उन्हें पाठकोंको सुनाये देते हैं।
राग उदै जग अन्ध भयो, सहजें सब लोगन लाज गमाई। सीख विना सब सीखत हैं, विपयानके सेवनकी सुघराई ।। तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अन्ध असूझनकी अखियाँनमें, झोंकत हैं रज रामदुहाई ॥१॥ हे विधि ? भूल भई तुमते, समझे न कहाँ कसरि बनाई। दीन कुरंगनके तनमें ! तृण दंत धरे करुणा नहिं आई ॥ क्यों न रची तिन जीभन-जे, रसकाव्य करें परको दुखदाई। साधुअनुग्रह दुर्जनदण्ड, दुहू सधते विसरी चतुराई ॥२॥ हर्षका विषय है कि ऐसे समय जब कि भाषा साहिल केवल मात्र माररसके भरोसेपरही जी रहाया, जैनकवियोंने उसमें वेदान्त, वैराग्य भफिरसका श्रेयस्कर
संचार करनेकेलिये अतिशय प्रयत्न किया है. क्योंकि जैनकवियोंके बनाये हुये जितने ६ ग्रन्थ आजतक देखे व सुने गये हैं उनमेंसे किसीमें भी विषयान्ध करनेवाले रसोंका
प्रवेश नहिं हुआ है. बल्कि यों कहना चाहिये कि उनके इस वातकी दृढ़ प्रतिज्ञा ही थी. जोकि उनके बनाये हुये नाटक समयसार, प्रवचनचार, वनारसीविलास, द्यानत
विलास, ब्रह्मविलास भूधरविलास बुधजनशतसयी, वृंदावनशतसयो आदिप्रन्योंके ए देखनेसे भली भांति ज्ञात हो सकी है। १ पण्डित हेमराजजी वनारसीदासजी, भगवतीदासजी, धानतरायजी, भूधरदासजी, ॐ रामचन्द्रजी, सेवारामजी (जाट) जिनवख्श (मुसलमान) वृंदावनजी, दौलतरा
(1-2) ये दोनोंकवि-तुलादासनी के समकालीन थे. MongoPARWARRIORMANANDHARPORAMROADS
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प्रस्तावना.
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ए मजी, विहारीलालजी आदि वडे २ भापाकवि जैनियोंमें हुए हैं. जिनकी काव्यशक्ति
प्रसंशनीय थी. इनमेंसे मैया भगवतीदासजीकृत यह ब्रह्मविलास प्रन्य (जिसको एक प्रकारका वेदांत कहनाचाहिये) है. इस प्रन्यके विषयमें कुछ कहनेसे पहिले हम उक्त कविवरके विषय में कुछ लिखकर पाठकोंको यथाशक्ति परिचय देना चाहते हैं। ___ कविवर भगवतीदासजीका जन्म आगरेमें ही हुआ था और वे अपने अन्तसमयतक प्रायः वहींपर रहे हैं, ऐसा उनके ग्रन्थसे जान पड़ता है. इनके पिताका नाम लालजी था. ये ओसवाल जातिके वणिकथे. इन्होंने प्रशस्तिमें अपना गोत्र कटारिया लिखा है. इनके समयमें औरंगजेब बादशाह मौजूद थे. इनकी जन्मतिथि व मृत्यु तिथिका अभीतक हमें पता नहीं लगा तो भीउनकी कवितासे जो वि० संवत् १७३१ से १७५५ तकका क्रमशः उल्लेख मिलता है. उससे जान पड़ता है कि, उनका जन्म अठारहवीं शताब्दीके पहिले ही हुआ होगा. इसके पहिले या आगेंकी कोई भी कविता अभीतक नहिं मिली है. कवितामें इन्होंने अपना पद व भोग 'भैया' वा 'भविक' तथा एक जगह 'दासकिशोर' भी रक्खा है.
एक दन्तकथासे प्रसिद्ध है कि कविवर केशवदासजी तथा दादू पंथी वावा सुंदरदासजी और भैया भगवतीदासजी एकही गुरुके शिष्यथे अर्थात् काव्य विषय इन्होंने एकही गुरुसे सीखा था. विद्याभ्यासके पश्चात् तीनों पृथक् २ होगये. कविवर केशवदासजीने नव रसिकप्रिया' ग्रन्थ निर्माण किया तो उसकी एक २ प्रति सहपाठी चा मित्र होनेके कारण वावा सुन्दरदासजी तथा भगवतीदासजीके पास समालोचनार्थ भेजी. भगवतीदासजीने रसिकप्रियाको देखकर एक छंद बनाया, और उसे रसिकप्रियाके पृष्ठपर लिखकर वापिस भेज दिया था. वह यह है.
वडी नीति लघु नीति करत है, चाय सरत वदवोय भरी। फोड़ा आदि फुनगुणी मंडित, सकल देह मनु रोग दरी॥ शोणित हाड मांसमय भूरत, तापर रीझत घरी घरी। ऐसीनारनिरखकर केशव, रसिकप्रिया' तुम कहा करी?॥१९॥
(ब्रह्मविलास पृष्ठ १८४) है इसी प्रकार बावा सुंदरदासजीने भी जो किवैराग्य वेदान्त विपयके अच्छे कवि थे, १ रसिकप्रियाकी बहुत कुछ निंदा की है, जो कि उनके बनाये हुए सुंदरविलाससे
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8. प्रगट है।
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प्रस्तावना.
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३ इस दन्तकथाके कथनानुसार इन्हें केशवदासजीक समकालीन ही कहना चाहिये , परन्तु इतिहास प्रकाशकोंने केशवदासजीका शरीरपात विक्रमसंवत् १६७० में
होना लिखा है. इसकारण इस दन्तकथापर विश्रास नहिं किया जा सका. कदाचिन् 'रसिकप्रिया इनके देखने में पीछेसे आई हो और फिर यह छंद बनाया हो सी भी
संभव हो सका है. है यह ब्रह्मविलास ग्रन्थ यथार्थमें उनकी विक्रम संवत् १५३१ से १७५५
तककी कविताका संग्रह है जो कि सांसारिक कार्योस निराकुलित होनेपर समय समय पर बनाया गया है. किन्तु द्रव्यसंग्रह आदिमें इनके मित्र मानसिंहजीकी कविताका भी प्रवेश है. यद्यपि यह कविता इतनी उत्तम नहीं है.
जो इनकी कविताके शामिल की जाय ती भी कविवरने अपने मित्रके उत्साहवर्द्धनार्थ है इस ग्रन्थमें स्थानप्रदानकरके यथार्थ मित्रता वा सज्जनताका परिचय दिया है। ___ भगवतीदासजी संस्कृत और हिंदीके ज्ञाता होनेके अतिरिक फारसी, गुजराती मारवाड़ी वंगला आदि भापाका भी ज्ञान रखते थे, ऐसा अनुमान उनकी कवितामें प्र. योजित शब्दोंसे तथा कोई २ कविता खास गुजराती फारसीमें करनेसे स्पष्टतया हो सका है. तथा ओसवाल जातिकी उत्पत्ति मारवाद देशसे होनेके कारण क. विवर भगवतीदासजीकी मातृभाषा मारवाड़ी होनाभी संभव है. क्योंकि इनकी कवितामें यत्र तत्र मारवाड़ी भाषाके (जो कि प्रायः प्राकृत भापाके शब्दोंसे मुशोभित है)
शब्दोंका प्रयोग अधिक पाया जाता है. ___ इस ग्रन्थके शोधनेका भार ग्रन्थप्रकाशक पं० पन्नालालजीने मुझ अल्पज्ञपर डाला था. यद्यपि मैं काव्य विषयका इतना जानकार नहीं हूं जो ऐसे २ अपूर्वभावविशिष्ट
प्रन्योंका संशोधन कर सकू. परन्तु उक्त प्रकाशकजीकी आज्ञाका उल्लंघन करनेको ॐ असमर्थ होकर मुझसे जहांतक बना है परिश्रम करनेमें त्रुटि नहीं की है. फिर भी संभव ४ है कि प्रमादवशतः अनेक अशुद्धियां रहगई होंगी.आशा है कि उन्हें पाठक महाशय
सुधारके पढ़नेकी कृपा करेंगे. ___ इस ग्रन्थमे परमात्मशतक और कुछ चित्रपदकविता जो पूर्वार्द्धमेथी और जिसे साथ
प्रकाशित करनेकी आवश्यकता समझअनवकाशवशतःरख छोडी थी वह हमने कठिन
२दोहोंके अर्थसे यथाशक्ति विभूषितकर अन्तमें लगाई है. आशा है कि पाठक महाशय 8 इस क्रमभंग करनेके अपराधको क्षमा करेंगे. इसके अतिरिक्त इस ग्रंथमें य, व, श, प,
स, ख, क्ष, च्छ अनुसार और सानुनासिक संबंधी रदवदलकी त्रुटियां भी विशेष रही S होंगी सो पाठक महाशय मुझे अल्पज्ञ वालक जान क्षमा करेंगे. NwARWAROOPORNOONPROMPREMPORAN
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इस ग्रन्थके संशोधनार्थ ४ प्रतियोंकी सहायता लीगई है. जिनमेंसे एक तो वि० संवत् १७८० की, दूसरी सं. १८०४ की, तीसरी सं. १९२० की और चौथी सं १९ ५३ की लिखी हुई है. इनमेंसे सं. १७८० की प्रतिसे हमें बहुत कुछ सहायता मिली है. क्योंकि यह प्रति ग्रन्थनिर्माण होनेके थोड़े ही दिन पीछेकी लिखी हुई होंनेसे बहुत कुछ शुद्ध है. अन्य प्रतियोंमें अनभिज्ञ लेखकोंकी असावधानीकी परम्परासे बहुत कुछ पाठान्तर पाया गया है.
अन्तमें ग्रन्थकत्ती व प्रकाशक महाशय के परिश्रमपर विचार करके पाठकगण इस ग्रन्यसे अपना और अपनी सन्ततिका हितसाधन करेंगे ऐसी आशा करके इस प्रस्तावनाको पूर्ण करता हूं । मुम्बयी. १७-१२-१९०३ ई०
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वि. सं. विपयनाम.
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१ पुण्यपचीसिका. २. शतअटोत्तरी.
प्रस्तावना.
सूचीपत्र.
पृष्ठाङ्क. | वि. सं. विषयनाम.
८
३३
५५
८४
सर्वसज्जनोंका हितैषी दास
नाथूराम, प्रेमी जैन.
३ द्रव्यसंग्रह.
४ चेतन कर्मचरित्र.
५ अक्षरवत्ती सिका.
६ जिनपूजाटक.
८८
९१
७ फुटकर कविता. ८ चतुविशति जिनस्तुति ९२
पृष्ठाङ्क
९ परमात्माकी जयमाला.
१०४
१० तीर्थंकरजयमाला.
१०५
११ भुनिराज जयमाला.
१०६
१२ अहिक्षितिपार्श्वनाथस्तुति. १०७
१०८
१०९
१३ शिक्षावली. ( शिक्षाछंद ).
१४ परमार्थपदपंक्ति.
१५ गुरुशिष्यप्रश्नोत्तरी.
११८
१६ मिथ्यात्वविध्वंसनचतुर्दशी. ११९
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सूचीपत्र.
१२३ | ४२ पुण्यपापजगमूळपचीसिका. १९४
२००
२०८
१७ जिनगुणसाला.
१८ सिज़्याय और परमेष्ठि नमस्कार १२५ | ४३ बावीसपरी पह. १२६ | ४४ मुनिआहारविधि. १९ गुणमंजरी. .२० लोकाकांश क्षेत्रपरिमाण कथन. १३३ | ४५ जिनधर्मपचसिका. २१ मधुविन्दुकको बीपई. २२ सिद्धचतुर्दशी. २३ निर्वाणकोंडभाषा. २४ एकादशगुणस्थानपंथवर्णन.
१३५ | ४६ अनादिवत्तसिका.
१४०
४७ समुद्धतिस्वरूप.
२५ कालाष्टक.
२६ उपदेशपचीसिका.
१७ नन्दीश्वरद्वीपकी जयमाला. २८ बारह भावना.
२९ कर्मबन्धके दशभेद. ३० सप्तभंगीवाणी
१५६
३१ सुबुद्धिचौवासी.
१५७
३२ अकृत्रिमचैत्यालयकी जयमाला. १६३ ३३ चवदहगुणस्थानवत्तिजीवसंख्या १६६
वर्णन. ( शिवपंथपचीसिका. ) ३४ पन्द्रहपात्रको चौपई.
३५ ब्रह्मा ब्रह्मनिर्णयचतुर्दशी. ३६ अनित्य पची सिका.
३७ अष्टकर्मको चापई. ३८ मुपंथकुपथपत्चीसिका.
३९ मोहनमाष्टक.
४० आश्रयंचतुर्दशी. ४१ रागादिनिर्णयाष्टक.
२२०
१४४
४८ मृढाटक.
२२१
१४६ | ४९ सम्यक्त्व पचीसका.
९२२
१४८ | ५० वैराग्यपचीसिका.
९२५
२२७
२३०
१४९ | ५१ परमात्मछत्तीसी. १५१ | ५२ नाटकपचासी. १५३ | ५३ उपादाननिमित्तसंवाद. १५४ ५४ चतुर्विंशतितीर्थकरजयमाला. २३६
२३२
५५ पंचेन्द्रियवाद.
५६ ईश्वरनिर्णयपत्रीसी.
५७ कर्ताअकर्नापचीसी.
५८ दृष्टांत पचीसी.
५९ मनवत्ती सी.
|
१६९ | ६० स्वमबत्तीसी. १७१ | ६१ सूवाबत्तीसी. १७२ | ६२ ज्योतिपके छंद.
१७७६३ पदराग प्रभाती.
१८० । ६४ फुटकर कविता.
१८६६५ परमात्मशतक. १८८६६ चित्रकविता. १९३ ६७ प्रन्थकर्त्तापरिचय.
२११
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२३८
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२५६
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३.६.A. श्रीवीतरागाय नमः स्वर्गीय कविवर भैया भगोतीदासकृतू
ब्रह्माविलाखा.
संधी मोती मा
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nearअथ पुण्यपचीसिका.
मङ्गलाचरण छप्पय. प्रथम प्रणमि अरहंत, बहुरि श्रीसिद्ध नमिज्जै । आचारज उपझाय, तासु पद वंदन किजै ।। साधु सकल गुणवंत, शान्तमुद्रा लखि वंदों।
श्रावक प्रतिमा धरन, चरन नमि पापनिकंदों॥ सम्यकवंत स्वभाव धर, जीवजगतमहिं होहि जित । तिततित त्रिकाल वंदित भाविक भावसहित शिरनाय नित॥१॥
श्रीजिनेन्द्रस्तुति छप्पय. मोहकर्म जिहँ हस्यो, कयो रागादिक नष्टित । द्वेप सवै परिहस्यो, जागि क्रोधहिं किय मिष्टित ॥ मानमूढ़ता हरिय, दरिय माया दुखदायिन । लोभ लहरगति गरिय, खरिय प्रगटी जु रसायिन ॥ केवल पद अवलंवि हुव, भवसमुद्रतारनतरन ।
त्रयकाल चरन वंदत भविक जयजिनंद तुह पर्यशरन ॥२॥
१ तुम्हारे. २ पद. FORPIONORMpperpepeopppppamopoon
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ब्रह्मविलासमें
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श्रीसिद्धस्तुति छप्पय छन्दः अचल धाम विश्राम, नाम निहचै पद मंडित । यथाजात परकाश, बास जहँ सदा अखंडित ॥ भासहि लोकालोक, थोक सुखसहज विराजहिं।
प्रणमहि आपु सहाय, सर्वगुणमंदिर छाजहिं ॥ इहविधि अनंत जिय सिद्धमहि, ज्ञानप्रान विलसंत नित । तिनतिन त्रिकाल वंदत"भविक भावसहित नित एकचित॥३॥
श्रीआचार्यजीकी स्तुति छप्पय छन्द. पंच परम आचार, ताहि धारहि आचारज । ज्ञान चार संयुक्त, करत उत्तम सब कारज || देत धर्म उपदेश, हेत भविजीय विचारत । जिनवानी जो खिरत, सुतौ निज हिरदै धारत ॥ कहत अर्थ परकाशके, केवलपद महिमा लखत । जुगसाधुमध्यपरधानपद, आचारज अमृत चखत ॥ ४॥
___श्रीउपाध्यायस्तुति कवित्त. द्वादशांगवानी सुबखानी वीतराग देव, जानी भन्यजीवन है अनादिकी कहानी है । ताके पाठ करिवेको भेद हुदै धरिवेको,
अर्थके उचरिवैको पंडित प्रमानी है ॥ पर समुझायवेको ज्ञान उपजायवेको, रूपके रिझायवेको निपुण निदानी हैं । याहीते है हे प्रमाण मानी सत्य उवझायवानी, 'भैया' यो वखानी जाकी है मोक्षवधू रानी है ॥५॥
श्रीमुनिराजकी स्तुति. दहिकै करम अघ लहिक परममग, गहिकें धरमध्यान ज्ञानकी हूँ लगन है । शुद्ध निजरूप धरै परसों न प्रीति करै, बसत शरीरपैं। Ewapapapwroopcppropapermanappeopeopens
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पुण्यपचीसिका.
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अलिप्त ज्यों गगन है || निश्चै परिणामसाधि अपने गुणें अराधि अपनी समाधिमध्य अपनी जगन है । शुद्ध उपयोगी मुनि रागद्वेष भये शून्य, परसों लगन नाहिं आपमें मगन है ॥ ६ ॥ श्रावकप्रशंसा.
मिथ्यामतरीत टारी भयो अणुव्रतधारी, एकादश भेद भारी हिरदै बहतु है । सेवा जिनराजकी है यहै शिरताजकी है, भक्ति मुनिराजकी है चित्तमें चहतु है । बीसद्वै निवारी रीति भोजन न अक्षप्रीति, इंद्रिनिको जीत चित्त थिरता गहतु है । दयाभाव सदा धेरै, मित्रता प्रगट करै, पापमलपंक हरै मुनि याँ कहतु है ॥ ७ ॥
सम्यक्तकी महिमा.
भौथिति निकंद होय कर्मवंद मंद होय, प्रगटै प्रकाश निज आनंदके कंदको । हितको दृढाव होय विनैको बढाव होय, उपजै अंकूर ज्ञान द्वितियाके चंदको ॥ सुगति निवास होय दुर्ग तिको नाश होय, अपने उछाह दाह करै मोहफेदको । सुख भरपूर होय दोप दुख दूर होय, यातै गुणवृंद कहैं सम्यक सुछंदको ॥ ८ ॥
श्रीजिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाको नमस्कार छप्पय.
प्रथम प्रणमि सुरलोक, जहां जिनचैत्य अकृत्रिम | चैत्य चैत्य प्रतिबिंब, एकसो आठ अनूपम ॥ बहुरि प्रणमिमृतलोक, विम्ब जिनके जिहें थानक । कृत्य अकृत्तिम दुविधि, लसै प्रतिमा मनमानक पाताल लोक रचना प्रबल, तिहँ थानक जिनबिबँ विदित । तहँ तहँ त्रिकाल वंदित 'भविक' भावसहित शिरनायनि ॥९॥
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ब्रह्मविलास सम्यादभिती
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सम्यग्दृष्टिकी महिमा कवित्त. स्वरूप रिझवारेसे सुगुणं मतवारेसे, सुधाके सुधारेसे सुप्राण है. हु दयावंत हैं । सुबुद्धिके अथाहसे सुरिद्धपातशाहसे, सुमनके है . सनाहसे महाबडे महंत हैं। सुध्यानके धरैयासे सुज्ञानके करैयासे, सुप्राण परखैयासे शकती अनंत हैं । सवै संघनायकसे सवैवोलला यकसे सवै सुखदायकसे सम्यकके संत हैं ॥ १०॥ .
(सवैया) काहेको कूर तू क्रोध करै अति, तोहि रहैं दुख संकट धेरै ।। काहेको मान महाशठ राखत, आवत काल छिनै छिन नेरे ॥ काहेको अंध तु बंधत मायासों, ये नरकादिकमें तुहै गैरें।। लोभ महादुख मूल है भैया,तुचेतत क्यों नहिं चेत सवेरे॥११॥
कवित्त. जेते जग पाप होहि अध्रमके व्याप होंहि, तेते सब कारजको मूल लोभकूप है । जेते दुखपुंज होहिं कर्मनके कुंज होहिं, तेते सब ९ बंधनको मूल नेह रूप है ॥ जेते बहु रोग होहिं व्याधिके संयोग
होहिं, तेते सब मूलको अजीरन अनूप हैं । जेते जगमर्ण होहिं । र कार्की न शर्ण होहिं, तेते सब रूपको शरीरनाम भूप है ॥१२॥ है ज्ञानमें है ध्यानमें है वचन प्रमाणमें है, अपने सुथानमें है ताहिक पहचानुरे । उपजै न उपजत मूए न मरत जोई, उपजन मरन व्योहार ताहि मानुरे। रावसो न रंकसो है पानीसो न पंकसो है, अति ही अटकसो है ताहि नीके जानुरे । आफ्नो प्रकाश करे।
अष्टकर्म नाश करै, ऐसीजाकीरीति 'भैया' ताहिर आनुरे॥१३॥ है सेर आध नाजकाज अपनों करै अकाज, खोवतः समाज सब
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पुण्यपचीसिका.
राजनितें अधिके । इंद्र होतो, चंद्र होतो नरनागइन्द्र होतो करत तपस्या जो पैंठि साधुमधिकें ॥ इन्द्रिनको दम होतो यम ओ नियम होतो,' जमको न गम होतो ज्ञान होतो अधिकें । लोकालोक भास होतो अष्टकर्म नाश होतो, मोखमें सुवास होतो चलतो जो सधिकं ॥ १४ ॥ सवैया.
काहेको कूर तू भूरि सह दुख, पंचनके परपंच भखाये । ये अपने अपने रसको नित पोखतु हैं, तोहि लोभ लगाये ॥ तू कछु भेद न वूझतु रंचक, तोहि दगा करि देत बँधाये ॥ है अब यह दाव भलो नैर! जीत ले पंच जिनंद बताये ॥ १५ ॥ हे नर अंध तू बंधत क्यों निज, सूझत नाहिं के भंग खई है । जे अघ संचतु है नित आपको, ते तोहि सौज करेंगे गई है ॥ ये नरकादिकमें तोहि डारिकँ, देहैं सजा बहु ऐसी भई है । मानत नाहिं कहूं समुझाय, सुतोकों दई मति ऐसी दई हैं ॥ १६ ॥ कवित्त.
धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै, ये तो छिनमाहिं जांहि पौन परसत ही । संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग, दीपकपतंग जैसे काल गरसत ही ॥ सुपने में भूप जैसें इंद्रधनुरूप जैसे, ओसवृंद धूप जैसें दुरै दरसतं ही । ऐसोई भरम सब कर्मजालवर्गणाको, तामे मूढ मग्न होय मरै तरसत ही ॥ १७ ॥ मांत्रिक कवित्त,
देख तू दृष्टि विचार अभ्यंतर, या जगमहिं कछु सांचो आह । मात तात सुत बन्धवं वनिता, इनसो प्रीति करै कित चाह ।
(१) 'दूर सब तम हो तो ऐसा भी पाठ है. (२) बहकाये. (३) 'तोही ' ऐसा भी पाठ है. (४) 'शठ' ऐसा भी पाठ है..
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ब्रह्मविलास में
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ककककक
. तन यौवन कंचन औ मंदिर, राजरिद्ध प्रभुता पद काह । ये उपजै विनरौ अपनी थिति, तूं कित नाथ होंहि शठ! ताह ॥ १८ ॥
कवित्त,
संसारी जीवनके करमनको बंध होय, मोहको निमित्त पाय रागद्वेषरंगसों । वीतराग देव ै न रागद्वेष मोह कहूं, ताहीतें अबंध कहे कर्मके प्रसंगसों ॥ पुग्गलकी क्रिया रही पुग्गलके खेतवीचि, आपहीतें चलै धुनि अपनी उमंगसों । जैसें मेघ परे विनु आपनिज काज करें, गर्जि वर्षि झूम आवे शकति सु छंगसों ॥ १९ ॥
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मात्रिक कवित्त. आतमसूवा भरममहिं भूल्यो, कर्म नलिनपैं बैठो आय । विषयस्वादविरम्यों इह थानक, लटक्यो तरें ऊर्द्धभये पाँय ॥ पकरै मोहमगन चुंगलसों, कहै कर्मसों नाहिं बसाय | देखहु किन ? सुविचार भविक जन, जगत जीव यह धेरै स्वभाय २० तोलों प्रगट पूज्यपद यिर है, तोलों सुजस लहै परकास । तोलौँ उज्जल गुणमणि स्वच्छित, तोलों तपनिर्मलता पास ॥ तोलों धर्मवचनमुख शोभत, मुनिपद ऐसे गुनहिं निवास । जोलों रागसहित नहिं देखत, भामनिको मुखचंदविलास ॥ २१ ॥
कवित्त.
जोपें चारों वेद पढे रचिपचि रीझ रीझ, पंडितकी कला में प्रवीन तू कहायो है । धरम व्योहार ग्रन्थ ताहूके अनेक भेद, ताके पढे निपुण प्रसिद्ध तोहि गायो है | आतमके तत्त्वको निमित्त कहूं रंच पायो, तोलों तोहि ग्रन्थनिमें ऐसे के बतायो है ।
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Bansbartanian
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So Guyspero
पुण्यपत्रीसिका.
जैसे रसव्यञ्जनमें करछी फिर सदीय, मूढतासुभावसों न स्वाद
कछु पायो है ॥ २२ ॥
संया.
चेतन ऐसेमें चैतत क्यों नहि, आय बनी सबही विधि नीकी । है नरदेह यो आरज खंत, जिनंदकी वानी सु वृंद अमीकी ॥ तामे जु आप गहो थिरता तुम, तौ प्रगटै महिमा सब जीकी । जामें निवास महासुखवास गु, आय मिले पतियां शिवतीकी ॥ २३ कवित्त,
श्रीपममें धूप पर तामें भूमि भारी जरे, फूलत हैं आक पुनि अतिही उमहिकं । वर्षाऋतुनेष झरै तामें वृक्ष केई फरै, जरत जवासा अघ आपुहीत उहिकं ॥ ऋतुको न दोष कोऊ पुण्यपाप फले दोऊ, जैसे जैसे किये पूर्व तसे रहें सहिकेँ । केई जीव सुखी होंहि केई जीव दुखी होंहिं, देखहु तमासो 'भैया' न्यारे नेकु रहिकं ॥ २४ ॥
दोहा.
पुण्य ऊर्द्ध गतिको करें, निचे भेद न कोय । तात पुण्यपचीसिका, पढे धर्म फल होय ॥ २५ ॥
सत्रहसे तेतीसके, उत्तम फागुन मास ।
आदिपक्ष नमि भावसों, कहें भगोतीदास ॥ २५ ॥ इति पुण्यपचीसिका समाप्ता ॥ १ ॥
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ब्रह्मविलासमे. अथ शतअष्टोत्तरी कवित्तवन्ध लिख्यते ।
दोहा. ओंकार गुण अति अगम, पंचपरमेष्टि निवास । प्रथम तासु वंदन किये, लैहिये ब्रह्मविलास ॥१॥
. छप्पय. द्रव्य एक आकाश, जासुमहिं पंच विराजत । द्रव्य एक चिद्रूप, सहज चेतनता राजत ॥ द्रव्य एक पुनि धर्म, चलन सबको सहकारी ।
द्रव्य सुएक अधर्म, रहनथिरता अधिकारी ॥ द्रव्य एक पुगल प्रगट, अरु अंतक पट मानिये । निज निज सुभावमें सवमगन, यह सुबोध उर आनिये ॥२॥
जीव ज्ञानगुण धरै, धरै मूरतिगुण पुद्गल । जीव स्वपर करि भेद, भेद नहि लहै कर्ममल ।।
जीव सदा शिवरूप, रूपमें दर्वसु ओरें। __जीव रमै निजधर्म, धर्मपर लहै न ठौरें। जीव दर्व चेतन सहित, तिहूं काल जगमें लसै। तसु ध्यान करत ही भव्य जन, पंचमिगति पलमें वसै ॥ ३॥ ___ रसनाके रस मीन, प्राण पलमाहिं गमावै।
अलि नासा परसंग, रैन बहु संकट पावै ॥ मृग करि श्रवण सनेह, देह दुरजनको दीनी।
दीपक देख पतंग, दृष्टि हित कैसी कीनी ॥ फरसइंदिवस करि पस्यो, कौन कौन संकट सहै। . एक एक विषबेलिसम, पंचन सेय तु सुख चहै ॥ ४॥
(१) होवत' ऐसा भी पाठ है. (२) काल. MoppeopoPPRPROPOROADED000/DPORPORAT
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शतअष्टोत्तरी. mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm चेतु चेतु चित चेतु, विचक्षण वेर यह। हेतु हेतु तुव हेतु, कहित हो रूप गह ।। मानि मानि पुनि मानि,जनम यह वहुर न पावै|
ज्ञान ज्ञान गुण जान, मूढ क्यों जन्म गमावै ॥ • बहु पुण्य अरे नरभी मिल्यो, सो तू खोवत वावरे । अज हूं संभारि कछु गयो नहि 'भैया' कहत यह दावरे ॥५॥
कवित्त. जैसो वीतराग देव कह्यो है स्वरूपसिद्ध, तैसो ही स्वरूप मेरो । यामें फेर नाहीं है । अष्टकर्म भावकी उपाधि मोमें कहूं नाहिं - अष्ट गुण मेरे सो तो सदा मोहि पांहीं है ॥ ज्ञायक स्वभाव, 1. मेरो तिहूं काल मेरे पास, गुण जे अनन्त तेऊ सदा मोहिमाही
है। ऐसो है स्वरूप मेरो तिहूं काल सुद्धरूप, ज्ञानदृष्टि देखतें न है है दूजी परछांही है ॥६॥
विकट भौसिंधु ताहि तरिवेको तारू कौन, ताकी तुम तीर । आये देखो दृष्टि धरिकै । अबके संभारेसे पार भले पहुँचत हौं, , अवके संभारे विन वूडत हो तरिक। बहुस्यो फिर मिलवो नाहि
ऐसो है संयोग, देव गुरु ग्रंथ करि आये हिय धरि के । ताहि तू ई विचारि निज आतमनिहारि 'भैया' धारि परमातमाहिं शुद्ध ध्यान करिक ॥७॥
जोपै तोहि तरिवेकी इच्छा कछु भई भैया, तो तौ वीतरागजूके वच उर धारिये। भौसमुद्रजलमें अनादिही ते वूडत हो, जिननाम नौका मिली चित्ततें न टारिये ॥ खेवट विचारि शुद्ध थिरतासी ध्यान काज, सुखके समूहको सुदृष्टिसों निहारिये । चलिये जो इह पंथ मिलिये श्यौ मारगमें, जन्मजरामरनके हैं भयको निवारिये ॥८॥ VermenchARRIERRERepenepanpranpeoplespons
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ब्रह्मविलास में.
ज्ञानप्रान तेरे ताहि नेरे तौ न जानत हो, आनप्रान मानि आनरूप मानि रहे हो । आतमके वंशको न अंश कहूं खुल्यो कीजै, पुग्गलके वंशसेती लागि लहलहे हो || पुग्गलके हारे हार पुग्गलके जीते जीत, पुग्गलकी प्रीतसंग कैसें वहबहे हो । लागत हो धायधाय लागे न उपाय कछू, सुनो चिदानंदराय ! कौन पंथ ग़हे हो ? ॥ ९ ॥
छंद द्रुमिला ।
इक बात कहूं शिवनायकजी, तुम लायक ठौर कहां अटके ? | यह कौन विचक्षन रीति गही, विनुदेखहि अक्षनसों भटके || अजहूं गुणमानो तो शीख कहूं, तुम खोलत क्यों न पटै घटके ? | चिनमूरति आपु विराजतु है, तिन सूरत देखे सुधा गटके ॥१०॥
सवैया
शुद्धितें मीन पियें पय बालक, रासभ अंगविभूति लगाये । राम कहे शुक ध्यान गहे वक, भेड़ तिरै पुनि मूंड़ मुड़ाये ॥ वस्त्र विना पशु व्योम चलें खग, व्याल तिरें नित पौनके खाये । एतो सबै जड़ रीत विचक्षन ! मोक्ष नहीं विनतत्वके पाये॥११॥ कर्म स्वभावसों तीतोसो तोरिकें, आतम लक्षन जानि लये हैं । ध्यान करे निचै पदको जिह, थानक और न कोऊ ठये हैं ॥ ज्ञान अनंत तहां प्रतिभासत, आपु ही आपु स्वरूप छये हैं । और उपाधिं पखारिक चेतन, शुद्ध भये तेंड सिद्धं भये हैं || १२ || देखत रूप अनूप अनूपम, सुंदरता छवि रोझिकै मोह | देखत इन्द्र नरेन्द्र महामुनि, लच्छिविभूषण कोटिक सोहै ॥
( १ ) जलशुद्धि. ( २ ) राख. (३) ' नातोसो तोरिके ' ऐसा भी पाठ है.
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शतअष्टोत्तरी.
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देखत देव कुदेव सवै जग, राग विरोध धरै उर दो है। ताहि विचारि विचक्षन रेमन! द्वैपल देखु तो देखत को है॥१३॥
कवित्त सुनो राय चिदानंद कहोजु सुवुद्धि रानी, कहैं कहा बेर बेर नै तोहि लाज है। कैसी लाज कहो कहां हम कछु जानत.न, हमें इ-६ इहां इंद्रनिको विपै सुख राज है ।। अरे मूढ विपै सुख सेयं तू अनन्ती है वेर, अज हूं अघायो नाहि कामी शिरताज है। मानुष जनम पाय आरज सुखेत आय, जो न चेतें हंसराय तेरो ही अकाज है।॥१४॥
सुनो मेरे हंस एक बात हम सांची कहैं, कहो क्यों न नीके। है कोउ मुखर गहतु है । तुम जो कहत देह मेरी अरु नीकै राखों, कहो कसें देह तेरी राखी ये रहतु है ? ॥ जाति नाहिं पांति नाहि रूपरंग भांति नाहिं, ऐसे झूठ मूठ कोउ झूटोहू कहतु है।
चेतन प्रवीनताई देखी हम यह तेरी, जानिहो जु तब ही ये दुख है को सहत है ॥ १५ ॥ , सुनो जो सयाने नाहु देखो नेकु टोटा लाहु, कौन विवसाहु,
जाहि ऐसे लीजियतु है । दश घोंस विपैसुख ताको कहो केतो। दुख, परिकें नरकमुख कोलों सीजियतु है। केतो काल बीत गयो अजहू न छोर लयो, कहूं तोहि कहा भयो ऐसे रीझयतु । है। आपु ही विचार देखो कहिवेको कौन लेखो, आवत परेखो। तातें कह्यो कीजियतु है ॥ १६ ॥ मानत न मेरो कह्यो मान बहुतेरो कह्यो, मानत न तेरो गयो । कहो कहा कहिये । कौन रीझि रीझि रह्यो कौन बूझ बूझ रह्यो, ऐसी बातें तुमे यासों कहा कही चहिये ? । एरी मेरी रानी तोसों। कौन है सयानी सखी, एतौ वापुरी विरानी तू न रोस गहिये।
(१) दिन. (२) विचारी. PARRORGANPRORappepPROMORPROPORTS
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ब्रह्मविलासमे.
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है इनसो न नेह मोहि तोहीसों सनेह वन्यों, रामकी दुहाई कहूं
तेरे गेह रहिये ॥ १७॥ हूँ जीवन कितेक तापै सामा तू इतेकु कर, लक्ष कोटि जोर जोर
नैकु न अघातु है। चाहतु धराको धन आन सब भरों गेह, यो नए में जानें जनम सिरानो मोहि जात है। कालसम क्रूर जहां निशदिन है
घेरो करै, ताके बीच शशा जीव कोलों ठहरातु है। देखतु हैं नैन-, है निसों जगसबचल्योजात, तऊमूढचेतै नाहिलोभैललचातुहै॥१८॥
कहां हैं वे वीतराग जीते जिन रागद्वेप, कहां है वे चक्रवति । छहों खंडके धनी । कहां हैं वे वासुदेव युद्धके करैया वीर, कहां है 1 हैं वे कामदेव कामकीसी जे अनी ॥ कहां है वे राजा राम रावएनसे जीते जिनि, कहां हैं वे शालिभद्र लच्छि जाके थी घनी । ऐसे ए तो कईक कोटि है गये अनंती वेर, डेढ दिन तेरी वारी काहेको, करै मनी ॥ १९ ॥
सुनिरे सयाने नर कहा करै घरघर, तेरो जुशरीरघर घरीज्यों तरतु है । छिन २ छीजे आय जल जैसें घरी जाय, ताहूको इलाज है कछु उरहू धरतु है ॥ आदि जे सहे हैं ते तौ यादि कछु नाहि तोहै हि, आगे कहो कहा गति काहे उछरतु है। घरी एक देखो ख्याल घरीकी कहां है चाल,घरीघरी घरियाल शोर यों करतु है ॥२०॥
पाय नर देह कहो कीनों कहा काम तुम,रामारामा धनधन करई त विहातु है । कैक दिन कैक छिन रहि है शरीर यह, याके संग है ऐसे काज. करतु सुहातु है॥जानत है यह घर मरवेको नाहिं डर, है देख भ्रम भूलि मूढ फूलि मुसकात है । चेतरे अचेत पुनि चेतवेको र
नाहि और, आज कालि पीजरेसों पंछी उड जातु है ॥ २१ ॥ ए कर्मको करैया सो तो जानै नाहिं कैसेकर्म, भरममें अनादिही
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शतअष्टोत्तरी. को करमैं करतु है । कर्मको जनैया(भैया)सोतो कर्म करै नाहि, है धर्म माहि तिहूंकाल धरमें धरतु है।दुहूंनकी जाति पांति लच्छन स्वर भाव भिन्न, कबहून एकमेक होइ विचरतु है।जा दिनातें ऐसी दृष्टि अन्तर दिखाई दई, तादिनाते आपु लखि आपुही तरतु है ॥२२॥
सवैया.. ___ जीव अकर्ता कह्यो परको, परको करता पर ही परवान्यो।
ज्ञान निधान सदा यह चेतन, ज्ञान करै न करै कछु आन्यो। ___ज्यों जग दूध दही घृत तक्रकी, शक्ति धरै तिहुं काल वखान्यो। । कोऊ प्रवीन लखें हगसेतीसु, भिन्न रहैवपुंसोलपंटान्यो।॥२३॥
मात्रिक कवित्त. चेतन चिह्न ज्ञान गुण राजत, पुद्गलके वरणादिक रूप। . चेतन आपरु आन विलोकत, पुग्गल छाँह धरै अरु धूप॥ चेतनकै थिरता गुण राजत, पुग्गलकै जड़ता जु अनूप । चेतन शुद्ध सिधालय राजत, ध्यावत है शिवगामी भूप ॥२४॥
कवित्त. , जीवहू अनादिको है कर्महू अनादिको है, भेदहू अनादिको है सर्व है। । दोऊदलमें। रीझवेको है स्वभाव रीझनाहीं है स्वभाव, रीझवे.
को भावसो स्वभाव है अमलमें।। साँचेही सो करै प्रीति सांचेसों नकरी प्रीति, सांची विधि रीतिसो बहाय दई पलमें । ज्ञान गुन ।
काम कीने काम के न काम कीने, ध्यानमें मुकाम कीने वसे आप इथलमें ॥ २५॥ .
दासीनके संग खेल खेलत अनादि बीते, अजहूं लों वहै बुद्धि कौन चतुरई है । कैसी है कुरूपकारी निशि जैसें अँधियारी, औ
(न रहै ऐसा भी पाठ है.. aropoPARWAROOPPERSORDPROPOROPOPPROPORON
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ब्रह्मविलास में.
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गुन गहनहारी कहा जान लई है ॥ इनहीकी संगतसों संकट अनेक सहे, जानि वूझ भूल जाहु ऐसी सुधि गई हैं । आवत परेखो हंस ! मोहि इन बातनको, चेतनाके नाथको अचेतना क्यों भई है ॥ २६ ॥
कहाँ कहाँ कौनसँग लागेही फिरत लाल ! आवो क्यों न आज तुम ज्ञानके महल में । नैकहू विलोकि देखो अन्तरसुदृष्टिसेती, कैसी कैसी नीकी नारि ठाड़ी हैं टहलमें ॥ एकनतें एक वनी सुंदर सुरूप घनी, उपमा न जाय गनी वामकी चहल | ऐसी विधिपाय कहूं भूलि और काज कीजे, एतो कह्यो मानलीजे वीनती सहलमें ॥ २७ ॥
सवैया.
लाई हॉलालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी बनी हैं ? ऐसी कहूं तिहुं लोकमें सुन्दर, और न नारि अनेक घनी हैं | याहीतैं तोहि कहूं नित 'चेतन ! याहूकी प्रीति जु तोसों सनी है । तेरी औ राधेकी रीझि अनंत, सुमोपें कहूं यह जात गनी है ||२८||
कायासी जु नगरीमें चिदानंद राज करै, मायासी जु रानी पैं मगन बहु भयो है | मोहंसो है फोजदार क्रोधसो है कोतवार, लोभसो वजीर जहां लूटिवेको रह्यो है ॥ उदैको जु काजी मानें मानको अदल जानै, कामसेवा कानवीस आइ वाको कह्यो है । ऐसी राजधानी में अपने गुण भूल गयो, सुधि जब आई तबै ज्ञान आय गह्यो है ॥ २९ ॥
कवित्त,
कौन तुम कहां आये कौनें बौराये तुमहिं, काके रस रसे कछु सुध धरतु हो ? | कौन हैं ये कर्म जिन्हे एकमेक मानिरहे, अजहूं न लागे हाथ भाँवरि भरतु हो वे दिन चितारो जहां वीते
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शतअष्टोत्तरी. अनादिकाल, कैसे कैसे संकट सहेहु विसरतु. हो । तुम तो है सयाने मैं सयान यह कौन कीन्हो, तीनलोकनाथ हैके दीनसे फिरतु हो ॥ ३०॥ है देख कहा भूलि पस्यो देख कहा भूलि परयो, देख भूलि कहा।
करयो हरयो सुख सब ही। ज्ञान है अनंत ताहि अक्षर अनन्त भाग, वल है अनंत ताहि देखो क्यों न अव ही ॥ कामवशपरे तातें न१ रकमें वशपरे, ऐसे दुख परे सो कहे न जाहिं कब ही। बात जो निगोदकी है तेहू तेन गोदकी है, ऐसे अनुमोदकी है जानिहू । जो तव ही ॥३१॥
__ सवैया वे दिन क्यो न चितारत चेतन, मातकी कूखमें आय बसे हो। ऊरध पांव नगे निशिवासर, रंच उसासनिको तरसे हो।
आवसंयोग वचेकहुं जीवत, लोगनिकी तव दृष्टि लसे हो। ___ आजुभये तुम यौवनके रस, भूल गये कितनै निकसे हो॥३२॥
कवित्त. सहे हैं नरकदुख फेर भयो तेही रुख, वेरवेर कहै मुख मैं ही। है सुख लहा है । जोवनकी जेब भरे जुवति लगावे गरे, करै काम
खोटे खरे काम आगि दहा है ॥ दिन दश बीति जाय हाथपीट प-20 छताय, यौवन न ठहराय कीजे अव कहा है। जरा आइलागी कान भूलिगये अवसान, देखे जमके निसान परयो शोचमहा है॥३॥ है जाही दिन जाही छिन अंतर सुबुद्धि लसी, ताही पल ताही
समै जोतिसी जगति है। होत है उद्योत तहां तिमिर विलाइजातु, आपापर भेद लखि ऊरधव गति है ॥ निर्मल अतीन्द्री ज्ञान
(१) 'कुसातनको'-ऐसा भी पाठ है. .. fropperpowePERapperceplpopropaproppeoppaperpa
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देखि राय चिदानंद,सुखको निधान याकै मायान जगति है । जैसोई शिवखेत तैसो देहमें विराजमान, ऐसो लखि सुमति स्वभाव है। है पगति है ॥ ३४ ॥
मात्रिक कवित्त. जवते अपनोजी आपु लख्यो, तवतें जुमिटीदुविधा मनकी। एयों शीतल चित्त भयो तवही सब, छांडदई ममता तनकी ॥ चिंतामणि जव प्रगट्योघरमें, तब कौन जु चाहि करै धनकी । जो सिद्धमें आपमें फेर न जानै सो, क्यों परवाह करै जनकी ॥३५॥
सवैया. केवल रूप महा अति सुंदर, आपुचिदानंद शुद्ध विराज ।
अंतरदृष्टि खुलै जव ही तब, आपुहीमें अपनो पद छाजे ।। हैं सेवक साहिव कोऊनही जग, काहेको खेद करैकिहँ काजै। अन्य सहाय न कोऊ तिहारैजु, अंतचल्योअपनो पद साजै॥३६॥
दोहा. जा छिन अपने सहज ही, चेतन करत किलोल॥ __ता छिन आनन भास ही, आपुहि आपु अडोल ॥ ३७॥
. कवित्त. पियो है अनादिको महा अज्ञान मोहमद, ताहीत न शुधि याहि और पंथ लियो है। ज्ञानविना व्याकुल है जहां तहां गि के यो परै, नीच ऊंच औरको विचार नाहिं कियो है॥ वकियो विराने वश तनहूकी सुधि नाहिं, वूडै सव कूपमाहिं सुन्नसान हियो है। ऐसे मोहमदमें अज्ञानी जीव भूलि रह्यो ज्ञानदृष्टि देखो, 'भैया' कहा ताको जियो है ।। ३८॥
देखत हो कहां कहां केलि करै चिदानंद, आतमस्वभाव भूलि
(१) सहाय नही नर कोड तिहारै ऐसा पाठ भी है. BlopappapeparpRAPARRORDPROPE
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१७, और रस राच्यो है। इन्द्रिनके सुखमें मगन रहै आगे जाम इन्द्रिएनके दुख देख जाने दुख सांच्यो है । कहूं क्रौध कहूं मान कहूं है माया कहूं लोभ; अहंभाव मानिमानि औरठौर माच्यो है ॥ देव तिरजंच नरनारकी गतिन फिरे, कौन कौन स्वांग धरै यह ब्रह्म नाच्यो है ।। ३९ ॥
करखाछंद गुर्जरभाषायाः । उहिल्याजीवड़ाहूंतनै शू कहूं, वळीवळी आज तुं विषयविष सेवै।।
विपयना फल अछै विषय थकी पांडुवा ज्ञाननी दृष्टि तूंकांन वैवै॥ ॐ हजी शुं सीख लागी नथी कांतनै नरकना दुःख कहिवेको न रेवै। आन्यो एकलो जायपण एक तू, एटलामाटे का एटलू खेवै ॥ कवित्त.
.. न कोड तो करै किलोल भामिनीसों रीझिरीझि, वाहीसों सनेह ।
करै कामराग अंगमें । कोउतो लहै अनंद लक्ष कोटि जोरि है लक्ष लक्ष मानकरै लच्छिकी तरंगमें । कोउ महाशूरवीर कोटिक
गुमान करै, मो समान दूसरो न देखो कोऊ जंगमें । कहैं कहा 'भैया, कछु कहिवेकी वात नाहि, सब जग देखियतु रागरस
रंगमें ॥४१॥ है जोलों तुम और रूप है रहे हो चिदानंद, तोलो कहूं सुख नाहिं रावरे विचारिये। इन्द्रिनिके मुखकोजो मान रहे सांचो सुख, सो तो सब दुःख ज्ञान दृष्टिसों निहारिये॥ एतो विनाशीक रूप छिनमें औरै । स्वरूप, तुम अविनाशीभूप कैसें एक धारिये। ऐसो नरजन्म पाय
विवेक कीजै, आप रूप गहि लीजे कर्मरोग टारिये ॥४२॥ - अरे मूढ चेतन! अचेतन तू काहे होत, जेई छिन जांहिं फिर
तेई तोहि आयवी? । ऐसो नरजन्म पाय श्रावकके कुल आय, maharaDomperPRORADARPANMOPandey
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ब्रह्मविलासम. रह्यो है विपै लुभाय धीमति छाइवी ॥ आगे ह अनादिकाल, हवीते विपरीत हाल, अजहूं सम्हारि लाल! वेर भली पाइवी । पी-, है छ पछतायें कछु आइ हैन हाथ तेरे, तातें अवचेत लेहु भली परजायवी ॥४३॥
जीवै जग जिते जन तिन्हें सदा रैनदिन,सोचतही छिन छिन काल छीजियतु है। धन होय धान होय, पुत्र परिवार होय, बडो विसतार होय जस लीजियतु है ॥ देहहू निरोग होय सुखको संयो। गहोइ मनवांछे भोग होय जोलौ जी जियितु है। चहै वांछा पूरी होइ पैन बांछे पूरी होय, आयु थिति पूरी होय तोलों कीजियतु है।४ा
मात्रिक कवित्त. जबलों रागद्वेष नहिं जीतय तवलों मुकति न पा कोइ । जबलों क्रोध मान मनधारत, तवला, सुगति कहांत जबलों माया लोभ वसे उर, तवलों,सुख सुपने नाहि एअरिजीत भयोजो निर्मल, शिवसंपति विलसत है सोइ ॥४५
कवित्त. सात धातु मिलन है महादुर्गन्ध भरी, तासातुम प्रीति करीलहै हत अनंद हौ । नरक निगोदके सहाई जे करन पंच, तिनहीकी सीख संचि चलत सुछंद हो ॥ आठों जाम गहे काम रागरसरंग
राचि, करत किलोल मानों माते ज्यों गयंद हो । कडू तो विचार एकरो कहां कहां भूले फिरो, भलेजू भलेजू 'भैया' भले चिदाहनंद हो ॥ ४६॥
सवैया. ए मन मूढ! कहा तुम भूले हो, हंसविसार लगे परछाया ।
यामें स्वरूप नहीं कछु तेरोजु, व्याधिकी पोट बनाई है काया। Sentyago cost accueism
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शतअष्टोत्तरी. C: सम्यक रूप सदा गुण तेरोसु, और वनी सबही भ्रम माया । ए देखत रूप अनूप विराजत सिद्धसमान जिनंद बताया ॥४७॥
चेतन जीव! निहारह अंतर, ए सब है परकी जड काया , इन्द्रकमान ज्यों मेघघटामहिं, शोभत है मैं रहै नहिं छाया ॥ रैन समै सुपनो जिम देखें तु प्रात बहै सब झूट बताया।
त्यों नदिनाव सँयोगमिल्यो तुम,चेतहु चित्तमें चेतन राया ॥४॥ है देहके नेह लग्यो कहा चेतन, न्यारी थे क्यों अपनी करमानी।।
याहीसों रीझि अज्ञानमें मानिक, याहीमें आपुन रह्योथानी॥
देखतु है परतच्छ विनाशी तऊ, नहिं चेतत अंध अज्ञानी। है, होहु सुखी अपनो बल फोरिक, मानकह्योसर्वज्ञकी बानी ॥४९॥
समस्यापूर्ति-'चेतत क्यों नहिं चेतनहारे' सवैया । केवलरूप विराजत चेतन, ताहि विलोकि अरे मतवारे । काल अनादि वितीत भयो, अजहूं तोहि चेतन होत कहारे? ॥ है भूलिगयो गतिको फिरवो अब तो दिन च्यारि भये ठकुरारे। 8 लागि कहा रह्यो अक्षनिके संग, चेतत क्यों नहिं चेतनहारे'॥५०॥ ॥
वालक है तव वालकसी बुधि, जोवन काम हुतासन जारे। 8 वृद्ध भयो तव अंग रहे थकि, आये हैं सेत गये सब कारे॥
पाय पसारि परयो धरतीमहि, रोवै रटै दुख होत महारे | वीतीयांवात गयोसवभूलितू, चेततक्यों नहिं चेतनहारे॥५१॥3
वालपनं नित वालनके सँग, खेल्यो है ताकी अनेक कथारे। है जोबन आप रस्यो रमनीरस, सोउ तो वात विदीत यथारे ॥
वृद्ध भयो तन कंपत डोलत, लार परै मुख होत विथारे । देखिशरीरके लच्छन भैयात, 'चेततक्यों नहिं चेतनहारे।।५२॥
(१) इन्द्रधनुप. (२) इन्द्रियोंके. MandamPAROORDARSHURAMRPnpandanand
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वृद्ध भयो तपस्यो धरतीमहि, तक्यों नहिँ चेतना कथारे ।
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ब्रह्मविलासमें तू ही जु आय बस्यो जननी उर, तूही रम्यो नित वालकतारे ।।
जोबनताजु भई पुनि तोहिको, ताहीके जोर अनेक ते मारे ॥ है है वृद्ध भयो तुंही अंग रहै सब, वोलत वैन कह तुतरारे । है देखि शरीरके लक्षण भैया तु 'चेतत क्यों नहिं चेतन हारे ॥५३॥
औरसों जाइ लग्यो हितमानिके, वाहीके संग सुज्ञान विडारे। ई. [ काल अनादि वस्यो जिनके ढिग,जान्योन लक्षणये अरि सार ।। र भूलिगयो निजरूप अनूपम, मोह महा मदके मतवारे। तेरो हू दाव वन्यो अवकेतुम, चेतत क्यों नहिं चेतन हारे ॥५४॥
कवित्त. पंचनसों भिन्न रहै कंचन ज्यों काई तज, रंच न मलीन हूँ होय जाकी गति न्यारी है। कंजनके कुल ज्यों स्वभाव कीच है छुवै नाहि, बसै जलमाहि पै न उर्द्धता विसारी है । अंजनके ?
अंश जाके वंशमै न कहूं दीखे, शुद्धता स्वभाव सिद्धरूप सुखएकारी है । ज्ञानको समूह ज्ञान ध्यानमें विराजि रह्यो, ज्ञानदृष्टि
देखो 'भैया' ऐसो ब्रह्मचारी है ॥ ५५ ॥ है चिदानंद भैया विराजत है घंटमाहिं, ताके रूप लखिवेको
उपाय कछू करिये । अष्ट कर्म जालकी प्रकृति एक चार आठ, तामें कछू तेरी नाहि आपनी न धरिये ॥ पूरवके बंध तेरे तेई है आइ उदै होंहि, निजगुणशकतिसों तिन्है त्याग तरिये । सिद्धसम में
चेतन स्वभावमें विराजत है, वाको ध्यान धरु और काहुसों न ॐडरिये ॥५६॥ .
एक शीख मेरी मान आप ही तू पहिचान, ज्ञान द्गचर्ण आन वास वाके थरको । अनंत बलधारी है जु हलको न Pop/od/G/RD/panemanDARO/AROMere
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शतअष्टोत्तरी. भारी है, महाब्रह्मचारी है जुसाथी नाहिं जरको ॥ आप महाते-६ जवंत गुणको न ओर अंत, जाकी महिमा अनंत दूजो नाहि । वरको । चेतनाके रस भरे चेतन प्रदेश धरे, चेतनाके । सिद्ध पटतरको ॥ ५७ ॥ , कर्मको करैया यह भरमको भरैया यह, धर्मको धरैया यहै है
शिवपुर राव है। सुख समझेया यह दुख भुगतैया यहै, भूलको है है भुलैया यहै चेतना स्वभाव है॥ चिरको फिरैया यह भिन्नको । है रहया यहै, सबको लखैया यहै याको भलो चाव है। राग द्वेषको । । हरैया महामोखको करैया, यहै शुद्ध 'भैया' एक आतम है स्वभाव है ॥५८॥
उर्दूभापामें कवित्त. मान यार ! मेरा कहादिलकी चशम खोल, साहिब नजदीक है। १ तिसको पहचानिये । नाहक फिरहु नाहिं गाफिल जहान बीचि ।
शुकन गोश जिनका भलीभांति जानिये ॥ पावक ज्यों वसता है । है अरनी पखानमाहि, तीसरोस चिदानंद इसहीमें मानिये । पंजसे । गनीम तेरी उमरसाथ लगे हैं खिलाफ तिसें जानि तूं आप सच्चा
आनिये ॥ ५९॥ है अवै भरमके त्योरसों देख क्या भूलता, देखि तु आपमें जिन
आपने वताया है। अंतरकी दृष्टि खोलि चिदानंद पाइयेगा, बाहि-६ रकी दृष्टिसों पौद्गलीक छाया है । गनीमनके भाव सब जुदे करि है देखि तू, आगें जिन ढूंढा तिन इसीभांति पाया है । वे ऐब साहिव विराजता है दिलबीच, सच्चा जिसका दिल है तिसीके दिल आया है ।। ६०॥
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नाहक विराने तांई अपना कर मानता है, जानता तू है कि नाही अंत मुझे मरना है । केतेक जीवनेपर ऐसे फैल करता है, है सुपनेसे सुखमें तेरा पूरा परना है ।। पंजसे गनीम तेरी उमरके,
साथ लगे, तिनोंको फरक किये काम तेरा सरना है । पाक बे, ऐबसाहिब दिलबीच वसता है, तिसको पहिचान वे तुझे जो त-ह रना है ॥ ६१॥
वे दिन क्यों फरामोश करता है चिदानंद, दोजकके बीच तूं। ६ पुकार पड़ा करता था। उछालके अकाश तुझै लेते थे त्रिशूलसों
आतिससा आब तू तो पीव ही जरता था ॥ तत्ता लोहा करिकी देह तेरी तोरते थे, फिरस्तोंके आगे तू साइत भी न ठरता था। जिंदगानी सागरोंकी उमर तेरी हुई थी, जिसके बीच वे तू ऐसे दुःख भरता था ॥ ६२॥
कवित्त, इकतुकिया. चैतहुरे चिंदानंद इहां बने दोऊ फंद, कामिनी कनक छंद जैन-2 हूँ मैंनकासी है । जिहिंको तू देख भूल्यो, विषयसुख मान फूल्यो,
मोहकी दशामें झूल्यो, अनमैनकासी है ॥ पाये ते अनेक वेर देखै कहा फेरि फेरि, कालकरतव हेरि जैन मैनिकासी है। इनको तूछाँडदेहु 'भैया'कह्यो मान लेहु,सिद्ध सदा तेरो गेह अनमैनाक
सी है ॥ १३॥ है कोटिकोटि कष्ट सहे, कष्टमें शरीर दहे, धूमपान कियो पैन । पायो भेदं तनको वृक्षनके मूलरहे जटानमें झुलि र भूलि रहे किये कष्ट तनको। तीरथ अनेक न्हये, तिरत न कहूं भये, कीरतिके काज दियों दानंहू रतनको । ज्ञानविना बेर वेर क्रिया करी फेर फेर, कियो कोऊ कारज न आतम जतनको ॥ ६४॥ ए धरम न जानतु है मूढ मिथ्या मानतु है, शास्त्रशुद्ध छोरि औ
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२३४ रपन्यो चाहे पारसी। मिथ्यामती देव जहांशीस नावे जाय तहां,
एते पर कहै हमें येही पूरो पारसी॥ निशदिन विपै मानै सुकृतको है है नहिं जानै, ऐसी करतूत कर पहुंच्यो चाहे पारसी ॥ नरकमाहिं परैगोसुतीसतीन भरैगो, करेगो पुकारएको न विपति पारसी॥६५
सवैया । देव अदेवमें फेर न मान, कहै सब एक गँवार कहूं को।। है साधु कुसाधु समान गनै चित, रंच न जानत भेद कहूंको ॥ धर्म कुधर्मको एक विचारत, ज्ञान विना नर बासी चहूंको । ताहि विलोकि कहा करिये मन!भूलो फिर शठ कालतिहूंको॥१६॥
दोहा.. नैननितें देख सकल, नै ना देखे नाहि। ताहि देखु को देख तो, नैनझरोखे मांहि ॥ ६७॥
कवित्त. देखे ताहि देख जोपै देखिवेकी चाह धरै, देखे विन आप तोहि पाप बडो लाग है । मोह निंद शैनमें अनादिकाल सोय रह्यो, है देखि तू विचार ताहि सोवै है कि जागै है ॥ रागद्वेपसंगसों मि४ थ्यातरंग राचिरह्यो, अष्ट कर्म जालकी प्रतीति मानि पागै है । वि.
पैकी कलोल हंस देखि देखि भूलि गयो, रूपरस गंध ताहि कैसे । अनुरागै है ॥ ६८॥ र देव एक देहरेमें सुंदर सुरूप वन्यो, ज्ञानको विलास जाको सिॐद्ध सम देखिये । सिद्धकीसी रीति लिये काहू सो न प्रीति किये, है
पूरबके बंध तेई आइ उदै पेखिये ॥ वर्ण गन्ध रस फास जामे, है कछु नाहि भैया, सदाको अबन्ध याहि ऐसो करि लेखिये । अ-, जरा अमर ऐसो चिदानंद जीव नाव, अहो मन मूढ ताहि मर्ण । क्यों विशेखिये ॥ ६९॥
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ब्रह्माविलासम. काके दोऊ राग द्वेष ? जाके ये करम आठ, काके ये करम है आठ ? जाके रागद्वेख हैं। ताको नाव क्यों न लेहु ? भलें जानो। है तुम लेहु, लिखिहु वतावो लिखिवेको कहा लेख है? ॥ ताको कछु,
लच्छन है? देखि तूं विचक्षन है, कछू उन्मान कहो? मान कह्यो में , ख है । ए न कहो सुधि सुधि तो परैगी आगें आगे, जो कह है ई इनसों मिलाप को विशेख है ॥ ७० ॥
कुंडलिया भैया,भरम न भूलिये पुद्गलके परसंग। अपनो काज सवारिये, आय ज्ञानके अंग ॥ आय ज्ञानके अंग, आप दर्शन गहि लीजे। कीजे थिरताभाव, शुद्ध अनुभौरस पीजे॥ दीजे चरविधि दान, अहो शिव खेत वसया। तुम त्रिभुवनके राय,भरम जिन भूलहु भैया ॥१॥ हंसा हँस हँस आप तुझ, पूर्व संवारे फंद। तिहिं कुदावमें वंधि रहे, कैसे होहु सुछंद। कैसें होहु सुछंद, चंद जिम राहु गरासे। तिमर होय वल जोर, किरणकी प्रभुतानासे ।। स्वपरभेद भासै न देह जड़ लखि तजि संसा । तुम गुण पूरन परम सहज अवलोकहु हंसा ।। ७२ ।। भैया पुत्रकलन पुनि, मात तात परिवार । ए सब स्वारथके सगे, तू मनमांहि विचार ॥ तू मनमाहि विचार, धार निजरूप निरंजन ।
पर परणति सो भिन्न, सहज चेतनता रंजन ।। (१) दशविधि-ऐसा भी पाठ है। FROPEARWARDMREMEMARWARWAMANDEY
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शतअष्टोत्तरी.
कर्म भर्म मिलि रच्यो, देह जड़ मूर्ति धरैया । तासों कहत कुटंब मोह मद माते भैया ॥ ७३ ॥ सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ । आये धोखे आमके, यापै पूरण इच्छ ॥ यापें पूरण इच्छ वृच्छको भेद न जान्यो । रहे विषय लपटाय, मुग्ध मति भरम भुलान्यो || फलमहिं निकसे तूल स्वाद पुन कछू न हूवा । यहै जगतकी रीति देखि, सेमर सम सूवा ॥ ७४ ॥ मात्रिक - कवित्त.
२५
खंच ॥
आठनकी करतूत विचारहु, कौन कौन यह करते ख्याल । कबहूं शिरपर छत्र धरावहिं कबहू रूप करें बेहाल || देवलोक कबहूं सुख भुगतहिं, कवहू नेकु नाजको काल । ये करतूत करें कर्मादिक, चेतन रूप तु आप संभाल ॥ ७५ ॥ चेतन रूप विचारि विचक्षन, ए सब हैं परके परपंच | आठ कर्म लगे निशिवासर, तिन्हें निवारि लेहु किन जिय समुझावत हों फिर तोका, इनसे मग्न होऊ जिन रंच ॥ ये अज्ञान तुम ज्ञान विराजत, तातें करहु न इनको संच ॥ ७६ ॥ चेतन जीव विचारहु तो तुम, निहचै ठौर रहनकी कौन । देव लोक सुरइंद्र कहावत, तेहू करहिं अंत पुनि गौन ॥ तीन लोकपति, नाथ जिनेश्वर, चक्रीधर पुनि नर हैं जौन । यह संसार सदा सुपनेसम, निशचे वास इहां नहिं हौंन ॥ ७७ ॥ चितके अंतर चेत विचक्षन, यह नरभव तेरो जो जाय । पूरव पुण्य किये कहूं अतिही, तातें यह उत्तम कुल पाय ॥ अव कछु सुक्रत ऐसो कर तू, जातें मरण जरा नहिं थाय । वार अनंती मरकें उपजे, अव चेतह चित चेतन राय ॥ ७८ ॥
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ब्रह्मविलास में
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अरे नर मूरख तू भामनीसों कहा भूल्यो, विपकीसी वेल काह दगाको बनाई है । सेवत ही याहि नैकु पावत अनेक दुःख, सुखहूकी बात कहूं सुपनै न आई हैं ॥ रसके कियेसा रसरोगको रसंस होइ, प्रीतिके कियेसों प्रीति नरककी पाई है । यह शुभ्र सागर में डूविवेकी ठौर 'भैया', यामें कछु धोखा खाय रामकीदुहाई है ॥ ७९ ॥
मात्रिक कवित्त.
चंद्रमुखी मन धारत है जिय, अंतसमें तोकों दुखदाई | चार गतिमें यही फिरावत, तासों तुम फिर प्रीति लगाई ॥ बार अनंती नरकहिं डारिके, छेदन भेदन दुःख सहाई । सुबुधि कहै सुनि चेतनप्रानी, सम्यक शुद्ध गहौ अधिकाई ॥८०॥
सवैया..
रे मन मूढ विचारि करो, तिथके संग वात सवै विरंगी । ए मन ज्ञान सुध्यान धरो, जिनके संग बात सबै सुधरैगी ॥ धू गुण आपु विलक्ष गहो पुनि, आपुहितै परतीति टरैगी । सिद्ध भये ते यही करनी कर, ऐसें किये शिव नारि वरैगी ॥८१॥
सोरठा.
एहो चेतनराय, परसों प्रीति कहा करी ।
जे नरकहिं ले जाहिं, तिनहीसों राचे सदा ॥ ८२ ॥ मात्रिक कवित्त. वेतन नींद बडी तुम लीनी, ऐसी नींद लेय नहिं कोय । काल अनादि भये तोहि सेवत, विनजागे समकित क्यों होय ॥
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२७ निशचै शुद्ध गयो अपनो गुण, परके भाव भिन्न करि खोय। १ हंस अंश उज्वल है जब ही, तव ही जीव सिद्धसम सोय ॥८॥ काल अनादि भये तोहि सोवत, अब तो जागहु चेतन जीव ।। अमृत रस जिनवरकी वानी, एकचित्त निशचैकर पीव ।। पूरव कर्म लगे तेरे संग, तिनकी मूर उखारहु नींव। है ये जड़ प्रगट गुप्त तुम चेतन, जैसे भिन्न दूध अरु घीव ॥ ८॥
समान सवैया. काल अनादि ते फिरत फिरत जिय,अव यह नरभव उत्तम पायो। समुझि समुझि पंडित नर प्रानी, तेरे कर चिंतामणि आयो॥ घटकी आँखै खोल जोहरी, रतन जीव जिनदेव बतायो। तिलमें तैल वास फूलनिमें, यो घटमें घटनायक गायो ॥ ८५॥
सवैया. है हंसको वंश लख्यो जवते, तब जु मिट्यो भ्रम घोर अंधेरो।।.
जीव अजीव सबै लख लीने, सु तत्त्व यहै जिनआगमकेरो॥ है तायके आवत ही अहि भागे, सु टि गयो भवबंधन घेरो। १. सम्यक शुद्ध गहो अपनो गुन,ज्ञानके भानु कियो है सवेरो॥८६॥
कबित्त. उदै करै जो भानु पच्छिमकी दिशा आय, उड़िके अकाश है मध्य जाय कहूं धरती । अचल सुमेरु सोऊ चल्यो जायअवनीहै पै, सीतता स्वभाव गहै आगि महा जरती ॥ फूलै जोपै कौल कई
पर्वतकी शिलानपै, पाथरकी नाव चलै पानीमाहिं तरती । चनलिके ब्रह्मड जोपै तालमधि जाहि कहूं, तऊ विधनाकी लेखि
लिखी नाहिं टरती॥ ८७॥ PronvaroenasapanaAQUARRRRRRRRRRom
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ब्रह्मविलासम.
सवैया.
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काहेको शोच करै चित चेतन, तेरी जु वात सु आगे बनी है। है देखी है ज्ञानीते ज्ञान अनंतमें,हानि ओवृद्धिकी रीति घनी है ।। है ताहि उलंघि सकै कहि कोउजु, नाहक भ्रामिक वुद्धि ठनी है।
याहि निवारिके आपु निहारिकें, होहु सुखी जिम सिद्ध धनी है ८८ है कोउजु शोच करो जिन रचक, देह धरी तिहु काल हरेंगी। है जो उपज्यो जगमें दिन चारके, देखत ही पुनि सोई मरेगो॥ मोह भुलावत मानत सांच सो, जानत याहीसों काज सरंगो। पंडित सोई विचारत अंतर, ज्ञान सँभारिक आपु तरंगो। ८९॥ काहेको देहसों नेह करे तुव, अंतको राखी रहेगी न तेरी। है मेरी है मेरी कहा करै लच्छिसों, काहुकी हैके कहूं रही नेरी ?
मान कहा रह्यो मोह कुटुंबसों, स्वारथके रस लागे सगेरी। ई तातें तू चेति विचक्षन चेतन, झूटी है रीति सबै जगकेरी ॥९०॥ है।
कवित्त. है केवल प्रकाश होय अंधकार नाश होय, ज्ञानको विलास होय
ओरलों निवाहवी। सिद्धमें सुवास होय, लोकालोक भास होय, आपुरिद्ध पास होय औरकी न चाहवी ॥ इन्द्र आय दास होय
अरिनको त्रास होय,दवको उजास होय इष्टनिधि गाहिवी। सत्वहै सुखराश होय सत्यको निवास होय, सम्यक भयेतें होय ऐसी सत्य साहिवी ॥ ९१ ॥
मात्रिक कवित्त. जाके घट समकित उपजत है, सो तो करत हंसकी रीत । क्षीर गहत छांडत जलको सँग, वाके कुलकी यह प्रतीत ॥
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........शतमष्टोचरी. कोटि उपाय करो कोउ भेदसों, क्षीर गहै जल नेकु न पीत । तैसे सम्यकवंत गहै गुण, घट घट मध्य एक नयनीत ॥ ९२ ॥ सिद्ध, समान चिदानंद जानिके, थापत है घटके उरबीच ।। है वाके गुण सब बाहि लगावत, और गुणहि सब जानत कीच ॥
ज्ञान अनंत विचारत अंतर, राखत है जियके उर सींच । ऐसें समकित शुद्ध करत है, तिनत होवत मोक्ष नगीच ॥१३॥
कवित्त. । निशदिन ध्यान करो निशचं सुज्ञान करो,कर्मको निदान करो 1 आवै नाहि फेरिकें । मिथ्यामति नाश करो सम्यक उजास करो, धर्मको प्रकाश करो शुद्धदृष्टि हेरिक ॥ ब्रह्मको विलास करो,
आतमनिवास करो, देव सव दास करो महामोह जेरिक। अनुभौ । 2 अभ्यास करो थिरतामें वास करो, मोक्षसुख रासकरो कहूं, तोहि टेरिक ।। ९४ ॥
जिनके सुदृष्टि जागी परगुणके में त्यागी, चेतनसो लवलागी भागी भ्रांति भारी है । पंचमहाव्रतधारी जिन आज्ञाके विहारी, है नग्नमुद्राके अकारी धर्महितकारी है । प्राशुक अहारी अट्ठाईस मूल गुणधारी,परीसह सहें भारी परउपकारी है।पर्मधर्म धनधारी सत्य शब्दके उचारी, ऐसे मुनिराज ताहि वंदना हमारी है ९५॥
शुभ ओ अशुभ कर्म दोऊ सम जानत है, चेतनकी धारामें ६ अखंड गुण साजे है ।जीवद्रव्य न्यारो लखै न्यारेलख आठों कर्म जप ""
"" " "" "" पूरवीक बंधते मलीन केई ताजे हैं। स्वसंवेग ज्ञानके प्रवानत अवाधिवेदि ध्यानकी विशुद्धतासों चढ़ केई बाजे हैं। अंतरकी दृष्टि
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(१) पीता है. (२) भयः PRAKANPURepom/ARODAVARRIORPRODUIDADE
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ब्रह्मविलासमें सो अरिष्ट सब जीत राखे, ऐसी बात करें ऐसे महा मुनिराजे
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है श्रीवीर जिनस्वामीको केवल प्रकाश भयो, इंद्र सब आय तहां क्रिया निज कीनी है। सोचत सो इन्द्र तव वानी क्यों न खिर । आज यह तो अनादि थिति भई क्यों नवीनी है ।। पूछत सीम- धर जायके विदेहक्षेत्र, इन्द्रभूति योग छिनमें बताय दीनी है। आय एक काव्य पढी जाय इंद्रभूति पास, सुनत ही चौंक चल्यो आय दीक्षा लीनी है ॥ ९७ ॥
छंद प्लवङ्गम. . राग द्वेष अरु मोह, मिथ्यात्व निवारिये। पर संगति सब त्याग, सत्य उर धारिये ।। केवल रूप अनूप, हंस निज मानिये । ताके अनुभव शुद्ध सदा उर आनिये ॥ ९८॥
सवैया. है जो षट स्वाद विवेकी विचारत, रागनके रस भेदनपो है। है पंच सुवर्णके लच्छन वेदत, वूझै सुवास कुवासहिं जो है ॥
आठ सपर्श लखै निज देहसों, ज्ञान अनंत कहेंगे कितो है। है ताहि विलोकि विचक्षन रेमन, द्वैपल देखतो देखत को है।।९९॥
कवित्त. है बुद्धि भये कहा भयो जो शुद्ध चीन्हीं नाहि,बुद्धिको तो फल, है यह तत्त्वको विचारिये । देह पाये कौन काज पूजे जो न जिन
राज, देहकी बडाई ये जप तप चितारिये ॥ लच्छि आये कौन सिद्धि रहि है न थिर रिद्धि, लच्छिको तो लाहु जो सुपात्र मुख SwoopnappeopPORORSCOPompoupoROWROOOD
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....................शतअष्टोत्तरी. , डारिये । वचनकी चातुरी बनाय बोले कहा होहि, वचन तो वह सत्य शवद उचारिये ।। १००॥
सर्वया. जो परलीन रहै निशिवासर, सो अपनी निधि क्यों न गमावै । है, जो जगमाहिं लखै न अध्यातम, सो जिय क्यों निहचैपद पावै॥
जो अपने गुन भेद न जानत, सो भवसागरमें फिर आवै । जो विपखाय सोमाण तजे, गुड खाय जो काहेनकांन विधावै ॥१०॥
दुर्मिल सवैया ८ सगण. भगवंत भजो सु तजो परमाद, समाधिके संगमें रंग रहो। अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि,गहो निज शुद्धि ज्यो सुक्ख लहो। विपया रसके हित वूडत हो, भवसागरमें कछु शुद्धि गहो। तुम ज्ञायक होपट् द्रव्यनके,तिनसों हित जानके आपुकहो।।१०१॥
कवित्त. देखी देह खेतक्यारी ताकी ऐसी रीति न्यारी,बोये कछु आन 2. उपजत कछु आन है । पंचामृत रस सेती पोखिये शरीर नित, उपजै रुधिर मास हाडनको ठान है ।। १०२ ॥ एतेपर रहै नाहि । कीजिये उपाय कोटि, छिनमें विनश जाय नाम न निशान है। एते , है देखि मूरख उछाह मनमाहिं धरै, ऐसी झूठ वातनिको सांच कर मान है ॥ १०३ ॥
कुंडलिया. सुखमें मग्न सदा रहै, दुखमें करै विलाप । ते अजान जाने नहीं, यह पुन्य अरु पाप ।। यह पुण्य अरु पाप, आप गुन इनतें न्यारो ।
चिदिलास चिद्रूप, सहज जाको उजियारो ॥ PoGvomAGOVERemenpeopoornarcoaccount
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३२
ब्रह्मविलास में.
गुण अनंत जामे प्रगट, कबहू होहिं न और रुख । तिहिं पद परसे विनु रहै, मूढ मगन संसार सुख ॥ १०४ ॥ कवित्त.
जीव जे अभव्य राशि कहे हैं अनंत तेल, ताहू तैं अनंत गुणे सिद्धके विशेखिये । ताहूतैं अनंत जीव जगमें जिनेश कहे, तिनहू कर्म ये अनंत गुणे लेखियेः ॥ तिनहूर्तें पुद्गल प्रमाणु हैं अनंत गुणे, ताद्वतैं अनंत यों अकाशको जु पेखिये । ताहूतैं अनन्त ज्ञान जामें सब विद्यमान, तिहूं काल परमाण एकसमै देखिये ॥ १०५ ॥ कवित्त,
जे तो जल लोकमध्य सागर असंख्य कोटि, ते तौ जल पीयो पै न प्यास याकी गयी है । जे ते नाज दीपमध्य भरे हैं अवार ढेर, तेतौ नाज खायो तोऊ भूख याकी नयी है ।। तातें ध्यान ताको कर जातें यह जाँय हर, अष्टादश दोष आदि येही जीत लयी है । वहै पंथ तूहीं साजि अष्टादशजाहिं भाजि होय बैठि महाराज तोहि सीख दयी है ॥ १०६ ॥
कविकी लघुता, छंद कवित्त,
हो बुद्धिवंत नर हँसो जिन मोह कोऊ, बाल ख्याल कीनो तुम लीजियो सुधारिके । मैं न पढ्यो पिंगल न देख्यो छंद कोश कोऊ, नाममाला नावको पढ़ी नहीं विचारिके ॥ संस्कृत प्राकृत व्याकरणहू न पढ्यो कहूं, तातें मोको दोष नाहि शोधियो निहा रिके । कहत भगोतीदास ब्रह्मको लह्यो विलास, तातैं ब्रह्म रचना करी है विसतारिके ॥ १०७ ॥
दोहा.
इति श्री शत अष्टोत्तरी, कीन्हीं निजहित काज ।
जे नर पढहिं विवेकसों, ते पावहिं शिवराज ॥ १०८ ॥
इति शतअष्टोत्तरी कवित्तबंध समाप्ताः ।
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इव्यसंग्रह.
अथ द्रव्यसंग्रह मूलसहित कवित्तबन्ध लिख्यते । मंगलाचरण. आर्याछंद.
जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिहिं | देविंदविददं वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥ १ ॥ छप्पयचंद.
सकल कर्मक्षय करन, तरन तारन शिव नायक । ज्ञान दिवाकर प्रगट, सर्व जीवहिं सुखदायक ॥ परम पूज्य गणधरहु, ताहि पूजित - जिनराजे । देवनिकं पति इन्द्र वृंद, चंद्रित छवि छाजे ॥ इह विधि अनेक गुणनिधिसहित, वृषभनाथ मिथ्यात हर । तमु चरण कमल वंदित भविक, भावसहित नित जोर कर || १ || दोहा.
तिहँ जिन जीव अजीवके, लखे सगुण परजाय ।
कहे प्रगट सब ग्रंथम, भेदभाव समुझाय ॥ १ ॥ जीवो उवओगमओ, अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भुत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो बिस्ससोडुगई ॥ २ ॥
कवित.
जीव हैं सुज्ञानमयी चेतना स्वभाव धरें, जानिवो औ देखियो अनादिनिधि पास है । अमूर्त्तिक सदा रहे और सोन रूप है, निचैन प्रवान जाक आतम विलास हैं | व्योहारनय कर्त्ता है देहके प्रमान मान, भुक्ता सुख दुःखनिको जगमें निवास है । शुद्ध नैं विलोके सिद्ध करम कलंक विना, ऊर्द्धको स्वभाव जाको लोक अग्रवास हैं ॥ २ ॥
(१) 'ओसा' ऐसा भी पाठ है।
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तिक्काले चदुपाणा, इंदिय वलमाउ आणपाणा य । ववहारा सो जीवो, णिच्चयणयदो दु चैर्दणा जस्स ॥३॥ तिहुंकाल चार प्राण धेरै जगवासी जीव, इन्द्रीवल आयु ओ उस्वास स्वास जानिये । एई चार प्राण धेरै सातामान जीवो कर, तातैं जीव नांव को नैव्योहार मानिये ॥ निचैनय चेतना विराज रही शुद्ध जाके, चेतना विरुद सदा याही प्रमानिये | अतीत अनागत सुवर्तमान भैया'निज, ज्ञानप्रान शास्त्रतो स्वभाव यों बखानिये ॥ ३ ॥
३४
उपओगो दुवियप्पो, दंसण णाणं च दंसणं चदुधा 1 चक्खु अचक्खू ओही, दंसणमथ केवलं पेयं ॥ ४ ॥ जीवके चेतना परिणाम शुद्ध राजत है, ताके भेद दोय जिन ग्रन्थनिमें गाइये । एक है सु चेतना कहावै शुद्ध दर्शन, दूजी ज्ञान चेतना लखेतैं ब्रह्म पाइये || देखिवेके भेद चारि लीजिये हृदै विचारि, चक्षु ओ अचक्षु औधि केवल सुध्याइये । येही चार भेद कहे दर्शन देखनेके, जाके परकाश लोकालोक हू लखाइये ॥ ४ ॥
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णाणं अठ्ठवियप्पं, मदिसुदिओही अणाणणाणाणि । मणपज्जय केवलमवि, पचक्खपरोक्खभेयं च ॥ ५ ॥ मइ सुइ परोदेख णाणं, ओही मण होइ वियल पंचक्खं । केवलणाणं च तहा, अणोवमं होइ सयलपञ्चक्खम् ॥५॥ ज्ञानके जु भेद आठ ताके नाम भिन्न सुनो, कुमति कुश्रुति अवधि लों विशेखिये । सुमति सुश्रुति सु औधि मनपर्जय और, के
( १ ) चेयणा ऐसा भी पाठ हैं । ( २ ) परोह ऐसा भी पाठ है ।
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द्रव्यसंग्रह. वल प्रकाशवान वसुभेद लेखिये ॥ मति श्रुति ज्ञान दोऊ हैं र परोक्षवान औधि, मनपर्जय प्रत्यक्ष एक देश पेखिये । केवल प्र
त्यक्ष भास लोकालोकको विकास, यह ज्ञान शास्वतो अनंतकाहैल देखिये ॥ ५॥ में अट्टचर्दुणाणदसण, सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया, सुई पुण दंसणं णाणं ॥ ६॥
मात्रिक कवित्त. है अष्ट प्रकार ज्ञान चतु दरसन, नय व्यवहार जीवके लच्छन ।
निह शुद्ध ज्ञान ओ दरसन, सिद्ध समान सुछंद विचक्षन ।। केवल ज्ञान दरस पुनि केवल, राजे शुद्ध तजै प्रतिपच्छन ।
यहनिहचै व्योहार कथनकी, कथा अनंत कही शिवगच्छन ॥६॥ है वण्ण रस पंच गंधा, दो फासा अष्ट णिच्चया जीवे। णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो ॥७॥
कवित्त. वर्ण पंच स्वेत पीत हरित अरुण श्याम, तिनहुके भेद नाना ६ भांतिके विदीत है । रस तीखो खारो मधुरो कडुओ कपायलो, है. इनहके मिले भेद गणती अतीत है। तातो सीरो चीकनो रूखो ।
नरम कठोर, हरुवो भारी सुगंध दुर्गंधमग्री रीत है । मूरति सुपुए गुलकी जीव है अमूरतीक नैव्यौहार मूरतीकवंधते कहीत है।॥७॥ है वंध्यो है अनादिहीको कर्मके प्रबंध सेती, तातें मूरतीक कह्यो। . परके मिलापसों । बंधहीमें सदा रहै समैप्रतिसमै गहै; पुग्गलसों 0 एकमेक ह रह्यो है आपसों ॥ जैसे रूपो सोनो मिले एक नाव है
(१) चहुं ऐसाभी पाठ है।। HanepanPERMERRIERSPADARPORPORNWROARD
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पाय रह्यो, तैसें जीवमूरतीक पुग्गल प्रतापसों। यह बात सिद्ध भई जीव मूरतीकमई,बंधकी अपेक्षा लई नैव्योहार छापसो॥ पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दुणिचयदो।
चेदणकम्मा णादा, सुद्धणया सुद्ध भावाणं ॥८॥ १ पुदगल करमको करैया है चिदानंद, व्योहार प्रवान इहां फेर
कछु नाहीं है । ज्ञानावर्णी आदि अष्ट कर्मको करता है, रागा-1 दिक भाव धरै आप उहि पांही है ॥ शुद्ध नै विचारिये तो राग है है कलंक याकै, यह तो अटक सदा चेतना सुधाही है । अनंत,
ज्ञान परिणाम तिनको करैया जीव, सास्वतो सदीव चिरकाल है है आपमाही हैं ॥ ८॥
ववहारा सहदक्खं, पुग्गलकम्मफलं पभुजेदि।। । आदा णिच्चयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स ॥९॥ है व्योहार नै देखिये तो पुग्गलके कर्मफल, नाना भांति सु-है खदुःख ताको भुगतैया है। उपजाये आपुतें ही शुभ ओ अशुभ कर्म, ताके फल साता ओ असाताको सहैया है ॥ निश्चनय दे, खिये तो यह जीव ज्ञानमई, अपुने चेतन परिणामको करैया है। है तातै भोक्ता पुनि सुचेतन परिणामनिको, शुद्धनै विलोकिये तो है १. सबको लखैया है ॥९॥
अणुगुरुदेहपमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा । १ असमुहदो ववहारा णिचयणयदोअसंखदेसोवा ॥१०॥ इ देहके प्रमान राजै चेतन विराजमान, लघु और दीरघ शरीहै रके उदैसों है । ताहीके समान परदेश याके पूरि रहे, सूक्ष्म औ हु बादर तन धरै तहां तैसो है । व्यवहारनय ऐसो कह्यो समुद्धात
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....द्रव्यसंग्रह. विना, देहको प्रमान नाहि लोकाकाश जैसो है। शुद्ध निश्चयन- है यसों असंख्यात परदेशी, आतम स्वभाव धरैः विद्यमान ऐसो ।
. पुढविजलतेउवाऊ, वणप्फदी विविह थावरेइंदी।
विगतिगचदुपंचक्खा,तसजीवा हॉतिसंखादी ॥११॥
पृथ्वीकाय जलकाय अग्निकाय वायुकाय, वनस्पतिकाय पांचो । र थावर कहीजिये । वे इंद्री ते इंद्री चौ इंद्री पंचेंद्रिय है चारों, है
जामें सदा चलिवेकी शकति लहीजिये ॥ तन जीभ नाक आंख कान यही पंचइंद्री, जाके जे ते होय ताहि तैसो सर्दहीजिये ।।
संख द्वै पिपीलि तीन भौंर चार नर पंच, इन्हें आदि नाना भेद । र समुझि गहीजिये ॥ ११ ॥ है समणा अमणा णेया, पंचेंदिय णिम्मणापरे सव्वे ।
वायरसुहमेइंदी, सव्वे पजत्त इदरा य॥१२॥
पंच इंद्री जीव जिते ताके भेद दोय कहे, एकनिकै मन एक मनविना पाइये । और जगवासी जंतु तिनके न मन कहूं, एक-1, द्री वेइंद्री तेंद्री चौइंद्री वताइये ॥ एकेंद्रीके भेद दोय सूक्षम वादर होय, पर्यापत अपर्यापत सवै जीव गाइये । ताके बहु है । विस्तार कहे हैं जु ग्रंथनिमें, थोरेमें समुझि ज्ञान हिरदै अनाहै इये ॥१२॥ है मग्गण गुण ठाणेहि य, चउदसहि हवंतितह असुद्धणया। विण्णेया संसारी, सब्वे सुद्धा हु सुद्धणया॥१३॥
चउदह मारगणा चउदह गुणस्थान, होहिं ये अशुद्ध नय
१ पादर' ऐसाभी पाठ है । २ पर्याप्त। ३ अपर्याप्त । emplePROPORPORANPAPERO/AROOPARDARPAN
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ब्रह्मविलासमें. कहे जिनराजने। येही भाव जोलों तोलों संसारी कहाँव जीव ६ इनको उलंपिकरि मिलै शिव साजने ॥ शुद्धनै विलोकियेतो शुद्ध है है है सकलजीव, द्रव्यकी उपेक्षासो अनंत छवि छाजने । सिद्धके
समान ये विराजमान सवै हंस, चेतना सुभाव धरै कर निज का जनै ॥ १३॥
णिकम्मा अठगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। हूँ लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पाद्वयेहिं संजुत्ता ॥ १४ ॥
अष्टकर्महीन अष्ट गुणयुत चरमसु, देह तातें कछु ऊनो सुमें खको निवास है । लोकको जु अग्र तहाँ स्थित है अनंत सिद्ध
उत्पादव्यय संयुक्त सदा जाको वास है ॥ अनंतकाल है पर्यन्त थिति है अडोल जाकी, लोकालोकप्रतिभासी ज्ञानको प्र
काश है। निश्चै सुखराज करै बहुरि न जन्म धरै, ऐसो सिद्ध है राशनिको आतम विलास है ॥ १४
___ पयडिडिदिअणुभागप्पदेसर्वधेहि सचदो मुक्को है उड़ गच्छदि सेसा, विदिसावजं गर्दि जंति ॥१॥
प्रकृति ओ थितिबंध अनुभागबंध परदेशबंध एई चार बंध है। एभेद कहिये । इन्ही चहुं बंधतै अबंध के चिदानंद, अग्निशिखा
सम ऊर्द्धको सुभावी लहिये । और सब जगजीव तजै निज १ देह जब, परभोको गौन करै तबै सर्ल गहिये । ऐसें ही अनादि- थिति नई कछू, भई नाहि, कही ग्रंथमांहि जिन तैसी सरद-है हिये ॥१॥
. . . . (इति जीवस्य नवाधिकाराः) १ (१) 'अपेक्षासों' ऐसा भी पाठ है परन्तु ऐसा पाठ रखनेपर 'अनंत' शब्दका
अर्थ 'नित्य' ऐसा लेना चाहिये. । (२) "सिद्धराजनिको' ऐसा भी पाठ है। womanPROOPPERRORomwwwparents
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३९ए , अजीवो पुण णेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं ॥ है
कालो पुग्गल मुत्तो, स्वादिगुणो अमुत्ति सेसादु ॥१५॥ है. अजीबदरव पंच ताके नांव भिन्न सुनो, पुद्गल ओ धर्मद्रर व्यको सुभाव जानिये । अधर्म द्रव्य आकाश द्रव्य काल दर्व , एई, पांचो द्रव्य जगमें अचेतन वखानिये ॥ तामे पुग्गल है मू-है इ.रतीक रूप रस गंध, पर्शमई गुणपरजाय लिये जानिये। और पं.
च जीव जुत कहे हैं अमूरतीक, निज निज भाव धरै भेदी । है. पिछानिये ॥ १५ ॥ है सद्दोवंधो सुहमो, थूलो संठाण भेद तमछाया ॥ .
उजोदादवसहिया, पुग्गलव्वस्स पजाया ॥१६॥
शवद वंध सूक्षम थूल ओ अकार रूप, 8वो मिलिवो ओ विछुरिवो धूप छाय है । अंधारो उजारो ओ उद्योत चंदकांतिहै सम, आतप सु भानु जिम नानाभेद छाय है । पुद्गल अनन्त ।
ताकी परजाय हू अनंत, लेखो जो लगाइये तोऽनंतानंत थाय है है । एकही समॆमें आय सव प्रतिभास रही, देखी ज्ञानवंत ऐसी ।
पुद्गल प्रजाय है ।। १६॥ र गइपरणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी ॥ है तोयं जह मच्छाणं, अच्छंता णेव सो णेई ॥ १७॥ है जब जीव पुद्गल चलै उठि लोकमध्य, तवै धर्मास्तिकाय सर हाय आय होत है । जैसें मच्छ पानीमाहिं आपुहीतें गौन करे, है नीरकी सहायसेती अलसता खोत है । पुनि यों नही जो पानी
मीनको चलावे पंथ, आपुहीते चले तो सहाय कोऊ नोत है। से तैसें जीव पुद्गलको और न चलाय सके, सहजै ही चले तो स
हायका उदोत है ॥ १७॥ । CreoaanwepRMARWAMDARPAPERORPOPPORT
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ब्रह्मविलास में
ठाणजुयाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी ॥ छाया जह पहियाणं, गच्छंता व सो धरई ॥ १८ ॥
४०
जीव अरु पुग्गलको थितिसहकारी होय, ऐसो हैं अधर्मद्रव्य लोकताई हद है । जैसें कोऊ पथिक सुपंथमध्य गौन करे, छायाके समीप आय बैठे नेकु तद है । पैं यों नहीं जु पंथीको राखतु बैठाय छाया, आपुने सहज बैठे बाको आश्रपद है । तैसें जीव पुद्गलको अधर्मास्तिकाय सदा, होत है सहाय 'भैया' थितिसमें जद है ॥ १८ ॥
अवगासदाणजोग्गं, जीवादीणं वियाण आयासं ॥ जेहं लोगागासं, अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १९ ॥ जीव आदि पंच पदार्थनिको सदाही यह, देत अवकाश तातें आकाश नाम पायो है । ताके भेद दोय कहे एक है अलोकाकाश, दूजो लोकाकाश जिन ग्रंथनिमें गायो है ॥ जैसें कहूं घर होय तामें सब बसें लोय, तातैं पंच द्रव्यहूको सदन बतायो है । याहीसबै रहै पै निजनिज सत्ता गहै, यातैं परें और सो अलोक ही कहायो है ॥ १९ ॥
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धम्माधम्मा कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये ॥ आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ २० ॥
जितने आकाशमाहिं रहैं ये दरबपंच, तितने अकाशको जु लोकाकाश कहिये । धर्मेद्रव्य अधर्मद्रव्य कालद्रव्य पुद्गल, -द्रव्य जीव द्रव्य एई पांचों जहाँ लहिये | इनतै अधिक कछु और जो विराज रह्यो, नाम सो अलोकाकाश ऐसो सरदहिये । देख्यो ज्ञान
(१) 'अलोगागास' ऐसा भी पाठ है।
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४१
वंतन अनंतज्ञान चक्षुकरि, गुणपरजाय सो सुभाव शुद्ध ग
हिये ॥ २० ॥
20-2 द्रव्यसंग्रह.
परिवहरूवो, जो सो कालो हवेह ववहारो ॥ परिणामादिलक्खी, वहणलक्खो य परमठ्ठो ॥ २१ ॥ सर्वद्रव्यको प्रवर्त्तावन समरथ, सोई कालद्रव्य बहुभेदभाव राजई । निज निज परजाय विषै परणवै यह, कालकी सहाय पाय करें निज काजई ॥ ताही कालद्रव्यके विराजरहे भेद दोय, एक व्यवहार परिणाम आदि छाजई । दूजो परमार्थकाल निश्चयवर्त्तना चाल, कायतें रहित लोकाकाशलों सुगाजई ॥ २१ ॥
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लोयायास पदेसे, इक्केके जेठिया हु इक्केका । रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ||२२|| लोकाकाशके जु एक एक परदेश विषै, एक एक काल अणु सुविराज रहे हैं । ताँत काल अणुके असंख्य द्रव्य कहिय तु, रतनकी राशि जैसे एक पुंज लहे हैं ॥ काहुसों न मिलै कोई रत्नजोत दृष्टि जोई, तैसें काल अणु होय भिन्नभाव गहे हैं । आदि अंत मिल नाहिं वर्त्तना सुभावमांहि, समै पल महूर्त्त परजाय भेद कहे हैं ॥ २२ ॥
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एवं छन्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दब्बं ।
उत्तं कालवित्तं, णायव्वा पंच अस्थिकाया दु ॥ २३॥ दोहा. जीव अजीवहि द्रव्यके, भेद सुपटूविध जान । तामें पंच सु काय धर, कालद्रव्य विन मान ॥ २३ ॥
( १ ) 'जमराजके' ऐसा भी पाठ है।
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ब्रह्मविलासमें. संति जदो तेणेदे, अत्थीति भणंति जिणवरा जमा । ___ कायाइव बहुदेसा, तह्मा काया य अत्थिकाया य॥२४॥
कवित्त. है ऐसे कह्यो जिनवर देख निज ज्ञान माहिं, इतने पदार्थनिको कायधर मानिये । जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य ओ अकाश द्रव्य एई नाम जानिये ॥ कायके समान सदा बहुते । प्रदेश धरे, तातें काय संज्ञा इन्हें प्रत्यक्ष प्रवानिये । निज निज है सत्तामें विराज रहे सबै द्रव्य, ऐसें भेद भाव ज्ञान दृष्टिसों पि-, छानिये ॥ २४॥
हुति असंखा जीवे, धम्माधम्मे अणंत आयासे।
मुत्ते तिविह पदेसा, कालस्सेगोणतेण सोकाओ॥२५॥ र जीवद्रव्य धर्मद्रव्य अधरमद्रव्य इन, तीनोंको असंख्य परदे
शी कहियतु है । अनंत प्रदेशी नभ पुद्गलके भेद तीन, है इ संख्याऽसंख्याऽनंत परदेशको बहतु है ॥ कालके प्रदेश एक है अन्य पांचके अनेक, तातै पंच अस्ति काय ऐसो नाम हतु है । काल विन काय जिनराजजूने यातें कह्यो, एक परदेशी कैसे कायको धरतु है ।। २५ ॥ एयपदेसोवि अणू, णाणाखंध प्पदेसदो होदि। बहुदेसो उवयारा, तेणय काओ भणंति सब्वण्हू ॥२६॥
पुग्गल प्रमाणु जो एक परदेश धरै, तो बहु प्रमाणु मिले। बहु प्रदेश हैं ।नानाकार खंधसों जु कितने प्रदेश होंहि, अनंत असंख्यसंख्य भेदको धरेश हैं ॥ तातै सर्वज्ञजूने पुग्गल प्रमाणु sa (७) 'पयेसा' ऐसा भी पाठ है।
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४३३ प्रति, कह्यो कायधर सदा जाके सवभेश है। देखिये जु नैननिसों । पुग्गलके पुंज सबै, यहै लोक माहिं एक सासुतो नरेश है ॥२६॥
जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणुवठ्ठद्धं । तं खुपदेसं जाणे, सव्वाणुष्ठाणदाणरिहं ॥२७॥ जितनों आकाश पुग्गलाणु एक रोकि रह्यो, तितने अकाश को प्रदेश एक कहिये । शुद्ध अविभागी जाके एकके न होय है दोय, ऐसे परमाणुके अनेक भेद लहिये ॥ अनंत परमाणूको योग्य ठौर देवेको जु, . ऐसोही अकाशको प्रदेश एक गहिये। जामें और द्रव्य सव प्रगट विराज रहे, कोऊ काहू मिलै नाहि ऐसो सरदहिये ॥२७॥ 1 इति श्रीपद्रव्यपश्चास्तिकायप्रतिपादनामा प्रथमोऽधिकार ॥१॥
आसववधंणसंवरणिज्जरमोक्खा सपुण्णपावा जे॥ है जीवाजीवविसेसा, तेवि समासेण पभणामो ॥२८॥
चौपाई १५ मात्रा. ॐ आस्रव सँवर बंधको खंध, निर्जर मोक्ष पुण्यको बंध।
पापऽरु जीव अजीव सु भेव, इते पदार्थ कहों संखेव॥२८॥ आसवदि जेण कम्मं, परिणामेणप्पणो स विण्णेओ॥ भावासवो जिणुत्तो, कम्मासवणं परो होदि ॥ २९॥
दुर्मिल छंद ( सवैया ) ३२ मात्रा. जिह आतमके परिणामनिसों, निजकर्महि आस्रव मान लये। है तिहँ भावनको यह नाम लियो, भावानव चेतनके जु भये॥ है
दरवाश्रव पुद्गलको अयवो, करमादि अनेकन भांति ठये। । में इमभावनिको करता भयो चेतन, दर्वित आस्रवताहित ये ॥२९॥
(१) संक्षेपसे।
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ब्रह्मविलास में मिच्छत्ताविरदिपमाद, जोगकोहादओ सविण्णेया ॥ पणपणपणदहतियचदु, कमसो भेदा दु पुत्र्वस्स ||३०|| मात्रिक कवित्त. पांच मिथ्यात पांच है अत्रत, अरु पंद्रह परमादहिं जान । मनवचकाय योग ये तीनो, चतु कपाय सोरहविधि मान ॥ इन्हें आदि परिणाम जाति बहु, भावास्रव सव कहे बखान । ततैं भावकर्मको करता, चिन्मूरत 'भैया' पहिचान ॥ ३० ॥ णाणावरणादीर्ण, जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि ॥ दव्वासवो स ओ, अणेय भेओ जिणक्खादो ॥ ३१ ॥ कवित्त.
ज्ञानावर्णी आदि अष्ट करमनको आयवो, पुग्गलप्रमाणु मिलि नानाभांति थिते हैं । जीवके प्रदेशनिको आयके आछादतु है, कोऊ न प्रकाश लहै, असंख्यात जिते हैं | ऐसो द्रव्य आस्रव अनेकभांति राजत है, ताहीके जु वसि जग बसें जीव किते हैं । कहे सर्वज्ञजूने भेद ये प्रत्यक्ष जाके, वेदै ज्ञानवंत जाके मिध्यामत विते' हैं ॥ ३१ ॥
वज्झदि कम्मं जेण दु, चेदणभावेण भावबंधो सो ॥ कम्मादपदेसाणं, अण्णोष्णपवेसणं इदरो ॥ ३२ ॥ चेतन परिणामसो कर्म जिते बांधियत, ताको नाव भावबंध ऐसो भेद कहिये । कर्मके प्रदेशनिको आतमप्रदेशनिसों परस्परमिलिबो एकत्व जहां लहिये ॥ ताको नाव द्रव्यबंध कह्यो जिनग्रंथनमें, ऐसो उभै भेद बंध पद्धतिको गहिये । अनादिहीको जीव यह बंधसेती बँध्यो है, इनहीके मिटत अनंत सुख हिये ॥ ३२ ॥ पैं
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(१) 'अणेय भेदो' ऐसा भी पाठ है । (२) बीता है । (३) ' वहिये 'पाठभी है।
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बंधमानिये। प्रकृति प्रदेशवंध दोऊमनवचकाय, के संयोगसेती होहै हि ऐसे उर आनिये ॥ थिति बंध अनुभाग होंय ये कपायसेती, समुच्च समस्या एती समुझि प्रमानिये ।ऐसे वंधविधि कही ग्रंथनके ।
अनुसार सर्वगविचार सरवन भये जानिये ॥ ३३ ॥ ६ चंदणपरिणामो जो, कम्मस्सासवणिरोहणे हेऊ ॥
सो भावसंवरो ग्वल, दव्यासवरोहणो अण्णो ॥ ३४ ॥
कर्मनिके आस्रव निरोधिवेक भाव भये, तेई परिणाम भावसे संवर कहीजिये । द्रव्यानव रोकिवको कारण सु जेजे होंय, ते ते ए
सर्व भेदद्रव्य संवर लहीजिये । याहीविधि भेद दोय कहे जिन-1 देव सोय, द्रव्यभाव उभं होय 'भैया' यों गहीजिये । संवरके आवत ही आस्रव न आवे कई, ऐसे भेद पाय परभाव त्याग दीजियं ॥ ३४॥
वदसमिदी गुत्तीओ, धम्माणुपेहापरीसहजओ य॥ है चारित्तं बहु भेया, णायब्वा भावसंवरविसेसा ॥ ३५ ॥ __अहिंसादि पंच महाव्रत पंचसमितिसु, मनवचकाय तीन गुपति प्रमानिये । धरम प्रकार दश बारह सुभावनाजु, वाईस परीसह को जीतियो सुजानिये ॥ बहुभेद चारितके कहत न आवै।
पार, अति ही अपार गुण लच्छन पिछानिये । एते सब भेद भाव 1संवरके जानियेजु, समुच्चहि नाम कहे 'भैया' उर आनिये ॥३५॥
जहकालेण तवेण य, भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण ॥
भावेण सडदिया,तस्सडणंचेदिणिजरा दुविहा॥३६॥ remGARIVAROREneppearendranapDvOADGORIES
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मात्रिक कवित्त.
जे परिणाम होंहि आतमके, पुग्गल करम खिरनके हेत । अपनों काल पाय परमाणू, तप निमित्त तजत सुर्खेत || तिहँ खिरिचैके भाव हाँहि बहु, ते सव निर्जरभाव सुचेत । पुग्गल खिरै सुद्रव्य निर्जरा, उभयभेद जिनवर कहिदेत ॥३६॥ सव्वस्स कम्मणो जो, खय हेदू अप्पणो क्खु परिणामो ॥ वो सभावमोक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मेपुध भावो ३७ छप्पय छंद. सकल कर्म छय करन, भाव अंतरगत राजे । तिन भावनियों कहत, भाव यह मोक्ष सु छाजै ॥ दर्वमोक्ष तहाँ लहत, कर्म जहां सर्व विनासें । आतमके परदेश, भिन्न पुद्गलत भासें ॥ इहविधि सुभेद द्वै मोक्षके, कहे सु जिनपथ धारिकं । यह द्रव्य भावविधि सरदहत, सम्यकवंत विचारिकं ॥ ३७ ॥ सुहअसुहभावजुत्ता, पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा ॥ सादं सुहाउ णामं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥ ३८ ॥ कवित्त.
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शुभभाव तहां जहां शुभ परिणाम होहिं जीवनिकी रक्षा
अरु व्रतनिकों करियो । तातें होय पुण्य ताको फल सातावेदनीय, शुभ आयु शुभगोत बहु सुख वरिवो ॥ अशुभ प्रणामनितें जीव हिंसा आदि बहु, पापके समूह होंय संकृतको हरिवो । वेदनी असाता होय छिनकी न साता होय, आयु नाम गोत सब अशुभको भरिवो ॥ ३८ ॥
इतिश्रीसप्ततत्वनवपदार्थ प्रतिपादकनामा द्वितीयोऽधिकारः ॥ २ ॥
(१) 'पुह' ऐसा भी पाठ है. ।
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सम्मइंसण णाणं, चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे ।। ववहारा णिच्चयदो, तत्तियमइओ णिओ अप्पा॥३९॥
छप्पय. सम्यकदरशप्रमाण, ज्ञान पुनि सम्यक सोह। अरु सम्यक चारित्र, त्रिविध कारण शिव जो है ॥ नय व्यवहार वखानि, कह्यो जिन आगम जैसे। निह, नय अब सुनहु, कहहुं कछु लच्छन तैसे ॥ दर्शन सुज्ञान चारित्रमय, यह है परम स्वरूप मम ।
कारणसु मोक्षको आपु तै, चिद्विलास चिद्रूपक्रम ॥ ३९ ॥ रयणत्तयं ण वइ, अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवियमि ॥ तह्मा तत्तिय मइओ, होदिहु मोक्खस्स कारणं आदा॥४०॥
कवित्त. E जीव व्यतिरेक ये रतनत्रय आदि गुण, अन्य जड़द्रव्यनिमें
नेकुहू न पाइये । तातै गज्ञानचर्ण आतमको रूपवर्ण, त्रिगुहै णको मूलधर्ण चिदानंद ध्याइये ॥ निश्चनय मोक्षको जु कारण है आप सदा, आपनो सुभाव मोक्ष आपमें लखाइये । जैसें है
जैनवैनमें बखाने भेदभाव ऐन, नैनसो निहार 'भैया' भेद र यो वताइये ॥ ४०॥
जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं रूवमप्पणे तं तु॥ दुरभिणिवेसविनुकं,णाणं सम्मखु होदि सदिजमि॥४१॥
जीवादि पदार्थनिकी जॉन सरधानरूप, रुचि परतीति होय निजपरभास. है । ताको नाम सम्यक कहा है शुद्ध दरशन, जाके
सरधाने विपरीत बुद्धि नाश है ॥ आतम स्वरूपको सुध्यान JanwarRRRRRRENOPARDARPAMPIERROROS
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ब्रह्माविलासमें. ऐसे कहियतु, जाके होत होत बहु गुणको निवास है। सम्यक दरस भये ज्ञानहू सम्यक होय, इन्हें आदि और सब सम्यक विलास है ।। ४१॥
संसयविमोहविन्भमविवजियं अप्पपरसरुवस्स गहणं सम्मं णाणं सायारमणेयभेयं तु॥
छप्पय. निजपरवस्तु स्वरूप, ताहि वेदै अरु धार । गुन लच्छन पहिचानि, यथावत अंगीकारे । संशय विभ्रम मोह, ताहि वर्जित निज कहिये।
ऐसो सम्यक ज्ञान, भेद जाके बहु लहिये ।। तसपद महिमा अगम अति, वुधिवलको वरनन करे। यह मतिज्ञानादिक बहुत, भेद जासु जिन उच्चरै ॥४२॥ जं सामण्णं गहणं, भावाणं व कटुमाया। अविसेसिदूण अढे, दंसणमिदि भण्णये समये ४३
मात्रिककवित्त. जासु स्वरूप सवै प्रतिभासत, दर्शन ताहि कहै सव कोय। भावऽरु भेद विचार विना जहँ, एकहि वेर विलोकन होय , जानि जु द्रव्य यथावत वेदत, भेद अभेद करै नहिं जोय ॥ गुण देखै विकल्प विनु 'भैया', दरसन भेद कहावे सोय॥४॥ दसणपुव्वं णाणं, छदमत्थाणं ण दुण्णि उवयोगा। जुगवं जमा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ॥
(१)'च' ऐसा भी.पाठ है।. TopRORE/APP/RSBAPPAMOROAR
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४९ कुंडलिया. सव संसारी जीवको, पहिले दरशन होय । ताके पीछे ज्ञान है, उपजै संग न दोय ॥ उपजै संगन दोय, कोइ गुण किसि न सहाई। अपनी अपनी ठौर, सवै गुण लहै बडाई ।। पैश्रीकेवल ज्ञानको, होय परमपद जव्व । तव कहुं समै न अंतरो, होहिं इकहे सब्ब ॥४४॥ असुहादो विणवित्ती,सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं॥ वदसमिदिगुत्तिस्वं ववहारणया दु जिणभाणियं॥४५॥
कवित्त. पापपरिणाम त्याग हिंसाते निकसि भाग, धरमके पंथ लाग में दयादान कररे। श्रावकके व्रत पाल ग्रंथनके भेद भाल, लगै दोप
ताहि टाल अघनिको हररे ॥ पंच महाव्रतधरि पंच हू समिति करि, तीनह गुपति परि तेरह भेद चररे । कहै सर्वज्ञ देव चारित्र व्योहारभेव, लहि ऐसा शीघ्रमेव वेग क्यों न तररे ॥ ४५ ॥
पहिरन्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासह। __णाणिस्स जंजिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तं ॥४६॥ ___ अभ्यंतर वाह्य दोऊ क्रियाको निरोध तहां, परम सम्यक्त गुण चारित उदोत है। वैन अरु काय दोऊ बाहिरके योग कहे, मन
अभ्यंतर योग तीनो रोध होते है। ताहीत निघट जल जात है है संसाररूप, रागादिक मलिनको याही क्रम खोत है । कषाय
आदि कर्मके समूहको विनाश करें, ताको नाव सम्यक चारित्र, दधिपोत है ॥ ४६॥ . .
(१) इस कुंडलियेमें कुछ विलक्षणता है । CompRGHODAPORoseppencompcome/03
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दुविहंपि मोक्ख हेर्ड, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा । तमा पयत्तचित्ता, जूयं ज्झाणं समन्भसह ॥४७॥
. मात्रिक कवित्त. द्वै परकार मोखको कारण, नितप्रति तस कीजे अभ्यास । रत्नत्रयतें ध्यानप्राप्त पुन, सुख अनंत प्रगटै निजरास ।। - ध्यान होय तो लहै रतनत्रय, छिनमें करै कर्मको नास । तातें चिंता त्यागभविकजन,ध्यान करो धर मन उल्लास॥४७॥ मा मुज्झह मा रजह, मा दुस्सह इणिष्ट अत्थेतु ॥ थिरमिच्छह जड़ चित्तं, विचित्त झाणप्पसिद्धीए॥४॥
छप्पय. मोह कर्म जिन करहु, करहु जिन रागऽरु द्वेषहिं । इष्ट संयोगहि देख, करहु जिन राग विशेपहि॥ मिलहिं अनिष्टसँयोग, द्वेष जिन करहु ताहि पर।
जो थिरता चित चहहु, लहहु यह सीख मंत्र वर ।। ध्रुवध्यान करहु बहु विधिसहित, निर्विकल्पविधि धारिके। जिमि लहहु परमपद पलकमें, त्रिविध करम अघटारिका४८॥ पणतीस सोल छ प्पण, चदु दुगमेगं च जवह झाएह ॥ परमेट्ठिवाचयाणं, अण्णं च गुरुवएसेण ॥ ४९ ॥
चौपई १५ मात्रा. पंच परम पद कीजे ध्यान । तस अक्षरका सुनहु विधान। .. है तीस पंच अक्षर गणलीजे । नमस्कार नितप्रति तिहँ कीजे ॥
णमो अरहताणं' सात । णमो सिद्धाणं पंच विख्यात । णमो आयरियाणं' पँच दोयाणमो उवज्झायाण रिषि होय
(१) मत । (२) 'विनान' ऐसाभी पाठ हैं। (३) सात । poppOPRODOOOOOPeepicee/RREDEO
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.............. द्रव्यसंग्रह.. णमोलोए सव्वसाहणं । नवमिलि पैतिस अक्षर गुणं । । शोलह अक्षरको विस्तार । सुनहु भविक परमागमसार ॥ 'अरहंत सिद्ध आचारजनामा उपाध्यायनित साधु प्रणाम। 'अरहंत सिद्ध छै अक्षर जाना असिआउ सा'पंच प्रधान। चतु अक्षर 'अरहंत' चितारि। द्वै अक्षर श्री सिद्ध' निहारि। इक अक्षर 'ओं' सब ही धरै । इनको सुमरन भविजन करै।। ये सवही परमेष्टि लखेय । अन्य सकलगुरुमुंख सुनलेय ।।
दोहा. इह विधि पंच परमपदहि, भविजन नितप्रति ध्याय ॥ इनके गुणहि चितारतें प्रगट इन्ही सम थाय ॥ ४९ ॥ ण चउघायकम्मो, सण सुहणाणवीरियमइओ । सुहृदेहत्थो अप्पा, सुद्धो अरिहो विचिंतिजो ॥ ५० ॥
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ऐसें निज आतम अर्हतको विचारियतु, चारकर्म नष्ट गये। १ ताहीत अफंद है। ज्ञानदर्शवरणीय मोहिनी सु अंतराय, येही चारि कर्म गये चेतन सुछंद है ।। दृष्टिज्ञान सुख वीर्य अनंत चतुष्टै युक्त, आतमा विराजमान मानों पूर्णचंद है । परमोदारीक देह वसै राग तजे जेह, दोपनित रह्यो सुद्ध ज्ञानको दिनंद है ॥ ५० ॥ गट्टकम्मदेहो, लोयालोयस्स जाणवो दवा ॥
पुरिसायारो अप्पा, सिद्धो ज्झायेह लोयसिहरत्यो ॥२१॥ है ऐसे यह आतमाको सिद्ध कह ध्याइयतु, आकर्म देहादिक ।
दोप जाके नसे हैं। लोक ओ अलोकको जु ज्ञानवन्त दृष्टिमाहिं, है जाकी स्वच्छताईमें सुभाव सब लसे हैं।।अनंतगुण प्रगट अनंतका
लपरजंत, थिति है अडोल जाकी पुरुपाकार बसे है।ऐसो है स्वNonprappamorpo/ODAPOORPORARIANPanoos
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रूप सिद्धखेतमें विराजमान, तैसो ही निहारि निज आपुरस रसेह
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दसण णाणपहाणे, वीरिय चारित्त वरतवायारे ॥ हैं. अप्पं परं च जुजइ, सो आयरिओ मुणी ज्झेओ॥१२॥ है पंच जु आचारजके जानत विचारभले, ताहीआचारजजूको नाम गुणधारी है। आपहू प्रवत्तै इह मारग दयाल रूप, और इ प्रवर्तावनको परउपकारी है । दरसनाचार ज्ञानाचारवीर्याचार चर्णाचार तपाचारमें विशेष बुद्धि भारी है। इन्हें आदि और है गुण केतेई विराज रहे, ऐसे आचारज प्रति वंदना हमारी है ॥५२॥ है
जो रयणत्तयजुत्तो णिचं धम्मोवएसणे हिरदो॥ सो उवझाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥
मात्रिक कवित्त, सम्यक दरश ज्ञान पुनि सम्यक,अरु सम्यक चारित कहिये। ये रतनत्रय गुण करि राजत, द्वादश अँग भेदी लहिये । सदा देत उपदेश धरमको, उपाध्याय इह गुण गहिये। मुनि गणमाहिं प्रधान पुरुष है, ता प्रति वंदन सरदहिये ।।५३ है दसण णाणसमग्गं, मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं। साधयदि णिच्च सुद्धं, साहू स मुणी णमो तस्स ॥ ५४॥
दोहा. . सम्यक दर्शन संजुगत, अरु सम्यक जहँ ज्ञान । तिहँ करि पूरण जो भरयो, सो चारित परमान। चारित मारग मोक्षको, सर्वकाल सुध होय ।
तिहँ साधत जो साधु मुनि, तिनप्रति वंदत लोय ॥ ५४॥ Woporenaarbonp/ema A NDRPoemapeecoronawikram
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द्रव्यसंग्रह. किंचि विचितंतो, गिरीहवित्ती हवे जदा साह ॥ लढ्णय एयत्तं, तदा हु तं तस्स णिचयं ज्झाणं ॥ १५॥
छप्पय. जब कहुं साधु मुनीन्द्र, एक निज रूप विचारें। तव तहँ साधु मुनीन्द्र, अघनिके पुंज विदारें। जव कहुं साधु मुनीन्द्र, शुद्ध थिरतामहिं आवै।
तव तहँ साधु मुनीन्द्र, त्रिविधिके कर्म वहावै ॥ इम ध्यान करत मुनिराज जव, रागादिक त्रिक टारिके। तिनं प्रति निश्चै कहत जिन, वदहु सुरति सँभारिक ॥ ५५ ॥
मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिंतह किंचि जेण होइ थिरो॥ है अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥५६॥
कवित्त. मनवचकाय तिहूं जोगनिसों राचि कहूं, करो मति चेष्टा तुम इन
की कदाचिकें। वोलो जिन वैन कहूं इनसों मगन हैके, चिंतो । जिन आन कछु कहूं तोहि सांचिकें । पर वस्तु छांड निज रू. एप माहिं लीन होय, थिरताको ध्यान करि- आतमसों राचिके।
देख्यो जिन जिनवान यह उतकृष्ट ध्यान,जामे थिर होय पर्म कम नाच नाचिके.॥ ५६ ॥
तवसुदद्ववं चेदा, ज्झाणरहधुरंधरों जमा ॥ तमा तत्तियगिरदा, तल्लडीए सदा होह ॥ ५७ ॥
मात्रिक कवित्त. है जब यह आतम करै तपस्या, दाहै सकल कर्मवन कुंज
श्रुतसिद्धांत भेद बहु वेदत, जपै पंच पदके गुणपुंज ॥
(१) मत । (२) मत । ITRPANORMAWRAS/AROPARDARPAPPAMORE
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व्रतपचखान करै बहु भेदैं, इन संयुक्त महा सुख भुंज । तब तिहँ ध्यान धुरंधर कहिये, परमानंद प्राप्तिमें मुंज ॥५७॥ दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा ॥ सोधयंतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंदमुणिणा भणियं जं॥ ५८ ॥ कवित्त.
सकलगुणनिधान पंडितप्रधान वहु, दूषणरहित गुणभूषणसहित हैं । तिनप्रति विनवत नेमिचंद मुनिनाथ, सोधियो जुयाको तुम अर्थ जे अहित हैं ॥ ग्रंथ द्रव्य संग्रह सुकीनो मैं बहुतथोरो, मेरी कछु बुद्धि अल्पशास्त्र जो महित हैं । तातंजु यह ग्रंथ रचनाकरी है कछु, गुण गहि लीज्यो एती, विनती कहित हैं ॥ ५९ ॥ इति श्रीद्रव्यसंग्रहग्रंथे मोक्षमार्गकथनं तृतीयोऽधिकारः । दोहा - नेमचंद मुनिनाथने, इहविध रचना कीन ॥ गाथा थोरी अर्थ वहु, निपट सुगम करदीन ॥ १ ॥
छप्पय.
ज्ञानवंत गुण लहै, गहै आतमरस अम्रत । परसंगत सब त्याग, शांतरस वरं सु निज कृत || वेदै निजपर भेद, खेद सब तजें कर्मतन । 'छेदै भवयिति वास, दास सव करहिं अरिनगन ॥ इहविधि अनेक गुण प्रगट करि, लहै सुशिवपुर पलकमं । चिद्विलास जयवंत लखि, लेहु' भविक ' निज झलकमें ॥ २ ॥
दोहा. द्रव्यसंग्रह गुण उदधिसम, किहॅविधि लहिये पार । यथाशक्ति कछु · वरणिये, निजमतिके अनुसार ॥ ३ ॥
(१) प्रत्याख्यान त्याग ।
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चेतनकर्म चरित्र.
चौपाई १५ मात्रा.. . गाथा मूल नेमिचंद करी । महा अर्थनिधि पूरण भरी ॥ है बहुश्रुत धारी, जे गुणवंताते सव अर्थ लखहिं विरतंत ॥४॥ हमसे मूरख समझे नाहिं । गाथा पढ्न अर्थ लखाहिं ॥ काह अर्थ लखे वुधि ऐन । वांचत उपज्यो अति चितचैन ||५|| जो यह ग्रंथ कवितमें होयाती जगमाहिं पढ़े सब कोय ॥ इहिविधि ग्रंथ रच्यो सुविकास, मानसिंह व भगोतीदास ॥ ६ ॥ संवत सत्रहसे इकतीस, माघसुदी दशमी शुभदीस ॥ मंगल करण परमसुखधाम, द्रवसंग्रह्मति करहुं प्रणाम ॥ ७॥ इति श्रीद्रव्यसंग्रहमूलसहित कवित्तबंध समाप्तः । अथ चेतनकर्मचरित्र लिख्यते.
दोहा. श्रीजिन चरण प्रणाम कर, भाव भक्ति उर आन॥ ६ चेतन अरु कछु कर्म को, कहहुं चरित्र वखान ॥१॥ सोवत महत मिथ्यात में, चहुं गति शय्या पाय ॥
वीत्यो काल अनादि तह, जग्यो न चेतन राय ॥२॥ जवही भवथिति घट गई, काल लब्धि भइ आय ।। ६ वीती मिथ्या नीद तह, सुरुचि रही ठहराय ॥३॥
किये कर्ण प्रथमहि तहां, जाग्यो परम दयाल ॥ __ लह्यो शुद्ध सम्यक दरस; तोरि महा अघ जाल ॥४॥
देखहि दृष्टि पसारिके, निज पर सबको आदि । है यह मेरे सँग कौन हैं, जड़से लगे अनादि ॥५॥ तव सुवुद्धि बोली चतुर, सुन हो ! कंत सुजान ॥
यह तेरे सँग अरि लगे, महासुभट वलवान ॥ ६॥ FARPRIOROSPERIENDRAPAROOPPOOD0000
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कहो सुबुद्धि किम जीतिये, ये दुश्मन सव घेर ।।
ऐसी कला वताव जिमि, कबहुं न आवे फेर ॥७॥ कह सुबुद्धि इक सीख सुन, जो तू माने कंत ।। __ कै तो ध्याय स्वरूप निज, के भज श्रीभगवंत ॥८॥
सुनिके सीख सुबुद्धिकी, चेतन पकरी मौन ।। ___उठी कुबुद्धि रिसायके, इह कुलक्षयनी कौन ? ॥९॥ मै बेटी हूं मोह की, व्याही चेतनराय ।।
कहौ नारि यह कौन है, तव चेतन हँस यों कहै, अव तोसों नहिं नेह ।। . ___ मन लाग्यो या नारिसों, अति सुबुद्धि गुण गेह ॥११॥ है तबहिं कुबुद्धि रिसायके, गई पिताके पास ॥ आज पीय हमें परिहरी, तात भई उदास ॥ १२॥
चौपाई ( मात्रा १५) तबहिं मोह नृप बोलै वैन । सुन पुत्री शिक्षा इक ऐन ॥ तू मन में मत है दलगीर बांध मँगावत हों तुमतीर ॥ १३॥ तब भेजो इक काम कुमार । जो सब दूतनमें सरदार ॥ कहो बचन मेरो तुम जाय । क्योरे अंध अधरमी राय ॥ १४ ॥ व्याहीतिय छांडहि क्यों कूर। कहां गयो तेरो वल शूर ।। कैतोपांय परहु तुम आय । कैलरिवे कोरहहु सजाय ॥ १५ ॥
ऐसे बचन दूत अवधार । आयह चेतन पास विचार ।। १ नृपके बैन ऐन सब कहे । सुनके चेतन रिस गह रहे ॥ १६॥
अब याको हम परसें नाहिं । निजबल राज करें जगमाहिं ।। जाय कहो अपने नृप पास । छिनमें करूं तुम्हारो नास ॥ १७ ॥ womanPROMORROWAPROOPerpeopeans .
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चेतनकर्म चरित्र.
५७ है तुम मन में मत करहुगुमान । हम बहु हैं यहएक सुजान ॥
कर आवहु असवारी वेग । मैं भी वांधी तुमपरतेग ॥१८॥ हैं ऐसे वचन सुनतं विकराल । दूत लखै यह कोप्यो काल॥
उनसे तो जव है है रारि । तवलों मोह न डारैमारि ॥ १९ ॥ ॐ तब मन में यह कियो विचार । अवके जो. राखै करतार ॥
तो फिर नाम न इनको लेउ । चेतनको पुरसवतजदेउं ॥२०॥ है तव बोले चेतन राजान । जाहु दूत-तुम अपने थान ॥ फिर जिन आवहु इहिपुरमाहि। देखेसों वचिहो पुनि नाहि ॥ २१ ॥
सोरठा. . . दूत लह्यो प्रस्ताव; मन में तो ऐसी हुती ॥ __ भलो बन्यो यह दाव, आयो राजा मोह पै ॥ २२॥ कही सबै समुझाय, वाते चेतन राय की ।
नवहि न तुमको आय, लरिवे की हामी भरै ।। २३॥ सुनके राजा मोह, कीन्हीं कटकी जीव पैं। __ अहो सुभद सज होय, घेरो जाय गवार को ॥ २४ ॥ सज सज सवही शूर, अपनी अपनी फौज ले। __ आये मोह हजूर, अवै महल्लो लीजिये ॥ २५ ॥ .
. . चौपाई.. राग द्वेप दोउ बड़े वजीर । महा सुभट दल थंभन वीर ।। फौज माहिं दोऊँ सरदार। इनके पीछे सब परवार ।। २६ ॥ ज्ञानावरण वोले यो वैन । मोपपंच जाति की सैन । जिन जगजीव किये सवरा राखे भवसागर में घेर॥ २७॥
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(१) आक्रमण । (२) हाजिरी । (३) कैद ।। WAPWAPCORPREmpepomopanpoor
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ज्ञान उपरि मेरे सब लोग । ताहीँतें न जंग उपयोग ॥ जानें नहीं 'एक अरु दोय' । सो महिमा मेरी सब होय ॥ २८ ॥ तव दर्शनावरण यों कहै । जगके जीव अंध हैं रहें ॥
सो सब है मेरो परशाद । नौ रस वीर करें उनमाद ॥ २९ ॥ तवै बेदनी वोलें धीर । मो पैं दोय जातिके वीर ॥ महा सुभट जोधा बलसूर । तीर्थंकर के रहें हुजूर ॥ ३० ॥ और जीव वपुरे किहि मात । मेरी महिमा जग विख्यात ॥ मोको चाहें चहुं गति माहिं । मै छिन सुख द्यों छिन दुख पांहि ॥ ३१ ॥ आयु कर्म बोलै बलवंत । सिद्ध बिना सब मेरे जंत' ॥ मैं राखों तोलौं थिर रहै । नातरु पंथ मौत की गहँ ॥ ३२ ॥ मो पैं चार जातिके सूर । तिनसों युद्ध कर को कूर ॥ चहुंगति में मेरे सब दास । मैं त्यागों तव शिवपुरवास ॥ ३३ ॥ नामकर्म बोलै गहि भार । मो विन कौन करे संसार ॥ मैं करता पुदगल को रूप । तामें आय वसै चिद्रूप ॥ ३४ ॥ वीर तिरानवे मेरे संग । रूप रसीले अरु बहुरंग ॥ इनसों सरर्भर को जिय करै । तोहु न छाँडै मर अवतरे ॥ ३५ ॥ गोत्रकर्म लै द्वय असवार । उंचनीच जिनको परवार ॥ सूर वंशको यह स्वभाव । छिनमें रंक करै छिन राव ॥ ३६ ॥ अंतराय अपनों दलसाज । पंच सुभट देखी महाराज ॥ सबके आगें ये असवार । रणमें युद्ध कर निरधार ॥ ३७ ॥ कर हथियार गहन नहि देहिं । चेतनकी सुधि सब हर लेहिं ॥ ऐसे सुभट एक सौ बीस । तिनके गुणजानें जगदीश ॥ ३८ ॥
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( १ ) जीव । ( २ ) वरावरी ।
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.. चेतनकर्म चरित्र, इनके सुभट सात सरदार । परदल गंजन जवर जुझार ॥ " तबै मोह नृप अति आनंद। देखेसवसुभटनके वृन्द ।। ३९ ॥
प्लवङ्गम छन्द.. राग द्वेप द्वय मित्र, लये तव वोलिकै । तुम ल्यावहु मम फौज, भवनत्रय खोलिकै ॥ वीस आठ असवार, बड़े सव सूरमा । अरिपे यो चल जाहि, नदी ज्यों पूरमा ॥ ४०॥ राग द्वेप तहँ चले, जहां सब सूर हैं लाये तुरत वुलाय, प्रभू ये हजूर हैं। तव वोले मुख वैन, जीवपर हम चढ़े। सुनके श्रवनन शब्द, सूरके मन वढ़े ॥४१॥ फौजे कीन्हीं चार, वडे विसतारों। निज सेवक सरदार, किये भुजभारसों । पहिली फौजें सात,सुभट आगे चले। दूजी फौजें चार, चारते सव भले ॥४२॥ दै घोंसा सब चढे, जहां चेतन वसे । आये पुरके पास, न आगे को धसै ॥ चेतनको गढ़ जोर, देख सव थरहरे। सात सुभट तब निकस, सवन आर्गे अरे ॥४३॥ ६
दोहा. उदय दूत सुधि मोहकी, कही जीव जाय ॥ कहारहे तुम बैठके?, फौजें लागी आय ॥ ४४ ॥
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(१) नगाड़े बजाकर।। tappshponDOREPOperoGORSewapco
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ब्रह्मविलासमें. .
सोरठा. सुनके चेतन राय, चित चमक्यो कीजे कहा ।। लीन्हों ज्ञान बुलाय, कहो मित्र कहा कीजिये ॥४५॥ तब बोलै यो ज्ञान, इनसों तो लरिये सही ॥ हरिये इनको मान, अपनी फौजें साजिये ॥ ४६॥
चौपाई (१५ मात्रा) तब चेतन बोले मुख वीर । तुमसे मेरे बड़े वजीर ॥ तो मो कहँचिंता कछु नाहिं। निर्भय राज करूं जगमाहिं ॥ ४७ ॥ हैं इनपै फौज करहु तय्यार । लेहु संग सब सूर जुझार ॥
तवैज्ञान सब सूर वुलाय । हुकम सुनायो चेतनराय ॥४८॥ हु है तैयार गहहु हथियार । कर्मनसों अव करनी मार ॥
सुनिकर सूरखुशी अतिभये अंतमुहूरतमें सज गये ॥४९॥ लेहु हाजिरी ज्ञान बजीर । कैसे सुभट बने सव वीर ॥ तबै ज्ञान देखै सब सैन । कौन कौन सूरा तुम ऐन ॥५०॥ म स्वभाव कहै मैं वीर मोहि न लागें अरिके तीर ॥
। मेरी अरदास ।छिनमें करूं अग्निकोनास ॥५१॥ है तब सुध्यान बोलै मुख बैन । हुकम तुम्हारे जीतों सैन ॥ हूँ
मोआगेंसब अरिनसि जाया सूर देखजिम तिमर पलाय ॥५२॥ है पुनि बोलो चारित बलवंत । छिनमें करहुं अरिन को अंत॥
अरु विवेक बोलै बलसूर । देखतमोहनसहिं अरिकूर ॥ ५३ ।। है तब संवेग कहै कर मान अरि कुल अवहिं करूं घमसान ।। तब उत्तम बोले समभाव । मैं जीते बांके गढराव' ।। ५४ ।। (१) सूर्यको।
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चेतनकर्म चरित्र.
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तौ अरि वपुरे हैं किंह मात ।तम सम चूर करों परभात ॥ बोले वच संतोप रसाल । मो आगें वे कहा कंगाल ।। ५५ ॥ धीरज कहै मोसन को सूर पिलमें करहुँअरिन चकचूर ।। सत्य कहै मोम बहु जोर । जीतों वैरी कठिन करोर ॥ ५६ ॥ उपशम कहत अनेक प्रकार । मैं जीते वैरी सरदार ॥ दर्शन कहत एकही वेर जीतोसकल अरिनको घेर ॥ ५७ ॥ आये दान शील तप भाव । निश्चय विधिजानें जिनराव पारन पावहु नाम अपार । इहि विधिसकल सजेसरदारा॥५८॥ तवहिं ज्ञान चेतनसों कही। फौज तुम्हारी सव बन रही।
चेतन देखै नयन उघार । यह तो फौज भई तय्यार ॥ ५९॥ Bअवहीं मेरे सूर अनंत । ल्यावहु ज्ञान हमारे मंते ॥
शक्तिअनन्त लसें निज नैन । देखोप्रभू तुम्हारी सैन ॥ ६०॥ है अनंत चतुष्टय आदि अपार । सेना भई सबै तयार ॥ १ जुरे सुभट सब अति बलवंत । गिनती करत नआवै अन्त ॥११॥
दोहा. कहै ज्ञान चेतन सुनहु, रोप करहु जिन रंच ।।
एक वात मुहि ऊपजी, कहूं विना परपंच ॥ १२ ॥ कहै जीव कहि ज्ञान तू, कैसी उपजी वात ॥
तुम तो महासुबुद्धि हो, कहते क्यों सकुचात? ॥१३॥ तवहिं ज्ञान निःशंक है, बोले प्रभु सन वैन । चाकर एकहि भेजिये, गहि लावे सव सैन ॥ ६४॥
. सोरठा. कहा विचारो मोह, जिहँ ऊपर तुम चढ़त हो ॥
भेजह सेवक सोह, जीवित लावै पकरके ॥६५॥
(१) मंत्री। ARROPERTOOpepependepospaporporapan
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ब्रह्मविलासम.
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कहै चेतन सुनज्ञान, वह घेरयो पुर आयके ।
यह कहो कौन सयान, रहिये घरमें वैठके ॥६६॥ सूरनकी नहिं रीति, अरि आये घरमें रहै ॥ __ कै हारें के जीति, जैसी है तैसी वनै ॥ ६७ ॥ कहै ज्ञान सुनि सूर, तुम जो कहो सो सांच है ॥ __ कहा विचारो कूर, जिहँ ऊपर तुम चढ़त हौ।
पद्धरिछंद (१६ मात्रा) तव जीव कहै सुनिये सुज्ञान । तुम लायक नाहीं यह सयान ॥ है वह मिथ्यापुरको है नरेश । जिहँ धेरे अपने सकल देश॥६॥
जाके सँग सूरा हैं अनेक । अज्ञान भाव सव गहें टेक ॥ मंत्रीसुर रागद्वेष हेर । छिनमें सव सेनाकरहिं जे॥७०॥ र संशय सो गढ़ जाके अटूट । विभ्रम सी खाई जटाजूट ॥ हूँ विषया सी रानी जासु गेह । सुत जाके सूर कपायसेह ॥७॥ सैनापति चारों है अनंत । जिह घेरो अव्रतपुर महंत , व्रतनामी लीन्हों देश छीन । परमत्तहिं दोही आय कीन७२ इहि विधि सब घेरे देश जेह । चढ़ आई फौजें लगी तेह ॥ है तातें नृप आप अनंत जोर । वल जासुन पारावार ओरा॥७३॥
आयुध जाके भ्रम चक्र हाथ । बहु धारा जास उपाधि साथ ॥ महा नाग फाँस विद्या अनेक । धसत्तरकोड़ाकोड़ि टेक॥७४॥ है वाणादिक महा कठोर भाव । जिहिं लगैवचत नहिं रंक राव।। इहि विधि अनेक हथियार धार।कहुं नाम कहत नहिलहै पार७५॥
यह मोह महा बलवत भूप । तुम ज्ञाता जानत सव स्वरूप ॥ ए कैसे कर इन सों बचौ जाव ? । तुम स्यानें है चूको न दावा॥७॥
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चेतनकर्म चरित्र.
सोरठा.
तवं बोले यों ज्ञान, जिय! तुमने सांची कही ॥ पै मेरे अनुमान, तुम क्यों जानो बात यह ॥ ७७ ॥
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कहै जीव सुन मित्र, मैं वीतक अपनो कहूं ॥ तू धरि निश्चयचित्त, सुनहु वात विस्तारसों ॥ ७८ ॥ चौपाई.
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यही मोह नृप मोहि भुलाय । निजपुत्री दीन्ही परनाय ॥ ताकी याद मोह कछु : नाहिं | काल अनादि याहि विधि जाहिँ७९ मेरी सुधि बुधि सव हर लई । मोहि न सुरत रंच कहुं भई ॥ इहि कीन्हो जैसो नट कीस । विविध स्वांग नांच्यौ निशिदीस ८०
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चौरासी लख नाम धराय । कबहु स्वर्ग नरक लै जाय ॥ कवहू करै मनुष तिरजंच । लखेन जाहिं याके परपंच ॥८१॥ जडपुर को मुह किया नेरश । मैं जानो सब मेरो देश ॥ तब मैं पाप किये इहि संग । मानि मानि अपने रस रंग ॥ तव मै वसौ मोहके गेह । तातें सब विधि जानों येह ॥ ८२ ॥ कहो कहां लों बहु विस्तार | धोरे मेँ लख लेहु विचार॥८३॥
सोरठा.
तब बोलै इम ज्ञान, यह परमारथ मैं लह्यौ ॥ - अब तुम सुनहु सुजान, एक हमारी बीनती ॥ ८४ ॥
- सेवक भेजो एक, जो अतिही बलवंत हो || तब रहै तुम्हरी टेक, मेरे मन ऐसी बसी ॥ ८५ ॥ कहै जीव सुन ज्ञान, विना विचारे क्यों कहौ ॥
मोह महा बलवान, ताकी पटतर कौन है ? ॥ ८६ ॥
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ब्रह्मविलासमें
चौपाई.
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कहै ज्ञान सुन जीव नरेश । तुम सम और न कोउ राजेस । है सुख समाधि पुर देश विशाल अभय नाम गढ़ अतिहि रसाल८७
तामें सदा बसहु तुम नाथ । निशि दिन राज करौ हित साथ। सुमति आदि पटरानी सात । सुबुधि क्षमा करुणा विख्यात८८॥ निर्जर दोय धारणा एक । सात आदि अरु सखी अनेक ॥ बांधव जहां धरमसे धीर | अध्यातम से सुत वरवीर ॥८॥ मित्र शांति रस बसे सुपास । निजगुण महल सदा सुख वास। ऐसे राज करहु तुम ईश। सुख अनंत विलसह जगदीश९०१ तुम पै सूर सैनको जोर । तिनको पार नहीं कह ओर ॥ तुम अपनें पुर थिर है रहौ । वचन हमारो सत सरदहौ।।९१॥ आज्ञा करहु एक जन कोय । सज सेना वह आगे होय ॥ कहै जीव तुम सुनहु सुज्ञान । तुम्हरे वचन हमें परवान ॥१२॥ हम आज्ञा यह तुमको करी । लेहु महूरत अति शुभ घरी॥ चढहु कर्म पै सज हथियार । सूर बडे सव तुम्हरी ला||९३॥ हमतुममें कछु अन्तर नाहिं । तुम हममें हम हैं तुम माहिं।। * जैसे सूर तेज दुति धरै। तेज सकल सूरजदुति करै।।९४॥ । इहि विधि हम तुम परमसनेह । कहत न लहिये गुणको छेह ॥
ज्ञान कहै प्रभु सुन इक बैन । शिक्षा मोहि दीजियो ऐन ॥१५॥ है तुम तो सब विधि हौ गुन भरे । पै अरि सों कवहूं नहिं लरे ॥ तातें तुम रहियो हुशियार । युद्ध बड़े अरिसों निरधार ॥१६॥
___वेशरी छंद. (१६. मात्रा) ज्ञान कहै विनती सुन स्वामी। तुम तौसबके अन्तर जामी।
कहा भयोनकरीमैरारी। अवदेखो मेरी तरवारी ॥ ९७॥ TropapR0EDPROPanewMDOSPROPROPORON
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चेतनकर्मचरित्र. B वे सब दुष्ट महा अपराधी । किहँ विधि सैन जाय सव साधी ॥ ६ मेरेमन अचरज यह ज्ञाना । पैमैं जानों तुम वलवाना ॥ ९८॥
दोहा. ज्ञान कहै चेतन सुनो, तुमसे मेरे नाथ ॥
कहा विचारो क्रूर वह, गहि डारों इक हाथ ॥ ९९ ॥ तव चेतन ऐसें कहै, जीत तुम्हारी होय ॥ मारि भगावों मोहको, रागद्वेष अरि दोय ॥ १० ॥
करिखा छंद। ज्ञान गंभीर दलवीर संग. ले चन्यो, एक ते एक सवह इसरस सूरा । कोट अरु संखिन न पार कोज गने, ज्ञानके भेद १ दल सवल पूरा॥१०१॥ सिपहसालार सरदार भयो भेद नृप, अरि है
न दलचूर यह विरद लीनो । हाथ हथियार गुणधार विस्तार वहु, पहिर दृढभाव यह सिलह कीनो ॥१०२॥ चढत सब वीर मन धीर असवार है, देख अरिदलनको मान भंजै । पेख जयवंत जिनचंद सवही कहै, आज पर दलनिको सही गंजै ॥१०॥ है अतिहि आनंदभर वीर उमगंत सव, आज हम भिडनको दाव पायो । युद्ध ऐसो विकट देख अरि थर हरें, होय हम नाम दिन दिन सवायो ॥१०४ ॥
मरहठा छंद. वजहिं रण तूरे, दल बहु पूरे चेतन गुण गावंत ॥
सूरा तन जग्गो, कोऊन भग्गो, अरिदलपै धावंत ऐसे सव सूरे, ज्ञान अकूरे, आये सन्मुख जेह ॥
आपावल मंडे, अरिदल खंडे, पुरुषत्वनके गेह ॥ १०५॥
(१) फौजी अफसर।। PhoneMPORPORanabepeppamonweapoP0000
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दोहा. नाम विवेक सु दूतको, लीन्हों ज्ञान बुलाय ॥ ___ जाय कहहु वा मोहको, भलो चहै तो जाय ॥१०६॥ जो कबहूँ टेढो बकै, तो तुम दीज्यो सोंसे ।
धिक धिक तेरे जनमको, जो कछु राखै होस ॥ १०७॥3 तेरो वल जेतो चलें, तेतो कर तू जोर ।।
वे चाकर सब जीवके, छिनमें करि हैं भोर ॥ १०८ ॥ ज्ञान भलाई जानकें, मैं पठयो तोहि पास ॥ चेतनको पुर छांडदे, जो जीवनकी आस ॥ १०९ ॥
सोरठा. चल्यो विवेक कुमार, आयो राजा मोह पै॥
कह्यो वचन विस्तार, भलो चहै तो भाजिये ॥१०॥ सुनके वचन हुताश, कोप्यो मोह महा बली ॥ छिनमें करिहों नाश, मो आगें तुम हो कहा? ॥ १११॥
दोहा. एकहि ज्ञानावर्णिने, तुम सब कीने जेर ॥
इतनी लाज न आवही, मुखहिं दिखावह फेर ।। ११२ ॥ काल अनंतहिं कित रहे, सो तुम करहु विचार ।। ___अब तुम में कूवत भई, लरिवेको तय्यार ॥११३॥ चौरासी लख स्वांगमें, को नाचत हो नाच ॥
वादिन पौरुष कितगयो, मोहि कहो तुम सांच॥ ११४ ॥ इतने दिनलों पालिकें, मैं तुम कीने पुष्ट ॥
तातें लरिवेको भये, गुण लोपी महा दुष्ट ॥१५॥ (१) कसम । (२) नष्ट । PROPORWARDARPAPARMANOPORames
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co m जाहु जाहु पापी सवै, चेतनके गुण जेह ॥ ___.मोको मुख न दिखावहू, छिनमें करिहों खेह ॥ ११६ ॥ मोहबचन ऐसे स्रये, सुनिके चल्यो विवेक ।
आयो राजा ज्ञान पै, कही वात सव एक ।। ११७॥ वह क्योंही भाजै नहीं, गहि वैव्यो यह टेक।।
लरिहों फोजें जोरिके, वोले दूत विवेक ॥ ११८ ॥ दूत वचन सुनिक हँसो, ज्ञान वली उर माहिं।
देखो थित पूरी भई, क्योंहू माने नाहिं ॥ ११९ ।। लेहु सुभट ! तुम वेगही, अवतपुर अभिराम ॥
रह्यो ऋर वह घेरिक, मेंटहु चाको नाम ।। १२० ॥ बढ़ी सैन सब ज्ञानकी, सूर वीर बलवन्त ॥ आगे सेनानी भयो, महा विवेक महंत ॥ १२१ ॥
करिखा छंद. * आय सन्मुख भये मोहकी फोजसों, भिड़नके मतै सव सूर गाढे । देख तब मोह अति कोहै, मनमें कियो, सुभट हलकारि रहे आप ठाढे ॥१२२।। सूर बलवंत मदमत्त महा मोहके, निकसि सब सैन आगे जु आये ॥ मारि घमसान महा जुद्ध बहु रुद्ध करि, एक ते एक सातों सवाये ॥ १२३॥ वीर सुविवेकने धनुपले ध्यानका, मारिके सुभट सातों गिरीये। कुमक जो ज्ञानको सैन सवसंगधसी,मोहकेसुभट मूर्छा समाये१२४५ से देख तव युद्ध यह मोह भाग्यो तहां, आय अवतहिं सब सूर जोरे, बांधकरमोरचेवहुरिसन्मुखभयो, लरनकी होसते करै निहोरे१२५
(१) चौथा गुण स्थान । ( २ ) सेनापति । (३) क्रोध। (४) मदोन्मत्त ।(५) मिथ्यात्य, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कोष मान माया
लोभ ये ७ प्रकृतियें । (६) उपशमित कियौं । (५) चौथे गुणस्थानमे। Sanocreenp/pcompahanepanacretoreparebarma
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इहविधि मोह जोरि सब सैन। देशत्रते पुर बैठो ऐन ॥ करै उपाय अनेक प्रकार। किहिविधि ल्यों अन्नतपुर सार ॥ १२६ ॥ सुभट सात तिनको देखकरै । तिन विन आज निकसि को रै ॥ जो होते वे सूर प्रधान । तो लेते अत्रतपुर थान ॥ १२७ ॥ ऐसे वचन मोह नृप कहे । रागद्वेष तव अति उर दहे ॥ हा हा ! प्रभु ऐसें क्यों कहो । एक हमारी शिक्षा लहो ॥ १२८ ॥ सुभट तुम्हारे हैं बहु बीर । तिनमें जानहु साहस तिनको आज्ञा प्रभुजी देहु । इहविधि अत्रतपुर तुम लेहु तबै मोहनृप बीड़ा धेरै । कौन सुभट आगे है तब बोले अप्रत्याख्यान | मैं जीतूं अवके दलज्ञान ॥ कहै मोहनृप किंहिविधि वीर । मोहि बतावहु साहस बोले अप्रत्याख्यान प्रकास । सुनहु प्रभू मेरी अरदास ॥१३१॥ मैं अतपुरमें छिप जाएं । चेतन ज्ञान वसै जिह ठाउं ॥ संग लेय अपने सब लोग । नानाविधि परकासों भोग ॥१३२॥ उनके उपसम वेदकभाव । क्षयउपसम वसुभेद लखाव ॥ इनकैथिरताबहुकछुनाहिं । छिनसम्यकछिनमिथ्यामाहिं ॥ १३३॥ क्षायक एक महा जे जोर । पहिले प्रगटै ना उहि ओर ॥ तोलों देखहु मैं क्या करों । व्रतके भाव सर्वथा हरों ॥ १३४ ॥ अव्रतमें उपशम हट जाय । जिहँकर पापपुण्य मन लाय ॥ जब वह मगन होय इहि संग | जीत लेहु तवही सरवंग ॥१३५॥
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(१) पंचमगुणस्थान में । ( २ ) चिंता । (३) अप्रत्याख्यानावर्णी कोष मान माया लोभ । (४) चेतनके, । (५) श्रावकके व्रत ।
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. चेतनकर्मचरित्र. इहिविधि जीतों परदलजाय। जो मोहि आज्ञा दीजे राय॥ तवै मोहनृप चिंतै सही । यह तौ वात भली इन कही ॥१६॥ सिद्धि करहु अप्रत्याख्यान लेहु सूर सँग जे बलवान ॥ इंहिविधिआयो पुरके माहि। ज्ञानीविन जाने कोउनाहि॥१३७॥ निजविद्या परकाशै सही । नानाविध क्रोधादिक लही ॥ • ताके भेदं अनेक अपार । कोलोकहिये बहुविस्तार ॥१३८॥
. . . दोहा. इहिविधि सव ही सैन ले, आयो अप्रत्याख्यान ।
अव्रतपुरमें पैठिके, करै व्रतनिकी हान ॥ १३९ ॥ ताके पीछे मोहनृप, आयो सव दल जोरि ॥ ___ महासुभट सँग सूर लै, चढ्यो सुमूंछ मरोरि ॥ १४०॥ कुमन जतूंस बुलायके, मोह कहै यह वात ॥
तुम सुधि लावहु वेगही, कहां सुभट वे सात ॥१४॥ है कुमन खबर पहिले दई, वे मूर्छित उन पास ॥ - कछु विद्या कीजे यहां, ज्यों वे लहैं प्रकास ॥ १४२॥
मोह करै विद्या विविध, रागद्वेष लै संग ॥ ___उनमें कछु चेतन भये, कछु रहे मूर्छित अंग ॥ १४३ ॥ है सुमन दूत सब ज्ञानपैं, कही मोहकी बात ।। * कहाँ रहे तुम वैठि वह, सुभट जिवावत सात ॥१४४ ॥ ( जो वे सात जिये कहूं, तो तुम सुनहो वात ॥ . चेतनके सब सुभट को, करि है पलमें घात ॥१४५ ॥
मोह जु फौजें जोरिके, आयो कर अभिमान ॥ - तुमहू अपने नाथको, खबरि पठावहु ज्ञान ॥ १४६ ॥
(१) पांचवें गुणस्थानमें. (२) गुप्तदूत. (३) उपशमरूप, MonopornROADPAWARDROMORPORT
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तबै ज्ञान निजनाथपै, भेज्यो सम्यक वेग ||
कहो बधाई जीतकी, अरु पुनि यह उद्वेग ॥ १४७ ॥ बहुरि मिले वे दुष्ट सव, आये पुरके माहिं ॥
रिवेकी मनसा करें, भागनकी बुधि नाहिं ॥ १४८ ॥ इहि विधि सम्यकभाव सव, कही जीव जाय ॥ सुनिकें प्रबलप्रचंड अति, चढ्यो सुचेतनराय ॥ १४९ ॥ महा सुभट बलवंत अति, चढ्यो कटक दल जोर ॥ गुण अनंत सब संग है, कर्म दहनकी ओर ॥ १५० ॥ आय मिले सब ज्ञानसे, कीन्हों एक विचार ॥
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अवकें युध ऐसो करहु, बहुरि न वचै गँवार ॥ १५१ ॥ चढे सुभट सब युद्धको, सूरवीर बलवंत ॥
आये अंतर भूमि महिं, चेतन दल सुअनंत ॥ १५२ ॥ सोरठा.
रोपि महारण थंभ, चेतन धर्म सुध्यानको ।
देखत लगहि अचंभ, मनहिं मोहकी फौजको ॥ १५३ ॥ दोहा.
दोऊ दल सन्मुख भये, मच्यो महा संग्राम ॥ .
इत चेतन योधा बली, उतै मोह नृप नाम ॥ १५४ ॥ करखा छंद.
मोहकी फौजसों नाल गोले चलें, आय चैतन्यके दलहि लागें ॥ आठ मल दोष सम्यक्त्व के जे कहे, तेहि अत्रत्तमें मोह दागें ॥ १५५॥ जीवकी फौजसों प्रवल गोले चलें, मोहके दलनिको आय मारें ॥ अंतर विरागके भाव बहु भावता, ताहि प्रतिभास ऐसो विचारें १५६
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1) शंकादि । ( २ ) आंतरिक वैराग्य ।
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चैननकर्मचरित्र.
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बहुरि पुनि जोर कर अतिहि धन धोर कर, मोहनृपचंद्र वातें चला। दोष पद आय तन अतिहि उपजाय घन, जीवकी फौज सन्मुन बगाव हंसकी फौजतें वान घममानके, गाजते वाजते चले गाढे ॥ मोहकी फौजको मारि हलेकारकरि, हेयोपादेयके भाव कांदे ॥ १५८ ॥ अष्टमद गजनिक हल्के हंकारि दें, मोहके सुभट सव घसत सूरे ॥ एकतें एक जोधा महा भिड़त हैं, अतिहि बलवंत मदमंत पूरे १५९ जीवकी फौज में सत्य परतीतके, गजनिक पुंज बहु धसत माते || मारिके मोहकी फौजको पलकों, करत घमसान मदमत्त आते १६०
मार गाढी मचे, सुभट कोड ना बचे, घात्र बिन खाये, दुहुं दलनमाहीं।।
एक ते एक योधा दुई दरनमें, कहते कछू ऊपमावनत नाहीं ॥ १६१ ॥ सात जे सुभट मूर्छित पड़ते भये, मोहने मंत्रकरि सत्र जियाये ।। आय इहिं जुङमहिं तिनहुको रुद्ध करि, जीवको जीत पीछे हटाये ॥ मिश्र सासदनहिं परसमिथ्यातमहि, उमगिकचहरि अत्रतहिं आयो। मारि घमसान अवसान खोये त्वरित, सातमें एक ढूंढ्यो न पायो १६३ सोरठा.
इविधि चेतन राय, युद्ध करत हैं मोहसां ॥
और सुनहु अधिकाय, अबहिं परस्पर भिड़त हैं ॥ १६४ ॥ मरहठा चंद्र. रणसिंग बजहिं, कोऊन भज्जहिं, करहिं महादोउ जुङ ॥ इत जीव हंकारहिं, निजपरवारहिं, करहु अरिनको रुद्ध. ॥ उत मोह चलावे, तब दल धावे, चेतन पकरो आज । इविध दोऊ दल, में कल नहि पल, करहिं अनेक इलाज ॥ १६५॥
(१) कारकर । (९) तीसरे गुणस्थान में । (3) दूसरे सासादनगुणस्थान में । (४) पहिनमिध्यात्वगुणस्थानको भी स्पचकरके । (५) चांबे गुणस्थान में ।
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ब्रह्मविलास में
चौपाई १५ मात्रा.
मोह सराग भावके वान । मारहिं खैच जीवको तान ॥ जीव वीतरागहिं निजध्याय । मारहिं धनुषवाण इहि न्याय १६६ तबहिं मोहनृप खड्ग प्रहार । मारे पाप पुण्य दुइ धार ॥ हंस शुद्ध वेदै निज रूप । यही खरग मारें अरि भूप १६७ मोह चक्र ले आरत ध्यान । मारहि चेतनको पहिचान || जीव सुध्यान धर्मकी ओट । आप वचाय करे परचोट ॥ १६८ ॥ मोह रुद्र बेरछी गहि लेय । चेतन सन्मुख घाव जु देय ॥ हंस दयालुभावकी ढाल । निजहिं बचाय करहि परकाल १६९ मोह अविवेक है जमदाढि । घाव करे चेतन पर काढि ॥ चेतन ले यमधर सुविवेक । मारि हरै वैरिनकी टेक ॥ १७० ॥ चेतन क्षायक चक्र प्रधान । बैरिन मारि करहि घमसान ॥ अप्रत्याख्यान मूरछित भये । मोह मारि पीछे हट गये ॥ १७१ ॥ जीत्यो चेतन भयो अनंद । वाजहिं शुभ वाजे सुखकंद ॥
आयमिले अत्रतके भोग । दर्शनप्रतिमा आदि संयोग १७२ व्रतप्रतिज्ञा दूजो भाव । तीजो मिल्यो सामायिक राव ॥ प्रोषधत्रत चौथो बलवंत । त्यागसचित व्रत पंच महंत ॥ १७३ षष्टम ब्रह्मचर्य दिन राय । सप्तम निशदिन शील कहाय ॥ अष्टम पापारंभ निवार । नवमों दशपरिगह परिहार ॥ १७४ किंचित ग्राही परम प्रधान । महासुबुधि गुणरत्न निधान ॥ दशमों पापरहित उपदेश । एकादशम भवनतजवेश ॥ १७५ ॥ प्राशुक लेय अहार सुजैन । कहिये उदंड विहारी ऐन ॥ ये एकादश भूप अनूप । आय मिले श्रावकके रूप ॥ १७६ ॥ (१) धर्मध्यान । (२) रौद्रध्यानकी वरछी ।
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चेतनकर्मचरित्र. चैतन सवसों कर जुहार । परम धरम धन धारन हार ॥ इनिज बल हंस करहिं आनंद । परम दयाल महा सुखकंद १७७
दोहा. इहि विधि चेतन जीतके, आयो व्रतपुरमाहि॥ . आज्ञाश्रीजिनदेवकी,नेकु विराधै नाहिं ।। १७८ ।। जिहँ जिह थानक काजके, कीन्हें सब विधि आय॥ अव भावै वैराग्यतहँ, सुनहु 'भविक' मन लाय ॥१७॥ दाल-पंचमहाव्रत मन धरो सुनि पानीरे, छांडि
गृहस्थावास आज सुनि प्रानीरे ॥ टेक ॥ . ते मिथ्यात्वदशा विपै सुन प्रानीरे, कीन्हें पाप अनेक आज, सुनि प्रानीरे ॥ भव अनंत जे ते किये सुनि प्रानीरे, रागद्वेप पर र संग, आज सुनि प्रानीरे ॥१८०॥ ज्ञान नेकु तोको नही सुनिए है तब कीने बहु पाप, आज सुनि प्रानीरे। ते दुख तोको देय हैं सुनि० ।
जो चको अव दाव, आज सुनिप्रानीरे ॥ १८१॥ अव्रतमें , जे किये सुनि० व्रत्त विना बहु पाप, आज सुनि प्रानीरे । देश विरतमें पांच जेसुनि० थावरहिंसालागि आजसुनि प्रानीरे॥१८॥ है किये कर्म तें अतिघने सुनिक्यों भुगते विनजाय,आजसुनपानीरे ॥ मोह महाहितु तै कियो,सुनि०वह तोकोदुख देय आज सुनिपानी॥ ॥१८३॥ जिहँ जिय मोह निवारियो सुनि० तिहँ पायो आनंद,
आज सुनि प्रा० ॥ मनवच काया योगसों सुनि० तें कीने बहु । ह कर्म, आज सुनिप्रानीरे ॥१८४ावे भुगते विन क्यों मिटै सुनि० जेवांधेतेंआप, आज सुनि पानी।जो तू संयम आदरैसुनि करै तपस्या घोर, आजसुनि प्रानीरे १८५ तौ सवकर्म खपायकें सुनि
(१) पांच गुणस्थानमें । (२) मित्र। , WORORVADODARARIAnuwar-DEOMARPROOPARDEnwar
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ब्रह्माविलासमें ' * पावे परम अनंद आज सुनि प्राणीरे॥ पूरव बांधे कर्म जो सुनि० है
सब छिनमें खप जांहिं, आज सुनि प्रानीरे ॥ १८६ ॥ इहिविधि भावन भावतै सुनि०आयो अति वैराग, आज सुनि प्रा०॥जिय चाहै संयम गहों सुनि० अबै कोन विधि होय, आज सुनि प्रानीरे ॥ १८७ ॥
दोहा. जिय चाहै संयम गह, मोह लेन नहिं देय ॥ o बैठ्यो आगे रोकिकें, अव प्रमत्तपुर जेय ॥ १८८॥
सुभट जु प्रत्याख्यान को, करिके आगें वान ।
वैव्यो घाटी रोकिकें, मोह महा अज्ञान ॥ १८९ ॥ केतक चाकर जोर जे, भेजे व्रतहिं छिपाय ॥
ते चेतनके दलनमें, निशदिन रहैं लुकाय ॥ १९०॥ कबहूं परगट होंय कछु, कबहू वे छिप जाहि ॥ इहविधि सेना मोहकी, रहै सुइहि दल माहिं ॥१९॥
चौपाई. ९ मोह सकल दलसों पुरद्वार । आय अरयो संग ले परवार ॥2
चेतन देश विरतपुर माहि । आगे पांव धरे कहुं नाहि॥१९॥ मोह किये परपंच अनेक । गहिवको गहि वैठ्यो टेक ॥ जो चेतन आवै पुरै मांहि । तौ राखों गहिकें निज पांहिं ॥१९॥ है बहुर न निकसन छिन इक देहुं । डारि मिथ्यात्व वैर निज लेहुं ॥ यह चेतन मोसों युध करै । जो आवै अवके कर तरें। तो फिर याको ऐसे करों। सुधि वुधिशक्ति सबहि परि इहविधि मोह दगाकी बात रचना करहि अनेक विख्यात॥१९५॥ (१) मुनिव्रत । (२) छठे गुणस्थानमें । (३) पांचवें गुणस्थानमें । (४) छठे गुणस्थानमें । down000000000Reacepcom/G/000000000
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चेतनकर्मचरित्र. सुमन खबर सब जियको दई । एक बात सुन हो! प्रभु नई ॥ ए मोह रचे फंदा बहु जाल । तुम जिन भूलहु दीन दयाल॥१९॥
अवके जो पकरेंगो तोहि । तो फिर दोप न दीजो मोहि ॥ मैं सव खवर नाथ तुम दई । जैसी कछू हकीकत भई ॥ १९७ ॥ तव हंस इहपुरको पंथ । चल्यो उलंघि महा निग्रंथ ॥
अप्रमत्तपुरकी लइ राह । जिहँ मारग पंथी बहु साह ॥ १९८ ॥ ह रोके आय जु प्रत्याख्यान । जुद्ध कर विन देहुं न जान ॥
चेतन कहे जाहु शठ दूर । छिनमें मारि करूं चकचूर ॥१९॥ तवहिं जोर नाना विधिकरै । चेतन सन्मुख हैके लरै ॥ . चेतन ध्यानधनुप कर लेय । मूर्छित कर आगें पग देय ॥ २००॥ गिरयो जु प्रत्याख्यान कुमार। चेतन पहुँच्यो सप्तम द्वारं ॥ मोह कहै देखहु रे जोर । यह तो किये जातु है भोर ।। २०१॥ पकरहु सुभट दौरि इह जाहिं । ल्यावहु पकरि बेग मोहि पाहि॥ चल्यो धर्मराग वलवीर । विकथा वचन दूसरो धीर ॥ २०२॥ निद्रा विषय कषाय सुपंच । पकरि हंस ले आये घंचें ॥ चेतन देखें यह कहा भई । मोहि पकरि ले आये दई ॥ २०३॥ है यह परमत्त देश है सही । मोकों सुमन अगाउ कही ।। अव कछु ऐसो कीजे काज ।.जासों होय अप्रमत राज ॥२०॥
मूलगुण धरै । बारह भेद तपस्या करै । सह परीसह वीसरु दोय । उभय दया पालै मुनि सोय ॥२०५॥
इहिविधि लहे अप्रमत आय । तवै मोह निज दास पठाय ॥ ३ (१) छहे गुणस्थानको छोडकर। (२) सातवें गुणस्थानकी राह पकड़ी। (३)
प्रत्याख्यानावरणी क्रोधं मान माया लोम ये चार कपायें। (४) उपसमरूप करके। (५) प्रत्याख्यानावणी उपशम होगया । (६) सातवें गुणस्थानमें । (७) गला। Wom/en/MPPORApp/neNepal
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ब्रह्मविलास में
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पकरि भगावै करि बहु मान । तबै हंस चिंतें निज ज्ञान ॥ २०६ ॥ यह तो मोह कर वह जोर । मोको रहन न दे उहि ओर ॥ अब याको मैं भिष्टित करों । अप्रमत्तमें तब पग धरों ॥ २०७ ॥ तब हंसे थिरता अभ्यास । कीन्हीं ध्यान अगनिपरकाश ॥ जारीं शक्ति मोह की कई । महा जोरतें निर्बल भई ॥ २०८ ॥
हंस लयो निज बल परकास । कीन्हों अप्रमत्त पुर वास ॥
सुभट तीनं मोहके देरे । अरु परमाद सबै अप हरे ॥ २०९ ॥ तज्यो अहार विहार विलास । प्रथम करण कीनो अभ्यास ॥ सप्तम पुरके अंत अनूप । करै कर्ण चारित्र स्वरूप ॥ २१० ॥ आवै संग मोह दल लेय। पैं कछु जोर चलें नहिं जेय ॥
अब जिय अष्टम पुर पग धेरै मोह जुसंग गुप्त अनुसरे ॥ २११ ॥ करहि करण चेतन इह ठांव । दूजो कह्यो अपूरव नाव ॥ जेकबहूँ न भये परिणाम । ते इहि प्रगटे अष्टम ठाम || २१२ || अब चेतन नवमे पुर आय। जामें थिरता बहुत कहाय ॥ पूरव भाव चलहि जे कहीं । ते इह थानक हालै नहीं ॥ २१३ ॥ विधि करण तीसरो करै । तबै मोह मन चिंता धेरै ॥ यह तो जीते सव पुर जाय । मेरो जोर कडून बसाय ॥ २१४॥ दोहा.
मोह सेन सब जोरिक, कीन्हों एक विचार ॥
परगट भये बनै नहीं, यह मारै निरधार || २१५ ||
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'सुभट लुकाय तुम, रहो पुरनके मांहि ॥
जो कहूँ आवै दावमें, तो तुम तजियो नाहिं ॥ २१६ ॥
( १ ) नरक तिर्यंच और देव आयुको । (२) उपसमित किये । ( ३ ) अनिवृत्त करन नामके नवमें गुण स्थानमें ।
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o हम हू शकति छिपायकें, रहें दूरलों जाय ॥
जो जीवत बचि हैं कहूं, तो तुम मिलि हैं आया॥२१॥ नगर ग्राम उपशांत पुर, तहां लो मेरो जोर ॥ :
जो ऐहै मो दावमें, तो मैं करिहों भोर ॥ २१८॥. तुम हू सब जन दौरिकें, आय मिलहुगे धाय ॥
तव या हंसहिं पकरिक, देहँ भली सजाय ॥ २१९ ॥ इह विचार सव सैनसों, कीन्हों मोह नरेश ॥ रहे गुप्त दवि दवि सवै, कर कर उपसम भेश ॥२२०॥
चौपाई. चेतन चर चलाय.चहुंओर। पकरहिं मूढ मोहके चोर ॥ जन छत्तीस गहे ततकाल । मूर्छित करके चले दयाल ॥ २२१॥ सूक्षम सांपरायके देश । आय कियो चेतन परवेश । तिहथानक इक लोभकुमाराजीत कियोमूर्छित तिहवा।।२२२॥ आगे पांव निशंकित धरै। अब वैरी मोसों को लरै ।। मैं जीते सब कर्म कठोर। इहि विधिधस्यो निशंकित जोरा॥२२॥
जव उपशांत मोहके देश । हद्द माहिं कीन्हो परवेश॥ है तबै मोह जोर निज किया। चेतन पकरि उलटिइत दिया॥२२४॥ है “आये सुभट मोहके दौर। मूर्छित छिपे रहे जिहँ और ॥ , पकरि हंस मिथ्यापुर माहिं। ल्याये क्रूर सवहि गहि वाह ॥२२५॥ है
इहां न कछु निहचै यह वात । उत्कृष्ट कहिये विख्यात ॥ है और थानक है बहु जहां। चेतन आय बसत है तहां ॥ २२६ ॥
उपशम समकित जाको होय । मिथ्यापुर लों आवे सोय ॥ क्षायक सम्यकवंत कंदाच । उपसम श्रेणि चढे जो राच ॥२२७॥ है
(१) सूक्ष्मसाम्पराय दशवां गुणस्थान । lonadanwloPoWappamwearanecomaachopars.
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ब्रह्मविलासमें तो वह चौथे पुरलों आय । गिरकर रहै इहां ठहराय ।। औरों थानक उपसम गहै ।दोऊसम्यकवंत जुरहै ॥२२॥ अब मिथ्यापुरमें दुख देय। मोह वली चेतनको जेय॥ नानाविध संकट अज्ञान।सहै परीपह यह गुणवान ॥२२९॥ पंच मिथ्यात्व भेद विस्तार। कहत न सुरगुरु पावे पार ॥ सादि मिथ्यात्वनाश जियलहै। ताके उदै कौनदुखसहै२३० सो दुख जानहिं चेतनराम । के जाने केवल गुणधाम ॥ कहत नलहिये पारावार।दुख समुद्र अति अगम अपार२३१ इहि विधि सहै करमकी मारा अव चेतन निज करै सम्हार॥ द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव। पंचहु मिले वन्यो सव दाव २३२
दोहा. ध्यान सुथिरता राखि के, मनसों कहै विचार ॥ संगति इनकी त्यागिके, अब तू थिर हो यार ॥ २३३ ॥
ढाल-चेत मन भाईरे । एदेशी- . है माया मिथ्या अन शौच,मन भाइरे, तीनों सल्य निवार, चेत है
मन भाईरे ॥ क्रोधमान माया तजो, मन० लोभ सवै परित्याग, है चेत मन भाईरे ॥ २३४ ॥ झूठी यह सब संपदा, मन० झूठो, सब परिवार, चेत मन भाईरे ॥ झूठी काया कोरिमी,मन० झूतो इनसों नेह, चेत मन भाईरे।।२३५॥ यह छिनमें उपजै मिहै, मन तू अविनाशी ब्रह्म, चेतमन भाईरे । काल अनंतहि है है दुख दियो; मन० इसही मोह अज्ञान, चेत मन भाइरे॥२३॥
जो तोको सुमरण कहूँ,मन आवे रंचकमात्र, चेतमनलाई रे ॥ तो कबहूँसंसारमें,मनातून विषयसुखसेव,चेतमनभाई रे॥३८॥
(१) कर्मसे जो उत्पन्न होय. WORPOORDompepapPERRRRRRRApped
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चेतनकर्मचरित्र. को कहै कथा निगोदकी,मन ताके दुखको पार, चेतमनभाई रे॥ काल अनंत तोतेलहे,मन दुःखअनंती वार,चेतमनभाईरे॥३९॥ है देव आयुपुनितें धरयो,मन० तामें दुःख अनेक,चेतमनभाई रे॥
लोभमहासुखहैजहां मन प्रगट विरह दुख होय,चेतमनभाईरे४०१ , दुःख महा बहुमानसी मन० देखे अन्य विभूति, चेतमनभाई रे ॥
तिर्यक् गतिमें तू फिरयोमन० संकट लहे अनेक,चेतमनभाईरे४१५ है अविवेकी कारज किये, मन० वांधे पाप अनेक, चेतमनभाईरे॥
नरदेही पाई कहूं, मनसेये पंच मिथ्यात,चेतमनभाई रे॥४२॥ है कहुं कारज को तो सरयो, मन जनम गमायो व्यर्थ, चेतमनभा० है
भ्रमत भ्रमत संसारमें मन कबहुँन पायो सुक्ख,चेतमनभा०४३ ४ अवके जो तोको भई, मन० कछु आतम परतीत, चेतमनभा॥ धारिलेहुं निजसंपदा,मन दर्शन ज्ञान चरित्र,चेतमनभाईरे२४४ . है और सकल भ्रमजालहै, मन तत्त्व इहै निज काज, चेतमनभा०॥ सुखअनंत या वसे, मनःनिज आतमअवधार,चेतमनभा०॥४५॥ सिद्ध समान सुछंद है, मन निश्चै दृष्टि निहारि, चेतमनभा०॥ इहिविधि आतम संपदा, मन लहिकरि आतमकाज चेतमनभा०
. दोहा. इहि विधि भाव सुभाव ते, पायो परमानंद ॥ सम्यक दरश सुहावनो, लह्यो सु आतमचंद ॥२४७॥ क्षायक भाव भये प्रगट, महा सुभट वलवंत ॥
कीन्हों जिहँ छिन एकमें, सुभट सातको अंत ॥२४॥ मोह तवै निर्वल भयो, अवके कछु विपरीत ॥
मेरे सुभट भये शिथल,लागहिं उनकी जीत॥२४॥ (दर्शन मोहकी प्रकृति और अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ । (२) क्षय । EWonsomnamaonomoso9000/peoponapost
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'ब्रह्मविलास में
चेतन ध्यान कमान ले, मारे क्षायक वान ॥ मोह मूढ छिपतो फिरै, ज्ञान करै घमसान ॥ २५० ॥ देश विरत पुरमें चढ्यो, चेतन दल परचंड | आज्ञा श्रीजिनदेवकी, पालै सदा अखंड ॥ २५१ ॥ सोरठा.
मोह भयो बलहीन, छिप्यो छिप्यो जित तित रहै ॥ चेतन महा प्रवीन, सावधान है चलत है ॥ २५२ ॥ अप्रमत्तपुरमाहिं, चेतन आयो बिधिसहित ||
तहां न जोर बसाहिं, मोह मान भिष्टित भयो । २५३ ।। चेतन करि तहँ ध्यान, सुभट तीने औरहि हरे ॥ .
पुनि चारित्र प्रमान, करैन किये सप्तम पुरहि ॥ २५४ ॥ दोहा.
तजी अहार विहारविधि, आसन दृढ ठहराय ॥
छिन छिन सुख थिरता बढै, यों बोलै जिनराय ॥ २५५ ॥ अबहिं अपूर्वे करनमें, आयो चेतनराय ॥
कियो कैरन दूजो जहाँ, घिरता है अधिकाय ॥ २५६ ॥ नैवमें पुरमें आयकें, तृतिय करन करि लेय ॥
हरिके सुभट छतीस तह, आर्गेकों पग देय ॥ २५७ ॥ आयो दशमें पुरविषै, चेतन महा सचेत ॥
सुभट एक इतहू हरयो, तबै ज्ञान सुधि देत ॥ २५८ ॥
(१) सातवें गुणस्थानमें । (२) नरक, तियंच देव आयु । (३) अधःप्रवर्तकरण प्रारंभ किया । (४) आठवें गुणस्थानमें । (५) दूजा अपूर्वकरन प्रारंभ किया । (६) नवमें अनित्रतकरननामक गुणस्थानमें तीसरा करन प्रारंभ किया । ( ७ ) दर्शनावरणीकी २ मोहिनीकी ४ नामकर्मकी ३० इसप्रकार छत्तीस प्रकृतियें । ( ८ ) सूक्ष्म लोभ ।
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चेतनकर्मचरित्र.
सावधान है नाथजी, रहियो तुम इह ठौर ॥
इहां मोहको जोर है, तुम जिन जानहु और || २५९ ॥ पहिले हानि जो तुम लही, सो थानक इह आहि ॥
तातै मैं विनंती करों, प्रभू भूल जिन जाहि ॥ २६० ॥ तव चेतन कहै ज्ञान सुनि, अब यह पंथ न लेहिं ॥ चलहिं उलंघि उतावले, आगे धोंसा देहिं ॥ २६१ ॥ कहे बहुत संक्षेपसों, इहविधि ये गुणधान ||
पूरब वरनन विधि सधैं, समझि लेहु गुणवान ॥ २६२ ॥ जो फिरके बरनन करें, है पुनरुक्ति प्रदोष ॥
तातें थोरेमें कह्यो, महा गुणनिके कोप ॥ २६३ ॥ पद्धरिछंद.
जहँ चेतन कर सब करम छीन । उपशांत मोहपुर उघि लीन । आयो द्वादशंमहि महमहंत । सब मोह कर्म छय करिय अंत ॥ जहँ यथाख्यात प्रगट्यो अनूप । सुखमय सब वेदै निजस्वरूप । जहँ अवधि ज्ञान पूरन प्रकास । केवल पुनि आयो निकट भास सो छीनमोह पुर प्रगट नाम । तिहि थानक विलसैं निजसुधाम. अब अंतराय कहुँ करिय अंत । पोडेश सब प्रकृति खपाय तंत ६६ जहँ घातिया चारों कर्म नाश । सव लोकालोक प्रत्यक्ष भास ॥ प्रगट्यो प्रभु केवल अतिप्रकाश । जहँ गुण अनंत कीन्हों निवास ६७ प्रगटी निज संपति सव प्रतच्छ । विनशी कुलकर्म अज्ञान अच्छ । प्रगट्यो जहँ ज्ञान अनंत ऐन । प्रगट्यो पुनि दरश अनंत नैन६८
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(१) ग्यारहवाँ गुणस्थान. (२) क्षीणमोह बारहवे गुणस्थानमें (३) यथाख्यातचारित्र. (४) बारहवाँ गुणस्थान. (५) ज्ञानावर्णकी ५ दर्शनवणींकी ४ यशकीति १ ऊंच गोत्र १ च अंतराय ५ इसप्रकार १६ प्रकृति.
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ब्रह्मविलासमें
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प्रगट्यो तहँ वीर्य अनंत जोरि ।.प्रगट्यो सुख शक्ति अनंत फोरि॥ ९ तह दोष अठारह गये भाज । प्रभु लागे करन त्रिलोकराज६९ है सब इन्द्र आय सेवहिं त्रिकाल । प्रभु जयजय जय जीवनदयाल तह करत अष्टप्रतिहार्य देव । विधि भावसहित नितभविक सेव ॥ प्रभु देत महा उपदेश. ऐन । जिहँ सुनत लहत भविपरम चैन।
जहँ जनम जरा दुख नाश होय । प्रभु विद्यादेश वताय सोय॥७१ है इहविधि सयोगपुर राज योग । प्रभु करत अनंत विलास भोग तोउ करम चार नहिं तजहिं संग। लगरहे पूर्व तिथिवंध अंग ॥७२ प्रभु शुक्लध्यानआरूढ होय । अंतरीक्ष विराजहिं गगन सोय॥ १ तहँ आसन दृढ ठहराय एक । पद्मासन कायोत्सर्ग टेक ||७३॥ है प्रभु डग नहिं भरहिं कदाच भूम। तऊ कर्म करत है कौन धूम ॥ लिये लिये फिरत तिहुँलोकमांहि जिहँ थानक पूरव बंध आहि ॥ कहुँ राखहिं थिर कहुँ लै चलंत । कहुँ वानि खिरै कहुँ मौनवंत ।
कहुँ समवशरण कहुँ कुटी होय । कहूँ चौदहराजु प्रमान लोय।।७५६ है इहविधि ये कर्म करत जोर। नहिं जान देत शिववधू ओर ॥ ए एतेपै निर्बल कहे बखान । मनु जरी जेवरीकी समान।।७६ है तोउ समय समयमें आय आय । चेतन परदेशन थित वधाय ॥
यह एक समयमें करत त्याग । थिर होन देतनहिं दुतिय ला तऊ सुभट पचासी लगि रहंत । निजनिजथानक निजवल करत चेतन परदेश न घात होय । तातै जगपूज्य जिनेश होय ॥७॥
दोहा. चेतन राय सयोगपुर, इहविध विलंसहि राज ॥
अब चहुँ कर्मन हरनको, ठगनहि एक इलाज ॥२७९॥ (१) तेरहवें गुणस्थानमें. Tenomomen/GOOPPEPAROPARDARPIRampan
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चेतनकर्मचरित्र. श्री सयोगपुर देशमें, चेतन करि परवेश ॥
लाग्यो हरण सुकर्मको, तजिके.जोगकलेश ।। २८० ॥ तय सुवेदनी कर्मने, दीनों रस निज आय ।।
दुहुमें एक भई प्रगट, जानहिं श्रीजिनराय ।। २८१ ॥ हम पयानो जगतत, कीनो लघुथितिमांहि ॥
हरिक चारहिं कर्मको, सूधे शिवपुर जाहिं ॥ २८२ ॥ तह अनंत सुख शास्वते, विलसहिं चेतनराय ।। निराकार निर्मल भयो, त्रिभुवन मुकुट कहाय ॥२८॥
चापई.
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अविचल धाम बसे शिव भूप । अष्टगुणातम सिद्ध स्वरूप ॥ चरमदह परमित परदेश । किंचित ऊनो थित विनभेश ।। पुरुपाकार निरंजन नाम । काल अनंतहि ध्रुव विश्राम ॥ हैभव कदाच न कवड होय । सुख अनंत विलस नित सोय॥ हैलोकालोक प्रगट सब वेद । पट द्रव्य गुण पर्याय सुभेद ॥ अज्ञेयाकार सकल प्रतिभास । सहजहिं स्वच्छ ज्ञानजिहँ पास ॥
पटगुणी हानि वृद्धि परनमें । चेतन शुद्ध स्वभावहि रमै । उत्पत व्यय ध्रुव लक्षण जास। इहविधि थिते सवै शिवरास८७॥ जगत जीत जिहि विरुद प्रमान । पायो शिवगढ रतननिधान । गुण अनंत कहिये कत नाम । इहविध तिष्ठहि आतमराम८८॥ जिनप्रतिमा जगमें जहँ होय । सिद्ध निसानी देखहु सोय सिद्ध समान निहारहु आप । जातें मिटहि सकल संताप८९॥ - निश्चय दृष्टि देख घटमांहि । सिद्ध रुतोमहिं अन्तर नाहि।।
ये सब कर्म हाय जड़ अंग । तू 'भैया' चेतन सर्वग ॥१०॥ wan/RamparamparpanSpERRORPORPIOR
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....... ज्ञान दरश चारित भंडार । तू शिवनायक तू शिवसार ॥ तू सब कर्मजीत शिव होय । तेरी महिमा वरने कोय।।२९१॥ है।
दोहा. . गुण अनंत या हंसके, किंहविधि कहैं बखान ॥ थोरेमें कछु वरनये, 'भविक' लेहु पहिचान ।।२९२॥ यह जिनवानी उदधिसम, कविमति अंजुलि मात्र ॥ तेती ही कछु संग्रही, जेतो हो निज पात्र ॥ २९३ ॥ जिनवानी जिहँ जिय लखी, आनी निजघटमाहि ॥ तिहँ प्रानी शिवसुख लह्यो, यामें धोखो नाहिं ॥ २९४ ॥ चेतन अरु यह कर्मको, कह्यो चरित्र प्रकाश ।। सुनत परम सुख पाइये, कहै भगवतीदास ॥ २९५॥ सत्रहसौ छत्तीसकी, जेष्ठ सप्तमी आदि ॥ श्रीगुरुवार सुहावनो, रचना कही अनादि ॥ २९६ ॥
इति चेतनकर्मचरित्र समाप्तः। अथ अक्षरवत्तीसिका लिख्यते ॥
दोहा.. गुण अपार ओंकारके, पार न पावै कोय ॥ । सो सब अक्षर आदि ध्रुव, नमैं ताहि सिधि होय ॥१॥
चौपाई. कका कहै करन वश कीजे । कनक कामिनी दृष्टि न दीजे ॥
करिके ध्यान निरंजेन गहिये । केवलपदइहविधिसोंलहिये॥२॥ १ (१) इन्द्रियोंको।
(२) कर्मरहित आत्मस्वरूपको । sappeopoPARAMPARANOPARDARPeace
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खक्खा कहें खवर सुनि जीवा । खवरदार है रहो सदीवा ॥ है खोटे फंद रचे अरिजाला ।छिन इक जिनभूलहु वहख्याला ३
गग्गा कहै ज्ञान अरु ध्याना । गहिके थिर हूजे भगवाना ॥ गुण अनंत प्रगटहिं ततकाला गरिके जाहिं मिथ्यातम जालामा घग्घा कहै स्वघर पहिचानों । घने दिवस भये फिरत अजानों। घर अपने आवो गुणवंता । घने कर्मको ज्यों है अंता॥५॥ नन्ना कहै नैनसों लखिये । नयनिहचै व्यवहार परखिये ॥ है निजके गुण निजमें गहि लीजे । निरविकल्प आतमरस पीजे ॥६॥
चच्चा कह चरचि गुण गहिये । चिन्मूरति शिवसम उर लहिये ॥ है चंचल मन थिर करधरि ध्याना । सीखसुगुरुसुन चेतन स्याना , छच्छा कहै छोडि जगजाला । छहों काय जीवनप्रतिपाला ।। छांड अज्ञान भावको संगा। छकि अपने गुण लखि सर्वंगा ॥
चौपाई १५ मात्रा. है जज्जा कह मिथ्यामति जीत । जैनधरमकी गहु परतीत ॥ , जिहिसों जीव लगै निजकाज । जगतउलंधि होय शिवराज है झन्झा कहै झूठ पर वीर! । झूटे चेतन साहस धीर ॥
झूठो है यह करम शरीर । झालि रहे मृगतृष्णानीर ॥१०॥ नन्ना कह निरंजन नैन । निश्चै शुद्ध विराजत ऐन ॥ निज तज परमें नहिं जाय । निरावरण वेदहु जिनराय॥११॥
टेव निज गहो । टिककें थिरअनुभव पदलहो ॥ टिकन न दीजे अरिक भाव । टुकटुकसुखको यही उपाव१२॥
चौपाई.१६मात्रा. . व्हा कहै आठ ठग पाये । ठगत ठगत अबकै कर आये ॥ में ठगको त्याग जलांजलि दीजे । ठाकुर हैतव सुखेलीजे॥१॥
१ जीजे ऐसा भी पाठ है. Vaiwapnance/RDAPPROPROMPARos
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ब्रह्मविलासमें है उड्डा कहै डंक विप जैसो । डसै भुजंग मोहविप तैसो ॥
डारयो विष गुरु मंत्र सुनायो ।डर सवत्याग मान समुझायो१४६ ए ढड्ढा कहै ढील नहिं कीज़े । ढूंढ ढूंढ़ चेतन गुण लीजे ॥ दिग तेरे है ज्ञान अनंता । ढकै मिथ्यात्वताहिकरि अंता१५०
दोहा. नन्ना अक्षर जे लखो, तेई अक्षर नैन ॥ __जे अक्षर देखै नहीं, तेई नैन अनैन ॥ १६ ॥
.. चौपाई १५ मात्रा. तत्ता कहै. तत्त्व निज काज। ताको गहे होय शिवराज ॥ ताको अनुभौ . कीजे हंस । तावेदतद्वै तिमिर विध्वंस॥१७॥ ए थत्था कहै इन्द्रिनको भूप । थंभन मन कीने चिद्रूप ॥
थाकहिं सकल कर्मके संग । थिरतासुख तहहोय अभंग॥१८॥ दद्दा कहै परगुणको दान । दीने थिरता लहो निधान । दया वहै सुदया जहँ होय । दया शिरोमणि कहिये सोय१९॥ धद्धा कहै धरमको ध्यान । धरि चेतन ! चेतनगुण ज्ञान ॥ धवल परमपद प्रापति होय । ध्रुवज्यों अटलटलै नहि सोय२०॥ नन्ना नव तत्त्वनसों भिन्न । नितप्रति रहै ज्ञानके चिन्न । निशदिन ताके गुण अवधारि । निर्मल होय करमअघटासि॥२१॥
पप्पा कहै परमपद इष्ट । परख गहो चेतन निज दिष्ट । हु प्रतिभासहि सव लोकालोक । पूरण होय सकलसुख थोका२२॥ है
फफ्फा कहै फिरहु कित.हंस । फिर फिर मिलैन नरभव वंस॥ फंद सकलं अरिके चकचूरि। फोरि शकति निज आनंद पूरि२३ है
बव्वा कहै ब्रह्म सुनि बीर । वर विचित्र तुम परम गंभीर ॥ PownORPORRORDERamPPERORRUPender
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अक्षरवत्तीसिका.
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वोध वीज लहिये अभिराम । विधिसों कीजे आतमकाम ||२४|| भव्भा कहें. भरमके संग । भूलि रहे चेतन सर्वेग ॥ भाव अज्ञाननको कर दूर । भेदज्ञानतें परदल चूर ॥ २५ ॥ मम्मा कहें मोहकी चाल । मेटि सकल : यह परजंजाल ॥ मानहु सदा जिनेश्वरंवन । मीठे मनहु सुधात ऐन ॥ २६ ॥ जज्जा कहे जैनवृप गहो । ज्यां चेतन पंचमि गति लहो ॥ जानहु सकल आप परभेद । जिहँजानें हैं कर्म निखेद ॥ २७ ॥ रर्रा कह राम सुनि वैन । रमि अपने गुन तज परसैन ॥ रिद्ध सिद्ध प्रगटहि ततकाल । रतन तीन लख होहु निहाल ||२८|| लल्ला कहे लखहु निजरूप । लोकअग्र सम ब्रह्मस्वरूप ॥ लीन होहु वह पद अवधारि । लोभकरन परतीत निवारि ॥ २९ ॥
सोरटा.
वव्वा वोले चैन, सुनो सुनोरे निपुण नर ॥ कहा करत भव सैन, ऐसो नरभव पाय के ॥ ३० ॥ दोहा.
शक्षा शिक्षा देत हैं, सुन हो चेतन राम ॥
सकल परिग्रह त्यागिये, सारो आतम काम ॥ ३१ ॥ खक्खा खोटी देह यह, खिणक माहि खिर जाय ॥
खरी सुआतम संपदा, खिरं न थिर दरसाय ॥ ३२ ॥ . सस्सा सजि अपने दहि, शिवपथ करहु विहार ॥ होय सकल सुख सास्वते, सत्यमेव निरधार ॥ ३३ ॥ हा क हित सीख यह, हंस वन्यों है दावे ॥ हरिलै छिनमें कर्मको, होय बैठि शिवराव ॥ ३४ ॥
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ब्रह्मविलास में
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क्षक्षा क्षाय पंथ चढि, क्षय कीजे सब कर्म ॥
क्षण इकमें बसिये तहां, क्षेत्र सिद्धि सुख धर्म ॥ ३५ ॥ यह अक्षर वत्तीसिका, रची भगवती दास ॥
बाल ख्याल कीनो कछु, लहि आतमपरकाश ॥ ३६ ॥ इति अक्षर बत्तीसिका.
अथ श्रीजिनपूजाष्टकं लिख्यते ॥ दोहाजल चंदन अरु सुमन लै, अक्षत शुचि नैवेद ॥ दीप धूप फल अर्घ विधि, जिनपूजा वसुभेद ॥ १ ॥
जलपूजा—कवित्त,
नीर क्षीरसागरको निर्मल पवित्र अति सुंदर सुवास भरयोसुरपै अनाइये । गंगकी तरंगनके स्वच्छ सुमनोज्ञ जल, कंचन कलश वेग भरकें मगाइये ॥ और हू विशुद्ध अंवु आनिये उछाहसेती, जानिये विवेक जिन चरन चढाइये। भौदुख समुद्रजल अंजुलिको दीजे इहां, तीन लोक नाथकी हजूर ठहराइये ॥ २ ॥ चंदन पूजा.
परम सुशीतल सुवास भरपूर भरथो, अतिही पवित्र सव दूषन दहतु है । महावनराजनके वृक्षन सुगंध करै, संगतिके गुण यह विरद बहतु है | वावन जुचंदन सुपावन करन जग, चढै जिनचर्ण गुण ताहीतें लहतु है । मोह दुखदाहके निवारिवेको महा हिम, चंदनतें पूजौं जिन चित्त यों कहतु है ॥ ३ ॥
अक्षतपूजा. शशिकीसी किर्ण कैधों रूपाचलवर्ण कैधों, मेरुतट किर्ण
(१) क्षपकश्रेणी मांड.
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जिनपूजाष्टक.... एकैघों फटिकप्रमाने हैं । दूधकेसे फैन कैंधों चित्तामणि रेणु कैंधों, । १ मुक्ताफल ऐन कैंधों, हीरा हेरि आने हैं। ऐसे अति उज्ज्वल है । तंदुल पवित्र पुंज, पूजत जिनेश पाद पातक पराने हैं । अच्छै । गुण प्रापति प्रकाशतेज पुंज होय, अच्छै जिन देखे अच्छ इच्छते अघाने हैं॥४॥
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पुष्पपूजा..
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___ जगतके जीव जिन्हें जीतके गुमानी भयो, ऐसो कामदेव एक जोधा जो कहायो है। ताके शर जानियत फलनिके वृंद बहु, केतकी कमल कुंद केवरा सुहायो है।मालतीसुगंध चार वेलिकी
अनेक जाति, चंपक गुलाब जिनचरण चढायो है। तेरी ही १ शरण जिन जोर न वसाय याको, सुमनसों पूजे तोहि मोहि है ऐसो भायो है ॥५॥
. . . नैवेद्यपुजा.
परम पुनीत जान मेवनके पुंज आन, तिन्हें पुनि पहिचान है. जिनयोग्य जानिये । अन्न ओ विशुद्ध तोय ताको पकवान होय, है कहिये नैवेद्य सोई शुद्ध देख आनिये ॥ पूजत जिनेन्द्रपाय पातकपराने जाय, मोक्षलच्छि ठहराय सत्य यो वखानिये । क्षुधाको न दोष होय ज्ञानतनपोष होय, परम संतोष होय ऐसी विधि । ठानिये ॥ ६॥ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . दीपकपूजा... ... ... . * दीपक अनाये चहुं गतिमै न आवे कहूं, वर्तिका बनाये कर्मवर्ति न बनत है । घृतकी सनिग्धतासों मोहकी सनिग्ध जाय, ह ज्योतिके जगाये जगाजोतिमें सनत है ॥ आरती उतारतें आरत viewROOPEPARWAROOPARDARoopencome
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ब्रह्मविलास में
सब जाय टर, पांय ढिग धरे पाप पंकति हनत है । वीतराग देव जूकी सेव कीजे दीपकसों, दीपत प्रताप शिवगामी यो भनत है ॥७॥ धूपपूजा. जिमि परम पवित्र हेम आनिये अधिक प्रेम, जाति धूपदान शुद्ध निपजाइकै । वह्नि जे विशुद्ध बनी तेज पुंज महाघनी, मानो घरी रत्न कनी ऐसी छवि पाइकै ॥ तामें कृष्णागरुकी जुकनिकाहू खेव कीजे, वह कर्मकाठनिके पुंजगहि ताड़कें । पूजिये जिनेन्द्र पांय धूपके विधान सेती, तीनलोकमाहिं जो सुवास वास छायकें ॥ ८ ॥
फलपूजा.
श्रीफल सुपारी सेव दाड़िम वदाम नेव, सीताफल संगतरा शुद्धसदा फल है | विही नासपाती ओ विजोरा आम अम्रतसे, नारंगी जंभीरी कर्ण फल जे कमल है । ऐसे फल शुद्ध आनि पूजिये जिनंद जान, तिहूँ लोकमधि महा सुकृतको थल है। फल सेती पूजे शुद्ध मोक्षफल प्राप्ति होय, द्रव्य भाव सेये सुखसंपति अचल है ॥ ९ ॥
अर्घविधिपूजा.
जल सुविशुद्ध आन चंदन पवित्र जान, सुमन सुगंध ठान. अक्षत अनूप है । निरखि नैवेद्यके विशेष भेद जान सबै, दीपक संवारि शुद्ध और गंध धूप है | फल ले विशेष भायं पूजिये जिनंद पाय, बसु भेद ठहराय अरथ स्वरूप है । कमल कलंक पंक हरिके भयो अटंक, सेवक जिनंद 'भैया' होत शिव भूप है ॥ १० दोहा.
शुचि करके निज अंगको; पूजहुं श्रीजिन पाय ॥ दर्वितं भावतविधि सहित, करहु भक्ति मन लाय ॥ ११ ॥
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श्रीजिनपूजाटक व फुटकर कविता. जिन पूजाके भेद बहु, यहविधि अष्टप्रकार ॥ प्रतिपूजा जल धारसों, दीजे अर्घ सुधार ॥ १२॥ ..
इति श्रीनिनपूनाष्टकं. ___ अथ फुटकर कविता मात्रिक कवित्त. प्रथम अशोक फूलकी वर्षा, वानी खिरहि परम सुख कार। चामर छत्र सिंहासन शोभित, भामंडलघुति दिपै अपार ॥ दुदुभि नाद वजत आकाशहि, तीन भवनमें महिमा सार। है समवशरण जिन देव सेवको, ये उतकृष्ट अष्टप्रतिहार ॥ १३ ॥
सवैया सुन्दरी. काहेको देशदिशांतर धावत, काहे रिझावत इंद नरिंद। काहेको देवि औ देव मनावत, काहेको शीस नवावत चंद ॥ काहेको सूरजसों कर जोरत, काहे निहोरत मूढमुनिंद। काहेकोशोच करै दिनरैन तूं, सेवत क्योंनहि पार्वजिनंद॥१४॥
वीतरागकी स्तुति छप्पय. __ देव एक जिनचंद नाव, त्रिभुवन जस जपै।।
देव एक जिनचंद, दरश जिहँ पातक कैपै॥ देव एक जिनचंद, सर्व जीवन सुखदायक।
देव एक जिनचंद, प्रगट कहिये शिवनायक ।। देव एक त्रिभुवन मुकुट, तास चरण नित वैदिये। गुण अनंत प्रगटहि तुरत, रिद्धिवृद्धि चिरनंदिये ॥ १५ ॥
. . . कवित्त.. आतमा अनूपम है दीसै राग द्वेष विना, देखो भविजीवो! तुम आपमें निहारकें । कर्मको.न अंश कोऊ भर्मको न वंश को
(१) पाखडीतपस्वी. . . . . ...... Monwanapanawaowercepanesawdapiewspaper
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ब्रह्मविलासमें ज, जाकी शुद्धताईमें न और आप टारकें । जैसो शिवखेत बसेर तैसो ब्रह्म यहां लसै, यहां वहां फेर नाही देखिये विचारकें । जोई। है गुण सिद्धमाहिं सोई गुण ब्रह्ममाहि, सिद्धब्रह्म फेर नाहिं निश्च निरधारकें ॥१६॥
प्रश्नोत्तरदोहा. कोन ज्ञान विन आवरन, कौन देव विनराग। कौन साधु निम्रन्थ है, कौन व्रती जिहँ त्याग ॥ १७ ॥
एकाक्षरी दोहा. नानी नानी नानमें, नानी नानी नान ॥ नन नानी नन नानने, नन नैनानन नान ॥१८॥
यसरी दोहा. मानन मानों मानमें, मान मान मै मान । मनु ना मानै मानमें, मान मानुमें मान ॥ १९॥
ध्यक्षरी दोहा. चेतन चेतो चेतना, तो चेते चित चैन । ताते चेतन चेत तू, चेतनता नित नैन ।॥ २० ॥
चतुरसरी दोहा. अध्यातमम आतमा, मम अध्यातम धाम ।। आतम अध्यातम मतै, धू मम आतम ताम ॥२१॥ अथ वर्तमानचतुविशति जिनस्तुति लिख्यते ।
श्रीआदिनाथनिनस्तुति छप्पय. . आदिनाथं अरहंत, नाभिराजा कुलमंडन । आ नगर अयोध्या जनम, सर्व मिथ्यामति खंडन ॥ Geo-openParenpanwaRPAPARDARPARAPARWARE
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वर्तमानचतुर्विंशतिजिनस्तुति. केवल दर्शन शुद्ध, वृषभ लक्षन तन सोहै। है : धनुप पांच सौ देह, इन्द्र शतके मन मोहै ।।
मरुदेवि मात नंदन सुजिन, तिहूंलोक तारनतरन । मनभाव धारि इक चित्तसों, भन्यजीव वंदत चरन ॥२॥
श्रीअनितजिनस्तुति. मात्रिक कवित्त, जितशत्रूसुत विजयानंदन, गजलच्छन तेरै अभिराम । अष्टमहा मद सब जिनजीते, नगरअजोध्या तज धनधाम।। केवल ज्ञान किये नर केते,पंचमि गति पहुंचे शुभ ठाम । ऐसे अजित नाथ तीर्थकर, तिनको नित कीजे परनाम ॥२॥
श्रीसंभवनिनस्तुति-मात्रिक कवित्त. संभवनाथ सकल सुखदायक, सावस्ती नगरी अवतार। राय जथारथ सेना जननी, केवल दर्शन रूप अपार ॥ हय लच्छनतनस्वामी शोभत,अरि सव जीततरे निरधार। भन्यजीव परणामकरत है, हे प्रभु भवदधिपार उतार ॥३॥
: श्रीअभिनंदनजिनस्तुति. अभिनंदन चंदनसों पूजों, समरस राजाकुल अवतार । नगर अजोध्या जन्म लियो जिन,कपिलच्छन जगमें विस्तार सिद्धारथ माता कुलमंडन, पापविहंडन परम उदार । तातें जगत जीव नित वंदत, भवसागर प्रभुपार उतारा|४||
. श्रीसुमतिनिनस्तुति. सुमति नाथ सुमरे सुखसंपत, दुख दरिद्र दूर सवजाय । नगरसुकोशल जन्मलियो जिन,पिता मेघ अरु मंगला माय॥ वल अनंत भगवंत विराजै, लच्छन कोक नित सेवै पाय ।
मनवचभाव नित्य भवि वंदै,श्रीजिनचर्णन शीस नवाया। Maren-e/RPowermepRSROOPanacomponr
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श्रीपद्मप्रभजिनस्तुति. पदमप्रभ धरराजानंदन, मात सुसीमा जगतजगीस । कोसंवी नगरी जिन जन्मे, इन्द्रादिक प्रणमहि निशदीस ॥ लच्छन कमल विराजै प्रभुके, शोभत तहँ अतिशय चौतीस। चरणकमल प्रभुके नित वंदै,भव्यत्रिकाल नाय निजशीस ॥६॥
श्रीसुपार्श्वजिनस्तुति. श्री सुपास जिन आश जु पूरै, सेवहु नित भविजन चरनं । पयराजा सीव सुलच्छन, पोहमिकुश प्रभु अवतरनं ॥ केवल वयन देशना देते, भविजनमन अम्रत झरनं । नगर वनारसि नित जन वंदै, भव्य जीव सब तुम शरनं॥७॥
श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुति. चन्द्रप्रभ चंदेरी उपजे, मंगला मात पिता महसेन। शशिलच्छन सेवै चरनादिक, समकित शुद्धदेत तिहँ ऐन ॥ लोकालोक प्रगट घट अंतर, वानि खिरै अबत मुख जैन । ताके चरण भव्य नितवंदित, अविचलरिद्ध देत प्रभु चैन ॥॥
. श्रीसुविधिजिनस्तुति. सेवहु सुविधि नाथ तीर्थकर, जसु सुमरे सुखसंपति होय । काकंदी नगरी जिन उपजे, मगर लंछ प्रभुके तन जोय ।। रामा मात जगत सब जाने, अरिकुल व्याप सकै नहिं कोय । अदनीपति सुग्रीव कहावत, ताके सुत वंदत तिहुँ लोय ॥९॥
श्रीशीतलनिनस्तुति-कवित्त. कंचन वरन तन रंचन डिगत मन, तिहुंलोक नाथ जिन . इन्द्रमुख भासई। नंदाजूकी कूख धन दृढरथ राजा-तन, अष्टकुल (१) सेही ! (२) जितसेन ऐसा भी पाठ है। RPROOcenePATRIORDCORIAORANPers
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वर्तमानचतुर्विशतिजिनस्तुति. ९५ मदहन, ज्ञानको प्रकाशई ॥ लच्छन श्रीवृच्छपाव शीतल श्रीनाथ नाव, भद्दल जिनंद गांव रवि ज्यों उजासई । देशना सुदेह १ सार होंहि तहाँ जैजैकार, भव्यलोक पावे. पार मिथ्याको विनाशई ॥१०॥
.. श्रीश्रेयांसनिनस्तुतिमात्रिक कवित्त. श्रीपुर नगर जगत सव जान, विघ्नराय विसनाके नंद समवशरनमधि जिनवर शोभत, मोहत है नृपके कुलवृंद ।। लच्छन खग सेवै चरणादिक, तीर्थकर श्रेयांस जिनंद । तिनके चरणन चित्तलायकें, वंदत हैं नित इंदनरिदं ॥११॥
श्रीवासुपूज्यनिनस्तुति. श्रीवासुपूज्य चंपा नगरी पति, महिपी लंछ मही सब जाने। वासुपूज राजाकुल मंडन, जायासुत सब जगत वखाने । सुरपति आय सीस नित नावे, प्रभुसेवा निजमनमें आने ।। सम्यकदृष्टि नितप्रति सेवहिं, जिनके वचन अखंडित मान ।।१२
श्रीविमलजिनस्तुति-छप्पय. विमलनाथ इकदेव, सिद्धसम आप विराजै।.. त्रिभुवनुमाहिं जिनंद, जासु धुनि अंवरगाजै॥ . कंपिलपुर जिन-जन्म, शुक्र लंछन महि माने। .
सुरपति सेवहिं पाय, जगत्रयमाझ वखाने ।। कृतवर्म भूप स्यामाजननि, केवलज्ञान दिवाकरन ।
तस चरन कमल वंदत'भविक जयजिनवरतारनतरन ॥१३॥ 0. . . . श्रीअनन्तजिनस्तुति-मात्रिक कवित्त... . अनंत नाथ सीचाना लंछन, सुजसा मातःकहै सब कोय । PrasoompanPIRPROCEROSAROPORPORapers
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ब्रह्मविलासमें पिता जास श्रीसैन नरेश्वर, नगर अजोध्या जन्में सोय ॥ . गुण अनंत बलरूप विराजे, सिद्धभये अरिक कुल खोय । भावसहित भविप्रानी वंदत,हे प्रभुशिवपदहमको होय ॥१४॥
श्रीधर्मजिनस्तुति. लच्छन बज्र रतनपुर उपजे, धर्मनाथ तीर्थकर धीर।। भानुमहीपतिके कुलमंडन, सुवृता मात बडे बलवीर ॥ समवशरनमें देशना देते, प्रभुधुनि जिम सागर गंभीर । चरन सदा भवि पानी वंदत, जैजै जिनवर चरमशरीर ॥ १५ ॥
श्रीशान्तिनिनस्तुति-सिंहावलोकन छप्पय. जिनवर ताराचंद, चंदतारा नित वंदै । वंदै सुरनर कोटि कोटि, सुरवृंद अनंदै ।। आनंद मगन जु आप, आप हस्तिनपुर आये। आये शांति जिनदेव, देव सवही सुख पाये ॥ पाये सुमात ऐरारतन, तन कंचन विश्वसेन गिन । गिन सुकोषगुनको वन्यो, वन्योसुतारन तरन जिन॥१६॥
श्रीकुंथुनिनस्तुति. मात्रिक कवित्त. पदमासन भगवंत विराजहिं, केवल वयन देशना देहि। गजपुर नगर सूरसिंह भूपति, ताके नंद अभयपद देहिं॥ कुंथुनाथ तीर्थकर जगमें, सब प्रानिनको आनंद देहिं । जस श्रीवत्सकलंछन सो है,भव्य त्रिकालहि वंदन देहि ॥१७॥
श्रीअरःनिनस्तुति. नंद्यावर्त्त सुलच्छन सोहै, सुरपति सेव करै नित आय । Do संघ चतुर्विध देशना सुनते, वैरभाव नहिं रहै सुभाय ॥ orenoconcensowerpeparwareneswarapars
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.............. चतुर्विशतिजिनस्तुति.. अर्जुनमात मही सब जाने, पिता जामु हैदक्षिण राय.! श्रीअरनाथ नगर गजपुरवर, वंदें भव्य जिनेश्वर पाय ॥ १८ ॥
श्रीमल्लिजिनस्तुति. मल्लिनाथ मिथुलानगरीपति, अद्भुत रूप जिनेन्द्र विराजे।। कुंभराय परभावति जननी, लच्छन कलश चरण सो छाजे ।। सुरपति आय शीश नित ना, कंचन कमल धरै प्रभु कानें। समोशरण गह गहे जिनेसुर, वानी सुन मिथ्यातम. भाजे ॥ १९ ॥
श्रीमुनिमुत्रनजिनस्तुति-सिंहावलोकन छप्पय, . मुनिसुव्रत जिन नाव, नाव त्रिभुवन जस पै । जप सुरनर जाप, जाप जपि पाप जु कंप ।। कंप अरिकुल रीति, रीति जिन नीति प्रकास। परकाश घट सुमति, सुमति राजग्रह वासे ॥ वास जिनवर सिद्ध चित, चितवत कूरम चरण तन । तन पदमावति पूजजिन, जिनसेवक वर्दै मुमुनि ॥ २०॥
श्रीनमिनिनम्नुति-मात्रिक कवित्त. नम्यनाथ नीलोत्पललच्छन, मिथुलानाव नगर परसिद्ध । र विजय राय परभावति जननी, मुमिरे पावै अविचलरिद्ध । केवल ज्ञान जिनेश्वर बंदत, होत सदा समकितकी वृद्धि । भावसहित जो जिनको पूज, तिन घरहोय सदानवनिद्धिः ॥२१॥ . . श्रीनमिजिनस्तुति कवित्त.
नमिनाथ नाथ नेमि काहसों न राख प्रेम, मनवच सदा एम रह दशा जोगकी । समुद्रके सुत धीर सिंधुज्यों गंभीर वीर, संदेख रहे चर्ण तीर लिप्सा नाही भोगकी ।। सौरिपुर शिवामाय ज
ग जिननाथ राय नीलरत्न जामु काय, लख वात लोगकी। अनंForponompRNWAPARWARIDWARDROIN
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तबलधारी है सो सदा ब्रह्मचारी है, ऐसे जिन वंदत रहै न दशा
रोगकी ॥ २२ ॥
श्रीपार्श्वनाथ जिनस्तुति छप्पय.
अम्रत जिनमुख झरै, द्वार सुरदुंदुभि वाजै । सेवहिं सुरनर इंद्र, नाग फन शीश विराजै ॥ . नगर बनारसि नाम, तात अससेन कहिज्जे । वामा मात विख्यात, जगत जिन पूजा किज्जे ॥ सुअनंत ज्ञान वल रूपधर, आप जगत तर सिद्धहुव ।
चंदै सुभव्य नर लोकके, जय जय पास जिनंद तुव ॥२३॥ श्रीवीरजिनस्तुति.
जिनवर श्रीमहावीर, इन्द्र सेवा नित सारहिं । सुरनर, किन्नर देव तेहु, मिथ्या मत टारहिं ॥ क्षत्रिय कुल जिन जन्म, राय सिद्धारथ नंदन | त्रिशला उर अवतार, सिंह पद पाप निकंदन ॥
विधिचार संघ सुन देशना, केवल वचन विशाल अति । जिनप्रभु वंदत सम भावधर, जय जय दीनदयाल मति ॥ २४ ॥
दोहा.
जिन चौवीसी जगतमें, कलपवृक्षसम मान ॥
जे नर पढ़ें विवेकसों, ते पावहिं शिवथान ॥ २५ ॥ इति चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः । अथ विदेहक्षेत्रस्थ वर्तमानजिनविंशतिका.
श्रीसीमंधरजिनंस्तुति–उप्पय.
सीमंधर जिनदेव, नगर पुंडरिगिर सोहै । वंदहि सुरनर इन्द्र, देखि त्रिभुवन मन मोहै ॥
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वर्त्तमानजिनविंशतिका:
वृप लच्छन प्रभु चरन सरन, सवहीको राखहिं । तरहु तरहु संसार सत्य, सत यहैं जु भाखहिं ॥ श्रेयांस रायकुल उद्धरन, वर्त्तमान जगदीश जिन ॥ समभावसहित भविजननमहिं, चरण चारु संदेह विन ॥ १ ॥ श्रीयुगमंधर जिनस्तुति - कवित्त,
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केवल कलप वृच्छ पूरत हैं मन इच्छ, प्रतच्छ जिनंद जुगमंधर जुहारिये । दुंदुभि सुद्वार वाजैं, सुनत मिथ्यात्व भाजै, विराजै जगमें जिनकीरति निहारिये ॥ तिहुं लोक ध्यान धेरै नामलिये पापहरे, करें सुर किन्नर तिहारी मनुहारिये । भूपति सुदृढराय विजया सु तेरी माय, पाय गज लच्छन जिनेशके निहारिये ॥ २ ॥ श्री बाहुजिनस्तुति सवैया - दुमिला.
प्रभु बाहु सुग्रीव नरेश पिता, विजया जननी जगमें जिनकी मृगचिह्न विराजत जाधुजा, नगरी है खुसीमा भली जिनकी ॥ शुभकेवल ज्ञान प्रकाश जिनेश्वर, जानतु है सबही जिनकी । गनधार कहें भवि जीव सुनो, तिहुं लोकमें कीरति है जिनकी ॥ ३ ॥ श्री सुबाहु जिनस्तुति सवैया.
श्रीस्वामि सुबाहु भवोदधिं तारन, पार उतारन निस्तारं । नगर अजोध्या जन्म लियो, जगमें जिन कीरति विस्तारं ॥ निशढिल पिता सुनंदा जननी, मरकटलच्छन तिस तारं । सुरनरकिन्नर देव विद्याधर, करहि वंदना शशि तारं ॥ ४ ॥ श्रीसुनातिनिनस्तुति कवित्त.
अलिका जु नाम पाँवै इन्द्रकी पुरी कहावे, पुंडरगिरि सरभर नावे जो विख्यात है । सहसकिरनधार तेजतें दिपै अपार, धुजापै विरा
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ब्रह्मविलासमें जै अंधकारहू रिझात है। देवसेन राजासुत जाकी छवि अदभुत, है ई देवसेना मातु जाकै हरपन मात है । श्रीसुजाति स्वामीको प्रणाम, है नित्य भव्य करें जाके नामलिये कुल पातक विलात है ॥५॥
श्रीस्वयंप्रभुनिनस्तुति सवैया. (मात्रिक) श्रीस्वयंप्रभु शशिलंछन पति, तीनहु लोकके नाथ कहावे। हे मित्रभूतभूपतिके नंदन, विजया नगर जिनेश्वर आवें ॥ .
धन्य सुमंगला जिनकी जननी, इन्द्रादिक गुण पार न पावें। , भव्यजीव परणाम करतु है, जिनके चरन सदा चित लावें ॥ ६॥
श्रीऋषभाननजिनस्तुति छप्पय, ऋषभानन अरहंत, कीर्तिराजाके नंदन । सुरनरकरहिं प्रणाम, जगतमें जिनको वंदन ॥ वीरसेनसुतलंशय, सिंहलच्छन जिन सोहै। नगर सुसीमा जन्म देखि, भविजनमननमोहे ।। अमलान ज्ञान केवलप्रगट, लोकालोक प्रकाशधर । तस चरनकमल चंदनकरत, पापपहार परांहिं पर ॥७॥
श्रीअनंतवीर्यजिनस्तुति कवित्त, श्रीअनंतवीर्यसेव कीजिये अनेक भेव, विद्यमान येही देव मस्तक नवाइये । तात जासु मेघराय मंगला सुकही माय, न अजोध्याके अनेक गुण गाइये ॥ ध्वजापै विराजै गज पेखै जाय भज, त्रिकोटनकी महिमा देखे न अघाइये। तिहूं लोकम ईस अतिशै चौतीस लस, ऐसे जगदीश 'भैया' भलीभांतिहै ध्याइये ॥८॥
श्रीसूरप्रमजिनस्तुति-सिंहावलोकन छप्पय. सूरप्रभ अरहंत, हंत करमादिक कीन्हें।
कीन्हें निज सम जीव, जीव बहु तार सुदीन्हें । PowerPROSPARRORARPARRRRRRRRRRUS
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वर्त्तमानजिनविंशतिका.
दीन्हें रविपद वास, वास विजयामहि जाको । जाको तात सुनाग, नाग भय माने ताको ॥ ताको अनंतवलज्ञानधर, धर भद्रा अवतार जी । जिहँभावधारि भवि सेवही, वहि नरिंद लहिं मुकतिश्री ॥ ९ ॥ श्री विशाल जिनस्तुति सवैया.
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नाथ विशाल तात विजयापति, विजयावति जननी जिनकी । धन्य सु देश जहां जिन उपजे, पुंडरगिरि नगरी तिनकी ॥ लच्छन इंदु वसहि प्रभु पायें, गिनै तहां कोन सुरगनकी । मुनिराज कहें भविजीव तरै, सो है महिमा महिमें इनकी ॥ १० ॥ श्रीवज्रधरजिनस्तुति कवित्त.
अहो प्रभु पदमरथ राजाके नंदनसु, तेरोई सुजस तिहंपुर गाइयतु है | केई तव ध्यान धेरै, केई तव जापकरे, केई चर्णशर्णतरै, जीवपाइयतु हैं। नगर सुसीमा सिधि ध्वजा विराजे शंख, मातुसरस्वतिके आनंद वधायतु है । वज्रधरनाथ साथ शिवपुरी करो कहि, तुम दास निशदीस शीस नाइयतु है ॥ ११ ॥
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श्रीचन्द्रानन जिनस्तुति छप्पय.
चन्द्राननजिनदेव, सेव सुर करहिं जासु नित । पदमासन भगवंत, डिगत नहिं एक समयचित ॥ पुंडरिनगरी जनम, मातु पदमावति जाये ।
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वृपलच्छन प्रभुचरण, भविक आनंद जु पाये || जस धर्मचक्र आगे चलत, ईतिभीति नासंत सव | सुत बाल्मीक विचरंत जह, तहतह होत सुभिक्ष तव ॥ १२॥ श्रीचन्द्रवाहुजिनस्तुति मात्रिककवित्त.
लक्षण पद्मरेणुका जननी; नंगर विनीता जिनको गांव ।
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ब्रह्मविलासमें
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तीन लोकमें कीरति जिनकी, चन्द्रवाह जिन तिनको नांव ॥ देवानंद भूमिपतिके सुत, निशिवासर बंदहिं सुर पांव । भरत क्षेत्रत करहि बंदना, ते भविजन पावहिं शिवठांव ॥ १३॥
श्रीभुजंगमजिनस्तुति सवैया. महिमा मात महाबलराजा, लच्छन चंद धुजा पर नीको।। विजय नन भुजंगम जिनवर, नाव भलो जगमें जिनहीको । गणधर कहै सुनो भविलोको, जाप जपो सवही जिनजीको। जास प्रसाद लहै शिवमारंग, वेग मिलै निजस्वाद अमीको॥१४॥
श्रीईश्वरनिनस्तुति मात्रिक कवित्त. १ ईश्वरदेव भली यह महिमा, करहि मूल मिथ्यातमनाश । । जस ज्वाला जननी जगकहिये, मंगलसैन पिता पुनि पास ॥ नगरी जास सुसीमा भनिये, दिनपति चर्ण रहे नित तास । तिनको भावसहित नित बंदै, एक चित्त निहचै तुम दास ॥१५॥
श्रीनेमप्रभुजिनस्तुति कवित्त. __ लच्छन वृषभ पाय पिताजास वीरराय,सेनापुनि जिनमाय सुंदर सुहावनी । नगरी अजोध्या भली नवनिधि आवै चली, इन्द्रपुरी, पाँय तलीलोकमें कहावनी ॥ नेमि प्रभु नाथ वानी अवत समान मानी, तिहूं लोकमध्यजानी दुःखको वहावनी। भविजीवपायलागै सेवा तुम नित मागै, अवै सिद्धि देहु आगै सुखको लहावनी॥१६॥
श्रीवीरसेनजिनस्तुति सवैया. महा बलवंत बडे भगवंत, सवै जिय जंत सुतारनको। पिता भुवपाल भलो तिनभाल, लह्यो निजलाल उधारनको ॥ पुंडरी सुवासहि रावन पास, कहै तुम दास उवारनको
वीरसेन राय भली भानुमाय,तारोप्रभु आय विचारनको॥१७॥ Samompow/Popp/OPARDWWCOM/OPARDEOS
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१०३ श्रीमहाभद्रनिनस्तुति. सवैया. महाभद्र स्वामी तुम नाम लिये, सीझै सब काम विचारनको पिता देवराज उमादे माय, भली. विजया निसतारनके।। शशि सेवै आय लगै, तुम पाय भले जिनराय उधारनके । किरपाकरि नाथ गहो हम हाथ, मिलैजिनसाथ-तिहारनके||१८
श्रीदेवजसजिनस्तुति. छप्पय. . . . जिन श्रीदेवजस स्वामी, पिताश्नवभूत भनिन । लच्छन स्वस्तिक पांव, नांव तिहुँ लोक गुणिज्जै ॥ पावहि भविजन पार, मात गंगा सुखधारहिं । नगर सुसीमा जन्म आय, मिथ्यामति टारहि ॥ प्रभु देहिं धरम उपदेश नित, सदा बैन अम्रत झरहिं । तिन चरणकमल वंदन करत, पापपुंज पंकति हरहिं ॥१९॥
. श्रीअनितवीर्यजिनस्तुति. छप्पय. वर्तमानजिनदेव पद्म, लच्छन तिन छाजै। .. अजितवीर्य अरहंत, जगतमें आप विराजै॥ । पद्मासन मंगवंत, ध्यान इक निश्चय धारहि। . आवहि सुरनरवृंद, तिन्हें भवसागर तारहि ॥ .. नगर अजोध्यांजन्मजिन, मात कननिका उरधरन । तस चरन कमल वंदत भविक जैजै जिनआनँद करना२०॥
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. . . . . . . . : वर्तमान वीसी करी, जिनवर वंदन-काज ||... - जे नर पढ़ें विवेकसों, ते पावहिं शिवराज ॥२१॥ Mananp/nREPORO/AROAmpApronpronococcDRA
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१०४.
ब्रह्मविलास में
समुच्चयवर्त्तमानवीसतीर्थंकर कवित्त
सीमंधर जुगमंद्र बाहु ओ सुवाहु संजात स्वयंप्रभु नाव तिहुं पन ध्याइये। ऋषभानन अनंतवीर्य विशालसूरप्रभ, वज्रधरनाथके चरण चितलाइये ॥ चंद्रानन चन्द्रबाहु श्रीभुजंगमईश्वर, नेमिप्रभुवीरसेन विद्यमान पाइये । महाभद्र देवजस अजितवीरज भैया, वर्त्तमानवीसको त्रिकाल सीस नाइये ॥ २२ ॥
इति वर्त्तमानजिनविंशतिका.
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अथ परमात्माकी जयमाला लिख्यते । दोहा.
परम देव परनाम कर, परमसुगुरु आराधि । परम सुधर्म चितार चित, कहूं माल गुणसाधि ॥ १ ॥ चौपाई.
एकहि ब्रह्म असंखप्रदेश । गुण अनंत चेतनता भेश ॥ शक्ति अनंत लसै जिह माहिं । जासम और दूसरो नाहिं ॥२॥ दर्शन ज्ञान रूप व्यवहार । निश्चय सिद्ध समान निहार ॥ नहि करता नहिं करि है कोय । सदा सर्वदा अविचल सोय ॥३॥ लोकालोक ज्ञान जो धेरै । कबहुँ न मरण जनम अवतरै ॥ सुख अनंत मय जाससुभाव । निरमोही बहु कीने राव ॥ ४ ॥ क्रोध मान माया नहिं पास। सहजै जहाँ लोभको नास ॥ गुण थानक मारगना नाहिं । केवल आपु आपुही माहिं ॥५॥ परका परस रंच नहिं जहां। शुद्ध सरूप कहावै तहां ॥ अविनाशी अविचलअविकार । सो परमातम है निरधार ॥६॥
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RESPONGENGRepraneporoscmpeRORRRRRH तीर्थकरजयमाला.
१०५६ ! ... - दोहा. यह निश्चय परमात्मा, ताको शुद्ध विचार ॥ . • जामें पर परसै नहीं, "भैया' ताहि निहार ॥ ७॥
इति परमात्माकी जयमाला ।
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अथ तीर्थंकरजयमाला ।
दोहा. श्रीजिनदेव प्रणाम कर, परम पुरुष आराध ॥ कहाँ सुगुण जयमालिका, पंच करणरिपु साध ॥१॥
पद्धरिछंद. जयजय सु अनंत चतुष्टनाथ । जयजय प्रभुमोक्ष प्रसिद्ध साथ ॥ जय जय तुम केवल ज्ञानभास। जय जय केवल दर्शन प्रकाश ॥२॥ जय जय तुम वल जु अनंत जोराजय जय सुख जासन पारओ " जय जय त्रिभुवन पति तुम जिनंद । जय जय · भवि कुमदनि
पूर्णचंदः ॥ ३॥ जय जय तम नाशन प्रगट भान । जय जय जित इंद्रिन तू प्रधान ॥ जय जय चारित्र सु यथाख्यात। जय जय अघनिशि नाशन प्रभात ॥ ४॥ जय जय ‘तम मोहनिवार वीर। जय जय अरिजीतन परम धीर ॥ जय जय मइनमथमर्दन मृगेशं । जय जय जम जीतनको रसेश ॥ ५॥जहै य जय चतुरानन होप्रतक्ष जय जय जग जीवन सकल रक्ष | जय जय तुमक्रोध कपाय जीताजय जय तुम मान हरयो अजीत॥ जय जय तुम मायाहरन सूर । जय जय तुम लोभनिवारं मूरं ॥
जय जय शत इंद्रन वंदनीक । जय जय अरिं सकल निकंद SO/0200/RPAGE0930PMORPOROMORRORE
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..ब्रह्मविलासमें नीक ॥ ७॥ जय जय जिनवर देवाधिदेव । जय जय तिडंपन
भवि करत सेव ॥ जय जय तुम ध्यावहिं भविक जीव । जय जय है सुख पावहिं ते सदीव ॥८॥
पत्ता. ते निजरसरत्ता तज परसत्ता, तुम सम निज ध्यावहि घटमें ॥ ते शिवगति पावै बहुर न आवै, वसै सिंधुसुखके तटमें ॥९॥
इति तीर्थकर जयमाला.
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अथ श्रीमुनिराज जयमाला।
दोहा. परमदेव परनाम कर, सतगुरु करहुं प्रणाम ।। कहूं सुगुणं मुनिराजके, महा लब्धिके धाम ॥१॥
ढाल-मुनीश्वर बंदो मनधर भाव, ए देशी। पंच महाव्रत आदरैजी; समति धरै पुनि पंच॥ . ए पंचहु इन्द्रिय जीतकेजी, रहै विना परपंच,मुनीश्वर० ॥२॥
पट आवश्यक नित करैजी, जीव दया प्रतिपाल ॥ .. सोवै पश्चिम रयनमेंजी, शुद्ध भूमि लघुकाल, मुनीश्वर ॥३॥
स्नान विलेपन ना करैजी, नग्न रहै निरधार ॥ कचलोंचे हित भावसोंजी, एकहि बेर अहार, मुनीश्वर०॥४॥ है थिर है लघु भोजन करेंजी, तजें दंतवन काज॥ . . ये पालैं निरदोषसोंजी, सो कहिये ऋषिराज, मुनीश्वर॥५॥3
दोष लगे प्रायश्चित करैजी, धरै सुआतम ध्यान ॥ . . सोधै नित परिणामकोजी, सो संयम परवान, मुनीश्वर ॥६॥ YOOORDPREPARWARENEWARPANCHAMPARAN
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........पाश्वनाथजिनस्तुति. है दोष छियालीस टालकै जी, लेवहि शुद्ध आहार ।।
श्रावकको कुल जानकजी; जल अचवें तिहवार, मुनीश्वर०॥७॥ है महा तपस्या व्रत करैजी, सहै परीसह घोर ॥ . .
वीस दोय बहु भेदसोंजी, काय कसै अतिजोर, मुनीश्वरा॥ एनिमल कर निज आतमाजी, च. श्रेणि शुध ध्यान । 'भैया' ते निह सहीजी, पावहिं पद निर्वान, मुनीश्वर० ॥९॥
. दोहा. यह श्रीमुनिगुणमालिका, जो पहिरे उरमाहिं॥ तिनको शिवसंपति मिले, जनममरनभय नाहिं ॥१०॥
इति मुनिश्वर जयमाला. अथ अहिक्षिति पार्श्वनाथजिनस्तुति.
दोहा. अश्वसेन अंगज विमल, बामाके कुलचंद ॥ तिहँ केवल कल्याण भवि, पूजिये पार्वजिनंद ॥१॥
छंद. पूजिये पास जिनंद भविजन, नगर श्रीअहि छत्तये । जिहँ थान प्रभुजू ध्यान धरिये, आत्मरस महँ रत्तये ॥ . उपसर्ग कमठ अज्ञान कीन्हों,क्रोधसों अगिनत्तये ।। वहु वाघ सिंह पिशाच व्यंतर, गजांदिक मदमत्तये ॥२॥ कोऊ रुंडमाला पहरि कंठहि, अगनि जाल मुकंत्तये। महाकाल रूप त्रिकाल सूरति, भय दिखावत गत्तये ॥ ... . महि वरप वरपा क्रूर थाक्यो ,भव समुद्रहिं पत्तये।
पूजिये पास जिनंद विजन, नगर श्री अहिछत्तये॥३॥ 'Haor pranaerPORPORARIANDEReponwondo
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धरणीन्द्र औ पदमावती तहँ, आय जिन सेवंतये । सुअनंत बल जुत आप राजत, मेरु ज्यों अचलत्तये । करि कर्म चार विनाश ताछिन, लह्यो केवल तत्तये । पूजिये पास जिनंद भविजन, नगर श्री अहिछत्तये ॥४॥
शत इंद्र मिल कल्याण पूजा, आय विविध रचत्तये । तिहँ काजतैं यह भूमि महिमा, जगतमें प्रगटत्तये ॥
भवि जात्रि आवें जिनहि ध्यावें, निजातम सर्दहत्तये ।
पूजिये पास जिनंद भविजन, नगर श्रीअहिछत्तये ||५||
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दोहा.
सावधान मन राखिकें, जे जिनगुण गावंत ॥
संपत्ति सुख तिनको सदा, गनत न आवै अंत ॥ ६ ॥ सत्रहसौ इकतीसकी, सुदि दशमी गुरुवार ॥ कार्तिकमास सुहावनो, पूजे पार्श्वकुमार ॥ ७ ॥ इति श्रीअहिक्षितिपार्श्वनाथनिनस्तुति.
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अथ शिक्षा छंद. दोहा.
. देह सनेह कहा करें, देह मरन को हेत ।
उत्तम नरभवपायकें, मूढ अचेतन चेत ॥ १ ॥ मरहठा छंद.
हे मूढ अचेतन, कछुइक चेतो, आखिर जगमें मरना है । नरदेही पाई, पूर्व कमाई, तिससों भी फिर टरना है ० ॥ टेक ॥ २ ॥ क्यों धर्म विसारो, पापचितारो, इन बातन क्या तरना है ॥ जो भूप कहाये, हुकुम चलाये, तौ भी क्या ले करना है, है मूढ ॥ ३ ॥
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परमार्थपदपंक्ति.
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है धन यौवन आये, रह अरुझाये, सो संध्याका वरना है। विषयारस रातो, रहे सुमातो, अंतअगनिमें जरना है, हेमूढ०॥४॥
कैदिनको जीवो, विपरस पीवो, बहुरि नरकमें परना है | जैसी कछु करनी, तैसी भरनी,बुरे फैलसोंडरना है।।हेमूढ० ॥५॥
छिन छिन तन छीजे,आयुन धीज, अंजुलिजल ज्यों झरनाहै।। जमकी असवारी,रहतयारी,तिनसों निशदिन लरना है,हेमूढ०॥६॥ हुँ के भौ फिर आयो, अंत न पायो, जन्मजरा दुख भरना है। है क्या देख भुलाने, भरम विरानें,यह स्वपनेका छरना है, हे मूढ०॥७॥ है दुरगतिको परिवो, दुखको भरियो, काल अनंतहु सरनाहै।
परसों हित माने, मूढ न जाने, यह तन नाहिं उवरना है, हेमूढ०॥८॥g. है मिथ्यामत लीन्हें, आपन चीन्हें, कर्म कलंकन हरना है ।। जिनदेव चितारो,आपुनिहारो,जिनसोंजीवउधरनाहै,हेमूढ०॥९॥
. दोहा. . जनम मरनतै नाथ क्यों, जीव चतुर्गति माहिं ।।
पंचमि गति पाई नही, जो महिमा निजमाहिं ॥१०॥ निज स्वभावके प्रगटते, प्रगट भये सब दुर्व ॥ . - जनम मरन दुख त्याग, जाननलागौ सर्व ॥११॥
'भैया' महिमा ज्ञानकी, कहै कहां लों कोय || कै जानै जिन केवली, के समदृष्टी होय ॥ १२ ॥
इतिशिक्षावली। . . . अथ परमार्थपदपंक्ति.
१। राग भैरो.. . ई या देहीको शुचिकहाकीजे,जासों धोइये सोईपै छीजै, या 'BarpardPORPORANSaamanapaseenawarPENTS
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ब्रह्मविलासमें देहीको आटेको जो जो धोइये सो सो भरी, देखहुदृष्टि विचारके । खरी. या देहीको० ॥२॥ दशो द्वार निशिवासर वहनी, कोटि जतन किये थिर नहिं रहनी, या देहीको० ॥ ३॥ तत्त्व यह है है आतम रसपीजे, परगुण त्यागजलंजलि दीजे, या देहीको०॥४॥
२ राग देव गंधार। ___अब मैं छायो पर जंजाल, अब मैं • टेक। लग्यो अनादिमोह भ्रमभारी,तज्यो ताहि तत्काल अवमैं॥१॥ आतम रस चाख्यो मैं अदभुत,पायो परमदयाल, अवमै० ॥२॥ सिद्ध समान शुद्ध गुण राजत, सोमरूपसुविशाल, अवमैं॥३॥
३। राग विलावल। या घटमैं परमात्मा चिन्मूरति भइया ॥ ताहि विलोकि सुदृष्टिसों पंडित परखैया, या घटम०॥१॥ ज्ञान स्वरूप सुधामयी, भवसिंधु तरैया ॥ तिहूं लोकमें प्रगट है, जाकी ठकुरैया, या घटमें० ॥२॥ आप तरै तारें परहिं, जैसें जल नइया । केवल शुद्ध स्वभाव है, समुझे समुझेया, या घटमें ॥३॥
देव वहै गुरु हैं वहै, शिव वहै वसइया ॥ ॐ त्रिभुवन मुकुट चहै सदा, चेतौ चितवइया, या घटमें० ॥४॥
। पुनः राग विलावल. है नरदेही बहु पुण्यसों, चेतन तैं पाई ।।
ताहि गमावत वावरे, यह कौन बड़ाई नरदेही॥१॥ * जप तप संयम नेम व्रत, करि लेहुरे भाई ॥
फिर तोको दुर्लभ महा, यह गति ठकुराई, नरदेही ॥२॥ OmPcom /ODAVARARHARPATRAwers
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PROPowerupamaARDPRERSONUARomaenpanpand परमार्थपदपंक्ति.
११॥ ५। राग रामकली. Pos अरे से जु यह जन्म गमायोरे, अरे से टेक।
पूरव पुण्य किये कहुं अतिही, तातै नरभव पायोरे ॥ देव धरम गुरु ग्रंथ न परखै, भटकिभटकि भरमायोरे अरे० ॥१॥ फिर तोको मिलिबो यह दुर्लभ, दश दृष्टान्त बतायोरे ॥ जो चेते तो चेतरे 'भैया' तोको कहि समुझायोरे, अरे० ॥२॥
६। पुनः राग रामकली. जीयको मोह महादुखदाई, जीयको टेक ॥ हे काल आनादि जीति जिहँ राख्यो, शक्ति अनंत छिपाई ॥ क्रम क्रम करके नरभव पायो, तऊन तजत लराई.जीयको॥१॥ मात तात सुत वन्धव वनिता, अरु परबार बडाई. तिनसों प्रीति कर निशिवासर, जानत सब ठकुराई जीयको० ॥२॥ में चहुं गति जनममरनके बहुदुख, अरु बहु कष्ट सहाई॥ ए संकट सहत तऊनहि चेतत,भ्रममदिरा अति पाई, जीयको॥३॥ इह विन तजे परम पद नाहीं, यो जिनदेव वताई॥ . तात मोह त्याग ले भइया, ज्यों प्रगटे ठकुराई,जीयको० ॥४॥
। राग काफी. जाको मन लागो निजरूपहि, ताहि और क्यों भावे ।
ज्यों अटूट धन लहै रंक कहुं, और न काहु दिखावै ॥ १॥ ६ गुण अनंत प्रगटै जिहं थानक, तापटतर को आवै ॥ । इहिविधि हंस सकल सुखसागर, आपुहि आप लखावै ॥२॥ 4 (१)मनुष्यभवक्री दुर्लभतादिखानेकेलिये जिनमतमें दश दृष्टान्तरूपकथायें हैं उन
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ब्रह्मविलास में
८ । राग सारंग.
जगतगुरु कवनिज आतम ध्याऊं जगत० टेक ॥ नग्नदिगंबरमुद्राधरिकैं कब निज आतम ध्याऊं ॥ ऐसी लब्धि होइ कब मोको, हौं वा छिनको पाऊं, जगत ०||१|| कव घर त्याग होऊं बनवासी, परम पुरुष ला लाऊं ॥
रहों अडोल जोड पदमासन, करम कलंक खपाऊं, जगत० ||२|| केवल ज्ञान प्रगट कर अपनों, लोकालोक लखाऊं ॥ जन्म जरा दुख देय जलांजलि, हों कब सिद्ध कहाऊँ, जगत० ॥ ३ ॥ सुख अनंत विलसों तिह थानक, काल अनंत गमाऊँ ॥ "मार्नसिंह" महिमा निज प्रगटै, वहुर न भवमें आऊं, जगत ● ॥ १४ ॥ ९ | राग धमाल गौडी.
गौड़ीप्रभु पारस पूजिये हो, मनधर परम सनेह, गौंडी० टेक । सकल - करम भय भंजनो हो, पूरै बंछित आश ।
तास नाम नित लीजिये हो, दिन दिन लीला विलास, गौडी० ॥२॥ केवलपद महिमा लखो हो, धरहु सुधिरता ध्यान ॥ 'ज्ञानमाहिं उर आनिये हो, इहिविधि श्रीभगवान, गौडी० ॥ ३ ॥ और सकल विकलप तजो हो, राखहु प्रभुसों प्रीति ॥ आप सरवर ए करें हो, यहै जिनंदकी रीति, गौडी, ॥ ४ ॥ जाके बदन विलोकते हो, नाशौ दूर मिथ्यात ॥ ताहि नमहुं नित भावसों हो, पास जगत विख्यात, गौडी० ||५|| १० । पुनः
...कहा परदेशीको पतियारो, कहा- टेक० । मनमाने तब चलै पंथको, सांज गिनै न सकारो । सबै कुटंब छाँड इतही पुनि, त्याग चलै तन प्यारो, कहा० ॥ १ ॥
(१) मानसिंह भैया भगवतीदासजीका परम मित्र था ।
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३३ ॐ दूर दिसावर चलत आपही, कोऊ न राखन हारो। कोऊ प्रीति करो किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो, कहा॥२॥
धनसों राचि धरमसों भूलत, झूलत मोहमझारो। इहि विधि काल अनंत गमायो, पायो नहि भवपारो, कहा ॥३॥ ___ सांचे सुखसों विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहरे भइया, आपही आप संभारो, कहा०॥४॥
११ । पुनः ते गहिले भाई ते गहिले, जगराते अबके पहिले। आपा पर जिहँ भेद नजान्यो, ते वूडेभवभ्रमवहले,ते गहले॥१॥ __ धन धन करत फिरत निशिवासर, तिनको जनम गयो अहले।
भ्रममें मगन लगन पुदगलसों,तेनर भवसागर टहले,ते गहले॥२॥ 3 क्रोध मान माया मद माते, विषयनके रस माहि रले। है 'भैया'चेत चतुर कछु अबकें, नहि तोनरक निगोदहिले, ते ग०३,
.. १२ । राग केदारो. है छोडिदे अभिमान जियरे छाडिदे०॥ टेक
काको तू अरु कौन तेरे, सवही हैं महिमान । ए देख राजा रंक कोऊ, थिर नहीं यह थान, जियरे० ॥१॥ __ जगत देखत तोरि चलबो, तूभी देखत आन । घरी पलकी खबर नाही, कहां होय विहान, जियरे० ॥२॥
त्याग क्रोधरु लोभ माया, मोह मदिरापान ।। है राग दोपहिं टार अन्तर, दूर कर अज्ञान, जियरेः ॥३॥ - भयो सुरपुर देव कवहूं, कबहुं नरक निदान । इम कर्मवश वहु नाच नाचे, भैयाआप पिछान, जियरे॥४॥
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१३ | राग सोरठ.
अरे सुन जिनशासनकी बतियाँ, जातें होय परमं सुखि छतियां, अरे०टेक । निजपर भेद करहु दिन रतियां, ज्यों प्रगटहिं शिवशकतिअनँतियां, अरे० ॥ १ ॥ सुख अनंत सव होय निकतियां, मिटहि सकल भव भ्रमकी घतियां, अरे० ॥ २ ॥ परम ज्योति प्रगटै परभतियां, 'भैया' निजपद गहु निज मतियां, अरे० ॥ ३ ॥
१४ । राग कान्हरो.
देखो मेरी सखीये आज चेतन घर आवै ॥
काल अनादि फिर चो परवशही, अब निज सुधहिं चितावै, दे० ॥१॥ जनमजनमके पाप किये जे, ते छिन माहि बहावै ॥ श्रीजिनआज्ञा शिरपर धरतो, परमानंद गुण गावै, देखो० ॥२॥ देत जलांजुलि जगत फिरनको, ऐसी जुगति बनावै ॥ विलसै सुख निज परम अखंडित, भैया सब मनभावै, देखो ॥ ३ ॥
१५ । राग केदारो.
कैसे देऊं करमन दोष कैसें० ॥ टेक ॥
मगन है है आप कीने, गहे रागरु दोष ॥ विषयोंके रस आप भूल्यो, पापसों तन पोस, कैसे ० ॥ १ ॥ देवधर्म गुरु करी निंदा, मिथ्या मदके जोस ॥ फल उदै भई नरकपदवी, भजोगे कै कोस, कैसें० ॥ २॥ : किये आपसु बनै, भुगते, अब कहा अफसोस । दुखित तो बहु काल बीते, लही न सुख जल ओस, कैसें० ॥ ३ ॥
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११५३ क्रोध मानरु लोभ माया, भरयो तन घट ठोस ॥ . चेत चेतन पाय नरभव, मुकति पंथ सुघोप, कैसें० ॥ ४॥
. १६ । राग केदारो. कहो परसों प्रीति कीन्हीं, कहा गुण तुम जान। . चतुर चेतन चितविचारो, कहहुँ पुनि पहिचान ॥ १॥ वे अचेतन तुम सुचेतन, देखि दृष्टि विनान । परहि त्याग स्वरूप गहिये, यहै वात प्रमान ॥ २॥
१७ । राग, अडानो रे मन ऐसा है जिनधर्म, रे मन० टेक ॥ जाके दरस सरस सुख उपजत, मिटत सकल भव भने । शुद्धस्वरूप सहज गुणसागर, जानत सवको मर्म, रे मन० ॥१॥ ज्ञान दरस चारित कर राजत, परसत नाहीं कर्म ॥ निश्चय ध्यान धरो वा प्रभुको; ज्यों प्रगटै पद पर्म, रे मन० ॥२॥
. १८ । दोहा (विहाग.) श्रीजिन चरणांवुज प्रते, वंदत भवि धर भाव । केवल पद अवलंवि निज, करत भगत व्यवसाव ॥१॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल में, श्री जिनविंव अनूप ॥ . तिहँ प्रति वंदत भविक नित, भावसहित शिवरूप ॥ २॥
१९ । राग अडानो. है भविक तुम वंदहुमनधर भाव, जिनप्रतिमा जिनवरसी कहिये,भ०॥
जाके दरस परमपद प्रापति, अरु अनंत शिवसुखलहिये, भविकार निज स्वभाव निरमल है निरखत, करम सकल अरिघट दहिये। सिद्ध समान प्रगट इह थानक, निरख निरख छविउर गहिये,भ०२॥ ManpNAPAMPAWAREPARWAmoeopowroonam
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ब्रह्मविलास में
अष्ट कर्म दल भंज प्रगट भई, चिन्मूरति मनु वन रहिये । इहि स्वभाव अपनो पद निरखहु, जो अजरामर पद चहिये, भविक० त्रिभुवन माहिं अकृत्रिम कृत्रिम, चंदन नितप्रति निरवहिये । महा पुण्यसंयोग मिलत है, भइया जिन प्रतिमा सरदहिये, भविक० २० । पुनः
हो न तो मति कौन हरी, चेतन०टेक ॥
कै लै गयो मिथ्यामति मूरख, कै कहुं कुमति धरी ॥ कै कहुं लोभ लग्यो तोहिनी को, कै विष प्रीति करी, हो चे०॥१
कहुं राग मिल्यो हितकारी, रीति न समुझि परी ॥ अब हूं चेत परमपद अपनो, सीख सु धार खरी, होचे० ॥२ २१ । पुनः
हो चेतन वे दुःख विसरि गये ॥ टेक ॥ परे नरकमें संकट सहते, अव महाराज भये ।
सूरी सेज सबै तन वेदत, रोग एकत्र ठये ॥ हो चे० ॥ १ ॥ करत पुकार परम पद पावत, कर मन आनंदये । कहूं शीत कहूं उष्ण महाभुवि, सागर आयु लये, हो चे० ||२|| २२ । राग मारू
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जो जो देख्यो वीतरागने सो सो होसी वीरारे ।
बिन देख्यो होसी नहिं क्योंही, काहे होत अधीरा रे ॥१॥ समयो एक बढ़े नहिं घटसी, जो सुख दुखकी पीरा रे । तू क्यों सोच करै मन कूड़ो, होय वज्र ज्यों हीरा रे ॥२॥ लगै नं तीर कमान वान कहुं, मार सकै नहिं मीरा रे । तूं सम्हारि पौरुष बल अपनो, सुख अनंत तो तीरा रे ॥३
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परमार्थपदपंक्ति. निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभुको, जो टारै भव भीरा रे। 'भैया' चेत धरम निज अपनो, जो तारै भव.नीरा रे ॥४॥
२३ । राग धनाश्री। . जिनवाणी को को नहिं तारे, जिन० ॥ टेक॥ मिथ्यादृष्टी जगत निवासी,लहि समकित निज काज सुधारे । गौतम आदिक श्रुतिकेपाठी, सुनत शब्द अघ सकल निवारे, जिनक
परदेशी राजा छिन वादी, भेद सुतत्त्व भरम सब टारे। है पंचमहाव्रत धरतू भैया' मुक्तिपंथ मुनिराज सिधारे, जिन ॥२॥
२४ पुनः। जिनवाणी सुनि सुरत संभारे जिन०|| टेक ॥ है सम्यग्दृष्टी भवननिवासी,गह वृत केवल तत्त्वं निहारे, जिन०१॥
भये धरणेन्द्र पदमावति पलमें, जुगलनाग प्रभु पास उवारे ॥ है वाहवलि वहुमान धरत है;सुनत वचन शिव सुख अवधारे, जिन२॥
गणधर सबै प्रथम धुनि सुनिके, दुविध परिग्रह संग निवारे ॥ है गजसुकुमाल बरस वसुहीके, दिक्षाग्रहत करम सब टारे, जिन०३॥ मेघकुँवर श्रेणिकको नंदन, वीरवचन निजभवहिं चितारे । और हु जीव तर जे भैया,तेजिनवचन सवै उपगारे, जिन०॥४॥
२५|पुनः। ए चेतन परे मोह वश आय, चेतन ॥ टेक ॥ मानत नाहिं कहूं समुझायो,विपयन रहे लुभाय ।। नरक निगोद भ्रमन बहु कीन्हो, सो दुख कह्योन जाय, चेतन०,१॥ नरभव पाय धरम नहिं पायो, आगेको न उपाय ॥
जैसें डारि उदधि चिंतामणि, मूरख फिर पछताय, चेतन० ॥२॥ Manpanw/ONOMempowed/NPAPPRPAPawanwar
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ब्रह्मविलासमें सतगुरु वचन धारिले अबके, जातें मोह विलाय ॥ । तव प्रगटै आतम रस भैया, सो निश्चय ठहराय, चेतन० ॥३॥
॥ इति परमार्थ पदपंक्ति ॥ ' अथ गुरु शिष्य प्रश्नोत्तर,
दोहा. कहुं दिव्यध्वनि शिष्य सुनि, आयो गुरुके पास ।।
पूज्य सुनहु इक बीनती, अचरजकी अरदास ॥१॥ आज अचंभी में सुनो, एक नगरके बीच ॥
राजा रिपुमें छिप रह्यो, राग करें सब नीच ॥ २॥ नीचसु राज्य करै जहां, तहां भूप बलहीन ।। ___ अपनो जोर चलै नहीं, उनहीके आधीन ॥३॥ वे याको मानें नहीं, यह वासों रसलीन ॥
सत्तर कोडाकोडिलों, बंदीखाने दीन ॥ ४ ॥ बंदीवान समान नृप, कर राख्यो उहि और ॥ . वाको जोर चलै नहीं, उनहींके सिरमौर ॥५॥ वे जो आज्ञा देत हैं, सोइ करें यह काम ॥ __ आप न जाने भूप मैं, ऐसो है चित भ्राम ॥ ६॥ उनकी चेरीसों रचे, तजि निज नारि निधान । ___ कहो स्वामि सो कौन वह, जिनको ऐसो ज्ञान ॥ ७॥
कौन देश राजा कवन, को रिपु को कुल नारि ॥ ___ को दासी कहु कृपाकर, याको भेद विचारि ॥८॥
- गुरुरुवाच. __ गुरु बोले समकित बिना, कोज पावै नाहि ॥ S: । सवै ऋद्धि इक गैर है, काया नगरीमाहिं ॥९॥ Ver/AROOPRO/AROOPeppORPORPPeopard
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मिथ्यात्वविध्वंसनचतुर्दशी. काया नगरी जीव नृप, अष्ट कर्म अति जोरं ॥ . ___ भाव अज्ञानदासी-रचे, पगे विषयकी ओर ॥ १०॥. विषयबुद्धि जहां है नहीं, तहां सुमतिकी चाह ।।
जो सुमती सो कुल त्रिया, इहि याको निरवाह॥१॥ आप पराये वश परे, आपा डारयो खोय॥ . आपा आपु न जानहीं, कहो आपु क्यों होय ॥१२॥ आप न जानें आपको, कौन वतावनहार ॥
तबहिं शिष्य समकित लह्यो, जान्यों, सबहि विचार ॥ इहि गुरु शिष्य चतुर्दशी, सुनहु सवै मनलाय ॥ कहै दास भगवंतको, समताके घर आय ॥ १४ ॥
• इति गुरुशिष्यचतुर्दशी. . अथ मिथ्यात्वविध्वंसनचतुर्दशी..
___ छप्पय. वन्दह ऋषभ जिनेन्द्र, अजित संभव अभिनन्दन । . सुमति सु पद्म सुपार्च, बहुरि चन्द्रप्रभ वंदन ॥ .
सुविधि शीतल श्रेयांश, वासुपूजहिं सुखदायक। विमल अनंत रु धर्म, शान्ति कुंथ जु शिवनायक ॥ अर मल मुनसुव्रतनमत, पाप पुंज पंकति हरिय। नमिनेम पार्श्व जिन वीर कह, भवित्रिकाल वंदन करिय॥१॥
. .. कवित्त मनहर. मिथ्या गढ़ भेद भयो अन्धकारनाश गयो, सम्यक प्रकाश.लयो, ज्ञानकला भासी है । अणुव्रत भाव धरै महावृत अंगी करें, है
श्रेणीधारा चढ़े कई प्रकृत विनासी है ॥ मोहको पसारो डारि MORRORGOOGoooooooomnpanwarpena
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घातिया कर्म दारि, लोकालोकको निहारि भयो सुखरासी हैं । सर्वही विनाश कर्म, भयो महादेव धर्म, वैदै भव्य ताहि नित लोक अग्रवासी है ॥ २ ॥
नेकु राग द्वेष जीत भये वीतराग तुम, तीनलोक पूज्यपद येहि त्याग पायो है । यह तो अनूठी बात तुम ही बताय देहु, जानी हम अबहीं सुचित्त ललचायो है ॥ तनिक कष्ट नाहिं पाइये अनन्त सुख, अपने सहजमाहिँ आप ठहरायो है। यामें कहा लागत है, परसंग त्यागतही, जारि दीजे भ्रम शुद्ध आपुही कहायो हैं ॥ ३ ॥
वीतराग देव सो तो बसत विदेहक्षेत्र, सिद्ध जो कहावै शिवलोकमध्य लहिये । आचारज उवझाय दुहीमें न कोऊ यहां, साधु जो बताये सो तो दक्षिण में कहिये ॥ श्रावक पुनीत सोऊ विद्यमान यहां नाहिं, सम्यकके संत कोऊ जीव सरदहिये | शास्त्रकी शरधा तामें बुद्धि अति तुच्छ रही, पंचम समैमें कहो कैसे पंथ गहिये ॥ ३ ॥
तूही वीतराग देव राग द्वेष टारि देख, तूही तो कहावै सिद्ध अष्ट कर्म नासतें । तूही तो आचारज है आचरैजु पंचाचार, तूही उवझाय जिनवाणीके प्रकाशतें ॥ परको महत्त्व त्याग तूही है सो ऋषि राय, श्रावक पुनीत व्रत एकादश भासते । सम्यक स्वभाव तेरो शा'स्त्र पुनि तेरी वाणी, तूही भैया ज्ञानी निज रूपके निवासतें ४ ॥ मात्रिक सवैया.
आलस कहै उद्यम जिन ठानों, सोवहु सदन पिछोरी तान । काहे रैन दिना शठ धावत, लिख्यो ललाट मिलै सोइ आन ॥ आवत जात मरे जिय केतक, एसेही भेद हिये पहिचान । तातें इकंन्तगहो उरअन्तर, सीख यहै धरिये सुख मान ॥ ५ ॥
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ॐ उद्यम कहै अरे शंठ आलस, तूं सरवर क्यों करै हमारि ।। हम मिथ्यात तजें गहें सम्यक, जो निजरूप महा हितकारि॥ श्रावक धर्म इकादश भंदसों, श्री मुनिपंथ महाव्रत धारि ।। चंद गुण थान विलोक ज्ञेय सब, त्यांगहि कर्म वरें शिवनारि ॥६
कवित्त-मनहरन. मिथ्याभाव नाश होय तवें ज्ञान भास होय, मिथ्याके मिलापसी अशुद्धता अनादिकी । मिथ्याके सँयोग सेती मोक्षको वि-ह । योग रहे, मिथ्याके वियोग वात जानें मरजादिकी ॥ मिथ्याकी है मगनतासों संकट अनेक सह, मिथ्याके मिटाये भव भावरि लै,
वादिकी । ऐसी मिथ्या रीतिकी प्रतीतिको निवारे संत, करै निज प्रगट शक्ति तोर कर्मादिकी ॥७॥ . मोहके निवारे राग द्वेपह निवारे जाहिं, राग द्वेष टारें मोह नेक हुन पाइये । कर्मकी उपाधिके निवारिवेको पेंच यहै, जड़के । ई उखारे वृक्ष कैसे ठहराइये ।। डार पात फल फूल सवै कुम्हलाय , है जाय, कर्मनके वृक्षनको ऐसे के नसाइये । तवै होय चिदानन्द
प्रगट प्रकाश रूप, विलसै अनन्त सुख सिद्धमें कहाइये ॥ ८॥ 1 जवै चिदानंद निज रूपको संभार देखे, कौन हम कौन कर्म
कहांको मिलाप है। रागद्वेषभ्रमने अनादिके भ्रमाये हमें, तातेंहम है एभूल परे लाग्यो पुण्य पाप है ॥ रागद्वेष भ्रम ये सुभाव तो हमारे नाहि, हम तो अनंत ज्ञान, भानसो प्रताप है। जैसो शिव खेत बस तेसो ब्रह्म यहां लसै, तिहूं काल शुद्ध रूप 'भैया' निज आप है ॥२॥
‘जीव तो अकेलो है त्रिकाल तीनोंलोकमध्य, ज्ञान पुंज प्राण! SonwanRPAPERMePEOPARD/Pomerana
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ब्रह्माविलासमे : . जाके चेतना सुभाव है। असंख्यात परदेश पूरित प्रमान वन्यो,
अपनें सहज माहिं आप ठहराव है ।। राग द्वेष मोह तो सुभाव हैं में न याके कहूं, यह तो विभाव पर संगति मिलाव है। आतम, . सुभावसों विभावसों अतीत सदा, चिदानन्द चेतवेको ऐसे
में उपाव है।॥ १०॥ ३ राग द्वेष भ्रम भाव लग्यो है अनादिहीको, जाके परसाद है परभावनि वहतु है। बंधत अनेक कर्म इनको निमित्त पाय, तिनहीके फल सब यह पै सहतु है ॥ चहुंगति चौरासीमें जनम जराके दुःख, मरन मिथ्यात भाव यहै तो लहतु है । याही क्रम काल तो अनन्त वीत गयो तहां, अजहुंलों चिदानंद चेतो न चहतु है ।। १५॥
मिथ्या भाव जालों तोलों भ्रमसों न नातो टूटै, मिथ्याभाव र जौलों तौलों कर्म सों न छूटिये । मिथ्याभाव जोलोंतोलों सम्यक है न ज्ञान होय, मिथ्या भाव जौलों तोलों अरि नाहिं कूटिये ।।
मिथ्या भाव जौलों तौलों मोक्षको अभाव रहै, मिथ्या भाव है जौलों तौलों परसंग जूटिये । मिथ्याको विनाश होत प्रगटै प्रकाश जोत, सूधौ मोक्ष पंथ सूधै नेकु न अहूटिये ॥ १२ ॥
. छप्पय. ऊरध मध अध लोक, तासुमें एक तिहूं पन । किसिहिन कोउ सहाय, याहि पुनि नाहि दुतिय जन ॥
जो पूरव कृत कर्म भाव, निज आप बंध किय। . . सो दुख सुख द्वयरूप, आय इहि थान उदय दिय॥ .
तिहि मध्य न कोऊ रख सकति, यथा कर्म विलसंत तिम . . .सब जगत जीव जगमें फिरत ज्ञानवंतःभाषत इम॥ १३ ॥ kimasom/DDARPADMROPERMIRPROORan
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जिनगुणमाला.
-: दोहा. भैया सुख सागर परखि, निरखि ज्योति निजचन्द। मिथ्या नाशन चतुशि, पढ़त बढ़त आनन्द ॥ १४ ॥
इति मिथ्यातविध्वंसनचतुर्दशी।
अथ जिनगुणमाला लिख्यते.
दोहा. तीर्थंकर त्रिभुवन तिलक, तारक तरन जिनंद ॥ . तास चरन वंदन करौं, मनधर परमानंदं ॥१॥ गुण छीयालिस संयुगत, दोष अठारह नाश ।। ये लक्षण जा देवमें, नित प्रति वंदों तास ॥२॥
चौपई. दश गुण जासु जनमते होय प्रस्वेदादिक दोप.न कोय ॥ निर्मलता मलरहित शरीर । उज्वल रुधिर वरण जिम खीर ॥३॥ वज्र वृपभ नाराच प्रमान । सम सु चतुर संस्थान बखान ॥ शोभन रूप महा दुतिवन्त । परम सुगन्ध शरीर वसंत ॥४॥ सहस अठोत्तर लच्छन जास । बल अनंत वपु दीखै तास ॥ हितमित वचन सुधासे झरै। तास चरन भवि वंदन करें ॥५॥ दश गुण केवल होत प्रकाश । परम सुभिक्ष चहूं दिश. भास ॥
द्वयसौ जोजन मान प्रमान । चलत गगनमें श्रीभगवान ॥६॥ ६ वपुते प्राणि घात नहिं होय। आहारादिक क्रिया न कोय ।। नविन उपसर्ग परम सुखकार । चहुं दिश आनन दीखहिं चार ॥७॥
सब विद्या स्वामी जग वीर । छाया वर्जित जासु शरीर ।। नख अरु केश व नहिं कहीं। नेत्र पलंक.पल लागै नहीं: ॥ ८॥ sonpararwasanaporapanesentarvanaprivasana
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चौदह गुण देवन कृत होय । सर्व मागधी भाषा सोय ॥ मैत्री भाव जीव सब धरै । सर्वकाल तरु फूल न फरें ॥९॥ है दर्पणवत निर्मल है मही । समवशरण जिन आगम कही ॥ शुद्ध गंध दक्षिण चल पौन। सर्व जीव आनंद अनुभौन ॥१०॥ धूलिरु कटक वर्जित भूमि । गंधोदक वरपत है झूमि ॥ पद्म उपरि नित चलत जिनेश । सर्वनाज " निर्मल होय अकाश विशेष । निर्मल दशा धरतु है भेष ॥ धर्म चक्र जिन आगे चलै । मंगल अष्ट पाप तम दलै ॥१२॥ प्राति हायं वसु आनंदकंद । वृक्ष अशोक हेरै दुख द्वंद ॥ पुहुप वृष्टि शिव सुखदातार | दिव्य ध्वनि जिन जैजैका॥१३ है चौसठ चवर ढरहिं चहुंओर । सेवहिं इंद्र मेघ जिम मोर ।।। सिंहासन शोभन दुतिवंत । भामंडल छवि अधिक दिपंत ॥ वेदी माहिं अधिक दुति धरै । दुंदुभि जरा मरण दुख हरे॥ तीन छन त्रिभुवन जयकार । समवशरणको यह अधिकारा॥१५॥
दोहा. ज्ञान अनंत मय आतमा, दर्शन जासु अनंत ॥ सुख अरु वीर्य अनंत बल, सो वंदों भगवंत ॥१६॥ इन छयालीसनं गुणसहित, वर्तमान जिनदेव ॥ दोष अठारह नाशते, करहिं भविक नितसेव ॥ १७॥
चौपाई. क्षुधा त्रिषानभयाकुलजास । जनम न मरन जरादिक नाश॥ इन्द्रीविषय विषादन होया विस्मय आठमदहि नहिं कोया॥१८॥ रागरु दोष मोह नहि रंच । चिंता श्रम निद्रा नहि पंच॥१
रोग विना पर स्वेदन दीस इन दूषन विन है जगदीश१९॥ &peparponomwwwPARDP/APPesapna
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HOSPIRRORDwenawareneonsapnwarw/chaPRONOR . सिन्झाय और पंचपरमेष्ठिनमस्कार. १२५
mami दोहा. · गुण अनंत भगवन्तके, निहचै रूप वखान ॥
ये कहिये व्यवहारके, भविक, लेहु पर आन.॥२०॥ 'भैया' निजपद निरखतै, दुविधा रहै न कोय ।। श्रीजिनगुणकी मालिका, पढ़ें परम सुख होय ॥ २१
इति श्रीजिनगुणमालिका. अथसिज्झाय लिख्यते.
करखा छंद. . । जहँ कर्मके वंश,सों अंश नहिं लसै, सिद्ध सम आतमा ब्रह्म ज्ञानी ॥ है मोह मिथ्यात्वमद,पान दूरहिं नशै, राग अरुद्धेपहू जास थानी॥१॥
नहि क्रोधनहिंमान थानभासै कहूं,माय नहिलोभ जहँदूरदीखे चहूं। प्रकृति परद्रव्यकी सर्वमानी,भली सिद्ध समआतमाब्रह्म ज्ञानी॥२॥ हे जामें ज्ञान अरु दर्श चारित गुणराजही, शकति अनंत सबै
ध्रुवछाजही ।। परम पद पेख निजराजधानी, सिद्ध समआत्मा ब्रह्म ज्ञानी ॥ ३ ॥ अतीत अनागत वर्तमानहिं जिते, दरव गुण परजय सर्व भासहि तिते ॥. शुद्ध नय सिद्ध जिम जानिप्रानी, सिद्ध सम आत्मा ब्रह्म ज्ञानी ॥ ४॥ ..
अथ पंचपरमेष्ठिनमस्कार। . .
दोहा. . . : .. प्रातसमय श्रीपंच पद, वंदन कीजे नित्त । भाव भगति उर आनिकै निश्चय कर निजचित्त ॥१
... चौपाई १.६.मात्रा. ... ..... मातहिं उठि जिनवर प्रणमीजै। भावसहित श्रीसिद्ध, नमीजै ॥ आचारज. पद वंदन कीजैः । श्री.जवझायावरणचितदीज॥२॥ copapparappaapappearwanchapanasanacpapers
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ब्रह्मविलास में
१२६
साधु तणा गुण मन आणीजै । पटद्रव्य भेद भला जानीजें ॥ श्रीजिनवचन अमृतरस पीजै । सब जीवनकी रक्षा कीजै ॥ ३ ॥ लग्यो अनादि मिथ्यात्व वमीजे । त्रिभुवन माही जिम न पसीजें ॥ पाचौं इन्द्री प्रवल दमीजै । निज आतम रस माहि रमीजै॥४॥ परगुण त्याग दान नित कीजै । शुद्ध स्वभाव शील पालीजें ॥ अष्ट करम तज तप यह कीजै । शुद्धस्वभाव मोक्ष पामीजें ॥५॥
दोहा.
इहविधि श्रीजिन चरण नित, जो बंदत धर भाव ॥ ते पावहिं सुख शास्वते, 'भैया' सुगम उपाव ॥ ६ ॥ इति पंचपरमेष्ठि नमस्कार.
अथ गुणमंजरी लिख्यते. दोहा.
परम पंच परमेष्ठिको, बंदों सीस नवाय ॥
जस प्रसाद गुण मंजरी, कहूं कथन गुणगाय ॥ १ ॥ ज्ञान रूप तरु ऊगियो, सम्यकधरतीमाहिं ॥ दर्शन दृढ शाखासहित, चारित दल लहकाहिं ॥ २ ॥ लगी ताहि गुण मंजरी, जस स्वभाव चहुं ओर ॥ प्रगटी महिमा ज्ञानमें, फल है अनुक्रम जोर ॥ ३ ॥ जैसे वृक्ष रसालके, पहिले मंजरी होय ॥ तैसें ज्ञान तमालके, गुणमंजरिका जोय ॥ ४ ॥
दया सुवत्सल सुजनता, आतम निंदा रीति ॥ .. समता भक्ति विरागविधि, धर्म रागसों प्रीति ॥ ५ ॥ मनप्रभावना भाव अति, त्याग न ग्रहन विवेक ॥ धीरज हर्ष प्रवीनता, इम मंजरी अनेक ॥ ६ ॥
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........................गुणमंजरी. तिनके लच्छन गुण कहूं, जिन आगम परमान ।। इह क्रम शिव फल लागि है, देख्यो श्री भगवान ॥७॥
चौपाई, दया कही द्वय भेद प्रकाश । निजपरलच्छन कहूं विकाश ।। प्रथम कई निज दया वखान । जिहमें सब आतमरस जान ॥८॥ ६ शुद्ध स्वरूप विचारहिं चित्त । सिद्ध समान निहारहिं नित्त ॥१ विरता घर आतमपदमाहिं । विषयसुखनकी वांछा नाहि॥९॥ रहे सदा निजरसमें लीन । सो चेतन निजदया प्रवीन ।।
अब दूजो परदया विचार । जो जानै सगरो संसार ॥१०॥ एं छहों कायकी रक्षा होय । दयाशिरोमणि कहिये सोय ॥
पृथिवी अप तेऊ अरु वाय । वनस्पती त्रिस भेद कहाय ॥११ मन वच काय विराधै नाहि । सो परदया जिनागममाहि ॥
अवतमें भावनितें टलै । यथाशक्ति कछु दर्वित पलै॥१२॥ है. ज्या कपायकी मंदित ज्योत । त्यो त्यों दया अधिक तिहहोत ।।
त्रसकी रक्षा निश्चय करै । देशविरत थावर कछु टरै॥१३॥ र सर्वदया छट्टे गुणथान | आगे ध्यान कह्यो भगवान ॥
और कहूं परदया वखान । ताके लक्षण लेहु पिछान॥१४ कष्टित देख अन्य जियकोय । जाके हिरदै करुणा होय॥ शक्ति समान करै उपकार । सो परदया कही संसार ॥१५॥
दोहा. . . . कही दया द्वय भेदसों, थोरेमें समुझाय ॥ याके भेद अपार हैं, जानै श्रीजिनराय ॥ १६ ॥ अव वत्सलता गुण कहूं, जो रुचिवंत सदीव ॥
लग्यो रह जिनधर्ममें, सो सम दृष्टी जीव ॥ १७॥ sido trascorreres
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ब्रह्मविलासमें
चौपाई. . हैं जैसे बच्छा बुंधै गाय । तैसें जिनवृष याहि सुहाय ।।
लग्यो रहै निशदिन तिह माहिं । और काजपर मनसा नाहिं१८५ सुनै जिनागमके विरतंत । त्योत्यों सुख तिह होत महत॥
जो देख्यो केवल भगवान । सो निहचे याकै परमान॥१९॥ ६ द्वादश अंग प्ररूपहि जोय । सो याके घट अविचल होय ॥ रहै सदा जिनमतको ध्यान । सो वत्सलता गुण परमान २० अब तीजी सजनता कहूं । जाके भेद यथारथ लहूं। देखै जो जिनधर्मी जीव । ताकी संगति करै सदीव ॥२१॥ सब प्राणीपर सजन भाव । मित्र समान करै चित चाव ॥2
जहां सुनै जिनधर्मी कोय । तहरोमांचित हुलसित होय।। । देखत ही मन लहै अनंद । सो सजनता है गुणवृंद ॥
अब अपनी निंदा अधिकार । कहूं जिनागमके अनुसार॥२३॥ जब जिय करै विषयसुख भोग । निंदित ताहि रहे उपयोग । अघकी रीति करै जिय जहां । भ्रष्टित रहै रैन दिन तहां॥२४ देह कुटुंबादिकसे नेह । जब है तव निंदै निज देह ॥ है व्रत पचखान करै नहिं रंच । तब कहै रे मूरख तिरजंच॥२५॥ जब कहू जियको हिंसा होय । तव धिक्कार करै निज सोय॥ जब परिणाम बहिर्मुख जाय । तब निज निंदा करै सुभाय२६ । इहविधि निज निंदहि जे जीव । ते. जिन धर्मी कहे सदीव ॥ धर्म विर्षे उद्यम नहिं होय । तब निज निंदहिं धर्मी सोय॥
• दोहा. आतमनिंदा पाठ इम । करत भविक निशदीस॥
अब समता लक्षण कहूं। जो भाषित जगदीश ।। २८॥ fromoppeoponPOORORSRPARPROORDAR
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गुणमंजरी.
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चौपाई
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समताभाव धरहि उरमाहिं । वैर भाव काइसौं नाहिं ।।। निज समान जाने सव हंस । क्रोधादिक तव करै विध्वंस ॥२९॥, उत्तम क्षमा धरहि उर आन । सुखदुख दुहमें एकहि वान ।। जो कोउ क्रोध करै इह आय । तवहू याके समता भाय ॥३०॥ उपजे क्रोध कपाय कदाच । तव तहँ रहै आपसों राच ॥ है सो समतादिक लच्छन जान । थोरेमें कछु कह्यो वखान॥३१॥
अव कह भगति भाव जो होय। सेवहि पंच पदहिं नित सोय ॥ देव गुरू जिन आगम सार । इनकी भक्ति रहै निरधार॥३२॥ जिनप्रतिमा जिन सरखी जान । पूजे भाव भगति उर आन॥ है साधर्मी जिय देखें कोय । ताकी भगति करै पुनि सोय३३ ६
जामहिं गुण देख अधिकाय । ताकी भगति करहि मन लाय. है भक्ति भावत नाहिं अघाय । समदृष्टीको यह स्वभाय ॥३४॥
अब कहुं गुण वैराग बखान । उदासीन सवसों तिहँ जान ॥ जोप रह गृहस्थावास । तोहू मन तिह रहै उदास ॥३५॥ है
जाने कबहूं चारित लेउँ । परिग्रह सबै त्यागकर दे ॥ है क्षणभंगुर देखहि संसार । तातै राग तजै निरधार ॥ ३६ ॥ निजशरीर विपलेपण करै । अशुचि देख ममता परिहरै ।। यह जड़मय चेतन सरवंग । कैसे राग करूं इहि संग ॥३७॥ मन लाग्यो आतम रस माहिं । तात वैरवासना नाहि ॥ इम वैराग्य धरहिं जे संत । ते समदृष्टि कहै सिद्धत ॥३८॥ अब कहुं धर्मरागकी वात । समदृष्टी जिय सबै सुहात ॥ पंच परम परमेष्ठी जान । तिनमें रागधरहिं उरआना॥३९॥ २ (१)आदत. (२) सहधर्मा (३-४) सम्यग्दृष्टि. annotandangan mengandrewnatos
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ब्रह्मविलास में
जिन आगम जो कह्यो सिधंत । तिनपै राग धरत है संत ॥ ज्यों देखहि जिनधर्म उद्योत । त्यों तिहिं राग महा उर होत ४० जहां सुनै जिनधर्मी कोय । तिहिं मिलिवेकी इच्छा होय ॥ धर्म राग धर्मीपै जोय । सम्यक लच्छन कहिये सोय ४१
दोहा.
कही आठ गुणमंजरी, सम्यक लक्षण जान ॥ पंच भेद पुनि और है, तेहू कहूं बखान ॥ ४२ ॥ मन प्रभावना भाव धर, हेय उपादेय वंत ॥ धीरज हर्ष प्रवीनता, इम मंजरी वृतंत ॥ ४३ ॥ चौपाई.
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धरै । किहि विधि जैनधर्म विस्तरे ॥ दाम । प्रगट करे जिन शासननाम ४४ करै । तामें विंव अनोपम धेरै ॥
चित प्रभावना भावहिं संघ चलावहि खरचै जिनमंदिरकी रचना करै प्रतिष्ठा विविध प्रकार । सो जिनधर्मी चित्त उदार ॥४५॥ साधू साध्वी श्रावक वर्ग । इनके दूर करहिं उपसर्ग ॥ पोषै संघ चतुर्विधि जान । सो जिनधर्मी कहे बखान ॥४६॥ इह विधि करे उद्योत अनेक । जाके हिरदै परम विवेक ॥ जिनशासनकी महिमा होय । नितप्रति काज करत है सोय ४७ जब कोउ जीव महाव्रत धरै । ताके तहां महोत्सव करै ॥ खरचहि द्रव्य देय बहु दान । सो प्रभावना अंग बखान ॥४८॥ अब कहुं हेय उपादेय भेद । जाके लखे मिटै सब खेद ॥ प्रथमहिं हेय कहतहूँ सोय । जामे त्याग कर्मको होय ॥ ४९ ॥ पुद्गल त्याग योग्य सब तोहि । इनकी संगति मगन न होहि ॥ ऐसें जो वरतै परिणाम । हेय कहत है ताको नाम ॥ ५० ॥
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१३१ अव कहुं - उपादेयकी. वात । जामें ग्रहण अर्थ विख्यात ॥ निज़ स्वरूप जो आतमराम । चिदानंद है ताको नाम ॥५१॥ ज्ञान दरश चारित भंडार । परमधरम धन धारन हार ॥ निराकार . निरभय निररूप । सो अविनाशी ब्रह्म स्वरूप ५२
ताकी महिमा जानहिं संत । जाकी सकति अपार अनंत ॥ ९ ताहि उपादेय. जानहिं जोय । सम्यकदृष्टी कहिये सोय ॥५३॥ निज स्वरूप जो ग्रहण करेय । परसत्ता सब त्यागे देय ।। ऐसे भाव धरहि जो कोय । हेय उपादेय कहिये सोय ॥५४॥ अव धीरज गुण कहूं वखान । जिनके ते सम दृष्टी जान ॥ धर्मविषै जो धीरज धरै । कष्टदेख सरधा नहि टरै ॥५५॥ सहै उपसर्ग अनेक प्रकार । सबहू धीरज है निरधार ॥ मिथ्यामत जो देखै कोय । चमत्कार तामें वहु होय ॥५६॥ तबहू ताहि लखहि अज्ञान । सो धीरजधर सम्यकवान || अब कहुं हरप गुणहिं समुझाय। समदृष्टीयह सहजसुभाय।।५७॥ निज स्वरूप निरखहि जो कोय । ताके हर्ष महा उर होय ॥ सुख अनंतको पायो ईस । तिह निरखै हरपैनिसदीस॥५८॥ छहों द्रव्यके गुण परजाय । जाने जिन आगम सुपसाय ।। निज निरखै सु विनाशी नाहिं । यात हर्ष महा उर माहिं ॥५॥ तीर्थकर देवनके देव । ताकी प्रभुताके सव भेव ॥ अनंत चतुष्टय आदि विचार । हर्षे ते निज माहि निहारा॥३०॥ जन्म जरादिक दुख बहु जान । तिहते भिन्न अपनपो मान । सिद्धसमान विचारहि चित्त...तातें हर्ष महा उर नित्त ॥३१
अब गुण कहूं प्रवीन बखान । जिनके ते समदृष्टी मान ॥ ३.स्वपरविवकी परम . सुजान । प्रगव्योवोधमहा परधान ॥३२॥
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ब्रह्मविलासमें
Anummmmmmmmmmmmmmmmmmms जानन लाग्यो सब विरतंत । जैसो कछु देख्यो भगवंत ॥ जिन आगमके वचन प्रमान । तामहिंबुद्धि अहै परधान॥६॥ है धर्म महागुण जाके होय । तातै निपुण न दूजो कोय । जाके हृदय भयो परकाश । ताकी कुमतिगईसवनाश॥६॥ चौदह विद्यामें जो आदि । ब्रह्मज्ञान सो कह्यो मरजाद ॥ है तात जो परवीन प्रधान । सो समदृष्टीविन नहिं आन ६५ मिथ्याती जिय भ्रममें रहै । सो प्रवीनता कैसे गहै ॥ ताते कथा यहै परमान । हैप्रवीन जियसम्यकवान॥६६॥ है इहि विधि मंजरी लगी अनेक । ज्ञानवंत धर देख विवेक ॥ है
जैसें द्रुम शोभै सहकार । तैसें ज्ञान गुणनके भार ॥६॥ ॐ यात प्रथम मंजरिका कही । इहिद्रुम शिवफल लागहि सही
जाके घट समकित परकाश । ताके ये गुन होहि निवास ॥६॥ है सम्यग्दर्श लहै जो जीव । सो शिवरूपी कह्यो सदीव ॥ है. ताते सम्यक ज्ञान प्रमान । जातें शिवफल होय निदान ६९ ॥
दोहा. कही ज्ञानगुण मंजरी, जिनमतके अनुसार ॥ जो समुझहिं ओ सरदह, ते पावहिं भवपार ॥ ७॥ यामें निज आतम कथा, आतमगुण विस्तार ॥ तातें याहि निहारिये, लहिये आतम सार ॥ ७१॥ जो गुण सिद्ध महंतके, ते गुण निजमहिं जान ॥ भैया निश्चय निरखतें, फेर रंच जिनमान ॥७२॥ सत्रहसो चालीसके, उत्तम माघ हिमंत ॥ . आदि पक्ष दशमी सुदिन, मंगल कहो सिद्धत ॥ ७
इति गुणमंजरिका.
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१३३ ९ . अथ लोकाकाशक्षेत्रपरिमाणकथन लिख्यते ।
चौपाई. प्रणमूं परमदेवके पाय । मन वच भावसहित शिर नाय॥
लोक क्षेत्रकी गिनती कहूं । राजू भेद जहाते लहूं ॥१॥ ९ घनाकार सब कह्यो वखान । त्रयशत अरु तेतालिस मान ॥
ताके भेद कहूं समुझाय । श्री जिन आगमके जुपसाय|॥२॥ सिद्ध शिलातक गिनती करी । उपरिकी हद इह संग धरी ॥ अहमिंदर नवग्रीव विमान । तिह ऊपरके सवही जान ॥३॥ राजू ग्यारह धन आकार । देख्यो जिनवर ज्ञानमझार ॥ ताके तरहिं सुरग वसु जान । द्विक चतुकी संख्या उर आन॥४ ऊपरित तरको . हग देहु । गनती भेद समझ कर लेहु ॥ साढे अठ रज्जू द्विक एक । घनाकार सव लहहु विशेक।५॥ , दूजो द्विक साढे दश होय । तीजो साढे वारह सोय ॥ चौथो साढे चउदह कह्यो । द्विक चतु भेद जिनागमलयो ६ द्वै द्विक और कहूं विस्तार । ते राजू तेतीस निहार ॥ साढे शोरह इक इक जान । इमतेतीस दुईद्विक मान ॥७॥ सनत्कुमार महेन्द्र सुदीस । इन दुहुके साढे सैंतीस ॥
अब सुधर्म ईशान विमान । तिर्यक् लोक याहि महिजान॥८॥ ए मेरु चूलिकाते गन लही । राजू साढे उनइस कही। सव गिनती ऊपरकी दीस । राजू इक सो सैंतालीस ॥९॥
अब नीचें कहुं क्रमसें गुनो । जाके भेद जथारथ सुणो॥ में मेरू तलवासें गण लेह । सात नरकको वरणनजेह॥१०॥ . (१) प्रसादसे.
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ब्रह्मविलालम। पहिली रतनप्रभा ते जान । दशराजू तिह कही बखान ॥ दूजी शोलह राजू कही। तीजी नरक चीसबै लही ॥१॥ चौथी नरक अठाइस राजु । तिह निकस्यो जिय सारे काजु ॥ पंचमि नरक राजु चौतीश । छट्टीचालिस कही जगदीश ॥१२ नरक सातवींकी मरजाद । कही छियालिस कथन अनाद ।। लोक अन्त सवत जो तरें । सो सब नर्क सातवीं धेरै ॥१३॥ सात नरककी गिनती जान । शतइक और ज्यानवे मान । सब राजू देखे जगदीस । भये तीनसे तैतालीस ॥ १४ ॥ घनाकार सव भुवनहिं जान । ऊंची राजू चवदह मान ।
सागर स्वयंभुरमणहिं जोय ।तिहबानहि राजूड़क होय ॥१५॥ ६ पुरुषाकार कह्यो सब लोक । ताके परें सु और अलोक ।। इहि मधि त्रसनाड़ी इक जान । ताके भेद कहूं उर आन ॥१६॥
चवदह राजू कही उतंग । राजू इक पोली सरवंग ॥ इतामहिं त्रसथावरको थान । याके पर सु थावर मान ॥१७॥ , इहविधि कही जिनागमभाख । ग्रंथ त्रिलोकसारकी साख ॥
धर्म ध्यानको जानहु भेद । वर्ण चतुर्थ लखहु विन खेद॥१८ है इतनो है यो लोकाकाश । छहों दरवको याम वास ॥ ४ चेतन ज्ञान दरश गुण धरै । और पंथ जड़ता अनुसरे ॥१९ रहै सदा इहि लोकमझार । तू 'भैया' निजरूप निहार ॥ ६ सत्रहसौ चालीसै सही। पोप सुदी पूनम रवि कही ॥२०॥
इति लोकाकाशक्षेत्रपरिमाणकथनं ॥
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Rupamaanwrwanamwansangeendanaanaarana मधुविन्दुककी चौपई.
१३५ अथ मधुविन्दुककी चौपाई लिख्यते ।
दोहा. वंदों जिनवर जगत गुरु, वंदों सिद्ध महंत ।। वंदों साधू पुरुष सब, वंदा शुद्ध सिद्धत ॥१॥ मधु विंदुककी चौपई, कहूं ग्रन्थ अनुसार ॥ दुख अरु सुखके उदधिको, लहिये पारावारं ॥२॥ काल अनादि गयो इहां, वसत यही जगमाहि ॥ दुख अरु सुखसों भिन्नता, जानी कवहूं नाहिं ॥३॥ विषयसुखनको सुख लख्यो, तिहँ दुख लह्यो अपार ॥ 'सो जाने जिन केवली, है अनंत विस्तार ॥ ४॥
. चोपाई. इक दिन भविजन मिले सुभाय। आवत देख्यो श्रीमुनिराय ॥ अट्ठाईश मूल गुण धेरै । तास चरण भवि वंदन करै ॥५॥ विनती करहि हुंकर जोर । हे प्रभु भवबंधनते छोर ॥ तव मुनिराज धरमहित जान। जिन आगमकछु कहहिं बखान
दोहा. . भविक सुनहु उपदेश तुम, मन वच दृढकर काय ।। . ज्यों पावह निज सम्पदा, संशय वेग विलाय ।। ७॥ इक दृष्टांत विचारिक, कहैं सुगुरु उपदेश । सुनहु भविक थिरतासहित, तज अज्ञान कलेश ॥८॥
चौपाई.. एक पुरुष वन भूल्यो परयो । ढूंढत ढूंढत सव निशि फिरयो ।
चहुं दिश अटवी झंझाकार । हीड़त कहुं नहिं पावै पार ॥९॥ SalmanorpawanROMORRORPORApwanpower
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ब्रह्मविलास में
महा भयानक सब वनराय । भटकत फिरै कछू न वसाय ॥ जित देखहि तित कानन जोर । परथो महा संकट तिहँ घोर ॥ १० सोचत वाघ सिंह जिने खाय । जिने कहुं वैरी पकर न जाय ॥ हि विधि दुखित महावन धाय। तिहँ धानक गज निकस्यो आय ११ ताकी दृष्टि परथो नर जहां । ता पकरन गज दोरथो तहां ॥ यह भाग्यो आर्गेको जाय । पाछें गज आवत है धाय ॥ १२ ॥ जो यह देखै दृष्टि निहार । यह तो रह्यो डगन द्वै चार ॥ अब मैं भागि कहां लों जाउँ । देख्यो कूप एक तिहँ ठाउँ ॥१३॥ परयो कूप मधि यह विचार । गज पकरै तो डारै मार ॥ कूप मध्य बड़ ऊग्यो एक । ताकी शाखा फली अनेक ॥ १४ ॥ तामहिं मधुमक्षिनको थान । छत्ता एक लग्यो पहचान ॥ बरकी जटा लटकि तह रही । कूप मध्य गिरते कर गही ॥ १५ ॥ दोडकर पकर रह्यो तिहँ जोर | नीचें देखै दृष्टि मरोर ॥ कूप मध्य अजगर विकराल । मुह फारे वैठ्यो जिम काल ॥१६॥ वह निरखहि आवै मुख मांहि । तो फिर भाजि कहां लों जाहि ॥ चार कौनमें नाग जु चार । बैठे तहां तेहु मुखफार ॥ १७ ॥ कब यह नर गिर है इह ठौर । गिरतें याको कीजे कौर ॥ नीचे पंच सर्प लखि डरयो । तब ऊपरको मस्तक करयो ॥ १८ ॥ देखे बटकी जटै कहँ दोय । ऊंदेरजुग काटत है सोय ॥ इक उज्वल इक श्याम शरीर । काटहि जटा नही तिहँ पीर ॥१९॥ कूप कंठ गज शुंड प्रकार । झकझोरै वरकी बहु डार ॥ पकर निशुंड चलावै ताहि । यह तो रह्यो दूर द्रुम साहि ॥२०॥
(१-२ ) मत ३. जटा. ४' दो चूहे.
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sasaramaerancomwapasanauranoranaormapanaOMEOPanawrenadanepannapranaprapoorangeena
rapmajwapaparpen p eopornwapwapUNE gam.मधुविन्दुककी चौपई.
वरकी शाखा हाली सबै । मधुकी बूंद गिरी इक तवै ॥ इह राख्यो तवहीं मुखफार आवत ग्रहण करी निरधारा२शा । झकझोरत माखी उडि जेह । आय लगी सव याकी देह ॥ काटै तन पै वेदै नाहिं । मन लाग्योमधु छत्ता माहि॥२२॥ एक बूंद जब मुख महिं पर । तव दूजी मनसा करै ॥ है लगी दृष्टि छत्वासों जाय । दुखसंकटसों नहिं अकुलाय २३ है,
सोरठा.' तव तिहँ थानक कोय, विद्याधर आकाशमैं ॥ जाहिं पुरुप तिय दोय, बैठे निजहि विमानमें ।। २४ ॥ तिय निरख्यों तिहँ वार, कोउ पुरुष संकट परयो । हे पिय! दुखहिं निवार, निराधार नर कूपमें ॥ २५॥ है दुख अपार अति घोर, परयो पुरुष संकट सहै ॥ कछु न चलत है जोर, हे प्रभु याहि निवारिये ॥२६॥ कहे विद्याधर वैन, सुनहु प्रिया तुम सत्य यह ॥ यह मानें इत चैन, निकसनको क्योंही नही ॥ २७ ॥
दोहा. प्रिया कहै प्रियतम सुनो, किह सुख मान्यो चैन । . यह अटवी यह कूप गज, अहि मखि मूसा ऐन ॥ २८ ॥ कहै विद्याधर प्रिये सुनो, मधु विदव रस लीन ॥ यह सुख मान रच्यो यहां, दुख अंगीकृत कीन ॥ २९ ।। ए सव दुखहि विचारके, मधुविंदवके स्वाद ॥ लग्यो मूढ संकट सहै, कहिवो सवही वाद ॥३०॥ बहुर प्रिया कहै सुनहु प्रिय, ऐसी कबहुँ न होय ॥
एते संकट जो सहै, सो सुख मानै कोय ॥ ३१ ॥ WwwPDPORPORARWADERemen@norons
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ब्रह्मविलासमें ताते याको काढियें, कहै तिया समुझाय ।। विद्याधर कहै हट तजहु, पंथ अकारथ जाय ॥३२॥ तीय कहै चलवो नहीं, इहि विन काढे आज ॥ स्वामि वडो उपकार है, कीजे उत्तम काज ॥ ३३ ॥ तिय हटविद्याधर तहां, उतरयो निजहिं विमान ॥ आय कह्यो तिहँ नर प्रत, निकसि निकसि अज्ञान ॥३४॥ आवै तो हम बांह गहि, तोकों लेय निकासि ॥ निज विमान वैठायके, पहुंचा तो वास ॥ ३५ ॥
चौपाई. , ऐसे वचन सुनत निज कान । बोलै पुरुष सुनहु हितवान ।। एक बूंद छत्तासो खिरै । सो अवके मेरे मुख गिरे ॥३६॥ ताको अवहीं चख सरवंग । तव मैं चलूं तुमारे संग ॥ , जब वह बूंद परी मुख माहिं । तवदूजीपरमन ललचाहि॥३७॥
अब यह जो आवैगी सही। तो चलहूं कछु धोको नही ।। । दूजी बूंद परी मुख जान । तवतीजीपर करी पिछान||३०॥
इह विधि वृंद स्वादके काज । लाग रह्यो नहिं कछू इलाज | ६ विद्याधर दै हाँक पुकार निकसैनहीं चल्यो तव हार॥३९॥
आय विमान भयो असवार । निज थानक पहुंच्यो तिहवार ।। तबही भवि मुनिके नमि पांय । कहा कही प्रभु कह समुझाय ४०
हम नहिं समुझे यह दृष्टांत । कहहु प्रगट प्रभु सव विरतांत॥ है को नर को गज को वनकूप कोअहिको वट जटा अनूपा४िशा
को अंदर को मधुकी बुंद । को माखी जो दे दुखदुंद ॥ कौन विद्याधर कहो समुझाय । जातें सबसंशय मिट जाय॥४२॥
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PROPERamRWANDERSTARSenopow/MODog __ मधुविन्दुककी चौपई.
दोहा.
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तव मुनिवर दृष्टांत विधि, कहै भविक समुझाय ॥ सावधान है सुनहु तुम, कहूं कथन गुणगाय ॥ ४३ ॥
चौपाई.
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यह संसार महा वन जान । तामहिं भवभ्रम कूप समान | गज जिम काल फिरत निशदीस । तिहपकरन कहूं विस्वावीस ४४ वटकी जटा लटकि जो रही । सो आवा जिनवर कही। तिहँ जर काटत मूंसा दोय । दिन अरु रैन लखहु तुमसोय ४५ है मांखी चूंटत ताहि शरीर । सो वहुरोगा दिककी पीर ॥
अजगर परयो कूपके वीच । सो निगोदसवतें गतिनीच॥४६॥ है याकी कछु मरजादा नाहिं । काल अनादि रहे इह माहि ॥
तात भिन्न कही इहि ठौर । बहुं गतिमहित भिन्न न और ४७ है में चहुं दिश चारहु महा भुजंग । सो गति चार कही सरवंग ॥ मधुकी वूद विप सुख जान जिहँ सुख काजरह्यो हितमान४८ ज्यों नर त्या विषयांश्रित जीव । इह विधि संकट सह सदीव ।। विद्याधर तहँ सुगुरु समान । दै उपदेश सुनावत कान ॥४९ आवहु तुमहिं निकाशहिं वीर । दूर करहिं दुख संकट भीर ॥ तबहू मूरख माने नाहिं । मधुकी बूंदविपै ललचाहिं ५० ३ इतनो दुख संकट सह रहै । सुगुरुवचन सुन तज्यो न चहै।
तसे ज्ञानहीन जियवंत । ए दुख संकट सहै अनंत ॥५१॥ विप सुखन मधुविंदव काज । मानत नाहिं वचन जिनराज ॥ ह
सहत महा दुख संकट घोर निकस नचलत वधूशिवओर.५२ MorenasapnaPRAMOMEROAngnpanwww
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ब्रह्मविलासमें जिहँ थानक सुख सागर भरे । काल अनंतहु विलसहु खरे ॥ एजन्मजरादिक दुख मिट जाय । प्रगटै परमधरम अधिकाय॥५३॥ है वहुरन कबहू संकट होय । सुख अनंत विलसहु ध्रुवसोय ।। है यह उपदेश कहै मुनिराज भव्य जीव चेतह निजकाज॥५॥
दोहा. सुनके वचन मुनीन्द्रके, भवि चिंत मन माहिं ।। विषयसुखनसों मगनता, कवहूं कीजे नाहि ॥ ५५॥ विषयसुखनकी मगनसों, ये दुख होहिं अपार ॥ तातै विषय विहंडिये, मन वच क्रम निरधार ॥५६॥ यह विचार कर भविकजन, वंदत मुनिके पाय ॥ धन्य धन्य तारन तरन, जिन यह पंथ वताय ॥ ५७॥ एतो दुख संसारमें, एतो सुख सब जान ।। इम लखि भैया चेतिय, सुगुरु वचन उरआन || ५८॥ सत्रहसौ चालीसके, मारगसिर शित पक्ष । तिथि द्वादशी सुहावनी, भोमवार परतक्ष ॥ ५९ ।। मधुविंदवकी चौपई, कही ग्रंथ अनुसार ॥ जे समुझ वा सरदहे, ते पावहिं भवपार ॥ ६॥
इति मधुविदवकी चौपई.
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अथ सिद्धचतुर्दशी लिख्यते।
दोहा. . परमदेव परणाम कर, परम सुगुरु आराध ॥
परम ब्रह्म महिमा कहूं, परम धरम गुण साध ॥१॥ MoswwwAMPIERRORARRIOMMARWwwwanmanoos
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TwenwwerpendenwanSanweronwRORISONE सिद्धचतुर्दशी.
१४१ कवित.
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है आतम अनोपम है दीसै राग द्वेष बिना, देखो भव्यजीव! तुम
आपमें निहारकै । कर्मको न अंश कोऊ भर्म को न वंश कोऊ, जाकी सुद्धताई मैंन और आप टारकें। जैसो शिव खते वसै तेसो है ब्रह्म इहां लसै, इहां उहां फेर नाहि देखिये विचारकै । जेई गु-1
सिद्धमाहि तेई गुण ब्रह्मपाहि, सिद्ध, ब्रह्म फेर नाहिं निश्चय निरधारक ॥२॥ सिद्धकी समान है विराजमान चिदानंद है ताहीको निहार निजरूप मान लीजिये । कर्मको कलंक अंग है है पंक ज्यों पखार हरयो, धार निजरूप परभाव त्याग दीजिये। थिरताके सुखको अभ्यास कीजे रन दिना, अनुभोके रसको सुधार भले पीजिये । ज्ञानको प्रकाश भास मित्रकी समान दीस, चित्र ज्यों निहार चित ध्यान ऐसो कीजिये ॥३॥ भाव कर्म नाम रागद्वेपको वखान्यो जिन, जाको करतार जीव भर्म संग मानिये। द्रव्यकर्म नाम अष्टकर्मको शरीर कह्यो, ज्ञानावर्णी , आदिसब भेद भल जानिये । नोकरम संज्ञात शरीर तीन पावत है, औदारिक वैक्रीय आहारक प्रमानिये ॥ अंतरालसमै जो अहै हार विना रहे जीव, नो करम तहां नाहि याहीत वखानिये ॥४॥
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संवैया.
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है लोपहि कर्म हरै दुख भर्म सुधर्म सदा निजरूप निहारो।
ज्ञानप्रकाश भयो अघनाश, मिथ्यात्व महातम मोहन हारो॥ चेतनरूप लखो निजमूरत, सूरत सिद्धसमान विचारो ।
ज्ञान अनंत वह भगवंत, वसैअरि पंकतिसों नित न्यारो ॥५॥ RaranepanwarwAweneMPARDarpanpapappawars
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Que at op andere १४२
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ब्रह्मविलास में
छप्पय छंद.
त्रिविध कर्मत भिन्न भिन्न पररूप परसतें ॥ विविधि जगतके चिह्न, लखै निज ज्ञान दरसतें ॥ वसै आपथल माहिं, सिद्ध समसिद्ध विराजहि । प्रगटहि परम स्वरूप, ताहि उपमा सब छाजहि ॥ इह विधि अनेक गुणब्रह्ममहिं, चेतनता निर्मल लंस || तस पद त्रिकाल वंदत भविक', शुद्ध स्वभावहि नित वसै ॥६॥ अष्टकर्म रहित, सहित निज ज्ञान प्राण धर ॥ चिदानंद भगवान, वसत तिहुं लोक शीसपर ॥ विलसत सुखजु अनंत, संत ताको नित ध्यावहि ॥ वेदहि ताहि समान, आयु घट माहिं लखावहि || इमध्यान करहि निर्मल निरखि, गुणअनंत प्रगटहिं सरव ॥ तस पद त्रिकाल वंदत भविक,' शुद्ध सिद्ध आतम दरव ॥७॥ ज्ञान उदित गुण उदित, मुदित भई कर्म कपायें | प्रगटत धर्म स्वरूप, ताहिं निज लेत लखायें ॥ देत परिग्रह त्याग, हेत निहचै निज मानत । जानत सिद्ध समान, ताहि उर अंतर ठानत ॥ सो अविनाशी अविचल दरव, सर्व ज्ञेय ज्ञायक परम । निर्मल विशुद्ध शास्वत सुधिर, चिदानंद चेतन धरम ॥८॥
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कवित्त,
अरे मतवारे जीव जिन मतवारे होहु, जिनमत आन गहो जिनमत छोरकै । धरम न ध्यान गहो धरमन ध्यान गहो, धरम स्वभाव लहो, शकति सुफोरकें ॥ परसों सनेहकरो, परम सनेह
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. सिद्धचतुर्दशी. mammmmmmmmmmm..... SH
१४३ करो, प्रगट गुण गेह करो मोहदल मोरकैं। अष्टा दशदोपहरो,अष्ट ।
कर्म नाश करो, अष्ट गुण भास करो, कहूं कर जोरकै ॥९॥ है वर्णम न ज्ञान नहि ज्ञान रस पंचनमें, फर्समें न ज्ञान नहीं ज्ञान ,
कई गंधर्म। रूपमे न ज्ञान नहीं ज्ञान कई ग्रथनमें, शब्दमें न ज्ञा न नहीं ज्ञान कर्म बंधनें । इनतें अतीत कोऊ आतम स्वभाव |
लसै, तहाँ वसे ज्ञान शुद्ध चेतनाके खंधर्मे ॥ ऐसो वीतरागदेव है कयो हैप्रकाशभेव, ज्ञानवंत पाचै ताहि मूढ़ धावै ध्वधर्म ॥१०॥ ___ वीतराग वैन सो तो ऐनसे विराजत है, जाके परकाश निजभास पर लहिये। सूझै पट दर्व सर्व गुण परजाय भेद, देवगुरु ग्रंथ पंथ ।
एर गहिये । करमको नाश जामें आतम अभ्यास करो, है ध्यानकी हुतास अरिपंकतिको दहिये । खोल हग देखि रूप अ-है
हो अविनाशी भूप, सिद्धकी समान सवतोपें रिद्ध कहिये ॥११॥ र रागकी जु रीतसु तो बडी विपरीत कही, दोपकीजुवात सु तो है
महादुख दात है । इनहीकी संगतिसों कर्मवन्ध करै जीव, इनही संगतिसो नरक निपात है। इनहीकी संगतिसों वसिये निगोद ई बीच, जाके दुखदाहको न थाह कयो जात है। येही जगजाल के फिरावनको बडे भूप, इनहीके त्यागे भव भ्रम न विलात है ॥१२॥
मात्रिक कवित्त. असी चार आसन मुनिवरके, तामें मुक्ति होनके दोय। से पद्मासन खड्गासन कहिये, इनविन मुक्ति होय नहिं कोय ॥ परम दिगम्बर निजरस लीनो, ज्ञान दरश थिरतामय होय।। है
अष्ट कर्मको थान भ्रष्टकर, शिवसंपति विलसत है.सोय ॥१३॥ WORWARUPanerapannpepanpanwarweppropos
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ब्रह्मविलासमे .
दोहा. जैसो शिवखेतहि वसै, तैसो या तनमाहिं । निश्चय दृष्टि निहारतें, फेर रंच कहुं नाहिं ॥ १४ ॥
इति सिद्धचतुर्दशी.
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अथ निर्वाणकांडभाषा लिख्यते।
दोहा. वीतराग वंदों सदा, भावसहित शिरनाय । कहूं कांड निर्वानकी, भाषा विविध वनाय ॥१॥
चौपई. अष्टापद आदीश्वर स्वामि । वासुपूज्य चंपापुरि नामि ॥ नेमिनाथ स्वामी गिरनार । वंदों भावभगति उर धार ॥२॥ चर्म तिर्थकर चर्म शरीर । पावापुरि स्वामी महावीर ।। शिखरसमेद जिनेश्वर वीस । भावसहित वंदो जगदीस ॥३॥ वरदत औ वर इंद मुनिंद । सायरदत्त आदि गुणवृंद ॥ नगर तारवर मुनि उठे कोड़। वंदों भावसहित करजोड़ ॥४॥
श्रीगिरनार शिखर विख्यात। कोटि बहत्तर अरु सौ सात ॥ ॐ संयु प्रद्युम्न कुमर द्वै भाय । अनुरुद्ध आदि नमूं तसपाय ॥५॥
रामचंद्रके सुत द्वै बीर । लाड नरिंद आदि गुणधीर ॥ ह पंचकोड़ मुनि मुक्तिमझार। पावागिर वंदों निरधार ॥६॥ पांडव तीन द्रविड़ राजान । आठकोड मुनि मुकतिप्रमान ।। श्रीशत्रुजयगिरिक शीस । भावसहित वंदो निशदीस ॥७॥
(1) साढे तीन करोड, growonweaponomenoramPRONPawwwers
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निर्वाणकांडभाषा.
૪૧
जो बलिभद्र मुकतिमें गये । आठ कोड़ि मुनि औरहिं भये ॥ श्री गजपंथ शिखर सुविशाल । तिनके चरण नमूं तिहुं काल ॥ ८ ॥ राम हनू सुग्रीव सुडील | गवगवाख्य नील महानील ॥ कोड़ निन्याणव मुक्तिप्रमान । तुंगी गिर बंदों घर ध्यान ॥९॥ नंग अनंग कुमार सुजान। पंचकोड़ अरु अर्द्ध प्रवान ॥ मुक्ति गये शिहुनागिरीस । ते बंदों त्रिभुवनपति ईश ॥ १० ॥ रावनके सुत आदि कुमार । मुक्ति भये रेवातट सार ॥ कोटि पंच अरु लाखपचास । ते वंदो धर परम हुलास ॥११॥ रेवानदी सिद्धवर कूट । पश्चिम दिशा देह जहँ छूट ॥ द्वै चक्री दश काम कुमार । औठकोडि बंदों भवपार ||१२|| सुचंग । दक्षिण दिशि गिर चूल उतंग || कर्ण । ते बंदों भवसागर तर्ण ॥ १३ ॥ चार । पावागिरिवर शिखरमझार ॥ पास । मुक्ति गये बंदों नित तास ||१४||
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बड़वानी बड़नगर इंद्रजीत अरु कुंभ जु सुवरणभद्र आदि मुनि चलना नदीतीरके वडगाम
फलहोड़ी
अनूप । पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप || गुरुदत्तादि मुनीश्वर जहां । मुक्ति गये बंदों नित तहां ॥१५॥ ॥ वाल महाबाल मुनि दोय । नाग कुमार मिले त्रय होय ॥ श्रीअष्टापद मुकति मझार । ते बंदों नित सुरत संभार ॥१६॥ अचला पुरकी दिशा ईशानं । तहाँ मेढ़गिरि नाम प्रधान ॥ साढे तीन कोटि मुनिराय । तिनके चरन नमूं चितलाय ॥१७॥ ६ वंशस्थल वनके ढिग होय । पश्चिम दिश कुंथलगिरि सोय ॥ कुल भूषण देश भूषण नाम । तिनके चरणनि करहुं प्रणाम ॥१८
(२) साढेतीन करोड.
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ब्रह्मविलासमें
जसरथ राजाके सुत कहे । देश कलिंग पांचसो लहे ॥ कोटि शिला मुनि कोटि प्रमांन। वंदन करों जोर जुग पान ॥ १९ ॥ समवशरण श्रीपार्श्वजिनंद । रिशंदेह गिरि नयनानंद ॥ वरदचादि पंच ऋषिराज । ते बंदों नित धरम जिहाज ||२०|| तीन लोकके तीरथ जहां । नितं प्रति वंदन कीजे तहां ॥ मन वच भाव सहित शिर नाय । वंदन करें भविक गुण गाय ॥२१ संवत सत्रहसो इकताल । अश्विन सुदि दशमी सुविशाल|| 'भैया' वंदन करहि त्रिकाल । जय निर्वाणकांड गुण माल||२२|| इति निर्वाणकांडथापा.
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अथ एकादशगुणस्थानपर्यन्तपंथवर्णन लिख्यते ॥ दोहा.
कर्म कलंक खपायक, भये सिद्ध भगवान || नित प्रति वदों भाव धर, जो प्रगटै निज ज्ञान ॥ १ ॥ कहीं पंथ इह जीवके, किहूँ मग आवै जाय ॥ गुण थानक दश एकलों, धेरै जनम मृत भाय ॥ २ ॥ भव्य राशितें निकसिकै, मुक्ति होनके काज ॥ चढहि गिरहि इम पंथमें, अंत होंहिं महाराज ॥ ३ ॥ चौपाई. ·
प्रथम मिथ्यांत नाम गुंण थान । उभय भेद ताके परवान ॥
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एक अनादि नाम मिथ्यांत । दूजो सादि कह्यो विख्यात ॥४॥ प्रथम अनादि मिथ्याती जीव । पंथ तीनको धेरै सदीव ॥ पंचम सप्तम जाय । गिरैतो फिर मिथ्यापुर आय॥१५॥ सादि मिथ्यात्व जीव जो धरै । पंथ चार ताके विस्तरे ॥
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अव दूजो सासादन मिथ्यापुरलौं आवै
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एकादशगुणस्थानपर्यन्तपंथवर्णन. 'तीजे चौथे पंचम: जाय । सप्तम पुरलों पहुंचै धाय ॥ ६ ॥ नाम । ताके एक गिरनको धाम ॥ : सहीं । दूजी चाट न याकी कही ॥ ७ ॥ थान । पंथ दोय याके परमान ॥ माहिं । चढै तो चौथे थानक जाहिं ॥ ८ ॥ थान पंथ पंच भाखे भगवान ॥ जाय । मिथ्यापुरलों पहुँचै आय ॥ ९ ॥ सही । ऐसी महिमा याकी कही || जान । पंथ पंच ताके उर आन ॥१०॥ जाय । अथवा दूजै पहिले भाय ॥ माहिं । इहिथानक अधिके कछु नाहिं ११ । वखान । ताके पंथ छहों पहिचान ||
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तीजो मिश्रनाम गुण गिरे तो पहिले पुरके चौथौ है अत्रतपुर गिरे तो तीजै दूजै चढे तो पंचम सप्तम पंचम देशविरतपुर गिरे तो चौथे तीजै चढै तो सप्तम पुरके अव पष्टम परमत्त गिरै तौ पंचम चौ त्रिय जाय । दूनै पहिले धेरै सुभाय ॥ १२ ॥
चढै तो. सप्तम पुरलों
आय । ऐसे भेद कहे जिनराय ॥
सप्तम अप्रमत्त पुर नाम । पंथ तीन ताके अभिराम ॥ १३॥ गिरे तो छठ्ठे पुलों जाहिं । चढै तो अष्टम पुरके माहिं ॥ मरन करै चौथे पुर आय । ऐसे भेद कहे समुझाय ॥ १४ ॥ अष्टम नाम अपूरव करण । शिवलोचन मधि ताकी धरण ॥ गिरै तो सप्तम पुरहि अखंड । चढै तो नवमें पुर परचंड ॥ १५ मरन करे तो चौथे जाय । ऐसे कथन कह्यो मुनिराय || नवमों नाम अनित्रतकर्ण । पंथ तीन ताके विस्तर्ण ॥ १६ ॥ गिरै तो अष्टम पुरके संग चढ़े तो दशमें होय अभंग ॥ हूँ मरन करें चौथे पुर वीच । तोह भवथिति रहे नगीच ॥ १७
सूक्ष्मः सांपराय
दश कहै। पंथ तीन ताके
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गिरै तौ नवमें पुरकी वाट । च? इकादश उपशम घाट ॥१८॥ इमरन करै चौथै पुर सही । ऐसी रीति जिनागम कही ॥
एकादशम मोह उपशांत । पंथ दोयसिंह कह सिद्धांत ॥१९॥ गिरै तो दशमें पुर निरधार । मरन करे तो चौथै सार ॥ ऐसे भेद जिनागममाहिं गोमठसार ग्रंथकी छांहि ॥२०॥
भाषा करहिं 'भविक' इह हेत । याके पढ़त अर्थ कह देत ॥ र बाल गुपाल पढ़हिं जे जीव । भैया ते सुखलहहिं सदीव ॥२१॥
इति एकादशगुणस्थानकथनम् ।
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अथ कालाष्टक लिख्यते।
दोहा. तिहुं पुरके पुरहूत सव, वंदत शीस नवाय॥ तिहँ तीर्थकर देवसों, बचत नाहिं यमराय ॥१॥ जिनकी भ्रूके फरकतें, कंपत सुरनरवृन्द ।। तेहू काल छिनमें लये, जो योधा सुर इन्द्र ॥२॥ जाकी आज्ञामें रहै, छहों खंडके भूप ॥ ता चक्रीधरको ग्रस, काल महा भयरूप ।। ३ ॥ नारायण नरलोकमें, महा शूर वलवंत ॥ तीन खंड आज्ञा वहै, तिनैहु काल ग्रसंत ॥४॥
औरहु भूप बलिष्ट जे, वसत याहि जगमाहिं। तेहु कालकी चालसों, वचत रंच कहुं नाहिं ॥५॥ ताते काल महावली, करत सवनपै जोर ॥ .
धन धन सिधपरमात्मा, जिह कीनों इहि भोर ॥६॥ Yanw/mPREPARRRRRIDEOMROPEnwew/Opers
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FEWARUPaneprenePenweepesonancompROOR ___ उपदेशपचीसिका.
१४९९ ऐसे काल बलिष्टको, जो जीत सो देव ॥ कहत दास भगवंतको, कीज ताकी सेव ॥७॥ काल वसत जगजालमें, नूतन करत पुरान ।। 'भैया' जिहँ जग त्यागियो,नमहं ताहि धर ध्यान ॥ ८॥
इतिकालाष्टक,
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अथ उपदेशपचीसिका लिख्यते।
दोहा. वीतरागके चरनयुग, वंदो शीस नवाय ॥ कहुं उपदेशपचीसिका, श्रीगुरुके सुपसाय ॥१॥
चौपाई. वसत निगोद काल वह गये। चेतन सावधान नहिं भये ॥ दिन दश निकस बहुर फिरपरना।एते पर एता क्या करना ॥२॥ अनँत जीवकी एकहि काया। उपजन मरन इकत्र कहाया ॥ स्वास उसास अठारह मरना । ऐते पर एता क्या करना ॥२॥ अक्षरभाग अनंतम कह्यो । चेतन ज्ञान इहालों रह्यो।। कौन सकति कर तहां निकरना । एते पर एता क्या करना ॥४॥ पृथिवी अप तेऊ अरु वाय । वनस्पतीमें वस सुभाय ॥ ऐसी गतिमें दुख बहु भरना । एते पर एता क्या करना ॥५॥ केतो काल इहां तोहि गयो। निकसि फेर विकलत्रय भयो । ९.ताका दुख कछु जायन वरना । एते पर एता क्या करना॥६॥
पशुपक्षीकी काया पाई । चेतन रहे तहाँ लंपटाई। विना विवेक कहो क्यों तरना । एते पर एता क्या करना. ॥७॥
इम तिरजंच माहिं दुख सहे । सो दुख किनहूं जाहि न कहे, MORRORPOPORPRESponsparen-do/openPeos
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१५०
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पाप करमतैं इह गति परना । एते पर पता क्या करना ॥ ८ ॥ फिरहू परे नरकके माहीं । सो दुख कैसें वरने जाहीं ॥ क्षेत्र गंधर्ते नाक जु सरना । एते पर एता क्या करना ॥ ९ ॥ अग्निसमान भूमि जहँ कही । कितहू शील महा वन रही ॥ सूरी सेज छिनक नहिं टरना । एते पर एता क्या करना ॥१० परम अधर्मी देव कुमारा । छेदन भेदन करहिं अपारा ॥ तिनके बसतें नाहि उवरना । एते पर एता क्या करना ॥११ रंचक सुख जहँ जियको नाहीं । वसत याहि गति नाहिं अघाहीं देखत दुष्ट महा भय डरना । एते पर एता क्या करना ॥१२॥ पुण्ययोग भयो सुर अवतारा । फिरत फिरत इह जगतमझारा ॥ आवत काल देख थर हरना । एते पर एता क्या करना ॥ १३॥ सुरमंदिर अरु सुखसंयोगा । निशदिन सुख संपतिके भोगा ॥ छिनइक माहिं तहांते टरना । एते पर एता क्या करना ॥ १४ ॥ बहु जन्मांतर पुण्य कमाया । तव कहुं लही मनुप परजाया ॥ तामें लग्यो जरा गद मरना । एते पर एता क्या करना ॥१५॥ धन जोबन सबही ठकुराई । कर्म योगतैं नौनिधि पाई ॥ सो स्वपनांतरकासा बरना । एते पर एता क्या करना ॥१६ निशदिन विषय भोग लपटाना। समुझे नाहिं कौन गति जाना ॥ है छिन काल आयुको चरना । एते पर एता क्या करना ॥१७॥ इन विषयन केतो दुख दीनों । तबहूं तू तेही रस भीनों ॥ नेक विवेक हृदै नहिं धरना । एतेपर एता क्या करना ॥ १८॥ परसंगति केतो दुख पावै । तबहू तोकों लाज न आवै ॥ वासन संग नीर ज्यों जरना । एते पर एता क्या करना ||१९|| देव धर्म गुरु ग्रंथ जानें। स्वपरविवेक हुदै नहिं आनें ॥ क्यों होवै भवसागर
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तरना । एते पर एता क्या करना ॥ २०
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नंदीश्वरदीपकी जयमाला. पांचों इन्द्री अति वटपारे । परम धर्म धन मूसन हारे॥ खांहिं पियहि एतो दुख भरना । एते पर एता क्या करना-२१३ सिद्ध समान न जाने आपा । तात तोहि लगत है पापा.. खोल देख घट पटहिं उघरना । एते पर एता क्या करना॥२२॥ श्रीजिनवचन अमल रस वानी। पीवहिं क्यों नहिं मूढ अज्ञानी। जातें जन्म जरा मृत हरना । एते पर एता क्या करना। जो चेते तो है यह दावो. । नाही बैठे मंगल गावो ॥3 फिर यह नरभव वृक्षन फरना । एते पर एता क्या करना॥२४॥
भया' विनवहि वारंवारा । चेतन चेत भलो अवतारा ॥ ह्र दूलह शिव नारी वरना । एते पर एता क्या करना ॥२५०
दोहा. ज्ञानमयी दर्शन नमयी, चारितमयी स्वभाय । सो परमातम ध्याइये, यह सु मोक्ष उपाय ॥२६॥ सत्रहसो इकतालके, मारगशिर शितपक्ष ॥ तिथि शंकर:गन लीजिये, श्रीरविवार प्रतक्ष ॥ २७॥
इति उपदेशपचीसिका.
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अथ नंदीश्वरद्वीपकी जयमाला ।
- दोहा.. . वंदो श्रीजिनदेवको, अरु वंदों जिन वैन ॥ . जस प्रसाद इह जीवके, प्रगट होय निज नैन ॥१॥ श्रीनंदीश्वर द्वीपकी, महिमा अगम अपार ॥
कहूं तास जय मालिका, जिनमतके अनुसार ॥२॥ tanderPIPPRPAPPORARDPREnepamPORPORN
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ब्रह्मविलास में चौपाई.
एक अरब अरु त्रेसठ कोड़ि | लख चौरासी तापरि जोड़ि ॥ . एते योजन महा प्रमान । अष्टमद्वीप नंदीश्वर जान ॥ ३॥ तामहि चहुं दिशि शिखरि उतंग । तिनको मान कहुं सरवंग ॥ दिशि पूरव गिरि तेरह सही । ताकी उपमा जाय न कही ॥४॥ मध्य एक अंजनके रंग । शिखरि उतंग वन्यो सरवंग ॥ सहस चौरासी योजन मान । धूपरवत देख्यो भगवान ॥ ५ ॥ ताके चहुं दिशि परवत चार । उज्वल वरन महा सुखकार ॥ चौसठि सहस उतंग जु होय । दधिमुख नाम कहावे सोय ६ इक इक दधि मुखपरवत तास । द्वै द्वै रतिकर अचल निवास ॥ इक इक अरुण वरन गिरि मान । सहस चवालिस ऊर्द्ध प्रमान ॥७ इहविधि तेरह गिरिवर गने । ता परि चैत्य अकृत्रिम वने ॥ इक इक गिरिपर इक प्रासाद । ताकी रचना बनी अनाद ॥ ८ ॥ इक जिनमंदिरको विस्तार । सुनहु भविक परमागम सार ॥ गिरिको शिखर वरत तिहिरूप । रत्नमयी प्रासाद अनूप ॥ ९ ॥ इक चैत्यालय बिंव प्रमान । इकसो आठ अनूपम जान ॥ रत्नमणी सुंदर आकार । धनुष पंचसो ऊर्ध्व उदार ॥१०॥ इम तेरह पूरव दिशि छप्पनसो सोरह बिंब अनंत ज्ञान जो आतमराम । सो प्रगढ़हि इह मुद्रा धाम ॥ लोक अलीक विलोकन हार । ता परदेशनि यह आकार ॥१२ अनंत काललों यहीं स्वरूप । सिद्धालय राजै चिद्रूप ॥
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(१) मंदिर.. -
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कहे । ताके भेद जिनागम लहे ॥ सबै । ताकी भावन भाऊं अवै ॥ ११॥
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चारहभावना. सुख अनंत प्रगटै इहि ध्यान । तातै जिनप्रतिमा परधान ॥१३॥ जिनप्रतिमा जिनवरणे कही। जिन सादृशमें अंतर नहीं.॥ सव सुरवृंद नंदीश्वर जाय । पूजहि तहां विविध धर भाय १४ 'भया' नितपति शीस नवाय। वंदन करहि परम गुण गाय ॥ है इह ध्यावत निज पावत सही । तो जयमाल नंदीश्वर कही १५
इति नंदीश्वरजयमाला.
अथ वारहभावना लिख्यते ।
चौपाई. पंच परम पद वंदन करों । मन वच भाव सहित उर धरों ॥ वारह भावन पावन जान । भाऊं आतम गुण पहिचान ॥१॥ थिर नहिं दीखहि नैननि वस्त । देहादिक अरु रूप समस्त ॥ थिर विन नेह कौनसों करों । अथिर देख ममता परिहरों ॥२६ असरन तोहि सरन नहिं कोय । तीन लोकमहिं गधर जोय ॥3 कोऊन तेरो. राखन हार । कर्मनवस चेतन निरधार॥३॥ है अरु संसार भावना एह । परद्रव्यनसों कीजे नेह ॥ तू चेतन वे जड़ सरवंग । तातें तजहु परायो संग ॥ ४॥ एक जीव तूं आप त्रिकाल । ऊरध मध्य भवन पाताल ॥ दूजो कोऊ न तेरी साथ । सदा अकेलो फिरहि अनाथ ॥५ भिन्न सदा पुद्गलते रहै । भवुद्धि” जड़ता गहै। वे रूपी पुद्गलके खंध । तू चिनमूरत सदा अबंध ॥६॥ अशुचि देख देहादिक अंग। कौन कुवस्तु लगी तो संग॥
अस्थी मांस रुधिर गद गेह । मलमूतन लखितजहु सनेह ॥७॥ HoronpranpooranROSCOPEDIAnoopponempoopeat
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అటు ब्रह्मविलासमे
१५४
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आस्रव परसों कीजे प्रीत । तातें बंध वढहि विपरीत ॥ पुद्गल तोहि अपनपो नाहिं | तू चेतन वे जड़ सव आहि ॥ ८ ॥ संवर परको रोकन भाव । सुख होवेको यही उपाय ।। आवे नहीं नये जहां कर्म । पिछले रुकि प्रगटै निजधर्म ॥९॥ थिति पूरी है खिर खिर जाहिं । निर्जरभाव अधिक अधिकाहिं ॥ निर्मल होय चिदानंद आप । मिटै सहज परसंग मिलाप || १० लोकमांहि तेरो कछु नाहिं । लोक आन तुम आन लखांहिं ॥ वह पट दर्शनको सब धाम । तू चिनमूरति आतम राम ॥ ११ दुर्लभ पर दर्बनिको भाव । सो तोहि दुर्लभ है सुनि राव ॥ जो तेरो है ज्ञान अनंत । सो नहिं दुर्लभ सुनो महंत ॥ १२ धर्म सुआप स्वभावहि जान । आप स्वभाव धर्म सोई मान ॥ जब वह धर्म प्रगट तोहि होय । तब परमातम पद लखि सोय १३ सार । तीर्थंकर भावहिं निरधार ॥ लेहिं । तव भवभ्रमन जलांजुलि देहिं १४ अनूप । भावत होहु चरित शिवभूप ॥ सुख अनंत विलसह निशदीस । इम भाख्यो स्वामी जगदीस १५
येही बारह भावन है वैराग महाव्रत 'भैया' भावहु भाव
इति बारह भावना.
अथ कर्मबंध दशभेद लिख्यते । दोहा.
श्री जिनचरणाम्बुजप्रतै, वंदहुं शीस नवाय ॥ कहूं कर्मके बंधको, भेद भाव समुझाय ॥ १ ॥ एक प्रकृति दश विधि बँधै भिन्नभिन्न तंस नाम ॥
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कर्मबंधके दशमेद.
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गुण लच्छन वरनन सुनें, जागहिं आतम राम ॥ २ ॥ वैन्धसमुच्चय भेद ये, उत्कैर्पण जु वढाय ॥ शंकरमन औरहि लसै, अपकर्षण घट जाय ॥ ३ ॥ लावे निकट उदीरणा, संत्ता उदय करंत ॥ 'उपसम और निधत्तं लखि, कर्म निकांचिंत अंत ॥ ४ ॥
चौपाई.
।
प्रथमहि दूजो
मिथ्या अत्रत योग कपाय | बंध होय चहुं परतें आय ॥ थिति अनुभाग प्रकृति परदेश | ए बंधन विधि भेद विशेश ॥५॥ बंध प्रकृति जो होय । समुचैबंध कहावै सोय ॥ उत्कर्पण बंध एह । थितहिं बढाय करै बहु जेह ॥ ६ तीजो संकरमण जु कहाय । औरकी और प्रकृति हो जाय ॥ गतिविन और करम कही । बंघ उदय नाना विधि लही ॥७॥ चौथो अपकर्षण इम थाय । बंध घंटे अथवा गल जाय ॥ पंचम करन उदीरण हेर । ल्यावै निकट उदयमें घेर ॥ ८ ॥ सत्ता अपनी लिये वसंत । पष्टम भेद यहै विरतंत ॥ सप्तम भेद उदय जे देय । थिति पूरी कर बंध खिरेय ॥९॥ अष्टम उपसम नाम कहाय । जहां उदीरन बल न बसाय ॥ नवमों भेद निधत्त जु सोय । उदीरन संक्रमणन होय ॥१०॥ दशमों बंध निकांचित जहां । थिति नहीं बढे घटै नहिं तहां ॥ उदीरण. संक्रमणन और । जिम बंध्यो रस दै तिन ठौर ॥ ११ ए दश भेद जिनागम लहे । गोमठसार ग्रंथमें कहे ॥ समझे धारै जे उर माहिं । तिनके चित्त विकलता नाहिं १२ गुण थानक पैं जहां जो होय । आगम देख विलोकहु सोय ॥
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सब संशय जियके मिट जाय । निर्मल होय चिदातमराय १३
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ब्रह्मविलासमें
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बंधः सकल पुद्गल परपंच । चेतन माहिं न दीसे रंच ॥ लोक अलोक विलोकनवंत । 'भैया' वह पद प्रगट करत॥१४॥
दोहा. ये दश भेद लखे लखहिं, चिदानंद भगवान ॥ जामें सुख सब सास्वते, वेदह सिद्ध समान ॥१५॥
इति कर्मबंधके दशमेदवर्णन।
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अथ सतभंगीवाणी लिख्यते.
दोहा. वंदों श्रीजिनदेवको, वंदों सिद्ध महंत ॥ बंदों केवल ज्ञान जो, लोक अलोक खंत ॥१॥ सप्तभंगवाणी कहूं, जिनआगम अनुसार ॥ जाके समुझत समझिये, नीके भेद विचार ॥२॥
चौपाई. अस्ति नास्ति गुण लच्छनवंत । प्रथम दरब यह भेद धरंत ॥ ये गुण सिद्ध करनके काज । सप्त भंग भाखे मुनिराज ॥शा हूँ प्रथम द्रव्य अस्ति नय एह । नास्ति कहै दूजी नय जेह ॥ तीजी अस्तिनास्ति निहार । चौथी अवक्तव्य नय धार॥४॥ पंचमि अस्तिअवक्तव्य कही। छट्टी नास्तिअक्तव्य लही॥ है इसप्तमि अस्तिनास्तिअवक्तव्य । इनके भेद कहूं कछु अब्ब॥५॥
अस्ति दरबको मूल स्वभाव । नास्ति परणम निपट निनाव ॥ है अथवा और दरवं सो नाहिं । ताहि उपेक्षा नाम कहाहिं ॥६
अस्तिनास्ति गुण एकहि माहि। दुहुगुण द्रवलच्छन उहिराहिं ॥
अस्तिनास्ति विन दवें न होय । नय साधेत भ्रमनहिं कोय||७ TwpROPPERSOAMRAPOORAMAnmommmmm
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१५७३ द्रव्यगुण वचननि कह्यो न जाय। वचन अगोचर वस्तु स्वभाय॥ जो कहुं एक अस्तिता सही। तौ दूजी नय लागै नहीं ॥८॥ जोकहुं नास्तिक गुणदोउ माहि। तौ अस्तिकता कैसे नाहिं ॥ अस्ति नास्ति दोउ एकहि वेर । कही न जाय वचनको फे॥९॥ दुहको एक विचार न होय । इक आगे इक पीछे जोय ॥ कोउ गुण आगे पीछे नाहिं । दोउ गुण एक समयके माहि१० ताते वचन अगोचर दर्व । सातों नय भाखी ए सर्व ॥ नय समुझेते वस्तु प्रमान । नय समझे जिय सम्यकवान ११ । नय नहिं लखै मिथ्याती जीव । तातें भ्रामक रहै सदीव ॥ 'भैया' जे नय जानहिं भेद । तिनके मिटहि सकल भ्रमखेद
इति सप्तमंगीवाणी.
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अथ सुबुद्धिचौवीसी लिख्यते।
दोहा. चरनकमल जिनदेवके, बंदों शीस नवाय ॥ . . कहूं सुबुद्धिचौवीसिके, कछु कवित्त गुण गाय ॥ १॥
कवित्त. निर्वाण सागर . महासाधुसु विमलप्रभ, शुद्धप्रभ श्रीधर जिनेश्वर नमीजिये। सुदत्त अमलप्रभ उद्धर अङ्गिर सिन्धुह एसन्मति पुष्पांजलिके चर्णचित दीजिये। शिवगण उत्साह ज्ञानेश्वर है परमेश्वर, विमलेश्वर यथार्थ नाम नित लीजिये। यशोधर कृष्ण, ज्ञान शुद्धमति सिरीभद्र, अतिक्रान्त शान्तपद नमस्कार कीजिये २
महापद्म सुरदेव सुप्रभ जु स्वयंप्रभ, : सर्वायुध. जयदेव है ए निमल है प्रभा जिनकी. MowenwaromeopanpanwarRRORNOORPORwcom
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ब्रह्मविलासमें चित्तमें चितारिये। उदैदेव प्रभादेव श्रीउदंक प्रश्नकीर्त जयकीर्त्त पूर्णबुद्धि हिरदै निहारिये ॥ निकपाय विमलप्रभ विपुल निर्मल चित्र, गुप्त समाधिगुप्त नाम नित धारिये। स्वयंभू कंदर्प जयनाथ विमलसु देवपाल अनंतवीर्य चौवीसीए आगम जुहारिये ॥३॥
पंच पर्म इष्ट सार महामंत्र नमस्कार, जपै जीव लहै पार है है सागर भौ तीरको । रिद्धको भरै भंडार सिद्धको सुपंथ सार, ,
लब्धिको अनोपचार सार शुद्ध हीरको ॥ कप्टको करै निवारदुष्ट दूर होहिं छार, पुष्ट पर्म ब्रह्मद्वार सुष्ठु शुद्ध धीरको । पापको ई करैप्रहार अष्टकर्म जैतवार, भव्यको यहै अधारज्ञानवल वीरको॥४॥ है महा मंत्र यहै सार पंच पर्म नमस्कार, भौ जल उतारै पार, भव्यको अधार है । विघ्नको विनाश करै, पापकर्म नाश करे। आतम प्रकाश करैः पूरबको सार है ॥ दुख चकचूर कर, दुर्जनको दूर करे, सुख भरपूर करै परम उदार है । तिहूं लोक तारनको आत्मा सुधारनको, ज्ञान विस्तारनको यहै नमस्कार है ॥५॥ । जीव द्रव्य एक देख्यो दूसरो अजीव द्रव्य, गुण परजाय लिये सवै विद्यमान है। देख्यो ज्ञान मधि जिनवर श्री वृषभ नाथ, ताके भेद कहते अनेकही विनान है । देवनके इन्द्र जिते तिनके समूह मिले, वंदै नित्य भाव धर सदा ये विधान है । ताको सदा हमहू प्रणाम शीस नाय करें, जाके गुणधारे मोक्ष मारग, निदान है ॥ ६॥
. अनङ्गशेखर (३२:वर्ण. लघु गुरुके क्रमसे) है नमामि पंच नामको सुध्याय आप धामको, विडार मोह का
मको सुरामकी रटा लई। कुराग दोष टारकें कषायको निवारके, WwwwwwwnwardPERPOSwananda
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....... सुबुद्धिचौवीसी. स्वरूप शुद्ध धारिके निहारकें सुधामई ॥ अनंत.ज्ञान भानसों कि चेतना निधानसों, कि सिद्धकी समानसों सुधार ठीक यों दई ।सुबुद्धि ऐसे आयके अवंधको दिखायके, चटाक चित्त लायक है झटाक झूठ रव्वै गई ॥७॥ 8 प्रकृति आदि सातकी जहां तै ताहि घातकी, तो चिंता कौन है वातकी मिथ्यात्वकी गढी ढई । लखी सुजात गातकी शरीर सात
धातकी, सुया काहु भांतिकी न चेतना कहूं भई ॥ अंधेरी मेट १ रातकी सुजानी वात प्रातकी, प्रवानी जीव जातिकी सुआप चेतना मई। सुबुद्धि ऐसे आयके अवंधको दिखायके, चटाकचित्त लायकै झटाक झूठ रज्वै गई ॥८॥ है कटाक कर्म तोरके छटाक गांठि छोरके, पटाक पाप मोरके तटाक दै मृषा गई । चटाक चिह्न जानिके, झटाक हीय आनके नटाकि नृत्ल भानके खटाकि नै खरी ठई ॥ घटाके घोर फारिके, तटाक बंध टारके अटाके राम धारकें रटाक रामकी जई। गटाक शुद्ध पानको हटाकि आन आनको, घटाकि आप थानको ६ सटाक श्यौवधू लई ॥९॥
मनहरण. (३१ वर्ण) o केऊ फिरै कानफटा, केऊ शीस धरै जटा, केऊ लियें भस्म
वटा भूले भटकत हैं। केज तज जाहिं अटा,केऊ धेरै चेरी चंटा,केऊ पढे पट केऊ धूम गटकत हैं । केऊ तन किये लटा, केऊ महा। हदीस कटा केऊ, तरतटा केऊ रसा लटकत हैं। भ्रम भावतें न हटा हिये काम नाही घटा, विषै सुख रटासाथ हाथ पटकत हैं॥१०५
. छप्पय... . . s. दुविधि परिग्रह त्याग, त्याग पुनि प्रकृति पंच दश।
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ब्रह्मविलास में
गहहिं महाव्रत भार, लहहिं निज सार शुद्ध रस ॥ धरहिं सुध्यान प्रधान, ज्ञान अम्रत रस चक्खहिं | सहहिं परीपह जोर, व्रत निज नीके रक्खहिं ॥ पुनि चढहिं श्रेणि गुण थान पथ, केवल पद प्रापति करहिं । .तस चरण कमल वंदन करत, पाप पुंज पंकति हरहिं ॥ १.१ ॥ कवित्त. ( मनहरण )
भरमकी रीति भानी परमसों प्रीति ठानी, धरमकी बात जानी ध्यावत घरी घरी । जिनकी बखानी वानी सोई उर नीके आनी, निचै ठहरानी दृढ हैके खरी खरी || निज निधि पहिचानी तव भयौ ब्रह्म ज्ञानी, शिव लोककी निशानी आपमें धरी धरी । भौ थिति विलानी अरि सत्ता जु हठानी, तब भयो शुद्ध प्रानी जिन वैसी जे करी करी ॥ १२ ॥
तीनसै वेताल राजु लोकको प्रमान कह्यो, घनाकार गनतीको ऐसो उर आनिये। ऊंचो राजू चवदह देख्यो जिन राज जूने, तामे राजू एक पोलो पवन प्रवानिये ॥ तामें है निगोद राशि भरी घृतघट जैसें, उभे भेद ताके नित इतर सु जानिये । तामै सों निकसि व्यवहार राशि चढै जीव, केई होहिं सिद्ध केई जगमें बखानिये ॥ १३ ॥
छप्पय..
जो जानहिं सो जीव, जीव विन और न जाने । जो मानहिं सो जीव, जीव विन और न मानें ॥ जो देखहि सो जीव, जीव विन और न देखे । जो जीवहि सो जीव, जीव गुण यहै विसेखै ॥
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Headed gedade da ste do qe as gedsas de as dea
सुबुद्धिचौवीसी.
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महिमा निधान अनुभूत युत, गुण अनंत निर्मल लसै । सो जीव द्रव्य खत भवि, सिद्धं खेत सहजहिं वसै ॥ १४॥ कवित्त,
अचेतनकी देहरी न कीजे तासों नेहरी, ओगुनकी गेहरी परम दुख भरी है । याही के सनेहरी न आवें कर्म छेहरी सु, पार्वे दुख तेहरी जे याकी प्रीति करी है | अनादि लगी जेहरी जु देखतही खेहरी तू, यामें कहा लेहरी कुरोगनकी दरी है । काम गजकेहरी सुराग द्वेपके हरी तू, तामें हग़ देहरी जो मिथ्यामति हरी है ॥ १५ ॥
सवैया.
ज्ञान प्रकाश भयो जिनदेवको, इंद्रसु आय मिले जु तहांई । रूपसुवर्ण महाद्युति रत्नके, कोट रचे त्रै अनादिकी नाई ॥ वीस हजार जु पैड़ी विराजत, ताप चढ्यो तिरलोक गुसांई । देखके लोक कहै अवनीपर, सिंधु चढ्यो असमानके तांई ॥ १६ ॥ नीव धेरै शिवमंदिरकी, उरमें कितनी उकतै उपजावै । ज्ञानप्रकाश करै अति निर्मल, ऊरधकी मति यों चित लावै ॥ इन्द्रिन जीतकें प्रीति करै, परमेश्वरसों मन चाह लगावे । देखें निहार विचार यहै, करमें करनी महाराज कहावै ॥ १७ ॥ तोहि इहां रहिबो कहु केतक, पंथमे प्रीति किये सुख स्वै है पोपत जाहिं पियारीसु जानकें, सो तौ नियारीये होतन छै है | तू इम जानत है तनही मम, सो भ्रम दूर करो दुख है । देह सनेह करै मत हंस, गई कर जाहिं निवाहन है है ॥ १८ ॥ कवित्त..
मृग मीन सुजनसों अकारन वैर करे, ऐसे जगमाहिं जीव
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ब्रह्मविलास में
विधना बनाये । काननमें तृन खांहिं दूर जल पीन जांहिं, बसै बनमाहिं ताहि मारनको धाये हैं | जल माहिं मीन रहे काइसों न कछु कहै, ताको जाय पापी जीव नाहक सताये हैं । सज्जन सन्तोष धेरै काइसों न वैर करै, ताको देख दुष्ट जीव क्रोध उपजाये हैं ॥ १९ ॥
अहिक्षितिपार्श्वनाथ की स्तुति कवित.
आनंदको कंद किधों पूनमको चंद किधों, देखिये दिनंद ऐसो नंद अश्वसेनको । करमको हरै फंद भ्रमको करै निकंद, चूरै दुख द्वंद सुख पूरै महा चैनको ॥ सेवत सुरिंद गुनगावत नरिंद भैया, ध्यावत मुनिंद हू पावैं सुख ऐनको। ऐसो जिन चंद करे छिनमें सुछंद सुतौ, ऐक्षितको इंद पार्श्व पूजों प्रभु जैनको ॥ २० ॥
कोऊं कहैं सूरसोमदेव है प्रत्यक्ष दोऊ, कोउ कहै रामचंद्र राखे आवागौनसों । कोऊ कहै ब्रह्मा बडो सृष्टिको करैया यहै, कोऊ कहै महादेव उपज्यो न जोनसों ॥ कोऊ कहै कृष्ण सव जीव प्रतिपाल करै, कोउ लागि रहे हैं भवानीजीके भौनसों । वही उपख्यान साचो देखिये जहाँन वीचि, वेश्याघर पूत भयो | बाप कहै कौनसों ॥ २१ ॥
•
वीतराग नामसेती काम सब होंहि नीके, वीतराग नामसेती धामधन भरिये । वीतराग नामसेती विघन विलाय जाँय, वीत
( १ ) यह कवित्त आगे सुपंथ कुपंथ पचीसी में भी आया है. इसका कारण ऐसा मालूम होता है कि इस सुबुद्धि चौवीसीके आदिमें भूतभविष्यत दो चौवीसीके नमस्कारके दो कवित्त हैं. इनके वीचमें वर्तमान चौवीसीको नमस्कार करनेका कवित्त भी मैयाजीने अवश्य बनाया होगा परन्तु लेखकों की भूलसे कदाचित छूट जानेसे किसी एक महात्माने यह २१ वाँ कवित्त रखकर २४ की संख्या पूरी की होगी. अन्यथा दो जगहँ एकही कवित्तका होना असंभव है ।
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अकृत्रिम चैत्यालयकी जयमाला. राग नामसेती भवसिंधु तरिये ॥. वीतराग नामसेती परम पईवित्र हूजे, वीतराग नामसेती शिववधू परिये । वीतराग नामसम तू नाहिं दूजो कोऊ, वीतराग नाम नित हिरदैमें धरिये ॥२२॥
श्रीराणापुरमंदिरका वर्णनदेख जिनमुद्रा निजरूपको स्वरूप गहै, रागद्वेषमोहको वहाय । डारै पलमें । लोकालोकव्यापी ब्रह्म कर्मसों अबंध वेद, सिद्धको स्वभाव सीख ध्यावे शुद्ध थलमें ॥ ऐसे वीतरागजूके विव है है विराजमान, भव्यजीव लहै ज्ञान चेतनके दलमें । मांझनी ओ, मंडपकी रचना अनूप वनी, राणापुर रत्न सम देख्यो पुण्य
फलमें ॥२३॥ o सुवुधि प्रकाशमें सु आतम विलासमें सु, थिरता अभ्यासमें
सुज्ञानको निवास है। ऊरधकीरीतिमें जिनेशकी प्रतीतिमें सु,कर्मनकी जीतमें अनेक सुख भास है ॥ चिदानंद ध्यावतही निज पद पावतही, द्रव्यके लखावतही देख्यो सव पास है । वीतराग वानी कहै सदा ब्रह्म ऐसें भास, सुखमें सदा निवास पूरन प्रकाश ।
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दोहा. .. यह सुवुद्धि चौवीसिका, रची भगवतीदास ॥ जे नर पढहिं विवेकसों, ते पावहिं शिववास ॥२५॥
इति श्रीसुवुद्धि चौवीसी. . .
हैं .. अथ अकृत्रिमचैत्यालयकी जयमाला। .ए
. . चौपाई... प्रणमहुं परम देवके पाय । मन वच भाव सहित शिरनाय ॥ 'DanpanwRPANWARRORRESPONSOORIAppancanoos
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ब्रह्मविलास में
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अकृत्रिम जिनमंदिर जहां । नितप्रति वंदन कीजें तहां ॥ १ ॥ प्रथम पताल लोकविस्तार । दश जातिनके देव कुमार ॥ तिनके भवन भवन प्रति जोय । एक एक जिनमंदिर होय ॥ २ ॥ असुर कुमारनके परमान । चौसठ लाख चैत्य भगवान || नाग कुमारनके इम भाख । जिनमंदिर चौरासी लाख ॥ ३ ॥ हेम कुमारनके परतक्ष । जिनमंदिर हैं बहतर लक्ष ॥ विदुत कुमारनके भवनाल । लक्ष छिहत्तर नमूं त्रिकाल ॥ ४ ॥ सुपर्ण कुमारनके सब जान । लक्ष बहत्तर चैत्य प्रमान ॥ अगनि कुमारनके प्रासाद । लक्ष छिहत्तर बने अनाद ॥ ५ ॥ बात कुमार भवन जिनगेह । लक्ष छिहत्तर वंदहुं तेह || उदधि कुमार अनोपमधाम । लक्ष छिहत्तर करूं प्रणाम ॥ ६ ॥ दीप कुमार देवके नांव । लक्ष छिहत्तर नमुं तिहँ ठांव ॥ लक्ष छयानवें दिक्क कुमार । जिनमंदिर सो है जैकार ॥ ७ ॥ ये दश भवन कोटि जहँ सात । लक्ष बहत्तर कहे विख्यात तिन जिनमंदिरको त्रैकाल | वंदन करूं भवन पाताल ॥ ८ ॥ मध्य लोक जिन चैत्य प्रमान । तिनप्रति बंदों मनधर ध्यान पंचमेरु अस्सी जिन भौन । तिनकी महिमा बरने कौन ॥ ९ ॥ वीस बहुर गजदंत निहार । तहां नमूं जिन चैत्य चितार ॥ तीस कुलाचल पर्वत शीस । जिन मंदिर बंदों निशदीस ॥१०॥ विजयारध पर्वतपर कहे। जिन मंदिर सौशत्तर लहे ॥ शुरद्रुमन दश चैत्य प्रमान । वंदन करों जोर जुगपान ॥ ११ ॥ श्रीवक्षार गिरहिं उर धरों । चैत्य असी नित वंदन करों ॥ मनुषोत्तर परबत चहुं ओर । नमहूं चार चैत्य करजोर ॥ १२॥
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kawanpeopramoonawanRYOopenwwwRAPOOR अकृत्रिम चत्यालयकी जयमाला.
१६५ और कहूं जिनमंदिर धान । इक्ष्वाकारहिं चार प्रमान ॥ है कुंडलगिरिकी महिमा सार । चैत्य जु चार नमूं निरधार ॥१३॥
रुचिकनाम गिरिमहा बखान। चैत्य जु चार नम उर आन ॥ १ नंदीश्वर वावन गिरराव । वावन चैत्य नमहुं धरभाव ॥१४॥
मध्यलोक भविके मन भावन। चैत्य चारसौ और अठावन ॥ है तिन जिन मंदिरको निशदीसा वंदन करों नाय निज शीस ॥१५॥ न्यंतर जाति असंखित देव । चैत्य असंख्य नमहं इह भेव ॥ ज्योतिष संख्याते अधिकाय । चैत्य असंख्य नमूं चितलाय॥१६॥ अव सुरलोक कहूं परकाश । जाके नमत जाहिं अघनाश ॥1 प्रथम स्वर्ग सौधर्म विमान । लाख वतीस:नमूं तिहँ थान ॥ १७॥ में दूजो उत्तर श्रेणि इशान । लक्ष्य अठाइस चैत्य निधान ॥ ॥ इतीजो सनत कुमार कहाय । वारह लाख नमूं धर भाय ॥१८॥
ो स्वर्ग महेन्द्र सुठामि । लाख आठ जिन चैत्य नमामि हैं ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर दोय । लाख च्यार जिन मंदिर होय ॥१९॥ में लांतव और कहूं कापिष्ट । सहस पचास नमूं उत किष्ट ॥
शुक्रर महा शुक्र अभिराम। चालिस सहसनि करूं प्रणाम २० सतार सहस्रार सुर लोक । पट सहस्र चरनन द्यों धोक ॥
आनत प्राण आरण अच्युत् । चार स्वर्गसे सात संयुत्त ॥२१॥ है प्रथमहि त्रैव चैत्य जिन देव । इकसो ग्यारह कीजें सेव ॥ ६ मध्यग्रेव एकसो सात । ताकी महिमा जग विख्यात २२ में उपरि अव निन्दै अरु एक । ताहि नमूं धर परम विवेक ॥
नव नवउत्तर नव प्रासाद । ताहि नमूं तजिके परमाद ॥२३॥ है सबके ऊपर पंच विमान । तह जिनचैत्य नमूं धरध्यान॥
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- ब्रह्मविलासमें है लख चौरासी .. मंदिर दीस । सहस सत्याणव अरु तेईस ॥ तीन लोक जिन भवन निहार । तिनकी ठीक कहूं उरधार॥२५॥ आठ कोड अरु छप्पन लाख । सहस सत्याणव ऊपर भाख ॥ चहुसे इक्यासी जिन भौन । ताहि नमूं करि चिन्तौन॥२६॥ धनुष पंचसो विवप्रमान । इकसौ आठ चैत्य प्रति जान॥ नव अरब्ब अरु कोटि पचीस । त्रेपन लाख अधिक पुनिदीस २७
सहस सताईस नवसे. मान । अरु अडतालीस विंव प्रमान | १. एती जिन प्रतिमा गन लीजे । तिनको नमस्कार नित कीजे २८ जिनप्रतिमा जिनवरके भेश । रंचक फेर न कह्यो जिनेश ॥
जो जिनप्रतिमा सो जिनदेव । यहै विचार करै भवि सेव ॥२९ है। है अनंत चतुष्टय आदि अपार । गुण प्रगटै इहि रूप मझार ॥ ताते भविजन शीस नवाय । वंदन करहियोग त्रयलाय॥३०॥ है
अकृत्रिम अरु कृत्रिम दोय । जिन.प्रतिमा चंदो नित सोय।। १.वारंवार शीस निज नाय । वंदन करहुं जिनेश्वर पाय ३१ ॥
सत्रहरी पैंतालिस सार । भादों सुदि चउदश गुरुवार ॥ रचना कही जिनागम पाय । जैजैजै त्रिभुवनपतिराय ॥३२॥
दोहा. दक्षलीन गुनको निरख; मुरख मीठे वैन । 'भैया' जिनवानी सुने, होत सबनको चैन ॥ ३३॥
. इति श्रीअकृत्रिम चैत्यालयोंकी जयमाला. अथ चवद्हगुणस्थानवर्तिजीवसंख्यावर्णन लिख्यते. . . . . . दोहा. ..
वीतरागके चरनयुग, वंदों दोउ करजोर ॥ . . : कहूं.जीव गुणथानके, अष्टकर्म दलभोर ॥१॥ WORoopesappenPORNPanoramanwar
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चचदहगुणस्थानवर्त्ति जीवसंख्यावर्णन.
जिहँ चलवो जिह पंथको; सो ढूंढै बहु साथ ॥ तैसे पंथिक मोक्षके, ढूंढ लेहिं जिननाथ ॥ २ ॥ चौपाई.
चौदह गुण थानक परमान । जियकी संख्या कहीं बखान ॥ इहि मगच मुकत सो होय । रहे अर्द्ध- पुद्गललों कोय ॥ ३ ॥ प्रथम मिथ्यात्व नाम गुणथान । जीव अनंतानंत प्रमान ॥ तिनके पंच भेद विस्तार । वरनों जिन आगम अनुसार ५ ॥ एक पक्ष जो गहिकै रहें । दूजी नय नाहीं सरद हैं || वो: मिथ्याती मूरख जीव । ज्ञानहीन ते कहें सदीव ॥ ५ ॥ जिन आगमके शब्द उथाप । थाप निजमति वचन अलाप ॥ सुजस हेत गुरुतर मनधरै । सो विपरीती भवदुख भरे ॥६॥ देव कुदेव न जाने भेव । सुगुरु कुगुरुकी एकहि सेव ॥ नमै भगतिसों विना विवक । विनय मिथ्याती जीव अनेक ॥७॥ भांति भांतिके विकलप गहै । जीव तत्त्व नाहीं सरद है ॥ शून्य हिये डोलै हैरान । सो मिथ्याती संशयवान ॥ ८ ॥ गंहल रूप वरतै परिणाम । दुखित महान न पावै धाम ॥ जाको सुरति होय नहिं रंच । ज्ञानहीन मिथ्याती पंच ॥ ९ ॥ दोहा.
इनहि पंच मिथ्यात्व वश, जीव वसै जगमाहिं ॥
इनहिं त्याग ऊपर चढे, ते शिवपथिक कहाहिं ॥ १० ॥
सासादन गुन धानसों, अरु अयोग परजंत ॥ उत्कृष्टी संख्या कहूं, भाखी श्रीभगवन्त ॥ ११ ॥ चौपाई.
सासादन गुणथानक नाम । बावन कोटि जीव तिहँ ठाम ॥
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ब्रह्मविलासमें एक अरब अरु कोटि जु चार । मिश्रनाम तीजै उरधार ॥१२॥ 3 अनत है चौथो गुणवंत । सात अरव जिय तहां वसंत ॥
पंचम देशविरतपुर कहे । तेरह कोटि जीव जह लह॥१३॥ पंच कोटि अरु त्राणवलाख । सहस अठ्याणवे ऊपरि भाख ॥ द्वयसो छह जिय छठे थान । परमादी मुनि कहे बखान||१४|| अप्रमत्त सप्तम परतक्ष । कोटि दोय अरु छयानव लक्ष। सहस निन्याणव इकसो तीन । एते मुनि संयम परवीन ॥१५॥ उपसम श्रेणि चढे गुणवान । अष्टम नवम दशम गुण थान। द्वै द्वै सौं निन्याणव कहे । अठ सत्ताणव सवसरदहे ॥१६॥ अष्टम क्षपक पंथ जिय कोय । शतक पंच अठाणव होय ॥ नवमें गुण थानक जिय जवै । शतक पंच अठाणव सर्वे ॥१७॥ दशमें गुण थानक मुनिराय । शतक पंच अठाणव थाय ।। एकादश श्रेणी उपशंत । द्वैसौ अरु निन्याणव तंत ॥१८॥ द्वादशमों गुण क्षीण कपाय । पंच अगणव सब मुनिराय॥ ॐ अव तेरहमें केवल ज्ञान । तिनकी संख्या कहूं वखान॥१९॥ लाख आठ केवलि जिन सुनो । सहस अगणव ऊपर गुनो, शतक पंच अरु उपर दोय । एते श्री केवलि जिन होया।२० अव चौदम अयोग गुण थान | पंच अठवाण सव निर्वान ।। तेरह गुण थानक जिय लहूं । सवकी संख्या एकहि कहूं॥२१॥ आठ अरब सतहत्तर कोड़ । लाख निन्याणव ऊपर जोड़ सहस निन्याणव नव सौ जान । अरुसत्याणव सवपरमाना॥२२॥
जव लॉ जिय इह थानक माहि। तव लो जिय जग वासि कहाहि॥ है इनहि उलंघि मुकतिमें जाहिं । काल अनंतहि तहां रहाहि।२३॥ है
सुख अनंत विलसहिं तिहँ थान। इहि विधि भाख्यो श्रीभगवान SonawanappPRDARPAPPAPARWORawonwanaanwarta
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.............. पंद्रह पात्रकी चौपई.... में भैया सिद्ध समान निहार । निजघट माहि वहै पद धारा॥२४॥
संवत सत्रह संतालीस । मारगसिर दशमी शुभ दीस ॥ , मंगल करन महा सुखधाम । सवसिद्धनप्रति करूंप्रणाम ॥२५॥
इति श्रीशिवपंथ पचीसिका।
अथ पन्द्रह पात्रकी चौपाई लिख्यते.
दोहा. नमहं देव अरहंतको, नमहुं सिद्ध शिवराय ॥ नमहं साधुके चरनको, योग त्रिविधिके लाय ॥१॥ पात्र कुपात्र अपात्रके, पंद्रह भेद विचार ॥ ताकी कछु रचना कहूं, जिन आगम अनुसार ॥२॥ तीन पात्र उत्तम महा, मध्यम तीन वखान ।। तीन पात्र पुनि जघन है, ते लीजे पहिचान ॥ ३ ॥ तीन कुपात्र प्रसिद्ध हैं, अरु अपान पुनि तीन ॥ ये सब पन्द्रह भेद हैं, जानहु ज्ञान प्रवीन ॥४॥
चौपाई. उत्तम माहिं महा अरु श्रेष्ठ । तीर्थंकर कहिये उत्कृष्ट ।।
मुनि मुद्रामें लेहिं अहार । वह दातार लहै भव पार ॥५॥ हे उत्तम माहिं मध्यके अंग । श्रीगणधर वरने' सरवंग ॥
चार ज्ञान संयुक्त प्रधान । द्वादशांगके करहिं वखान ॥६॥ उत्तम माहि जघन्य जु होय । सामान्यहि मुनि वरने सोय ॥ दर्चित भावित शुद्ध अनूप । परम दयाल दिगम्बर रूप ॥७॥ है मध्यम पात्र अणुव्रत धार। तिनके तीन भेद विस्तार ॥
दवित भावित गुण संयुक्त । रहै पाप किरियासों मुक्त ॥ How areanpowenwonRecharpoORADARADIONanooni
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ब्रह्मविलासमे . है उत्तम ऐलक श्रावक पास । एक लंगोटी परिग्रह जास॥
मठ मंडपमें करहि निवास । एकादशम प्रतिज्ञा भास ॥९॥
दूजो श्रावक क्षुल्लक नाम । कुछ अधिको परिग्रह जिहि ठाम।। इपीछी और कमंडल धरै । मध्यम पात्र यही गुणवरै॥१०॥
अरु दश प्रतिमा धारी जेह । लघु पात्रनमें वरने तेह ॥ इह विधि यह पंचम गुण थान। मध्यम पात्र भेद परवान ॥१॥ अब लघु पात्र कहूं समुझाय । उत्तम मध्यम जघन कहाय ॥ उत्तम क्षायिक समकिंतवंत । जिनके भावनको नहि अंत॥१२॥ है मध्यम पात्र'सु उपसम धार। जिनकी महिमा अगम अपार ॥ वेदक समकित जाके होय । लघुपात्रनमें कहिये सोय ॥१३॥ तीन कुपात्र मिथ्याती जीव । द्रव्यलिंग जो धरहिं सदीव ॥ है ज्ञान विना करनी बहु करै । भ्रमिभ्रमि भवसागरमें परै॥१४॥ मुनिकी सम मुद्रा निरधार । सहै परीसह बहु परकार ॥ जीव स्वरूप न जाने भेव । द्रव्य लिंगी मुनि उत्तम एव॥१५ ६ मध्यम पात्र सु श्रावक भेष । दर्वित. किरियां करै विशेष ।।
अन्तर शून्य न आतम ज्ञान । मानत है निजको गुणवान ॥१६
जघन्य कुपात्र कहूं विख्यात । जाके उर वरतै मिथ्यात ॥ इसमकितकीसी ऊपर रीति । अंतर सत्य नही परतीति ॥१७॥ ६ कहूं अपात्र दुई विधि भ्रष्ट :दर्वित भावित क्रिया अनिष्ट ॥ परिग्रहवंत कहावैः साधु । मिथ्यामत भाखै अपराध ॥१८॥ श्रावक आप कहै जगमाहिं । श्रावकके गुण एकह नाहि ॥ भक्ष्याभक्ष्य न जाने भेद । मध्य अपात्र करै बहु खेद ॥१९॥ जघनं अपांत्र यहै विरतंत । कहैं आपको समकितवंत ॥ निहचै अरु नाही व्यवहार । दर्वितभावित दुहं विधि छारा॥२० &cowancROPROPORARomeonomnp
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ब्रह्मा ब्रह्म निर्णय चतुर्दशी. दर्वित गुण समकितके जेह | ग्रंथनमें बहु बरने तेह || तिहँ माफिक नाही जिहँ चाल । ते मिथ्याती जीव त्रिकाल ||२१|| भावित समकित जीव सुभाय । सो निहचै जानै मुनिराय ॥ कै जाने जो वेदे जीव । ऐसें गणधर कहें सदीव ॥ २२ ॥ दोहा. इहविधि पन्द्रह पात्रके, गुण निरखै गुणवंत ॥ यथा अवस्थित जानके, धारहिं हिरदै संत ॥ २३ ॥ निज स्वभाव रसलीन जे, ते पहुँचे शिव ओर । मिथ्याती भटकत फिरें, विनवें दास किशोर ॥ २४ ॥ इति पन्द्रह पात्रकी चौपई.
अथ ब्रह्मा ब्रह्म निर्णय चतुर्दशी लिख्यतेः दोहा.
असिआउसा जु पंचपद, बंदों शीस नवाय ॥ कछु ब्रह्मा अरु ब्रह्मकी, कहूं कथा गुणगाय ॥ १ ॥ ब्रह्मा ब्रह्मा सब कहै, ब्रह्मा और न कोय | ज्ञान दृष्टि घर देखिये, यह जिय ब्रह्मा होय ॥ २ ॥ ब्रह्मा के मुखचार हैं, याहूके सुख चार ॥ आँख नाक रसना श्रवण, देखहु हिये विचार ॥ ३ ॥ आँख रूपको देखकर, ग्रहण करै निरधार ॥ रागीपी आतमा, सबको स्वादनहार ॥ ४ ॥ . नाक सुवास कुवासको, जानत है सब भेद ॥ राचै विरचे आतमा, यों मुखबोलें वेद ॥ ५ ॥ रसना पटरंस भुंजती, परी रहै मुख मांहि ॥ रीझे खीजै आतमा, मुखयातें ठहराहिं ॥ ६ ॥
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ब्रह्मविलासमें श्रवण शब्दके ग्रहणको, इष्ट अनिष्ट निवास ॥ मुख तो सोही प्रगट है, सुखदुख चाखे तास ॥७॥ येही चारों मुख बने, चहुं मुख लेय अहार ।। तातें ब्रह्मा देव यह, यही सृष्टि करतार ॥ ८॥ हृदय कमलपर वैठिके, करत विविधि परिणाम ॥ कर्त्ता नाही कर्मको, ब्रह्मा आतम राम.॥९॥ चार वेद ब्रह्मा रचे, इनहू तजे कपाय || शुद्ध अवस्था ये भये, यह विन शुद्धि कहाय ॥१०॥ नाना रूप रचें नये, ब्रह्मा विदित कहान । नाम कर्मजिय संगलै, करत अनेक विनान ॥११॥ ब्रह्मा सोई ब्रह्म है, यामें फेर न रंच ॥ रचना सव याकी करी, ताते कह्यो विरंचे ॥१२॥ जेते लक्षण ब्रह्मके, ते ते ब्रह्मा माहि ॥ ब्रह्मा ब्रह्म न अंतरो, यों निश्चय ठहराहि ॥१३॥ जो जानै गुण ब्रह्मके, सो जानै यह बात ॥ 'भैया'थोरे कथनमें, कही कथा विख्यात ॥ १४ ॥
इति ब्रह्मा ब्रह्म निर्णय चतुर्दशी.
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अथ अनित्य पचीसिका लिख्यते।
कवित्त. है नर लोकनके ईश नाग लोकनके ईश, सुरलोकहूके ईश,
जाको ध्यान ध्यावही । नाय नाय शीस जाहि वंदत मुनीश नित, अतिशै चौतीस ओ अनंत गुण गावही ॥ कौन कर जाकी
१(ब्रह्मा) (२) जीव (३) ब्रह्मा। . • meanpanPROGRAMMARRIORPORAParmarwana
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अनित्य पचीसिका.
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रीस कर्म अरि डारै पीस, लोकालोक जाहि दीस पंथको बतावही । ताके चर्ण निश दीश बंदै भविनाय शीस, ऐसे जगदीश पुण्यवंत जीव पावही ॥ १ ॥
दोहा .
परयो कालके गाल में, मूरख करै गुमान ॥
देहै छिनमें दाव जो, निकस जांहिंगे प्रान ॥ २ ॥ कवित्त.
मिथ्यामत नासवेको ज्ञानके प्रकाशवेको, आपापर भासचेको भानसी वखानी है। छहों द्रव्य जानवेको वंधविधि भान वेको, आपापर ठानवेको परम प्रमानी है | अनुभो बतायवेको जीवके जतायचेको काहु न सतायवेको भव्य उर आनी है । जहाँ तहाँ तावेको पार उतारवेको, सुख विस्तारवेको यहै जिनवा - नी है ॥ ३ ॥
आज काल जम लेत है, तू जोरत है दाम ॥
लक्ष कोटि जो धर चलै, ऐहै कौनै काम ॥ ४ ॥ . कवित्त,
पंच वर्ण वसनसो पंच वर्ण धूलि शाल, मान थंभ सत्य वैन देखे मान नाश हैं । दयाको निवास सोही वेदीको प्रकाश लशै, रूपेको जुकोट सु तौ नो करम भास है । द्रव्य कर्म नाम हेम कोट मध्य राजत है, रतनको कोट भाव कर्मको विलास है। ताके मध्य चेतन सु आप जगदीस लसै, समोसर्न ज्ञानवान देखे निजपास है ॥ ५ ॥
लागो है जम जीवको, बोलत ऐसें गाजि ॥
आज कालमें लेत हूं, कहाँ जाहुगे भाजि ॥ ६ ॥
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ब्रह्माविलासमे
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देखहुरे दच्छ एक बात परतच्छ नयी, अच्छनकी संगति विचच्छन भुलानो है । वस्तु जो अभच्छ ताहि भच्छत है रैन दिन, पोषवेको पच्छ करे मच्छ ज्यों लुभानो है ॥ विनाशीक लच्छ है ताहि चच्छुसों विलोकै थिर, वहै जाय गच्छ तब फिरै ज्यों है दिवानो है। स्वच्छ निज अच्छको विलच्छकै न देखें पास, मोह, जच्छ लागे वच्छ ऐसो भरमानो है ॥ ७॥
जगहि चलाचल देखिये, कोउ सांझ कोउ भोर ॥
लाद लाद कृत कर्मको, ना जानों किहि ओर ॥ ८॥ नरदेह पाये कहा पंडित कहाये कहा, तीरथके न्हाये कहा ए तीर तो न जैहै रे । लच्छिके कमाये कहा अच्छके अघाये कहा, है छत्रके धराये कहा छीनता न ऐहै रे ॥ केशके मुंडाये कहा भेषके बनाये कहा, जोवनके आये कहा जराहू न खैहै भ्रमको विलास कहा दुर्जनमें वास कहा, आतम प्रकाश विन पीछे पछितहै रे ॥९॥
दुःखित सब संसार है, सुखी लसै नहिं कोय ॥ ए एक सुखित जिन धर्म है, जिहँ घट परगट होय ॥१०॥ । नरदेह पाये कहो कहा सिद्धि भई तोहि, विष सुख सेये सब है सुकृत गमायो है । पंच इन्द्रि दुष्ट तिन्हें पुष्टकर पोष राखै, है
आय गई जरा तब जोर विललायो है ॥ क्रोध मान माया लोभ चारों चित रोक बैठे, नरक निगोदको संदेसो वेग आयो है। खाय चल्यो गांठको कमाई कोडी एक नाहिं, तोसो मूढ दूसरो न ढूंढ्यो कहूं पायो है ॥ ११॥ है जाके परिग्रह बहुत है, सो बहु दुखके माहिं ॥
विन परिग्रहके त्यागते, परसों छुटै नाहि ॥ १२॥ Www/ammonwanemewasvaroppeppenpanwar
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अनित्य पचीसिका.
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थानी हैके मानी तुम थिरता विशेष इहां, चलवेकी चिंता है कछू है कि तोहि नाहिने । जोरत हो लच्छ बहु पाप कर रैन दिन, सो तो परतच्छ पांय चलवो उवाहिने ॥ घरीकी खबर नाहिं सामो सौ वरप कीजै, कौन परवीनता विचार देखो काहिने । आतमके काज विना रज सम राज सुख, सुनो महाराज कर कान किन ? दाहिने ॥ १३ ॥
शयन करत है रयनको, कोटिध्वज अरु रंक ॥ सुपने में दोऊ एकसे, वरतें सदा निशंक ॥ १४ ॥ मात्रिक कवित्त.
नटपुर नाव नगर इक सुंदर, तामें नृत्य होंहिं चहुं ओर । नायक मोह नचावत सबको, ल्यावत स्वांग नये नित जोर ॥ उछरत गिरत फिरत फिरकी दै, करत नृत्य नानाविधि घोर । इहि विधि जगत जीव सब नाचत, राचत नाहिं तहां सु किशोर ॥ १५ ॥ कर्मन चस जीव है, जहँ खँचे तह जाय ॥ ज्यों हि नचावे त्यों नचे, देख्यो त्रिभुवनराय ॥ १६ ॥ मात्रिक कवित्त.
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इंद्र हरे जिहँ चन्द्र हरे, सुरवृन्द्र हरे असुरादिक जोय । ईश हरे अवनीस हरे, चक्रीश हरे बलि केशव दोय ॥ शेष हरे पुर देश हरे सब, भेस हरे थितिकी गत खोय । दास कह शिवरास विना, इहि काल बलीसौं बली नहिं कोय ॥ १७ एक धर्म जिनदेवको वसै जासु उर माहिं ॥ ताकी सरबर जगतमें, और दूसरो नाहिं ॥ १८ ॥
कवित्त.
पूरवही पुण्य कहूं किये हैं अनेक विधि, ताके फल उदै आज
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ब्रह्माविलासमें
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नर देही पाई है। इहां आय विषै रस लाग्यो अति नीको तोहि, है ताके संग केलि करै यहै निधि पाई है. ॥ आगें अब कहा गति है है है चिदानंद राय, चलवेकी थिति सांझ भोर माहि आई है। साथ कौन संबल न सत्तू कछु लेत मूढ, आगे कहा तोहि सुख सेज ले विछाई है ॥ १९॥
द्वै द्वै लोचन सब धरै, मणि नहिं मोल कराहि ॥ ह सम्यकदृष्टी जोहरी, विरले इहि जगमाहिं ॥ २० ॥
कवित्त. वर्ष सौ पचास माहिं एते सव मरजाहि, जे ते तेरी दृष्टिविपक देखतु है बावरे। इनमेंको कोऊ नाहिं बचवेको काल पाँहि, राजा रंक क्षत्री और शाह उमराव रे । जमहीकी जमा मांहि घरी पल चले जाहिं, घटै तेरी आव कछु नाहिं कोउपावरे । आजकाल्हि ए तोहूको समेट काल गाल माहि, चावि जैहै चेत देख पीछे नाहिं है दावरे ॥२१॥
जो वानी सर्वज्ञकी, तामें फेर न सार ॥ कल्पित जो काहू कही, तामें दोप अपार ॥ २२॥ जाके होय क्रोध ताके वोध को न लेश कहूं, जाके उर मान ताके गुरु को न ज्ञान है । जाके मुख माया वसै ताके पाप केई. लशै, लोभके धरैया ताको आरतको ध्यान है ॥ चारों ये कपाय ।
तौ दुर्गति ले जाय 'भैया, इहां नवसाय कछु जोरवल पान ह है। आतम अधार एक सम्यक प्रकार लशै, याहीतें उधार निज है थान दरम्यान है ॥ २३॥
आप निकट निज हुगनितें, विकट चर्म हग दोय ॥ र जाके हग जैसें खुलै, तैसो देखै सोय ॥२४॥ PppoPPROOPPOSITERPROmnasana
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१७७ ए अरे भव्य प्रानी जो तें जाति निज जानी तो तू, लखि जिनयानी जामें मोक्षकी निसानी है । काहुले कुबुद्धि सानी यामें है, र विपरीत आनी, ताहि जो पिछानी तो तू भयो ब्रह्म ज्ञानी है।
जाके नांव और ठानी द्वादशांगकै वखानी, वपुरे अज्ञानी ताकी बुद्धि भरमानी है । ठौर ठोर कानी जामै रहै नाहिं सत्य पानी, एकरनके मनमानी कलिकी कहानी है ॥२५॥
___ दोहा. यह अनित्यपच्चीसिके, दोहा कवित निहार ॥ - भैया चेतह आपको, जिनवानी उर धार ॥ २६ ॥ .
इति अनित्यपचीसिका.
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अथ अष्टकमकीचौपई लिख्यते। ..
दोहा. नमो देव सर्वज्ञको, वीतराग जस नाम | मन बच शीस नवाइके, करों त्रिविधिपरणाम ॥१॥
चौपाई. एक जीव गुण धेरै अनंत । ताको कछु कहिये विरतंत ॥
सब गुण कर्म अछादित रहे । कैसे भिन्न भिन्न तिहँ कहैं ॥२॥ से तामें आठ मुख्य गुन कहे । ताप आठ कर्म लगि रहे ॥
तिन कर्मनकी अकय कहान । निह. तो जाने भगवान ॥३॥ है कछु व्यवहार जिनागम साख । वर्णन करों यथारथ भाख ॥ ज्ञानावरन कर्म जव जाय । तव निज ज्ञान प्रगट सवथाय४ ताके. पंच भेद विस्तार । तथा अनंतानंत अपार ॥ जैसे कर्म घटहि जिह थान । तेसो तहाँ प्रगट है ज्ञान ॥५॥ avanewanapanpanpeparponomopanseenpanwaroo
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ब्रह्मविलासमें जैसो ज्ञान प्रगट है जहाँ । तैसी कछु जानै जिय तहाँ ॥ दूजो दर्शआवरण . और । गये जीव देखहिं सब और ॥६॥2 ताकी नौ प्रकृती सब कही। तामें शक्ति सवहि दवि रही ॥ ( जैसो घटै आवरन जोय । तैसो तहँ देखै जिय सोय॥७॥ है निरावाध गुण तीजो अहै । ताहि वेदनी ढांके रहै ।। साता और असाता नाम । तामहि गर्मित चेतन राम 108 जैसी द्वै प्रकृती घट जाय । तैसी तहँ निर्मलता थाय ॥ जबहि वेदनी सब खिर जाय । तब पंचमि गति पहुंचे आय॥९ चौथो महा मोह परधान । सब कर्मनमें जो वलवान | समकित अरु चारित गुणसार । ताहि ढकै नाना परकार॥१०॥ । जहँ जिम घटहि मोहकी चाल । तहँ तिम प्रगट होय गुणमाल |
ज्यों ज्यों घटै मोह जियपास । त्यों त्यों होय सत्य गुणवास ११ ताकी वीस आठ विधि कही । यथा योग्य थानक सरदही । जगमें जंतु बसै चिरकाल । सोसब मोह अछादित बाल १२ मोह गये सब जानै मर्म । मोह गये प्रगटै निजधर्म
मोह गये केवलिपद होय । मोह गये चिर रहै न कोय॥१३॥ ई पंचम आयुकर्म जिन कहै । अवगाहन गुण रोके रहै ॥1
जब वे प्रकृति आवरण जाहिं । तब अवगाहन थिर ठहराहिं १ ताकी चार प्रकृति जगनाम । जाके गये लहै शिवधाम ॥ नाम कर्म षष्ठम विरतंत । करहि जीवको मूरतिवंत॥१५॥ अमूरतीक गुण जीव अनूप । तापै लगी प्रकृति जड़रूप ॥ पुद्गल लगै कहावे जीव.। एकेंद्रयादिक पंचसदीव ॥१६॥ उदय योग नाना · परकार । चेतन वसै शरीरमझार ॥ है जैसें तनमें करहि निवास । तैसो नाम लहै जिय तास॥१७॥ en een beroerende
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अकर्मकी चौपाई.
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तनकी संगति कष्ट अपार । सहे जीव संकट बहु वार ॥ करे । ताके दुख कहु को उच्चरै ॥ १८ ॥ कही । जगत मूल येही बनि रही ॥
जामन मरन अनंता प्रकृति त्राणचे ताकी जब ये प्रकृति सबहि खिरजाहिं । तवहि अरूपी हंस कहाहिं ॥ १९ ॥ सप्तम गोत करम जिय जान । ऊंचनीच जिय यही बखान ॥ गुण जु अगुरु लघु ढाँके रहें । तातें ऊंचनीच सब कहें ॥ २० ॥ जब ये दोड आवरन जांहिं । तव पहुंचे पंचभिगतिमाहिं ॥ अष्टम अन्तराय अरि नाम । वल अनंत ढाँके अभिराम ||२१|| शकति अनंती जीव सुभाय । जाके उदै न परगट थाय ॥ ज्यों ज्यों घटहि आवरण कही । त्यों त्यों प्रगट होय गुण सही २२ पांच जातिके विकट पहार । याकी ओट सबै सुख सार ॥ इन विन गये न पाव मूल । इन विन गये रह्यो जिय भूल २३ ये सही सुखके दरवान । येही सबके आगेवान ॥ जब ये अंतराय मिट जाहिं । तव चेतन सब सुखके माहि ||२४||
दोहा.
यही आठ कर्ममल, इनमें गर्भित हंस |
इनकी शकति विनाशक, प्रगट करहि निज वंस ॥ २५ ॥ इहिविधि जीव अनन्त सव, वसत यही जगमाहिं ॥ इनहि त्याग निर्मल भये, ते शिवरूप कहाहिं ॥ २६ ॥ 'भैया' महिमा ब्रह्मकी, ऐसे वनी अनाद ॥ यथा शक्ति कछु वरणयी, जिन आगम परसाद ॥ २७ ॥ इति अष्टकर्मकी चौपई.
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ब्रह्मविलास में
अथ सुपंथकुपंथपचीसिका लिख्यते । • दोहा. केवल ज्ञान स्वरूपमें, राजत श्री जिनराय ॥ तास चरन वंदन करहूं, मन वच शीस नवाय ॥ १ ॥ कहूं सुपंथ कुपंथ के, कवित पचीस वखान ॥ जाके समुझत समझिये, पंथ कुपंथ निदान ॥ २ ॥ कवित्त.
तेरो नाम कल्पवृच्छ इच्छाको न राखै उर, तेरो नाम कामधे कामना हरत है | तेरो नाम चिन्तामन चिन्ताको न राखै पास, तेरो नाम पारस - सो दारिद डरत है || तेरो नाम अम्रत पियेतें जरा रोग जाय, तेरो नाम सुखमूल दुःखको दरत है। तेरो नाम वीतराग धेरै उर वीतरागा, भव्य तोहि पाय भवसागर तरत है ॥ ३ ॥
सुन जिनवानी जिहँ प्रानी तज्यो राग द्वेप, तेई धन्य धन्य जिन आगममें गाये हैं | अमृतसमानी यह जिहँ नाहिं उर आ नी, तेई मूढ प्रानी भवभावरि भ्रमाये हैं | याही जिनवानीको सवाद सुख चाखो जिन, तेही महाराज भये करम नसाये हैं । तातें हग खोल 'भैया' लेहु जिनवानी लखि, सुखके समूह सव याहीमें बताये हैं ॥ ४ ॥
अपने स्वरूपको न जाने आप चिदानंद, वह भ्रम भूलि वहै मिथ्या नाम पावै है । देव गुरु ग्रन्थ पंथ सांचको न जाने भेद, जहाँ तहाँ झूठे देख मान शीस नावै है | चेतन अचेतन है हिंसा करे ठौर ठौर, बापुरे विचारे जीव नाहक सतावै है । जलके न थलके
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सुपंथकुपंथपचीसिका.
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न पौन अनि फलके न, त्रसनि विराधि मूढ मिथ्याती कहावै
॥ ५ ॥
केई भये शाह केई पातशाह पहुमिपै, केई भये मीर केई बडे ही फकीर हैं । कई भये राव केई रंक भये विललात, केई भये काय र औ केई भये धीर हैं। केई भये इन्द्र केई चन्द्र छविवंत लसै, केई भये पनि अरु केई भये नीर हैं। एक चिदानंद केई स्वांग में कलोल करें, धन्य तेही जीव जे भये तमासगीर हैं ॥ ६ ॥ सवैया.
परमान सबै विधि जानत है, अरु मानत है मत जे छह रे । किरिया कर कर्मनि जोरत हैं, नहिं छोरत है भ्रमजे पहरे ॥ उपदेश कर व्रत नेम धेरै, परभावनको उर नाहिं हरे । निज आतमको अनुभी न करें, ते परे भवसागरमें गहरे ॥ ७ ॥ सवैया मात्रिक.
दुर्भर पेट भरनके कारन, देखत हो नर क्यों विललाय । झूठ सांच बोलत याके हित, पाप करत नहिं नेक डराय ॥ भक्ष्य अभक्ष्य कछू न विचारत, दिन अरु रात मिलै सो खाय । उत्तम नरभव पाय अकारथ, खोवत वादि जनम सब आय ॥ ८ ॥ कवित्त,
करता सर्वन के करमको कुलाल जिम, जाके उपजाये जीव जगतमें जे भये । सुर तिरजंच नर नारकी सकल जंतु, रच्यो ब्रहमांड सव रूपके नये नये ॥ तासों वैर करवेको प्रग़टे कहांसों आय, ऐसे महाबली जिहँ खातिर में ना लये । ढूंढै चहुं ओर नहिं via कहं ताको ठोर, ब्रह्माजूकी सृष्टिको चुराय चोर लै गये॥९॥ चौपरके खेल में तमासो एक नयो दीसे, जगतकी रीति सब
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ब्रह्मविलास में
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याहीमें बनाई है । चारों गति चारों दाव फिरवो दशा विभाव, कर्मवतीं जीव सार मिल विछुराई है । तीनो योग पांसे परै ताके तैसे दाव परे, शुभ ओ अशुभ कर्म हार जीत गाई है। फिरवो न रह्यो जब कर्म खप जांहिं सब, पंचमि गति पावें ये 'भैया' ॐ प्रभुताई है ॥ १०
देहके पवित्र किये आतमा पवित्र होय, ऐसे मूढ भूल रहे मिथ्याके भरममें। कुलके आचारको विचारै सोई जानै धर्म, कंद मूल खाये पुण्य पापके करममें || मूंडके मुंडाये गति देहके दगाये गति, रातनके खाये गति मानत धरममें । शस्त्रके धरैया देव शास्त्रको न जानै भेव, ऐसे हैं अवेव अरुमानत परम में || ११ ||
नदीके निहारतही आतमा निहारथो जाय, जो पै कोड ज्ञानवंत देखै दृष्टि धरकें | एक नीर नयो आय एक आगे चल्यो जाय, इहां थिर ठहराय रह्यो पूर भरकें ॥ ताहूमें कलोल कई भांतिकी तरंग उठे, विनसे पुनि ताहूमें अनेकधा उछरिकें । तैसें इह आतममें कई परिणाम होय, ऐसे परवान है अनंत शक्ति करके १२
जगतकै जीवन जिवावे जगदीश कोड, वाकी इच्छा आवै तव मार डारियतु है । वाहीके हुकुम सेती काज सब करै जीव, विना वाके हुकम न तृण डारियतु है ॥ करता सबनके करमनको वही आप, भोगता दुइमें कौन जो विचारियतु है । करता सो भोगता कि करे और भुँजै और, याको कछु उत्तर न सूधो धारियतु है ॥ १३ ॥
जोलों यह जीवके मिथ्यात्व दृष्टि लगि रही, तौलों सांच झूठ सूझे झुंठ सूझे सांच है। राग द्वेष विना देव ताहि कहै रागी देव, जीवको न जाने भेव, मानै तत्त्व पांच है ॥ वस्तुके स्वभावको
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न जान्यो यह सांचो धर्म, किरियाको धर्म माने मदिराकी मांच हैं । सत्यारथ वानी सरवज्ञने पिछानी 'भैया,' ताहि न पिछानी तोला नाचे कर्म नाच है ॥ १४ ॥
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कोऊ कहै सूर सोम देव हैं प्रत्यक्ष दोऊ, कोउ कहै रामचन्द्र राखे आवागोनसों कोउ कहे ब्रह्मा बडो सृष्टिको करैया अहै, कोउ कहै महादेव उपज्यो न जौनसों ॥ कोउ कहै कृष्ण सब जीव प्रतिपाल करें, कोउ लगि रहे हैं भवानी जू के भौनसों । वही उपाख्यान सांचो देखिये जहांन बीचि, वेश्याघर पूत भयो वाप कहै कौनसों ॥ १५ ॥
सवैया इकतुकिया.
निश द्यौस यह मन लाग्यो रहै, सु मुनिन्द्रके पांय कर्नै परसों । जिन देवके देखनकी रटनाजु, कहीं किम जाहुं विना परसों ॥ कवध शिवलोकमें जाय वसों, सुख संधि लहों सजिकें परसों । कव जोग मिलै इम इच्छित है भवि, आज के काल्हि किधों परसों १६ कवित्त.
जाके कुल धर्म मांहिं सरवज्ञ देव नाहिं, पूछत ते कौन पाहि हिर दैकी बातको । सं उर पूरि रहे ज्ञान गुण दूर रहे, महातम भूरि रहे लखे सार गातको ॥ मिथ्याकी लहरि आवै सांच कौन पंथ पावै, जहां तहां भूलि धावै करे जीव घातको । झूठो ही पुरान मानै झूठे देव देव ठानै, जैसें जन्म अन्ध नर देखे ना प्रभातको ॥ १७॥
राजाके परजा सब बेटा बेटीकी समान, यह तो प्रत्यक्ष बात लोकमें कहान है । आप जगदीस अवतार धरयो धरनी पैं, कुंज निमें के करी जाको नाम कान्ह है ॥ परमेश्वर करै पर वधू सों
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ब्रह्मविलासमें अनाचार, कहते न आवैलाज ऐसो ही पुरान है। अहो महाराज यह है कौन काज मत कीनो, जगतके डोबिवेको ऐसो सरधान है ॥१६॥
स्त्रीरूपवर्णन-मात्रिक कवित्त. बडी नीत लघु नीत करत है, वाय सरत वदवोय भरी। __फोडा बहुत फुनगणी मंडित, सकल देह मनु रोग दरी ।।
शोणित हाड मांस मय मूरत, तापर रीझत घरी घरी। ऐसी नारि निरखिकर केशव रसिकप्रिया'तुम कहा करी१९ ॥
सवैया. (मत्तगयन्द) है जो जगको सब देखत है-तुम, ताहि विलोकिकें काहे न देखो। जो जगको सब जानतु है, तुम ताहि जुजानो तो सूधो है लेखो॥ जो जगमें थिर है सुखमानत, सो सुख वेदत कौन विशेखो। है घटमें प्रगटै तबही, जवही तुम आप निहारके पेखो ॥२०॥
कुपंथ वर्णनकवित्त. ए सोई तो कुपंथ जहां द्रव्यको नजाने भेद,सोईतो कुपंथ जहां है
लागि रहे परसें । सोई तो कुपंथ जहां हिंसामें वखाने धर्म, सो ई तो कुपंथ जहाँ कहै मोक्ष घरसें॥सोई तो कुपथ जो कुशीलीपशु देव कहै, सोई तो कुपंथ जो कुलिंगी पूजै डरसें । सोई तो र कुपंथ जो सुपंथ पंथ जानै नाहिँ , विना पंथ पाये मूढ कैसें मोक्ष दरसै ।। २१ ॥
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(१) दंतकथामें प्रसिद्ध है कि केशवदासजी कवि जो किसी प्रोपर मोहित थे। , उन्होंने उसके प्रसन्नार्थ 'रसिकप्रिया' नामका ग्रंथ बनाया.. वह ग्रंथ समालोचनार्थ 'भैया' भगोतीदासजीके पास भेजा तो उसकी समालोचनामें यह कवित्त रसिकप्रियाके?
पृष्ठपर लिखकरके वापिस भेज दिया था.(२) गौ आदिक कुशीली पशुओंको देवं मानते है. georang weer terrassendragostera
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सुपंथकुपंथपचीसिका.
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झूठो पंथ सोई जहां झूठे देव देव कहै, झूठे पंथ सोई जहां झूठे गुरु मानिये । झूठो पंथ. सोई जहां ग्रंथ. सब झूठे बचें, झूठो पंथ सोई जहां भ्रमको वखानिये ॥ झूठो पंथ सोई जहां दयाको न जाने भेद, झूठो पंथ सोई जहां हिंसाको प्रमानिये । झूठे पंथ, चले तव कैसे मोक्ष पावें अरु, विना मोक्षपाये 'भैया' सुखी कैसे जानिये ॥ २२ ॥
सुपन्थवर्णन सवैया.
पंथ वह सरवज्ञ जहाँ प्रभु, जीव अजीवके भेद वतैये । पंथ वहैं जु निग्रन्थ महामुनि, देखत रूप महासुख पैये ॥ पंथ वह जह ग्रंथ विरोध न, आदि ओ अंतलों एक लखैये । पंथ वह जहाँ जीवदयावृप, कर्म खपाइकै सिद्धमें जैये ॥ २३ ॥ पंथ वह जहँ साधु चलै, सब चेतनकी चरचा चित लैये । पंथ वह जह आप विराजत, लोक अलोकके ईश जुगैये ॥ पंथ वह परमान चिदानंद, जाके चलै भव भूल न ऐये ।. पंथ वह जह मोक्षको माग, सूधे चले शिवलोकमे जैये ॥२४॥
कवित्त.
केवलीके ज्ञानमें प्रमाण आन सब भासै, लोक ओ अलोकन 'की जेती कछु बात है । अतीत काल भई है अनागतमें होयगी; वर्तमान समैकी विदित यों विख्यात है | चेतन अचेतनके भाव
विद्यमान सबै, एक ही समैमें जो अनंत होत जात है । ऐसी कछु ज्ञानकी विशुद्धता विशेष बनी, ताको धनी यहै हंस कैसे. बिललात है ॥ २५ ॥
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छयानवें हजार नार छिनकमें दीनी छार, अरे मन ता निहार
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ब्रह्मविलास में
काहे तू डरत है। छहों खंडकी विभूति छाडत न बेर कीन्ही, चमू चतुरंगनों नेह न धरत है ॥ नौ निधान आदि जे चउदह रतन त्याग, देह सेती नेह तोर वन विचरत है । ऐसी विभो त्यागत विलंब जिन कीन्हों नाहिं, तेरे कहो केती निधि सोच क्यों करत है ॥ २६ ॥
दोहा.
यह सुपंथ कुपथके, कवित पचीस प्रसिद्ध ॥ 'भैया' पढत विवेकसों, लहिये आतमरिद्ध ॥ २७ ॥ इति सुपंथकुपथपची सिका
अथ मोहभ्रमाष्टक लिख्यते । दोहा. परम पूज्य सर्वज्ञ है, तारन तरन त्रिकाल |
तासु चरन वंदन करों, छांडि सु आल जंजाल ॥ १ ॥ एक मोहकी मगनसों, भ्रमत सवहि संसार ॥
देखे अरु समझे नहीं, ऐसो गहल गँवार ॥ २ ॥
कवित्त.
मोहके भरमसों करम सब करै जीव, मोहकी गहलमें जगत सब गाइये | मोह धरै देह परनेह परसों जु करै, भरमकी भूलमें धरम कहाँ पाइये ॥ चरमकी दृष्टिसों परम कहूं पेखियत, मोहहीकी भूल यह भरम माइये । चेतन अचेतनकी जाति दोऊ भिन्न भिन्न, मोह एकमेक लखै "भैया' यों बताइये ॥ ३ ॥
ब्रह्मा अरु विष्णु महादेव तीनों एक रूप, कहै परमेश्वरके अंबनाये हैं । विरंचि औ शंकरने आपुसमें युद्ध कीनो, खरशी
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स छेदन सु ग्रथनिमें गाये हैं | विष्णु आप आय अवतार लीनों जलमाहिं, जल कहो काहे पैं हो काहु न बताये हैं । सृष्टि रची पीछैकर पहिले पौन पानी होंहिं, इतनोहू ज्ञान नाहिं ऐसे भरमाये हैं ॥ ४ ॥
कान्ह करी कुंजनमें केंलि परनारिनसों, ऐसे व्यभिचारिन को ईश कैसे कहिये । महादेव नागे होय नाचै सो प्रसिद्ध वात, तऊ न लजात कहै ईश अंश लहिये ॥ ब्रह्माने तिलोत्तमाको देख मुख चार कीन्हे, इतनों विचार नाहीं इन्हें ऐसी चहिये । कहत है ईश जगदीश ए बनाये आप, इनहीके चरण त्रिकाल गहिरहिये ॥ ५ ॥
अर्जुनको तीनों लोक मुखमें दिखाये जिन, प्रद्युमन हरे सुधि कहूं न लहत हैं। शंकर जुशीस काट ढूंढत गणेशहू को, तीन लोक मैं न कहूं गज ले गहत हैं | ब्रह्मा जू की सृष्टिको चुराय जब गये चोर, तीन लोक करे ता ढूंढत रहत हैं । रामचंद्र सीता सुधि पूछै पशुपक्षी पैं, ताको लोक जगतके ईश्वर कहत हैं ॥ ६ ॥
मच्छको स्वरूप धर गये जो पताल माहिं, चारों वेद चोर पास आन यहां धरे हैं। कच्छ है अठासी लक्ष योजनकी देह धरी, छोटेसे समुद्र में मथान पीठ करे हैं । पृथ्वीको पताल तैं लै आये आप सूअर है, सिंहको स्वरूप धार हिर्णांकुश हरे हैं । परमेश पर्मगुरु अविनाशी जोतरूप, ताहि कहैं पशु देह आय अवतरे हैं ॥ ७ ॥
राम औ परशुराम आपुसमें युद्ध कीनों, दोऊ अवतारी अंश ईश्वरके लरे हैं। कृष्ण अवतार माहिं तीन लोक राखत है, द्वा
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ब्रह्मविलासमें हरका न राखसके जादों सव जरे हैं ॥ वौद्ध है विचारे मूढ मांस भक्षी कीने सब,पापपिंड भर भर नर्क माहिं परे हैं। बावन है जाच्यो बलि ईश्वर है लीन्हों छलि, अजहूं पातालद्वारपाल भये खरे हैं ॥८॥
मात्रिक कवित्त. पंचम गुण थानक जो श्रावक, उतकृष्टी प्रतिमा पर होय । सचित त्याग ताको जिन बोलत, एक सुपट परिग्रहमें जोय ॥ साधु चतुर्दश परिग्रह राखहि, पचखानन महिं एक न दोय । तीर्थकर लहि उड़द वाकुले, कहत लाज नहिं आवै लोय॥९॥
कवित्त. वापुरे विचारे मिथ्यादृष्टि जीव कहा जाने, कौन जीव कौन है कर्म कैसें के मिलाप है। सदा काल कर्मनसों एकमेक होय रहे.
भिन्नता न भासी कौन कर्म कौन आप है । यह तो सर्वज्ञ देव है देख्यो भिन्न भिन्न रूप, चिदानंद ज्ञान मयी कर्म जड़ व्याप है। है. इतिहँ भाति मोह हीन जानै सरधानवान, जैसो सर्वज्ञ देखो ते सोही प्रताप है ॥ १०॥
दोहा. मोहनमाष्टक कवितके, दोप न लीज्यो मित्त॥ 'भैया' हृदय. विवेकधर, कीज्यो निर्मल चित्त ॥११॥
इति मोहभ्रमाप्टक। अथ आश्चर्यचतुर्दशी लिख्यते ।
दोहा. _ नमों पदारथ सार को, निज अनुभूति प्रकाश ॥
'सर्व द्रव्य व्यापी प्रभू, केवल ज्ञान प्रकाश ॥१॥ NaiwwwpoPPOREGARDARPIONORAMARwere
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आश्चर्यचतुर्दशी.
कवित्त. देहधारी भगवान करै नाहीं खान पान, रहै कोटि पूरवलों है जगमें प्रसिधि है । बोलत अमोल बोल जीभ होठ हालै नाहि, । देखै अरु जानै सव इन्द्रीन अवधि है । डोलत फिरत रहै डगन भरत कहै, परसंग त्यागी संग देखो केती रिधि है। ऐसी अचरज वात मिथ्या उर कैसे मात, जानै सांची दृष्टिवारो जाके । ज्ञाननिधि है ॥२॥
देखत जिनंदजूको देखत स्वरूप निज, देखत है लोकालोक, ज्ञान उपजायके । वोलत है वोल ऐसे बोलत न कोउ ऐसें, तीन है लोक कथनको देत है बतायके ॥ छहों काय राखिवेकी सत्य है
वैन भाखिवेकी, पर द्रव्य नाखिवेकी कहै समुझायके । करम नॐ सायवेकी आप:निधि पायवेकी, सुखसों अघायवेकी रिद्धि दैलखायके ॥३॥
वहिलपिका-छप्पय. कहा सरसुतिके कंध? कहो छिन भंगुर को है। काननको कहा नाम? वहुतसों कहियत जो है? ॥ भूपतिके संग कहा ? साधु राजै किहँ थानक ? । लच्छिय विरथी कहाँ ? कहा रेसम सम वानक? ॥ श्रेयांस राय कीन्हों कहा? सो कीजे भविजन ददा।
सव अर्थ अंत यह त सुन, वीतराग सेवहु सदा॥४॥ भावार्थ-सुनवीत राग सेव होस दा-इसके तीसरे और दूसरे अक्षरसे । वीन,चौथे और दूसरेसे तन, पांचवें दूसरेसे रान, छटवें दूसरेसे गन, सातवें ,
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ब्रह्मविलासमें दूसरेसे सेन, आठवें दूसरेसे वन, नवमें दूसरेसे होन, दशवें दूसरेसे सन, और ग्यारहवें दूसरेसे दान, बनकर सब प्रश्नोंके उत्तर निकलते हैं।
___ अन्तलापिका-छप्पय। कहो धर्म कव करै? सदा चितमें क्या धरिय।। प्रभु प्रति कीजे कहा ? दानको कहा उचरिये ? ॥ आस्रव सों किम जीत! पंच पदकों कहा गहिये ?॥ गुरु शिक्षा किम रहै ! इन्द्र जिनको कहा कहिये ।। सब प्रश्न वेद उत्तर कहत, निज स्वरूप मनमें धरो। 'भैया' सुविचक्षन भविक जन, सदा दया पूजा करो॥५॥
भावार्थ-सदा दयापूजा करो-इस पदके चार शब्दों में तो पहिले हूँ चार प्रश्नोंका उत्तर मिलता है. जैसे धर्म कव करै! सदा, चित्तमें सदा हैं क्या रक्खें ? दया आदि, और अन्तके चार प्रश्नोंका उत्तर इन्हीं चार शब्दोंको उलटें पढनेसे ( रोक, जापु, याद, दास ) से निकलता है."
___ अन्तलापिका छप्पय.मन्दिर वनवावो? मूर्ति, लाव-सैना सिंगारहु । अम्बु आन? वासर प्रमाण, पहुची नग धारहु ? ॥ मिश्री मंगवा ? कुमुद, लाव ? सरसी तन पिक्खहु । तौल लेहु ? दत लच्छि, देहु ? मुनि मुद्रा सिक्खहु १ ॥ 'सव अर्थ भेद भैया कहत, दिव्य दृष्टि देखहु खरी। ___ आकृत्रिम प्रतिमा निरखतसु,करि न घरीन भरीधरी॥
भावार्थ-प्रथम द्वितीय और तृतीय प्रश्न के उत्तर 'करी न'इस शब्दके है तीन अर्थ करने से निकलते है (१ कड़ी नहीं है २ बनवाई नहीं, ३ हाथी है
नहीं.) दूसरे पादके चौथे पांचवें छटवे प्रश्नके उत्तर 'घरी न इस शब्दके SampranamwowwecomPANDRAPARPeopars
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आश्चर्यचतुर्दशी.
तीन अर्थ ( १ घड़ा नहीं, घड़ी (वाच) नहीं, ३ बनी नहीं. ) इस प्रकार करनेसे निकलते हैं तृतीय पादके तीन प्रश्नोंका उत्तर भरी न के तीन अर्थ (१ भरी नहीं गई २ भरी नहीं, ३ जलसे मरी नहीं ) से निकलता है. और चतुर्थ पादके प्रश्नोंका उत्तर 'धरी न' के तीन अर्थ ( १ पंसेरी नहीं, २ रक्खी नहीं है ३ धारण नहीं की, ) निकालनेसे मिलता है ॥ ६ ॥
प्रश्न. दोहा.
पूछत हैं जन जैनको, चिदानंदसों वात ॥
आये हो किस देशतें, कहो कहां को जात ॥ ७ ॥
१९१
देश तो प्रसिद्ध है निगोद नाम सिंधुमहा, तीनसे तेताल राजु जाको परमान है। तहांके वसैया हम चेतनके वसवारे, बसत अना दिकाल वीत्यो विन ज्ञान है ॥ तहाँ निकस कोऊ कर्म शुभ जोग पाय, आये हम इहां सुने पुरुष प्रधान है । ताके पाँय परवेको महात्रत धरवेको, शिष्य संग करवेको चलिवो निदान है ॥ ८ ॥ एक दिन एकठौर मिले ज्ञान चारितसों, पूछी निज वात कहां रावरो निवास है । वोले ज्ञान सत्यरूप चिदानंद नाम भूप, असंख्यात परदेश ताके पुरवास है । एक एक देशमें अनंत गुण ग्राम बसै, तहांके बसैया हम चरणोंके दास हैं । तूहू चल मेरे संग दोऊ मिलि लूटें सुख, मेरे आँख तेरे पांय मिलो योग खास हैं ॥ ९ ॥
लाल वस्त्र पहिरेसों देह तो न लाल होय, लाल देह भये हंस लाल तौ न मानिये | वस्त्रके पुराने भये देह न पुरानी होय, दे
हके पुराने जीव जीरन न जानिये ॥ वसनके नाश भये देहको
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ब्रह्मविलास
न नाश होय, देहके न नाश हंस नाच न बखानिये । देह दव पुगलकी चिदानंद ज्ञानमयी, दोऊ भिन्न भिन्न रूप 'भैया' उ र आनिये ॥ १० ॥
मात्रिक कवित.
ग्यारह अंग पढै नव पूरव, मिथ्या वल जिय करहिं बखान । दे उपदेश भव्य समुझावत, ते पावत पदवी निर्वान | अपने उरमें मोह गहलता, नहिं उपजै सत्यारथ ज्ञान । ऐसे दरवश्रुतके पाठी, फिरहिं जगत भाखं भगवान ॥ ११ ॥ प्रश्न कवित्त, (अर्द्धांली )
दर्शन भ्रष्ट भ्रष्ट सोई चेतन, दर्शन भ्रष्ट सुक्त नहिं होय | चारित भ्रष्ट तरे भवसागर, यह अचरज पूछत शिशु कोय ॥१२ उत्तर चौपाई.
तेरह विधि चारित जो धेरै । तिहँ विन तजे न भवद्धि तेरे ॥ जब ये भाव करहिं उर नाश । तब जिय हे मोक्षपद बात ॥ १३ कवित.
'मांस हाड़ लो सानि पूतरी बनाई काहु, चामसों लपेट तामें रोम केश लाये हैं । तामै मलमूत भर कृमि केई कोटि धर, रोग संचे कर कर लोकमे ले आये हैं। बोले वह खाउँ खाउं खाये विना गिर जाऊं, आगेको न धरों पाउं ताही पै लुभाये हैं । ऐसे भ्रम मोहने अनादिके भ्रमाचे जीव, देखे परतक्ष तोड मानो छाये हैं ॥ १४ ॥
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यह आश्चर्य चतुर्दशी, पडत अचंभो होय ||
भैया लोचन ज्ञानके, खुलत लख सब कोय ॥ १५ ॥
इति आश्चर्यचतुर्दशी.
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रागादिनिर्णयाटक. अथ रागादिनिर्णयाटक लिख्यते ।
'दोहा. सर्व ज्ञेय ज्ञायक परम, केवल ज्ञान जिनंद ॥ तासु चरन बंदन करों, मन घर परमानंद ॥१॥
मात्रिक कवित्त. रागद्वेप मोहकी परणति, है अनादि नहिं मूल स्वभाव ।
चंतन शुभ्र फटिक मणि जैसे, रागादिक ज्यों रंग लगाव ॥ ६ वाही रंग सकल जग मोहत, सो मिथ्यामति नाम कहाव । ३ समदृष्टी सो लखें दुई दल, यथायोग्य वरतै कर न्याव ॥२॥
दोहा. जो रागादिक जीवके, है कहुं मूल स्वभाव ॥ तो होते शिव लोकमें, देख चतुर कर न्याव ॥३॥ सबहि कर्मत भिन्न है, जीव जगतके माहिं ॥ निश्चय नयंसों देखिये, फरक रंच कहुं नाहिं ॥४॥ रागादिकसों भिन्न जव, जीव भयो जिहँ काल ॥ तव तिहँ पायो मुकति पद, तोरि कर्मके जाल ॥५॥ ये हि कर्मके मूल हैं, राग द्वेप परिणाम ॥ इनहीसें सव होत हैं, कर्म वन्धके काम ॥६॥ ... चान्द्रायण छन्द. ( २५ मात्रा) रागी बांध करम भरमकी भरनसों।
वैरागी निर्वद्य स्वरूपाचरनसों ॥ . यह बंध अरु मोक्ष कहीं समुझायके । देखो चतुरं सुजान ज्ञान.उपज़ायके ॥७॥
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ब्रह्मविलासमें
कवित्त.. राग रु द्वेष मोहकी परणति, लगी अनादि जीव कहँ दोय । तिनको निमित पाय परमाणू, वंध होय वसु भेदहिं सोय ।। तिनत होय देह अरु इन्द्रिय, तहाँ विप रस भुंजत लोय। तिनमें राग द्वेष जो उपजत, तिहँ संसारचक्र फिर होय ॥ ८॥
दोहा. रागादिक निर्णय कह्यो, थोरेमें समुझाय ॥ 'भैया' सम्यक नैनतें, लीज्यो सवहि लखाय ॥९॥
इति रागादिकनिर्णयाप्टक ।
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अथ पुण्यपापजगमूलपचीसिका लिख्यते.
दोहा. परमातम परतक्ष है, सिद्ध सकल अरहंत ॥ नितप्रति वंदों भावधर, कहूं जगत विरतंत ॥१॥
कवित्त. स्वामी श्रीमंधरजीके पाय पर ध्यानधर,वीनती करत भविदोक कर जोरकें । तुम जगदीश जग ईश तिहुं लोकनके, भक्त । जन संग किन लेहु अघ तोरकें ॥ देव सरवज्ञ सव जीवोंकी करत रक्षा, जीवनकी जाति हम कहें मद छोरकें । सेव इहिविधि करें
नाम हिरदै धरै, जपें जिनदेव जिनदेव वल फोरकें ॥२॥ है आगे मद माते गज पीछे फोज रही सज, देखें अरि जाय।
भज वसै बन बनमें । ऐसे वल जाके संग रूप तो वन्यो अनंग, चमू चतुरंग लखि कहै धन धन मैं| पुण्य जव खिस जाय परयो.ह परयो विललाय, पेट हून भरयो जाय पाप उदै तनमें । ऐसी WomanomenancomsanParencorpower
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पुण्यपापंजगमूलपचीसी. ऐसी भांतिकी अवस्था कई धेरै जीव, जगतके वासी देखे हांसी है आवै मनमें ॥३॥
चामके शरीर माहिं वसत लजात नाहिं, देखत अशुचि तोउ। इलीन होय तनमें । नारि वनी काहे की विचार कछू करै नाहिं,
रीझि रीझि मोह रहे चामके वदनमें ॥ लछमीके काज महाराज पद छांड देत, डोलत है रंक जैसे लोभकी लगनमें । तनकसी आयुपै उपाय कई कोटि कर, जगतके वासी देखे हांसी आवै, मनमें ॥४॥
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पुण्य उदय जव होय, जीव नर देही पावै । पुण्य उदय जव होय, तवहिं घर लछमी आवै ।। पुण्य उदय जव होय, सवै जिय हुकुम चलावै ।
पुण्य उदय जब होय, तवै शिर छत्र धरावै ॥ जव पुण्य उदय खिस जाय अरु, पाप उदय आवै निकट। तब परे नरकमें जीव यह, सहै घोर संकट विकट ॥५॥
पाप उदय परतच्छ, इच्छ नहिं पूजै मनकीर पाप उदय परतच्छ, विथा बहु वा तनकी । पाप उदय परतच्छ, लच्छ घरमें नहिं आवै । पाप उदय परतच्छ, जीव बहु संकट पावै ।। जव पाप उदय मिट जाय अरु, पुण्य उदय आवै प्रवल ।
तव वही जीव सुख भोगवै, उथल पथल इम जगत थल ॥६॥ Hamwapwopanporanwwewanapasanapoopanwaroons
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ब्रह्मविलासम... : :
कवित्त. __पापके कियेसों हंस मलिन निकृष्ट होय, यह तो न बूझे। है कोई पाप ही करत हैं। जल थल जीवमयी कहै वेद स्मृति माहिं पाँय तल जीव वसै छूयेते मरत हैं ॥ छोटे बडे देहधारी सबमें विराजै विष्णु, ताके तौ विनासे पाप कैसे न भरत हैं। इतनों । । विचार नाहिं पाप किये मुक्ति जॉय, ताहीत अज्ञानी जीव नर्कमें परत हैं ॥ ७॥
नागरिन संग केई सागरन केलि करी, राग रंग नाटक सों तोऊ न अघाये हो । नर देह पाय तुम आयु पल्य तीन पाहै ई, तहांहू विष किलोल नानाभाँति गाये हो ॥ जहां गये तहां तुम विषैसों विनोद कीन्हों, ताहीत नरकमें अनेक दुख पायें हो । अजई सम्हारि विष डार क्यों न चिदानंद, जाके संग दुःख होय ताहीसों लुभाये हो ॥ ८॥
जहां तोहि चलवों है साथ तू तहां को ढूंढि, इहां कहां लोहै गनसों रह्यो तू लुभाय रे । संग तेरें कौन चले देख तू विचार
हिये, पुत्र के कलत्र धन धान्य यह काय रे ॥ जाके काज पाप कर : भरत है पिंड निज, है है को संहाय तेरे नर्क जब जाय रे। तहां
तो अकेलो तूही पाप पुण्य साथी दोय, तामें भलो होय सोई है कीजे हंसराय रे ॥९॥ .. . जौलों तेरे ज्ञान नैन खुले नाहिं चिदानंद, तौलों तुम मोह
वश सूरदोस है रहे । हरके पराये प्रान पोपत हो देह निज, कहो यह कौन धर्म कौन पंथ ले रहे ॥ पापके कियेसों कछु पुण्य .
(१) देवांगनावोंके २ अंधे. REPORampowerPADMPANDROARDHA
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....... पुण्यपापजगमूलपचीसी. १९७९ नाही है है तोहि, एतो हू विचार नाही ऐसे ज्ञान ख्वै रहे । नमें । परंगो कौन ? संकट सहगो कौन, अजहूं सम्हारो क्यों न कोन , है नींद स्वै रहे ।॥ १० ॥ र सरवज्ञ देवजूकी सेव करें सब इन्द्र, तिनहूके कवला अहार
नाही लीजिये । मुनि होंय लन्धिधारी ते चलें अकाश माहि, कंवलीको भूमचारी ऐसे क्यों कहीजिये ॥ जाके देख वैरभाव है
जाहिं सब जीवनके, ताके आगे साधु जरे कैसें के पतीजिये ! है. ऐसो मिथ्यावन्तने बनाय कहूं तन्त लिखो, संत है सचेत यों है।
विवेक हिये कीजिये ।। ११॥ . है पंचमें जो गुण थान भाव जो विशुद्ध होय, चढे जिय सातवें
प्रसिद्ध यहवात है। छद्दोगुण थानकजा तियको न होय कहूं, नगन न रहि सके लजावंत गात है.। मनपर्जय ज्ञान हू, मने कियो । सरवज्ञ, ध्यानहको योग नाही चढि कैसें जात है। तासों कहै तीर्थकर पद पाय मुक्ति भई, ऐसे मिथ्यावादिनसों कैसके वसात है ।। १२॥ ___ सोबत अनादि काल वीत्यो तोहि चिदानंद, अजहूं सम्हार
किन मोह नींद खोय । सोयो तू निगोद मांहि ज्ञान नैन मूंद है आप, सोयो पंच थावरमें शक्तिको समोयके ॥ विकलने देह
पाय तहां तूही सोय रह्यो,सोयो नप्रमान धर वाही रूप होयके॥ पंच इन्द्री विपै माहिं मग्न होय सोय रह्यो, खोयो ते अनंतो काल याही भाति सोय के ॥ १३ ॥ . . .
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ब्रह्मविलासमे.
चांद्रायण. छन्द। पुण्यपापको खेल, जगतमें वनि रह्यो ।
इनहीके परसाद, सुखी दुखिया कह्यो। दोउ जगतके मूल, विनाशी जानिये।
इनहीतें जो भिन्न, सुखी सो मानिये ॥ १४ ॥ मोह मगन संसार, विषय सुखमें रहै। __ कर न आप सम्हार, परिग्रह संग्रहै ॥ जाने यह थिर वास, नाश नहिं होयगो।
पाके मानुप जन्म, अकारथ खोयगो ॥ १५ ॥ देवधर्म परतीति, परीक्षा सांच की।
सीखै नाहिं सुदृष्टि, रतन अरु कांचकी ॥ जन्म अकारथ जाय, सुनो मन वावरे ।
पीछे फिर पछताय, बहुर नहिं दावरे ॥ १६ ॥ पुण्य पाप परतक्ष, दोउ जगमूल है ।
इनहीसें संसार, भरमकी भूल है। केवल शुद्ध स्वभाव, लखै नहिं हंसको। __ताही ते द्रुम होय, करमके वंशको ॥ १७ ॥ शुद्ध निरंजन देव, सदा निज.पास है।। .ताको अनुभव करो, यही अरदास है ॥ कबहू भूल न जाहु, पुण्य अरु पापमें। .
केवल ज्ञान प्रकाश, लहोगे आपमें ॥१८॥
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न जाने सब प्रतियोंमें इसको 'सरिल क्यों लिखा है. अरिल १६ मात्राका होता
और इसमें ११ मात्रा है, इसे 'तिलोकी भी कहते हैं. hansaasRwanSampePeoponwanapUDARPAN
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.... पुण्यपापजगमूलपचीसी. पुण्य पाप विन जीव, न कोई पाइये।
औरनकी कहा चली, जिनेश्वर गाइये। येही जगके मूल, कहे समुझायके। . ___ जो इनसेती भिन्न, वसे शिव जायके ॥ १९॥
कवित्त. है कर्मनके हाथ ये विकाये जग जीव सर्वे, कर्म जोई करै सोई। १ इनके प्रमान है । वैक्रिय शरीर पाय देव आप मान रहे, देवनकी ?
रीति करै सुनै गीत गान है । औदारिक देह पाय नर नारी रूप, भये, कीन्हीं वह रीति मानों पिये मद पान है । नरकमें गये। तहां नारकी कहाये आप, एसोचिदानंद भैया देख्यो ज्ञानवान है ॥२०॥
दोहा. राम श्याम कित होत है, सो गति लहै न गूढ ।। धोय चामकी देहको, शुचि मानत है मूढ़ ॥ २१॥ कहा चर्मकी देहमें, परम परे हो आन ॥ देखो धर्म संभारिके, छांड भरमकी बान ॥ २२ ॥ करम करत है भरमतें, धरम तुम्हारो नाहिं ॥ परम परीक्षा कीजिये, शरम कहा इहि माहि ।। २३ ।। करन भरना होयगो, परन नरकके माहि ॥ ज्ञान चरनके धरन विन, तरन तुम्हारो नाहिं ॥ २४ ॥ सरन सदा ढूंढत रहै, मरन बचावहि कोय ॥
डरन पान निकसे परें, तरन कहांसों होय ॥२५॥ . (१) इन्द्रिय. wovenapsowPROM/RE ROOPRASPARRORapearan
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ब्रह्मविलासमें जीव कौन पुद्गल कहा, को गुण को परजाय ॥ जो इतनो समुझे नहीं, सो भूरख शिरराय ॥ २६ ॥ पुण्य पाप वश जीव सब, वसत जगतमें जान ॥ "भैया' इनसे भिन्न जो, ते सव सिद्ध समान ॥ २७ ॥
इति पुण्यपापनगमूलपचीसिका.
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अथ बावीस परीसहनके कवित्त लिख्यते ।
दोहा. पंच परम पद प्रणमिके, प्रणमों जिनवर वानि ॥ कहों परीसह साधुकी, विंशति दोय वखानि ॥१॥
कवित्त. धूप सीत क्षुधाजीत तृषा डंस भयभीत, भूमिसैन वधवंध सहै है सावधान है। पंथनास तृणफांस दुरगंध रोगभास, नगनकी है इलाज रति जीते ज्ञानवान है । तीय मानअपमान थिर कुवच है नवान, अजाची अज्ञान प्रज्ञा सहित सुजान है।अदर्शन अलाभये परीसह हैं वीस बै, इन्है जीतै सोई साधुभाखे भगवान है॥२॥
. १. ग्रीष्मपरीसह. भीषमकीऋतुमाहिं जलथल सूख जाहि, परतप्रचंड धूप आगिसी बरत है। दावाकीसी ज्वाल माल वहत वयार अति, लागत लपट है
कोऊ धीरन धरत है ॥ धरती तपत मानों तवासी तपाय राखी, है बड़वा अनलं सम शैल जो जरत है । ताके शृंग शिलापर जोर
जुग पांव धर, करत तपस्या मुनि करम हरत है ॥३॥ 0 . ... . ' २. शीतपरीसह.
शीतकी सहाय पाय पानी जहां जम जाय,,परत तुषार आय fooooo/DOCOMORROOPPPROMORROR
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बाईस परीसहनके कवित्त.
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हरे वृक्ष झाढ़े हैं । महा कारी निशा साहिं घोर घन गरजाहिं, चपलाह चमकाहिं तहां हग गाढे हैं । पौनकी झकोर चलै पाथ र हैं ते हिले, ओरानके ढेर लगे तामें ध्यान वाढ़े हैं। कहां लो बखान कहों हेमाचलकी समान, तहां मुनिराय पांय जोर ढाढ़े हैं ॥ ४ ॥
गाज
जोग देके जोगीश्वर जंगलमें ठाढ़े भये, वेदनीके उदैतै परीसह सहत हैं। कारी घन घटा लागे भारी भयानक अति, विजु देखे धीर कोऊ न गहत हैं । मेहकी भरन परै मूसरसी धार मानो, पौनकी झकोर किधों तीर से बहत हैं। ऐसी ऋतु पावसमें पावत अनेक दुःख, तऊ तहाँ सुख वेद आनंद लहत
५ ॥
३. क्षुधापरीसह.
जगतके जीव जिहँ जेर जीतराखे अरु, जाके जोर आगे सब जोरावर हारे हैं । मारत मरोरे नहिं छोरे राजारंक कहूं, आंखिन अंधेरी ज्वर सब दे पछारे हैं । दावाकीसी ज्वाला जो जराय डारै छाती छवि, देवनको लागै पशुपंछी को विचारे हैं । ऐसी क्षुधा जोर भैया कहित कहां लों और, ताहि जीत मुनिराज ध्यान थिर धारे हैं ॥ ६ ॥
18. तृपापरीसह.
.
धूपकी धखनि परै आगसो शरीर जरै, उपचार कौन करे है द्वार आनंके । पानीकी पियास जेती कहें को बखान तेती, तीनों जोग थिरसेती सह कष्ट जानके ॥ एक छिन चाह नाहिं
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ब्रह्मविलासमें पानीके परीसे माहि, प्रान किन नाश जाहिं रहै सुख मानके ।
ऐसी प्यास मुनि सहै तब जाय सुख लहै, 'भैया इहिभाँति कहै , है बंदिये पिछानके ॥ ७॥
. ५. डॅस मस्कादिपरीसह. सिंह सांप ससा स्याल सूअर ओ स्वान भालु, वाघ वीछी वा इनर सु वाजने सताये हैं। चीता चील्ह चरख चिरैया चूहा चेंटी है चैटा,गज गोह गाय जो गिलहरी बताये हैं। मृगमोर मांकरी सु टू मच्छर ओमांखी मिल, भौंरा भौंरी देख कै खजूरा खरे धाये हैं।
ऐसे डंस मसकादि जीव हैं अनेक दुष्ट, तिनकी परीसे जीते साधुजू कहाये हैं ॥ ८॥
६. शय्यापरीसह. शुद्ध भूमि देख रहै दिनसेती योग गहै, आसन सु एक लहै धरै यह टेक है। कैसो किन कष्ट परै ध्यानसेती नाहिं टरै, देहको ममत्व हरै हिरदै विवेक है। तीनोंयोग थिरसेतीसहत परीसे जेती, कहै को बखान तेती होंय जे अनेक हैं। ऐसे निशि शैन करै चल सु अंग धरै, भव्य ताकें पाँय परै धन्य मुनि एक हैं ॥९॥
' ७, वधबंधपरीसह. . कोळ बांधो कोऊ मारो कोऊ किन गहडारो, सबनके संकट है सुबोधतें सहतु है। कोऊ शिर आग धरो कोऊ पील प्रान हरो, कोऊ काट एक करो द्वेष न गहतु है। कोऊ जल माहि । कोऊ लेके अंग तोरो, को कह चोर मोरो दुख दे दहतु है। ऐसे बधबंधके परीसहको जीतै साधु, 'भैया' ताहि वार वार वं
दना कहतु है ॥१०॥ ManpowepwwwPEPARWARROWANWARRANG
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वाईसपरीसहनके कवित्त.
८. चर्यापरीसह-छप्पय। जब मुनि करहिं विहार, पंथ पग धरहिं परक्खत । ऊठ हाथ परवान, दृष्टि जुग भूमि परक्खत ॥ चलत ईरज्या समिति, पंच इन्द्रिय वश कीनें। दशहूं: दिशा मन रोक, एक करुणारस भीनें । इम चलत पूज्य मुनिराज जव, होय खेद संकट विकट । तिहँ सहहिं भाव थिर राखके, तब धावें भवउदधितट ॥११॥
९ तृणफांसपरीसह.-छप्पय । ' परत आंखि महँ कछुक, काढि नहिं डारत तिनको । चुभत फांस तन माहि, सार नहिं करते जिनको ।। लागत चोट प्रचंड, खेद नहिं कहूं जनावत ।
वाणादिक बहु शस्त्र, कहत कहुँ पार न आवत ॥ इम सहत सकल दुख देह दमि, रागादिक नहिं धरत मन। .? भैया त्रिकाल वंदत चरन, धन्य धन्य जग साधु धन ॥ १२॥
१०. ग्लानिपरीसह-छप्पय. लगत देहमें मैल, धोय नहिं तिनको झारत । देहादिकतै भिन्न, शुद्ध निज रूप विचारत ॥
जल थल सव जिय जंत, संत है काहि सताऊं। . . सवही मोहि समान, देत दुख में दुख पाऊं ॥ इम जान सहत दुरगंध दुख, तव गिलान विजयी भवत। भैया' त्रिकाल तिहँ साधु के, इंद्रादिक चरनन नमत ॥१३॥
(१) साढे तीन हाथ। Storaggiorno serverar esternst
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२०४
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११. रोग परीसह - छप्पय.
बात पित्त कफ कुष्ट, स्वास अरु खाँस खैण गनि । शीत ताप शिरवाय, पेट पीड़ा जु शूल भनि ॥ अतीसार अधशीस, अरा जो होय जलंधर । एकांतर अरु रुधिर, बहुत फोड़ा जु भगंदर ॥ इम रोग अनेक शरीरमहिं, कहत पार नहिं पाइये । मुनिराज सवन जीते रहें, औषधि भाव न भाइये ॥ १४ ॥
दोहा.
ये एकादश वेदिनी, कर्म परीसह जान ।
मोहसहित वलवान हैं, मोह गये वलहान ॥ १५ ॥
. १२. नग्नपरीसह - कवित्त.
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नगनके रहिवेको महा कष्ट सहवेको, कर्मवन 'दहवेको बडे महाराज हैं । देह नेह तोरवेको लोक लाज छोरवेको, पर्म प्रीति जोरवेको जाको जोर काज हैं। धर्म थिर राखवेको परभाव नाख वेको, सुधारस चाखवेको ध्यानकी समाज हैं। अंबरके त्यागेसों दिगम्बर कहाये साधु, छहों कायके आराध यात शिरताज हैं १६
१३. रतिभरतिपरीसह - कवित्त,
आंखनिकी रति मान दीपक पतंग परै, नासिकाकी रतिमान भ्रमर भुलाने हैं । काननकी रतिमृग खोवत हैं प्राण निज, फरसकी रति गज भये जो दिवाने हैं ॥ रसनाकी रति सव जगत सहत दुख, जानत है. यह सुख ऐसें भरमाने हैं | इंद्रिनकी रति मान गति सब खोटी करै, ताहि मुनिराज जीत आप सुख माने हैं ॥ १७ ॥
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बाईसपरीसहनके कवित्त. २०५१
छप्पय. प्रकृति विरोध अहार, मिले मुनि जो दुख पावै __ सोहि . अरति परिणाम, तहाँ समता रस भावै ।।
औरहु परसंयोग,. होत दुख उपजै तनमें ।
तहां अरति परनाम, त्याग थिरता धरै मनमें । इम सहत साधु दुख पुंज बहु, तवहु क्षमा नहिं उर टरत ।, 'भैया' त्रिकाल मुनिराज सो अरतिजीत शिवपद वरत ॥१८॥
१४. स्त्रीपरीसह-कवित्त.. है नारिके निहारत विचार सव भूलि जाय, नारीके निहारे । परिणाम फिरे जात हैं । नारिके निहारत अज्ञान भाव आय झुकै,
नारिके निहारत ही शील गुणघात हैं ॥ नारिके निहारत न है ए सूरवीर धीर धरै, लोहनके मार जे अडिग ठहरात हैं । ऐसी
नारि नागनिके नैनको निमेप जीत, भये हैं अजीत मुनि जगत विख्यात है।॥ १९ ॥
. .. १५. मानअपमान परीसह-कवित्त. ३ जहाँ होय मान तहाँ मानत महान सुख, अपमान होय ६ तहाँ मृत्युके समान है। मानके गुमान आप महाराज मान रहे, होत अपमान मूढ हरै दशों प्रान हैं। मानहीकी लाजजग सहत अनेक दुख, अपमान होत धरै नरक निदान है ॥ ऐसे मान अपमान दोऊ दुष्ट भाव तज, गनत समान मुनि रहै सावधान
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- १६. थिरपरीसह-छप्पय. जव थिर होहिं मुनिंद, एक आसन दृढ धरई।.
जव थिर होहिं मुनिंद, अंग एको नहिं टरई ॥ naepaperoMORPOSop/epaproppancers
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. ब्रह्मविलासमें
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जब थिर होहिं मुनिंद, कष्ट किन आवहिं केते ।
जब थिर होहिं मुनिंद, भावसों सह जु तेते ॥ इम सहत कष्ट मुनिराज अति, रोगदोप नहिं धरत मन । उतकृष्ट होहिं इक बेर जो, सब उनईस परीस भन ॥ २१ ॥
१७. कुवचनपरीसह-छप्पय. कुवचन बान समान, लगै तिहिं मार गिरावहिं। कुवचन अगनि समान, पैठि गुन पुंज जलावहिं ।। कुवचन बज्र विशाल, भाव गिरि ढाहै पलमें।
कुवचन विषकी झाल, मोह दुख दै बहु कलम ॥ कुवचन महान दुख पुंज यह, लगे बचें नहिं जगत जन । 'भैया' त्रिकाल मुनिराज तिह, जीतलहै निज अखय धन ॥२२
१८. अनाचीपरीसह घनाक्षरी ( ३२ वर्ण) अजाची धरत व्रत जाचना करत नाहि, इंद्री उमंग हरत महा संतोष करकें । रागादि टरत भाव क्रोधादिवंध गरत, वरत हुस्वभाव शुद्ध मनोविकार हरकें ॥ मरनसों डरत न करत तपस्या जोर, दरत अनेक कष्ट क्षमा खडूग धरके । दया भंडार भरत वरत सु साधु ऐसें, 'भैया' प्रणाम करत त्रिकाल पांय परकें ॥ २३ ॥ .
१९. अज्ञानपरीसह-छप्पय । सम्यक ज्ञान प्रमान, होहिं मुनि कोय तुच्छ मति । सुनहिं जिनेश्वर वैन, याद नहिं रहै हृदय अति ॥ ज्ञानावरण प्रसाद, बुद्धि नहिं प्रगटै बाकी ।
पूरब भव थिति बंध, इहाँ कछु चलत न ताकी ॥ Mar-20000/pop/BOARDonwapcoooo
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पंग-123
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बाईसपरीसहनके कवित्त.
२०७
इम सहत कष्ट मुनि ज्ञानके, होहिं परीसह प्रबलजिय । तिहँ जीत प्रीति निजरूपसों, लहत शुद्ध अनुभूत हिय ॥ २४ ॥ २०. प्रज्ञापरीसह - छप्पय ।
.
प्रज्ञा वल नहिं होय, तहाँ विद्या नहिं आवै । प्रज्ञा वल नहिं होय, तहां नहिं पढे पढावै ॥ प्रज्ञा प्रवल न होय, तहाँ चर्चा नहिं सूझै । प्रज्ञा प्रवल न होय, तहाँ कछु अर्थ न बूझे ॥ इम बुद्धि विशेष न होय जित, तित अनेक परिसह सहत । 'भैया' त्रिकाल मुनिराज तिहँ, जीत शुद्ध अनुभौ लहत ॥ २५ ॥ २१. अदर्शनपरीसह - छप्पय ।
समय प्रकृति मिथ्यात, जासु उरतें नहि टरई । सो जिय है गुनवंत, तथा वेदक पद धरई ॥ दर्शन निर्मल नाहिं, मोहकी प्रकृति लखावै ।
है अदर्शन कष्ट, कहत कैसे बन आवै ॥ परिणाम खेद बहुविधि करत, तौ हू निर्मल होय नहिं । 'भैया' त्रिकाल मुनिराज तिहँ, जीत रहै निज आप महिं ॥२६ २२. अलाभपरीसह - कवित्त.
अंतराय कर्मके उदैतैं जो अलाभ होय, ताके भेद दोय कहे निचै व्यवहार है । निश्चै तो स्वरूपमें न थिरता विशेष रहै, वह अंतराय जो रहै न एक सार है । व्यवहार अंतराय मिलै न अहार योग, और हू अनेक भेद अकथ अपार है । ऐसें तौ अलाभ की परीसहको जीत साधु, भये हैं अतीत 'भैया' वंदे निरधार है ।। २७ ।।
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ब्रह्मविलासमें.. बाईसपरीसहविजयी मुनिराजकी स्तुति
कुंडलिया. महा परीसह वीस द्वय, तिहँ जीतनको धीर । धन्य साधु संसार में, बडे सूरवर वीर ।। व सूरवर वीर, भीर भवकी जिह टारी। कर्म शत्रुको जीत, भये शिवके अधिकारी ॥ धारी निजनिधि संच, पंच पदकोजिहँ लहा। भैया करहि प्रणाम, परीसह विजयी सु महा ।। २८ ॥
, छप्पयः सत्रहसे उनचास मास, फागुण सुख कारी। सुदि वारस गुरुवार, सार मुनि कथा सवारी ॥ विकट परीसह जीत, होत जे शिवपदगामी ।
ते त्रिभुवनके नाथ, प्रगट जग अंतरजामी । तिहँ चरन नमत हिरदै हरखि, कहत गुननकी माल यह । कवि भैया द्वैकर जोरके, वंदन करहिं त्रिकाल लह ॥ २९ ॥
हृदयराम उपदेशतें, भये कवित्त ये सार । मुनिके गुण जे सरदह, ते पावहिं भव पार ॥३०॥
इति बाईस परीसह कवित्तबंध. ___ अथ मुनिके छियालीसदोषवर्जितआहारवि
घिवर्णन लिख्यते. .
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दोहा.
8. अरहँत सिद्ध चितारचित, आचारज उवझाय ।
साधुसहित वंदन करों, मनवच शीस नवाय ॥१॥ MoRRRRRRRPOUDEDoDARPARDARPopm
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छियालीसदोपरहित आहारशुद्धि.
दोष छियालिस टारकें, मुनि जो लेहिं अहार ॥ नाम कथन ताके कहूं, जिन आगम अनुसार ॥ २ ॥
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१४
२०९
चौपाई.
अस्थि धर्म सूखे अरु हरे । दृष्टि देख भोजन परिहरे ॥ उखली खोटे चक्की चलै । शिलापिसंती देखत टलै ॥ ३ ॥ गोवर थापै माटी छुवै । कोरे वस्त्र भींट जो हुवै ॥ चूल्हो जरतो नयन निहार । ता घर मुनि नहिं लेहिं अहार ॥ ४ ॥ शिरहिं नहाती दीखे कोय । सीस कंघही करती होय ॥ कच्चे पानी परसै अंग । ता घरतें मुनि फिरहिं अभंग ॥ ५ ॥ करवो खांडो दीसै कहीं । छन्नो फाटो है जो तहीं ॥ देत बुहारी दृष्टिहि परै । ताघर मुनि आयेतें फिरै ॥ ६ ॥ अन्नादिक सूकनको धेरै । मिथ्याती भेटै तिहँ घरै ॥ ओंटे कोय कपास निहार । ताघर मुनि फिर जाहिं विचार ॥ ७ ॥ भीटे पाक स्वान मंजार । रोमकँवल परसन परिहार ॥ अग्निदाह जो दृष्टिहि परै । रोवत सुनै अहार न करै ॥ ८ ॥ प्रतिमा भंग सुनै जे कान | शास्त्र जरै इम सुनै सुजान ॥ प्रतिमा हरी भयो भयज़ोर । ता घर आये फिरहिं किशोर ॥ ९ ॥ विनधोये पट पहिरे होय । पड़िगाहैं श्रावक जो कोय ॥ ता कर लेय अहार न साध । अशुचिदोष लागै अपराध ॥ १० ॥ कर्कश वचन सुनहिं विकराल । विनयहीन जो हो अदयाल ॥ लागे चोट ललाटहिं पेख | फिरहिं साधु छर्दित नर देख ॥ ११ ॥ विकलत्रय आवै तिहँ ठौर । नख केशादि अपावन और ॥. पानी बूंद परै आकास । ताघर मुनि फिरजाहिं विमास॥१२॥
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ब्रह्मविलास में.
खाज सहित रोगी नर देख । पीव बहत पीड़ित पुनि पेख ॥
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लोहू दृष्टि परै जो कहीं । तो मुनि असन लेनके नहीं ॥१३॥ मांसादिक मल दृष्टिहि परै । कंद रु मूल मृतक परिहरै ॥ फल अरु बीज होंय तिहँ ठौर । तो मुनिलेहि न एको कौर ॥१४॥ बिना वीज ऊगो जो डार । ता निरखत नहिं लेय अहार ॥ ऐसे दोष छियालिस हीन । तजहिं ताहि संयमि परवीन ॥ १५ ॥ उत्तम कुल श्रावकको जान । द्वारापेखन शुद्ध प्रमान ॥ विनयवंत प्राशुक कर नीर । वोलें तिष्ठ स्वामि जगवीर ॥ १६ ॥ तार दृष्टि विलोकहिं साध । यहां न कोउ लागै अपराध ॥ तब तिहँ मंदिरमें अनुसरै । प्राशुक भूमि निरख पग धेरै ॥ १७ ॥ श्रावक जो प्राशुक आहार । कीन्हों दोष छियालिस टार || निजहित पोषनको परवार । ता महितें कछु भिन्न निकार ॥ १८ द्वै करजोर मुनीश्वर लेहिं । श्रावक निजकरसों तिहँ देहिं ॥ पुनि कर फेर नीरको धेरै । प्राशुकजल तिह करमें करे ॥ १९ ॥ लेय अहार नीर तिहँ ठौर । जिनकल्पी उत्तम शिरमौर ॥ थिवरकल्पिकी हू यह चाल । दोऊं मुनिवर दीनदयाल ॥ २० ॥ दोऊं वनवासी निर्ग्रन्थ । दोऊं चलहिं जिनेश्वर पंथ ॥ दोऊं जपतप किरिया करें। दोऊं अनुभव हिरदै धरें ॥ २१॥ जिनकल्पी एकाकी रहे । थिवरकल्पि शिष्यशाखा गहै ॥ अठ्ठाईस मूलगुण सार । आपसाधु पालहिं निरधार ॥ २२ ॥ षष्टम अरु सप्तम गुण थान । दोऊं रहे परम परधान ॥ पूरव कोटि वरष वसु घाट । उतकृष्टै वरतै यह बाट ॥ २३ ॥ : केवलज्ञान दोऊं उपजाय । पंचमि गतिमें पहुंचें जाय ॥ सुख. अनंत विलसै तिहँ ठौर । तातें कहैं जगत शिरमौर ॥ २४ ॥
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जिनधर्मपचीसिका.
२११
संवत सत्रहसै पंचास । जेठशुदी पंचमि परकाश ॥ भैया चंदत मनहुल्लास । जयजय मुकतिपंथ सुखवास ॥ २५ ॥ इति छियालीसदोषरहित आहारशुद्धि चौपड़े.
अथ जिनधर्मपचीसिका लिख्यते । दोहा. प्रगट देव परमातमा, चिदानंद भगवान ॥ चंदत हों तिनके चरन, नाय शीस धर ध्यान ॥ १ ॥
छप्पय.
धन्य धन्य जिनधर्म, जासु दया. उभयविधि । धन्य धन्य जिनधर्म, जासुमहिं लखै आपनिधि ॥ धन्य धन्य जिनधर्म, पंथशिवको दरसावै । धन्य धन्य जिनधर्म, जहाँ केवल पद पावै ॥ पुनि धन्य धन्य जिनधर्म यह, सुख अनंत जहाँ पाइये । 'भैया' त्रिकाल निजघटविषै, शुद्ध दृष्टि घर घ्याइये ॥ २ ॥
जैनधर्मको मर्म, दृष्टि समकिततें सूझै । जैनधर्मको मर्म, मूढ कैसे कर बूझे ॥ जैनधर्मको मर्म, जीव शिवगामी पावै । जैनधर्मको मर्म, नाथ त्रिभुवन को गाँवै ॥ यह जैनधर्म जगमें प्रगट, दया दुहं जग पेखिये । 'भैया'सुविचक्षन भविक जन, जैनधर्म निज लेखिये ॥ ३ ॥
जैनधर्म जयवंत, अंत जाको नहिं कबहू ।
जैनधर्म जयवंत, संत प्राणी हैं: अवहू ॥ जैनधर्म जयवंत, जंत सबको सुखकारी ॥ जैनधर्म जयवंत, तंत सबको अधिकारी ॥ :
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सत जैनधर्म जयवंत जग, प्रगट परम पद पेखिये। भैया' त्रिकाल जिनधर्मत, सुख अनंत सव लेखिये ॥४॥
कल्पवृक्ष जिनधर्म, इच्छ संव पूरै मनकी । चिंतामन जिनधर्म, चिंत सव-टार जनकी ।। पारस सो जिनधर्म, करै लोहादिक कंचन ।
काम धेनु जिनधर्म, कामना रहती रंच न ॥ है जिनधर्म परमपद एक लख, सुख अनंत जहां पाइये। 'भैया' त्रिकाल जिनधर्मत, मुक्तिनाथ तोहि गाइये ॥५॥
उदित तेजपरताप, होत दिनदिन जयकारी। तम अज्ञान विनाश, आश निज पर अधिकारी ॥ सवको शीतल करे, उष्ण क्रोधादिक टार।
सदा अमिय वरपंत, शांत रस अति विस्तारै ।। 'भैया' चकोर अंबुज भविक, सब प्राणिनको सुख करें। सो जैनधर्म जग चंद सम, सेवत दुख संकट टरै ॥६॥
जैनधर्म विन जीव ! जीत है है नहिं तेरी। __ जैनधर्म विन जीव! रीत किन करै घनेरी ॥
जैनधर्म विन जीव ! ज्ञान चारित कहु नाहीं।
जैनधर्म विन जीव! प्रकृति पर जाह न गाही॥ इहि जैनधर्म विन जीव! तुहै, दया उभय सूझे न हग । 'भैया' निहार निज घट विषै, जैनधर्म सोई मोक्षमग ॥७॥
जैनधर्म विन जीव ! तोहि शिवपंथ न सूझै। जैनधर्म विन जीव! आप परको नहिं बझै ॥. जैनधर्म विन जीव ! मर्म निजको नहिं पावै। .
जैनधर्म विन जीव! कर्मगति दृष्टिन आवै॥ Tranamama/RanweRorwarwomareewala
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इहि जैनधर्म विन जीव तुहे, केवलपद कितह नहीं । अहं संभारि चिरकाल भयो, चिदानंद ! चेतौ कहीं ॥ ८ ॥ जैनधर्मको जीव, आप परको सब जाने । जैनधर्मको जीव, बंध अरु मोक्ष प्रमान ॥ जैनधर्मको जीव, स्यादवादी परत्यागी ।
जैनधर्मको जीव, होय निश्चय वैरागी ॥ इहि जैनधर्मको जीव जग, अजरामरपदवी लहै । 'भैया' अनंत सुख भोगव, आचारज इहविधि कहै ॥ ९ ॥ कवित.
पापनके कूट जे अटूट भरे घट माहिं, होते चिरकालनके सबै निघटत हैं । लागे जो मिथ्यातभाव भूलिके सुभावनिज, तिनहुके पटल प्रभात ज्यों फटत हैं | अपनी सुदृष्टि होत प्रगटै प्रकाश ज्योत, तिहुं लोक उद्योत सत्य प्रगटत हैं। ऐसो जिनधर्मके प्रसादतें प्रकाश होय, अज हूं संभार भैया काहेको रटत है ॥ १० ॥
छप्पय.
जो अरहंत सुजीव, जीव सव सिद्ध भणिज्जे । आचारज पुन जीव, जीव उवझाय गणिज्जे || साधु पुरुष सब जीव, जीव चेतन पद राजै । सो तेरे घट निकट, देख निज शुद्ध विराजै ॥ सवजीव द्रव्यनय एकसे, केवलज्ञान स्वरूप मय । तस ध्यान करहु हो भव्यजन, जो पावहु पदवी अखय ॥ ११ ॥ सवैया. जो जिनदेवकी सेव करे जग, ताजिनदेवसो आप निहारै । जो शिवलोक से परमातम, तासम आतम शुद्ध विचारै ॥
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है आपमें आप लखै अपनो पद, पाप रु पुण्य दुई निरवार। सो जिनदेवको सेवक है जिय, जो इहिभांति क्रिया करतारै ॥१२॥
कवित्त. एक जीवद्रव्यमें अनंत गुण विद्यमान, एक एक गुणमें अनंत । शक्ति देखिये । ज्ञानको निहारिये तो पार याको कहूं नाहि,लोक ६
ओ अलोक सव याहीमें विशेखिये। दर्शनकी ओर जो विलोकिये है तो वहै जोर, छहों द्रव्य भिन्न भिन्न विद्यमान पेखिये। चारितसों थिरता अनंतकाल थिररूप, ऐसेही अनंत गुण भैया सव लेखिये१३१
छप्पय. राग दोष अरु मोहि, नाहिं निजमाहिं निरक्खत । दर्शन ज्ञान चरित्र, शुद्ध आतम रस चक्खत ॥ परद्रव्यनसों भिन्न, चिह्न चेतनपद मंडित ।
वेदत सिद्ध समान, शुद्ध निज रूप अखंडित ॥ सुख अनंत जिहि पदवसत, सो निहचै सम्यक महत । ह'भैया' सुविचक्षन भविक जन, श्रीजिनंद इहि विधि कहत १४ ह
. व्यवहार सम्यक लक्षण. छप्पय. छहों द्रव्य नव तत्त्व, भेद जाके सव जाने । दोष अठारह रहित, देव ताको परमानै । संयम सहित सुसाधु, होय निरग्रंथ निरागी।
मति अविरोधी ग्रन्थ, ताहि मान परत्यागी ॥ वरकेवल भाषित धर्मधर, गुण थानक बूझै मरम । 'भैया' निहार व्यवहार यह, सम्यक लक्षण जिन धरम ॥१५॥
____ व्यवहार निश्चयनय वर्णन-मात्रिक कवित्त. जाके निहचै प्रगट भये गुण, सम्यक दर्शन आदि अपार । home/es-PERPeppeowapepornwerPORDNews
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२१५.३ ताके हिरदै गई विकलता, प्रगट रही.करनी व्यवहार ॥ जह व्यवहार होय तह निहचे, होय न होय उभय परकार। जहँ व्यवहार प्रगट नहिं दीखे, तहां न निश्चय गुण निरधार१६
कवित्त. , आंख देख रूप जहां दौड़ तूही लागै तहां, सुने जहां कान त-है
हां तूही सुनै वात है। जीभ रस स्वाद धरै ताको तू विचार करे । हैं नाक सूंघे वास तहाँ तू ही विरमात है । फर्सकी जु आठ जाति
तहां कहो कौन भांति, जहां तहाँ तेरो नांव प्रगट विख्यात है। याही देह देवलमें केवलि स्वरूपदेव, ताकी कर सेव मन कहाँ है में दौड़े जात है ॥ १७॥
जासों कहें घर तामै डर तो कईक तोहि, सवन विसार हंस विपैरस लाग्यो है। गिरवेको डर अरु डर आगि पानीस्को,
वस्तु राखवेको डर चौर डर जाग्यो है । पेट भरवेको डर रोग में शोक महाडर, लोकनिकी लाज डर राजडर पाग्यो है। डर है
जमराजको डारि तूं निशंक भयो, जैसे मोह राजाने निवाज तोहि दाग्यो है ।। १८॥ । रागी द्वेषी देख देव ताकी नित करैसेव, ऐसी है अबेव ताको कसे पाप खपनो राग रोग क्रीडासंग विपैकी उठे तरंग, ताही में अभंग रैन दिना करें: जपनो ॥ आरति ओ रौद्र ध्यान दोऊ किये आगेवान, एते चहें कल्यान देके दृष्टि ढपनो । अरे मिथ्या है चारी ते विगारी मति गति दोऊ, हाथ ले कुल्हारी पाँय मारत है । ए अपनो ॥ १९॥
छप्पय. . जन्म जरा अरु मरन, पाप संताप विनास।
रोग शोक दुख हरै, सर्व चिंता भय नासै ॥ . . spapeDSPIRPORDWPDADARPORPORPROPER
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ब्रह्मविलासमें. ऋद्धि सिद्धि अनुसरै, विविध विद्या परकासै।
निजनिधि लहै प्रकाश, ज्ञान प्रभुता गुण भासे ।। अरु कर्म शत्रु सब जीतके, केवलि पद महिमा वरै । सो जैनधर्म जयवंत जग, जास हृदय ध्रुव संचरै ॥ २० ॥
जैनधर्म परसाद, जीव मिथ्यामति खंडै । . जैनधर्म परसाद, प्रकृति उर सात विहंडे । जैनधर्म परसाद द्रव्यषटको पहिचाने।
जैनधर्म परसाद, आप परको ध्रुव ठाने । , जैनधर्म परसाद लहि, निजस्वरूप अनुभव करें। 'भैया' अनंत सुख भोगवै, जैन धर्म जो मन धरै ॥ २१ ॥
जैनधर्म परसाद, जीव सव कर्म खपावै । जैनधर्म परसाद, जीव पंचमि गति पावै ।। जैनधर्म परसाद, बहुरि भवमें नहिं आवै।
जैनधर्म परसाद, आप परब्रह्म कहावै ॥ श्री जैनधर्म परसादतें, सुख अनंत विलसंत ध्रुव । सो जैनधर्म जयवंत जग, भैया जिहँ घट प्रगट हुव ॥ २२ ॥
करिना
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सुन मेरे मीत तू निचिंत हैके कहा बैठो, तेरे पीछे काम श-हूँ त्रु लागे अति जोर हैं। छिन छिन ज्ञान निधि लेत अति छीन है तेरी , डारत अंधेरी भैया किये जात भोर हैं। जागवो तो जाग. अब कहत पुकारें तोहि, ज्ञान नैन खोल देख पास तेरे चोर हैं। फोरके शकति निज चोरको मरोर वांधि, तोसे बलवान आगे चोर हकै को रहैं ॥ २३ ॥. . . . . Pawwwpowdo/
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२१७ . छप्पय. . . चहुं गतिमें नर वड़े, बड़े तिनमें समदृष्टी। समदृष्टीते बड़े, साधुपदवी उतकृष्टी॥ साधुनतें पुन बड़े, नाथ उवझाय कहावे ।
उवझायनते बड़े, पंच आचार वतावें ॥ तिन आचार्यनते जिन बड़े, वीतराग तारन तरन । हे तिन कह्यो जैनवृप जगतमें, भैया तस बंदत चरन ॥ २४ ॥
दोहा. जैनधर्म सव धर्म में, शोभत मुकुर समान ॥ जाके सेवत भव्यजन, पावत पद निर्वान ॥२५॥ ज्यों दीपक संयोगते, वत्ती कर उदोत ॥ त्यों ध्यावत परमातमा, जिय परमातम होत ।। २६ ॥ श्री जिनधर्म उदोत है, तिहू लोक परसिद्ध । 'भैया' ने सेवहिं सदा, ते पावहिं निजरिद्ध ॥ २७ ॥ सत्रहसै पंचासके, उत्तम भादव मास ।। सुदि पूनम रचना कही, जैजिनधर्मप्रकाश ॥२८॥
इति जिनधर्मपचीसिका.
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अथ अनादिवत्तीसिका लिख्यते।
दोहा. अष्टकर्म अरि जीतकें, भये निरंजन देव ॥ मन वच शीस नवायके, कीजे ताकी सेव ॥१॥ छहों सु द्रव्य अनादिके, जगत माहि जयवंत ॥ .
को किस ही कर्ता नहीं, यों भाखै भगवंत ॥२॥ PRO/ARORDPARROSOMWAREmachondnangi
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२१८
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ब्रह्मविलास में
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अपने गुण परजायमें, वरतै सव. निरधार ॥
को काह भेटै नहीं, यह अनादि
गुण जाको
द्रव्य एक आकाश है, परणामी पूरन भरयो, अंत न वरण्यों जास ॥ ४ ॥ दूजो पुद्गल द्रव्य है, वर्ण गन्ध रस फांस ॥ छाया आकृति तेज द्युति, ये सब जास विलास ॥ ५ ॥ तीजो धर्म सुद्रव्य है, चलत सहायी होय || पुद्गल अरु पुन जीवको, शुद्ध स्वभावी जोय ॥ ६ ॥ चौथो द्रव्य अधर्म है, जब थिर तबहिं सहाय ॥ देय जीव पुद्गलनको, लोक हद्दलों भाय ॥ ७ ॥ पंचम काल प्रसिद्ध है, वर्त्तन जासु स्वभाय ॥ समय महूरत जाहि जो, सो कहिये परजाय ॥ ८ ॥ षष्ठम चेतन द्रव्य है, दर्शन ज्ञान स्वभाय ॥ परणामी परयोगसों, शुद्ध अशुद्ध कहाय ॥ ९ ॥ है अनादि ब्रह्मण्ड यह, छहाँ द्रव्यको वास ॥ लोकहद्द इनतें भई, आगें एक अकास ॥ १० ॥ सूर चंद निशदिन फिरें, तारागण बहु संग ॥
विस्तार ॥ ३ ॥ अवकास ॥
यही अनादि स्वभाव है, छिन्न इक होय नभंग ॥ ११ ॥ कहा ज्ञान है नाज पैं, ऋतुविन उपजै नाहिं ॥ सबहि अनादि स्वभाव है, समुझ देख मनमाहिं ॥ १२ ॥ बोवत है जिह बीजको, उपजत ताको वृक्ष ॥
ताहीको रस वढत है, यह बात को वोवत वन वृक्षको को सींचत फलफूलनिकर लहलहे, यह अनादि स्वभाय ॥ १४ ॥
नित जाय ॥
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परतक्ष ॥ १३ ॥
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अनादिवत्तीसिंका. वनस्पती फूलै फलै, ऋतु वसंतके होत ॥ को सिखवत है वृक्षको, इहि दिन करो उदोत ॥ १५ ॥ वर्पत है जल धरनिपर, उपजत सब बनराय॥ अपने अपने रस वटैं, यह अनादि स्वभाय ॥ १६ ॥ जो पहिले कहो वृक्ष है, तौ न बनै यह वात ॥ विना बीज उपज नहीं, यह तो प्रगट विख्यात ॥ १७ ॥ है
कहो वीज है, बीज भयो किह और ॥ यह वात नहिं संभवै, है अनादि की दौर ॥१८॥ को सिखवत है नीरको, नीचेको ढर जाय ॥ अग्निशिखा ऊंची चलै, यह अनादि स्वभाय ॥ १९ ॥ कहो मीनके वालकों, को शिखवत है वीर! ॥ जन्मत ही तिरवो तहां, महा उदधिके नीर ॥ २० ॥ कौन सिखावत बालको, लागत मा तन धाय ॥ क्षुद्धित पेट भरै सदा, यह अनादि स्वभाय ॥२१॥ पंछी चलै अकाशमें, कौन सिखावन हार॥ यहै अनादि स्वभाव है, वन्यों जगत विस्तार ॥ २२ ॥ कौन सांपके वदनमें, विष उपजावत वीर! ॥ यह अनादि स्वभाव है, देखो गुण गंभीर ॥२३॥ कहो सिंहके वालको, सूरपनो कब होत ॥ कोटि गजनके पुंजको, मार भगावै पोत ॥ २४ ॥ पृथिवी पानी पौन पुन, अग्नि अन्न आकास ॥ है अनादि इहि जगतमें, सर्व द्रव्यको वास ॥ २५ ॥ अपने अपने सहज सब, उपजत विनशत वस्त ॥
है अनादिको जगत यह, इहि परकार समस्त ॥ २६ ॥ WOROPOWROORDERROADCORROppoPower
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ब्रह्माविलासमें चेतन अरु पुद्गल मिले, उपजे कई विकार ॥ तासों विन समुझे कहैं, रच्यो किनहिं संसार ॥ २७ ॥ यह संसार अनादिको, यही भांत चल आय ॥ उपजै विनशै थिर रहै, सो सव वस्तु स्वभाय ॥ २८ ॥ को काहू को नहीं, करता भुगता आप ॥ यह जीव अज्ञानमें, करै पुण्य अरु पाप ॥ २९॥ पुण्य पाप जग वीज है, याहीतें विस्तार ॥ जन्म मरन सुखदुख सहै, 'भैया' सब संसार ॥ ३० ॥ पुण्यपापको त्याग जे, भये शुद्ध भगवान ॥ अजरामर पदवी लई, सुख अनंत जिहँ थान ॥ ३१॥ इहि अनादि वत्तीसिमें, वरनी वात अनादि ॥ 'भैया' आप निहारिये, और वात सब वादि ॥ ३२॥ सत्रहरी पंचासके, आश्विन पहिला पक्ष ।। तिथि तेरस रविवारको, कही अनादि प्रत्यक्ष ॥ ३३ ॥
इति अनादिवत्तीसी.
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अथ समुद्धातस्वरूप लिख्यते।
दोहा. चरन जुगल जिनदेवके, वंदत हो कर जोर ॥ जिहँ प्रसाद निजसंपदा, लहै कर्म दल मोर ॥१॥ समुद्घात जे सात हैं, तिनको कछु विस्तार ॥ कहूं जिनागम शाखतें, जिय परदेश विचार ॥२॥ उदयकषाय प्रचंड है, निकसत जियपरदेश ॥
दमि दुर्जनकी देहको, बहुरि न करत प्रवेश ॥३॥ PRODOGDPPRPREPARANG-RAPSORRORSPARE
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मूढाष्टक.
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शन पूरित करना, लोक हहला लाज ॥४॥
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रोगादिक संयोगसों, औपध परसन काज ॥ निकश जाय परदेश जो, आवत कर इलाज ॥ ४ ॥ केवल ज्ञानी आतमा, लोक हद्दलों जाय ॥ परदेशन पूरित कर, उदै न कछू वसाय ॥ ५॥ मरन समय जिहँ जीवको, समुदघात थित होय ॥ प्रथम परस गति आयक, वहुर जात है सोय ॥ ६ ॥ पष्टम गुण थानीनको, उपजै कहुं संदेह ॥ प्रश्न करत जिनदेवको, निकसत अद्भुत देह ॥ ७॥ सुर मनुष्य कर वैक्रिया, नाना ठौर रमाहिं ।। सव थानक परदेशजिय, निकसै आवै जाहि ॥८॥ तैजस वपु मुनिरायके, निकसत उभय प्रकार ॥ अशुभ शुभनके काजको, समुदघात तिहँ वार ॥९॥ तंतू सव लागे रहे, सुख दुख वेवे आप ॥ देहादिकके प्रसरते, परदेशनिमें व्याप ॥१०॥ 'भैया' वात अगम्य है, कहन सुननकी नाहिं ।। जानत हैं जिन केवली, जे लच्छन जिय पाहिं ॥ ११॥
इति समुद्धातस्वरूप.
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अथ मृढाटक लिख्यते ।
दोहा. चिन्मूरत चिंता हरन, पूरन वांछित आश ॥ अश्वसेन अंगज निला, नमूं जिनेश्वर पाशे ॥१॥ अपने शुद्ध स्वभावसों, करें न कबहू प्रीति ॥ 'लगे फिरहिं परद्रव्यसों, यह मूढनकी रीति ॥ २॥ १मणि. २ पार्श्वनाथ WORE/AMPARANEPARRIAGE-POORDANAPDRAPRIORDERS
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ब्रह्मविलासमें
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चौपाई. (१६ मात्रा) मूरख कहै ग्रन्थ पहिचानों । सांच झूठको भेद न जानों॥ जो कुछ लिख्यो सोई मै मानों। मेरे हृदय यह ठहरानो ॥३॥ धूप मांहि जो कहै अन्धेरा । सूरज अथवत होय सवेरा ॥ हिंसा करत पुण्य बहु होई । ऐसौ लिख्यो सत्य मुहि सोई ॥४॥ मा कहिकें जो बांझ बखाने । कर्म न होय प्रकृति परमाने ॥ जो मोको उपदेशहि ऐसो । तो मैं कहूं सत्य सवतेसो॥५॥ सांच त्याग जो झूठ अलापै । झूठे वचन सत्य कहि थापै ॥ हिरदै सून्य सुन्यों मैं सवही । नैक विवेक धरों नहिं कवही॥६॥ ह ऐसे शून्य हिये जे प्रानी । ते कलियुगकी बनी निशानी॥ तिनको देख दया मन धरिये । वाद विवाद कछुनहिं करिये।॥७
दोहा. ज्ञानवंत सुन वीनती, परसों नाही काम ॥ अनुभव आतम रामको, 'भैया' लख निजधाम ॥८॥
इति मूढाष्टकं । अथ सम्यक्त्वपचीसिका लिख्यते। सम्यक आदि अनंत गुण, सहित सु आतम राम ॥ प्रगट भये जिह कर्म तज, ताहि करों परणाम ॥१॥ उपशम वेदक क्षायकी, सम्यक तीन प्रकार ॥ ताहीके नव भेद हैं, कहाँ ग्रंथ अनुसार ॥२॥
. चौपाई. ( १५ मात्रा) उपसम समकित कहिये सोय । सात प्रकृति उपसम जहँ होय । ६ दर्शन मोह तीन परकार । अनतानुबंधीकी चार ॥३॥
१ डुवते. २ सम्यक् वा सम्यग्दर्शन. MPAPopCOO/2wme/OOOOOOOOOOOOD
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PROPOARIORDPRORSPOROpeowapcowPOR सम्यक्त्वपचीसिका.
२२३ क्षय उपसमके तीन प्रकार । तिनके नाम कई निरधार ॥ एअनतानुवंधी चौकरी । जिह जिय शक्ति फोरके ख़री ॥ ४ ॥
महा मिथ्यात मिश्र मिथ्यात । समै प्रकृति उपशम विख्यात॥ क्षय उपशम समकित तस नाम । अव दूजो वरनों इहि ठाम ॥५॥
अनतानु जे चार कपाय । महा मिथ्यात्व मिले क्षय जाय॥ है दोय प्रकृति उपसम ह रहै । तासांक्षय उपसम पुनि कह॥६॥
क्षय पट् जाहिं प्रकृति जिहँ ठाम । समै प्रकृति उपसम तिहनाम।। है ये क्षय उपशम तिहुँ विधि कहे । अव वेदक वरनों सरदहै ॥७॥ है
जहाँ चार प्रकृति खप रहे । द्वै उपशम डुक वेर्दक लहै ॥ है क्षयउपसमवेदक तिहँ नाव । कहे ग्रंथमें हैं बहु व ॥ ८॥ पांच खपै उपशम है एक । समैप्रकृति वेदै गहि टेक ॥ दूजो भेद यह सिरदार । अवतीजैकोसुनहु विचार ॥९॥
छहों प्रकृति जामे क्षय जाहिं । समै मिथ्यात्व मिटै तह नाहि ॥ इक्षायक वेदक · लच्छन एह । कहे ग्रंथमें नहिं संदेह ॥१०॥ है उपशमवेदक कहिये तहाँ । छह उपशम इक वेदै जहां ॥
क्षायकसमकिततब जिय लहै । सातो प्रकृति मूलसों दहै॥११॥ जब लग ये प्रकृति नहिं जाती। तब लग कहिये जीव मिथ्याती॥ तिनके दूर कियेते जीव । सम्यक दृष्टी कहे सदीवा॥१२॥ उनकी थिति पूरी जव होय । तब वे खिर फिर नहिं सोयः ।। खिरके निजगुण परगट लहै । सो गुण काल अनन्तो रहै १३ ॥
जे गुण प्रगट भये तज कर्म । ते सब जानो जियको धर्म ॥ र जैसो प्रभु देखौ · भगवान । तैसो हैं इनके सरधान ॥१४॥
सम्यकवंत जीव बैरागी । भावन सों सवही का त्यागी ॥ निव्रत पक्ष कर व्रत नाही । अप्रत्याख्यान उदै घटमाही ॥१५॥ (१) सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व (२) उदयरूप.
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२२४
ब्रह्मविलास में
मनवचकाय जोग त्रिक डोलै । लखै आपनी कर्म कलोलें ॥ जितनी कर्म प्रकृति क्षय गई । तितनी कछु निर्मलता भई ॥ १६ प्रकटी शक्ति ताहि पहिचान । अरु जिनवरकी आज्ञा मानै ॥ अक्षर एक विरोधै कोय । ताको भ्रमन बहुत जग होय १७ तातें व्रत पचखान न करै । जिनवरकी आज्ञासों डरे ॥ लेकै व्रत जो भंजै जीव । ते महा पापी कहे सदीव ॥ १८ अप्रत्याख्यान जाय नहिं जहाँ । व्रत पचखान पलै नहिं तहाँ । सम्यकदृष्टी परम सुजान | धरहिं शुद्ध अनुभवको ध्यान १९ अनुभवमें आतमरस लसै । आतमरसमें शिव सुख वसै ॥ आतम ध्यान धरयो जिनदेव । तातैं भये मुक्ति स्वयमेव ॥२०॥ मुक्ति होनको वीज निहार । आतम ध्यान धेरै अरिटार ॥ ज्यों ज्यों कर्म विलयको जाहिं । त्यों त्यों सुख प्रगटै घट माहिं २१ अप्रत्याख्यान । कर चकचूर चढहिं गुण थान || आगें महा ध्यान धर धीर । कर्म शत्रु जीतै वल वीर ||२२|| प्रगट करै निज केवल ज्ञान । सुख अनंत विलसै तिहँ थान || लोक अलोक सबहि झलकंत । तातैं सब भाखै भगवंत ॥२३॥ चारों कर्म अघाती हार । तव वे पहुँचे मुकति मँझार ॥ काल अनंतहि ध्रुव है रहे । तास चरन भवि वंदन कहै २४ सुख अनंत की नीव यह, सम्यक दर्शन जान ॥
प्रत्याख्यान
.
•
याहीतें शिवपद मिलै, 'भैया' लेहु पिछान ॥ २५ ॥
सत्रहसै पंचासके, मारगसिर सित पक्ष ||
तिथि लच्छन मुनिधर्मकी, मृगेपति वार प्रत्यक्ष ॥ २६॥ इति सम्यक्त्वपचीसिका ।
१ दशमीं. २ सोमवार.
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रागादिक दूपण तजे, मन वच शीस नवाय,
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वैराग्यपचीसिका.
अथ वैराग्यपचीसिका लिख्यते ।
दोहा.
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वैरागी जिनदेव ॥
कीजे तिनकी सेव ॥ १ ॥ मुक्ति मूल वैराग ॥
जगत मूल यह राग है, मूल दुहुनको यह कह्यो, जाग सके तो जाग ॥ २ ॥ क्रोधमान माया धरत, लोभ सहित परिणाम || येही तेरे शत्रु हैं, समुझो आतमराम ॥ ३ ॥ इनही च्यारों शत्रुको, जो जीते जगमाहिं ॥ सो पावहि पथ मोक्षको, या धोखो नाहिं ॥ ४ ॥ जा लच्छीके काज तू, खोचत है निजधर्म ॥ सो लच्छी संग ना चलें, काहे भूलत भर्म ॥ ५ ॥ जा कुटुंवके हेत तू, करत अनेक उपाय || सो कुटंब अगनी लगा, तोकों देत जराय ॥ ६ ॥ पोपत है जा देहको, जोग त्रिविधिके लाय || सो तोकों छिंन एकमें, दगा देय खिर जायं ॥ ७ ॥ लच्छी साथ न अनुसरे, देह चलै नहिं संग ॥ काढ काढ़ सुजन हि करे, देख जगतके रंग ॥ ८ ॥ दुर्लभ दश दृष्टान्त सम, सो नरभव तुम पाय ॥ विषय सुखनके कारने, सर्वस चले गमाय ॥ ९ ॥ जगहिं फिरत कइ युग भये, सो कछु कियो विचार ॥ चेतन अव किन चेतह, नरभत्र लहि अतिसार ॥ १० ॥
ऐसे मति विभ्रम भई, विपयनि लागतः धाय ॥
के दिन के छिन के घरी, यह सुख थिर ठहराय ॥ ११ ॥
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२२५
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२२६
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कककक
ब्रह्मविलास में
पीतो सुधा स्वभावकी, जी ! तो कहूं सुनाय ॥
तू रीतो क्यों जातु है, वीतो नरभव जाय ॥ १२ ॥ मिथ्यादृष्टि निकृष्ट अति, लखै न इष्ट, अनिष्ट ॥
भ्रष्ट करत है सिष्टको शुद्ध दृष्टि दै पिष्ट ॥ १३ ॥ चेतन कर्म उपाधि तज, राग द्वेपको संग ॥ ज्यों प्रगटै परमातमा, शिव सुख होय अभंग ॥ १४ ॥ ब्रह्म कहूं तो मै नहीं, क्षत्री ह पुनि नाहिं ॥
वैश्य शुद्र दोऊ नहीं, चिदानंद हूं माहिं ॥ १५ ॥ जो देखै इहि नैनसों, सो सव विनस्यो जाय || तासों जो अपनो कहै, सो मूरख शिरराय ॥ १६ ॥ पुद्गलको जो रूप है, उपजै विनस सोय ॥
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जो अविनाशी आतमा, सो कछु और न होय ॥ १७ ॥ देख अवस्था गर्भकी, कौन कौन दुख होंहि
॥
बहुर मगन संसारमें, सौ लानत है तोहि ॥ १८ ॥ अधो शीस ऊरध चरन, कौन अशुचि आहार ॥
थोरे दिनकी बात यह, भूलि जात संसार ॥ १९ ॥ अस्थि धर्म मलमूत्रमें रैन दिनाको वास ॥ देखें दृष्टि घिनावनो, रोगादिक पीड़ित रहै,
तऊ न होय उदास ॥ २० ॥ महाकष्ट जो होय ॥
.. तबहू मूरख जीव यह, मरन समय विललात हैं,
धर्म न चिन्तै कोय ॥ २१ ॥ कोऊ लेहु वचाय ॥
जानै ज्यों त्यों जीजिये, जोर न कछू बसाय ॥ २२ ॥ फिर नरभव मिलिवो नहीं, किये हु कोट उपाय ॥
'तातें बेगहि चेत हू, अहो जगतके. राय ॥ २३ ॥
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२२७
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भैयाकी यह वीनती, चेतन चितहि विचार || ज्ञानदर्श चारित्रमें, आपो लेहु निहार ॥ २४ ॥ एक सात पंचासके, संवत्सर सुखकार ॥ पक्ष शुक्ल तिथि धर्मकी, जै जै निशिपतिवार ॥ २५ ॥ इति वैराग्यपचीसी.
अथ परमात्माछत्तीसी लिख्यते । दोहा.
परम देव परमातमा, परम ज्योति जगदीश ॥
परम भाव उर आनके, प्रणमत हों नमि शीश ॥ १ ॥
तिनमें तीन प्रकार ॥
परमातम पदसार ॥ २ ॥
एक जु चेतन द्रव्य है, वहिरातम अन्तर तथा वहिरात ताको कहै, लखै न ब्रह्म स्वरूप ॥ मग्न रहै परद्रव्यमें, मिथ्यावंत अनूप ॥ ३ ॥ अंतर आतंम जीव सो, सम्यग्दृष्टी होय ॥ चौथै अरु पुनि बार, गुणथानक लों सोय ॥ ४ ॥ परमातम पद ब्रह्मको, प्रगव्यो शुद्ध स्वभाय ॥ लोकालोक प्रमान सब, झलकै जिनमें आय ॥ ५ ॥ बहिरातमास्वभाव तज, अंतरातमा होय ॥ परमातम पद भजत है, परमातम है सोय ॥ ६ ॥ परमातम सो आतमा, और न दूजो कोय ॥ परमातमको ध्यावते, यह परमातम होय ॥ ७ ॥ परमातम यह ब्रह्म है, परम ज्योति जगदीश ॥ परसों भिन्न निहारिये, जोइ अलख सोइ ईश ॥ ८ ॥ கைகைகைேவல்க்ளிக்ககைகளாள
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ब्रह्मविलासमें जो परमातम सिद्धमें, सो ही या तन माहिं ॥ मोह मैल. हग लंगि रह्यो, तातें सूझै नाहिं ॥९॥ मोह मैल रागादिको, जा छिन कीजे नाश ॥ ता छिन यह परमातमा, आपहि लहै प्रकाश ॥ १०॥ आतम सो परमातमा, परमातम सो सिद्ध ।। बीचकी दुविधा मिटगई, प्रगट भई निज रिद्ध ॥ ११ ॥ मैंहि सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम ॥ मैं ही ज्ञाता ज्ञेयको, चेतन मेरो नाम ॥ १२॥ मै अनंत सुखको धनी, सुखमय मोर स्वभाय ॥ अविनाशी आनंदमय, सो हो त्रिभुवन राय ॥ १३ ॥ शुद्ध हमारो रूप है, शोभित सिद्ध समान ।। गुण अनंतकर संजुगत चिदानंद भगवान ॥ १४॥ जैसो शिव खेतहि बसै, तैसो या तनमाहिं । निश्चय दृष्टि निहारतें, फेर रंच कहुँ नाहि ॥ १५ ॥ कर्मनके संयोगते, भये तीन परकार ॥ एक आतमा द्रव्यको, कर्म नचावन हार ॥ १६ ॥ कर्म संघाती आदिके, जोर न कछू वसाय ॥ पाई कला विवेककी, राग द्वेष विन जाय ॥ १७ ॥ कर्मनकी जर राग है, राग जरें जर जाय ॥ प्रगट होत परमातमा, भैया सुगम उपाय ॥ १८॥ काहे को भटकत फिर, सिद्ध होनके काज । "राग द्वेष को त्यागदे, 'भैया' सुगम इलाज ॥ १९॥ परमातम पदको धनी, रंक भयो विललाय ॥
राग द्वेषकी प्रीतिसों, जनम अकारथं जाय ॥२०॥ opanbappamPalenPOORProPROD
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परमात्माछत्तीसी.
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. राग द्वेपकी प्रीति तुम, भूलि करो जिन रंच ॥
परमातम पद ढांकके, तुमहिं किये तिरजंच ॥२१॥ जप तप संयम सब भलो, राग द्वेप.जो नाहि ॥ . राग द्वेपके जागते, ये सव सोये जाहिं ॥ २२ ॥ राग द्वेपके नाशते, परमातम परकाश ॥ राग द्वेपके भासते,. परमातम पद नाश ॥ २३ ॥ जो परमातम पद चहै, तो तू राग निवार ।
देख सयोगी' स्वामिको, अपने हिये विचार ॥ २४ ॥ : लाख वातकी. वात यह, तोकों दई वताय ।। ..
जो परमातम पद चहै, . राग द्वेपतज भाय ॥ २५ ॥ राग द्वेपके त्याग विन, परमातम पद नाहिं ।। कोटिकोटि जपतप करो,सहि अकारथ जाहिं ॥ २६ ॥ दोप. आतमाको यहै, राग द्वेपके संग ॥ जैसे पास मजीठके, · वस्त्र और ही. रंग ॥ २७ ॥ तैसें आतम द्रव्यको,. राग-द्वेपके पास ॥ कर्म रंग लागत रहै, कैसें लहै प्रकाश ॥२८॥ इन कर्मनको जीतिबो, कठिन वात है मीत ॥ जड़ खोद विन नहिं मिटै, दुष्टजाति विपरीत.॥ २९ ॥ लल्लोपत्तोके किये, ये मिटवेके नाहि ॥ • ध्यान अग्नि परकाशके, होम देहु तिहि माहि ॥ ३०॥
ज्यों दारूके गंजको, नर नहिं सकै उठाय॥ . तनक आग संयोगते, छिन इको उडि जाय ॥ ३१॥
देह सहित परमातमा, यह अचरजकी वात ॥ (9) टालटल. (२) ढेरको. , ..... ... . MonsonanwwwwwwEANPOWERRORawas
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७
ब्रह्मविलास में
राग द्वेषके त्यागतैं, कर्म शक्ति जर जात ॥ ३२ ॥ परमातमके भेद द्वय, निकल सकल परमान ॥ सुख अनंतमें एकसे, कहिवेको द्वय थान ॥ ३३ ॥ भैया वह परमातमा, सो ही तुममें आहि ॥
अपनी शक्ति सम्हारिके, लखो वेग ही ताहि ॥ ३४ ॥ राग द्वेषको त्यागके, धर परमातम ध्यान ॥
ज्यों पावे सुख संपदा, भैया इम कल्यान ॥ ३५ ॥ संवत विक्रम भूपको, सत्रह से पंचास ॥ मार्गशीर्ष रचना करी, प्रथम पक्ष दुति जास ॥ ३६ ॥ इति परमात्माछत्तीसी ।
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अथ नाटकपचीसी लिख्यते ।
कर्म नाट नृत तोरके, भये जगत जिन देव ॥
नाम निरंजन पद लह्यो, करूं त्रिविधि तिहिं सेव ॥ १ ॥ कर्मनके नाटक नटत, जीव जगतके माहिं ॥ तिनके कछु लच्छन कहूं, जिन आगमकी छाहिं ॥ २ ॥ तीन लोक नाटक भवन, मोह नचावनहार ॥ नाचत है जिय स्वांगधर, करकर नृत्य अपार ॥ ३ ॥ नाचत हैं जिय जगतमें, नाना स्वांग वनाय ॥
देव नर्क तिरजंचमें, अरु मनुष्य गति आय ॥ ४ ॥ स्वांग धरै जब देवको, मानत है निज देव ॥ वहीं स्वांग नाचत रहै, ये अज्ञानकी देव ॥ ५ ॥ औरनसों औरहि कहै, आप कहै हम देव ॥ गहिके स्वांग शरीरको, नाचत है स्वयमेव ॥ ६ ॥
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PEOPOPRARRORRRPORONSPIONORRIDWANAPATH नाटकपचीसी.
२३१७ भये नरकमें नारकी, लागे करन पुकार ।। छेदन भेदन दुख सहै, यही नाच निरधार ।। ७॥ मान आपको नारकी, त्राहि त्राहि नित होय॥ यह स्वांग निर्वाह है, भूलपरो मति कोय ॥८॥ नित निगोदके स्वांगकी,आदि न जानै जीव ॥ नाचत है चिरकालके, भव्य अभव्य सदीव ॥९॥ इत्तर नाम. निगोद है, तहाँ वसत जे हंस ॥ ते सव स्वांगहि खेलके, बहुर धरयो यह वंस.॥ १०॥ उछरि उछरिकें गिरपर, ते आवै इहि और ॥ मिथ्यादृष्टि स्वभाव धर, यह स्वांग शिरमौर ॥११॥ कबहू पृथिवी कायमें, कबहू अग्नि स्वरूप ॥ कबहू पानी पौन है, नाचत स्वांग अनूप ॥ १२॥ वनस्पतीके भेद वहु, स्वास. अठारह वार॥ तामें नाच्यो जीवयह, धर धर जन्म अपार ॥ १३ ॥ विकलत्रयके स्वांगमें, नाचे चेतन राय ॥ उसीरूप है परणये, वरनें कैसें जाय ॥ १४ ॥ उपजे आय मनुष्यमें, धरै पचेंद्री खांग ॥ अष्ट मदनि मातो रहै, मानो खाई भांग ॥ १५॥ पुण्य योग भूपति.भये, पापयोग भये रंक ॥ . सुख दुख आपहि मानिके; नाचत फिर निशंक ॥ १६ ॥ नारि नपुंसक नर भये, नाना स्वांग रमाहि॥ चेतनसों परिचयं नहीं, नाच नाच खिर जाहिं ॥ १७ ॥
ऐसे काल अनंत हुक, चेतनं नाचत तोहि... - अजहूं आप संभारिये, सावधान किन होहि ॥१८॥ Bappavanemopenweppeword/DP/nomocom
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ब्रह्मविलासमें सावधान जे जिय भये, ते पहुंचे शिव लोक ॥ नाचभाव सब त्यागके, विलसत सुखके थोक ॥ १९॥ नाचत हैं जग जीव जे, नाना स्वांग रमंत देखत हैं तिह नृत्यको, सुख अनंत विलसंत ॥२०॥ जो सुख देखत होत है, सो सुख नाचत नाहि ॥ नाचनमें सव दुःख है, सुख निजदेखन माहिं ॥२१॥ नाटकमें सब नृत्य है, सारवस्तु कछु नाहि || ताहि विलोको कौन है, नाचन हारे,माहिं ॥२२॥ देखै ताको देखिये, जानै ताको जान ॥ जो तोको शिव चाहिये, तो ताको पहचान ॥ २३ ॥ प्रगट होत परमातमा, ज्ञान दृष्टिके देत ॥ लोकालोक प्रमान सब, छिन.इकमें लखलेत.॥ २४ ॥ "भैया' नादक कर्मते, नाचत सब संसार ॥ नाटक तज़ न्यारे भये, ते पहुंचे भव पार ॥ २५ ॥
इति नाटकपचीसी। .
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अथ उपादाननिमित्तका संवाद लिख्यते ।
दोहा. - पाद प्रणमि जिनदेवके, एक उक्ति उपजाय ॥ :: . उपादान अरु निमितको, कहुं संवाद बनाय ॥१॥ - पूछत है कोऊ तहाँ, उपादान किह नाम । । कहो निमित्त कहिये कहा, कंबके हैं इह ठाम॥२॥
उपादान निजशक्ति है, जियको मूल स्वभाव ।।
है निमित्त परयोगते, वन्यो अनादि बनाव ॥३॥ HalfamopenpeopaneRow /DROPeopoos
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Fguslamana/monomwOSonwandlendemobains उपादाननिमित्तका संवाद.
२३३१ निमितं कहै मोको सबै, जानत है जग लोय ॥ तेरो नाव न जानहीं, उपादान को होय ॥ ४ ॥ उपादान कहै रे निमित, तू कहा करै गुमान ।। 'मोको जाने जीव वे, जो हैं सम्यकवान ॥५॥ कह जीव सव जगतके, जो निमित्त सोइ होय ॥ उपादानकी चातको, पूछ नाही कोय ॥६॥ उपादान विन निमित तू, कर न सकै इक काजः।। कहा भयो जग ना लखै, जानत हैं जिनराज॥७॥ देव जिनेश्वर गुरु यती, अरु जिन आगम सार । इहि निमित्तते जीवं सव, पावत है भवपार ॥८॥ यह निमित्त इह जीवको, मिल्यो अनंती वार॥ उपादानं पलव्यो नहीं, तो भटक्यो संसार ॥९॥ के केवली के साधु कै, निकट भव्य जो होय॥ सो क्षायक सम्यक लहै, यह निमित्तवल जोय ॥१०॥ केवलि अरु मुनिराजके, पास रहैं बहु लोय ॥ पैजाको सुलट्यो धनी, क्षायक ताको होय ॥११॥ हिंसादिक पापन किये, जीव नर्कमें जाहिं ।। " जो निमित्त नहिं कामको, तो इम काहे कहाहि ॥ १२ ॥ 3 हिंसामें उपयोग जिह, रहै ब्रह्मके राच ॥
तेई नर्कमे जात हैं, मुनि नहिं जाहिं कदाच ॥ १३ ॥
दया दान पूजा किये, जीव सुखी जग होय ॥ - जो निमित्त झंठो कहो; यह क्यों मान लोय ॥१४॥
_ 'दयां दान पूजा भली, जगतमाहिं सुखकार ॥ 2. जहँ अनुभवको आचरन तहँ यह वंध विचार॥ १५॥ VaswapwwwPROMPREPAROOPapenewvioupane
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ब्रह्मविलासमे यह तो बात प्रसिद्ध है, शोच देख उरमाहि ॥ नरदेहीके निमितविन, जिय क्यों मुक्ति न जाहि ॥१६॥ देह पीजरा जीवको, रोकै शिवपुर जात ॥ उपादानकी शक्तिसों, मुक्ति होत रे भ्रात ॥ १७॥ उपादान सव जीवपै, रोकन हारो कौन ॥ जाते क्यों नहिं मुक्तिमें, विन निमित्तके होन ॥ १८ ॥ उपादान सु अनादिको, उलट रह्यो जगमाहि ॥ सुलटतही सूघे चले, सिद्ध लोकको जाहिं ॥ १९॥ कहुं अनादि विन निमितही, उलट रह्यो उपयोग। ऐसी बात न संभव, उपादान तुम जोग ।। २०॥ उपादान कहै रे निमित, हम कही न जाय ॥ . ऐसे ही जिन केवली, देखै त्रिभुवन राय ॥२१॥
जो देख्यो भगवान ने, सोही सांचो आहि ॥ हम तुम संग अनादिके, वली. कहोगे काहि ॥ २२॥ उपादान कहै वह वली, जाको नाश न होय ॥ जो उपजत विनशत रहै, बली कहांतें सोय ॥ २३ ॥ उपादान तुम जोर हो, तो क्यों लेत अहार ॥ . परनिमित्तके योगसों, जीवत सब संसार ॥ २४ ॥ जो अहारके जोगसों, जीवत है जगमाहिं ॥ . तो वासी संसारके, मरते कोऊ नाहि ॥ २५ ॥ सूर सोम मणि अंगिनके, निमित लखें ये नैन । अंधकारमें कित गयो, उपादान हग. दैनं ॥ २६ ॥ सूर सोम मणि अग्नि जो, करें अनेक प्रकाश ॥
नैन शक्ति विन ना लखै, अन्धकार सम भास ॥२७॥ WapproPDPORROWADwhePAPPROPenaloweo
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उपादाननिमित्तका संवाद.
कहै निमित्त वे जीव को ? मो विन जगके माहिं ॥ सबै हमारे वश परे, हम विन मुक्ति न जाहिं ॥ २८ ॥ उपादान कहै रे निमित्त, ऐसे बोल न बोल ॥ तोको तज निज भजत हैं, तेही करें किलोल ॥ २९ ॥ कहै निमित्त हमको तजे, तें कैसे शिव जात ॥ पंचमहाव्रत प्रगट हैं, और हु क्रिया विख्यात ॥ ३० ॥ पंचमहाव्रत जोग त्रय, और सकल व्यवहार ॥ परको निमित्त खपायके, तव पहुंचें भवपार ॥ ३१ ॥ कहै निमित्त जग मैं बडो, मोतैं बडो न कोय ॥ तीन लोकके नाथ सब, मो प्रसादतें होय ॥ ३२ ॥
चहुं गतिमें ले जाय ॥
उपादान कहै तू कहा, तो प्रसादतें जीव सब
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दुखी होहिं रे भाय ॥ ३३ ॥
कहै निमित्त जो दुख सहै, सो तुम हमहि लगाय ॥ सुखी कौन तैं होत है, ताको देहु बताय ॥ ३४ ॥ जा सुखको तू सुख कहै, सो सुख तो सुख नाहिं ॥ ये सुख, दुखके मूल हैं, सुख अविनाशी माहिं ॥ ३५ ॥ अविनाशी घट घट वसै, सुख क्यों विलसत नाहिं ॥ शुभनिमित्तके योगविन, परे परे विल्लाहिं ॥ ३६ ॥ शुभनिमित्त इह जीवको, मिल्यो कई भवसार ॥ पै इक. सम्यक दर्श विन, भटकत फिरयो गँवार ॥ ३७ ॥ सम्यक दर्श भये कहा, त्वरित मुकतिमें जाहिं ॥ आगे ध्यान निमित्त हैं, ते शिवको पहुँचाहिँ ॥ ३८ ॥ छोर ध्यानकी धारना, मोर योगकी रीति ॥
तोर कर्मके जालको, जोर लई शिवप्रीति ॥ ३९ ॥
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ब्रह्मविलासमें तब निमित्त हारयो तहाँ, अव नहिं जोर वसाय ॥ उपादान शिव लोकमें, पहुँच्यो कर्म खपाय ॥ ४० ॥ उपादान जीत्यो तहाँ, निजवल कर परकास ॥ .सुख अनंत ध्रुव भोगवै, अंत न वरन्यो तास ॥४१॥ उपादान अरु निमित्त ये, सव जीवनपै वीर ॥ जो निजशक्ति संभारहीं, सो पहुचें भवतीर ॥४२॥
भैया महिमा ब्रह्मकी, कैसे वरनी जाय ॥ · :वचनअगोचर वस्तु है, कहिवो वचन बनाय ।। ४३ ॥
उपादान अरु निमितको, सरस बन्यो संवाद ॥ C. समदृष्टीको सुगम है, मूरखको वकवाद ।। ४४ ॥ ___ जो जानै गुण ब्रह्मके; · सो जाने यह भेद ॥ .: साल जिनागमसों मिले, तो मत कीज्यो खेद ॥४५॥
नगर आगरो. अग्र है, जैनी जनको वास ।। · तिहँ थानक रचनाकरी, 'भैया' स्वमति प्रकास ॥ ४६ ॥
संवत विक्रम भूप को, 'सत्रहसै पंचास ॥ फाल्गुण पहिले पक्षमें, दशों दिशा परकाश ॥४७॥
. इति उपादाननिमित्तसंवाद ।
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अथ चतुर्विंशतितीर्थंकरजयमाला लिख्यते। .
दोहा. वीस चार जगदीशको, बंदों शीस नवाय ।। . कहूं तास जयमालिका, नामकथन गुण. गाय ॥१॥
. पद्धरिछन्द..(१६ मात्रा) ए जय जय प्रभु ऋषभ जिनेन्द्रदेव । जय जय त्रिभुवनपति MORRORROWAPOORDPREPARAPARIDWAR
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. चतुर्विशतितीर्थकरजयमाला. २३७६ करहिं सेव ॥ जय जय श्री अजित अनंत जोर । जयःजय जि
ह कर्म हरे कठोरं ॥२॥ जय जय प्रभु संभव शिवसरूप। जय ह जय शिवनायक गुण अनूपः।। जय जय अभिनंदन निर्विकार 10
जय जय जिहिं कर्म किये निवार ॥ ३॥ जय जय श्री सुमति सुमति प्रकाश । जय जय सव कर्म निकर्म नाशः ॥ जय जय है पदमप्रभ पदम जेम । जय जय रागादि: अलिप्त नेम ॥ ४॥
जय जय जिनदेव सुपाव पास । जय जय गुणपुंज. कह निदेवास ।। जय जय चंद्रप्रभ चन्द्रक्रांति । जय जय तिहुं पुरजन
हरन भ्रांति ॥५॥ जय जय पुफदंत महंत देव ।। जय जय
पट द्रव्यनि कहन भेव ।। जय जय जिन शीतल शीलमूल । ॐ जय जय मनमथ मृग़ शारदूल ॥ ६ ॥ जय जय श्रेयांस अनं है इत बच्छ । जय जय परमेश्वर होप्रतच्छ । जय जय श्री. जिनवर
वासुपूज । जय जय पूज्यनके पूज्य तूज ॥ ७॥ जय जय प्रभु विमल विमल महंत । जय जय सुख दायक हो अनंत ।। जय जय जिनवर श्री अनंत नाथ । जय जय शिवरमणी ग्रहण हाय॥८॥
जय जय श्री धर्म जिनेन्द्र धन्न । जय जय जिन निश्चल करन मन्न ॥ जय जय श्रीजिनवर शांतिदेव । जय जय चक्री तीर्थकरेव ॥९॥जय जय श्रीकुंथु कृपानिधान । जय जय मिथ्यातमहरन है भान ।। जय जय अरिजीतन अरहनाथ । जय जय भवि जीवन मुक्ति साथ ॥१०॥ जय जय मलि नाथ महा. अभीत । जय जय जिन मोहनरेन्द्र जीत ॥ जय जय मुनिसुव्रत.तुम सु
ज्ञान । जय जय त्रिभुवनमें दीप. भान ॥ ११.. जय जय नमि-ह S. .ही. . . . . , .. .":. ? PerupamaanadaNCOMPANDEDARPORNPREPORT
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ब्रह्माविलासमें नाथ निवास सुक्ख । जय जय तिहुं भवननि हरन दुःख ॥ जय ह
जय श्री नेम कुमारचंद । जय जय अज्ञानतमके निकंद ॥१२॥ हूँ जय जय श्रीपार्श्व प्रसिद्ध नाम । जय जय भविदायक मुक्ति
धाम ॥ जय जय जिनवर श्रीवर्द्धमान । जय जय अनंत सुखके निधान ॥ १३ ॥ जय जय अतीत जिन भये जेह । जय जय सु अनागत है हैं तेह ॥ जय जय जिन है जे विद्यमान ॥ जय
जय तिन बंदों धर सु ध्यान ॥१४॥ जय जय जिनप्रतिमा जिन १ स्वरूप । जय जयसु अनंत चतुष्ट भूप ॥ जय जय मन वच निज सीसनाय । जय जय जय "भैया' नमै सुभाय ॥ १५॥
घत्ता. . जिनरूप निहारे आप विचारे, फेर न रंचक भेद कहै । 'भैया' इम वंदै ते चिरनंदै, सुख अनंत निजमाहिं लहै ।। १६॥
दोहा. रागभाव छूटयो नहीं, मिट्यो न अंतर दोख ॥ संतति वाढे बंधकी, होय कहांसों मोख ॥ १७ ॥
इति चतुर्विंशतितीर्थंकरजयमाला.
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अथ पंचेन्द्रियसंवाद लिख्यते।
दोहा. प्रथम प्रणमि जिनदेवको, बहुरि प्रणमि शिवराय । . साधु सकलके . चरनको, प्रणमों सीस नवाय ॥१॥
नमहुं जिनेश्वर वैनको, जगत जीव सुखकार ॥ ३. जस प्रसाद घटपट खुलै, लहिये बुद्धि अपार ॥२॥ nocop/oppppWDMERO/ARRIANWARRIORDEOS
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पर्चेद्रियसंवाद.
इक दिन इक उद्यान में बैठे श्री मुनिराज ॥ धर्म देशना देत हैं, भवि जीवनके काज ॥ ३ ॥
समदृष्टी श्रावक तहां, विद्याधर क्रीड़ा करत, चली बात व्याख्यानमें, त्यों त्यों ये दुख देत है, ज्यों ज्यों कीजे पुष्ट ॥ ५ ॥ विद्याधर बोले तहाँ, कर इन्द्रिनको पक्ष ||
और मिले बहु लोक ॥ आय गये बहु थोक ॥ ४ ॥ पांचों इन्द्रिय दुष्ट ॥
स्वामी हम क्यों दुष्ट हैं, देखो बात प्रत्यक्ष ॥ ६ ॥
हमही सब जगलखे, 'यह चेतन यह नाउं ॥ इक इन्द्रिय आदिक सबै, पंच कहे जिहँ ठाउँ ॥ ७ ॥ हम जप तप होत हैं, हम क्रिया अनेक ॥ हमहीत संयम पलै, हम विन होय न एक ॥ ८ ॥ रागी द्वेपी होय जिय, दोप हमहि किम देह || न्याव हमारो कीजिये, यह विनती सुन लेहु ॥ ९ ॥ हम तीर्थंकर देव पैं, पांचों हैं परतच्छ ॥ कहो मुक्ति क्यों जात हैं, निजभावन कर स्वच्छ ॥ १०॥ स्वामि कहूँ तुम पांच हो, तुममें को सिरदार ॥ तिनसों चर्चा कीजिये, कहो अर्थ निरधार ॥ ११ ॥ नाक कान नैना कहै, रसना फरस विख्यात ॥ हम काह रोक नही, मुक्ति लोकको जात ॥ १२ ॥ नाक कहँ प्रभु मैं बड़ो, मोतैं बडो न कोय ॥ तीन लोक रक्षा करै, नाक कमी जिने होय ॥ १३ ॥
( १ ) मत.
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ब्रह्माविलासमे.
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नाक रहेत सब रह्यो, नाक गये सब जाय ॥. नाक बरोवर जगतमें, और न वडो कहाय ॥१४॥ प्रथम वदन पर देखिये, नाक नवल आकार ॥ सुंदर महा सुहावनो, मोहे लोक अपार ॥ १५ ॥ सीस नवत जगदीसको, प्रथम नवत है नाक ।। तौही तिलक विराजतो, सत्यारथ जग वाक ॥१६॥
ढाल "दान सुपात्रन दीजिये" एदेशी भाषा गुजराती. नाक कहै जग हूं वडो, बात सुनो सव काई रे॥ नाक रहे पत लोकमें, नाक गये पत खाईरे, नाक० ॥ १७॥ नाक रखनके कारणे, वाहूवलि वलवंती रे ॥ देश तज्यो दीक्षा ग्रही, पण ननम्यों चक्रवतोरे, नाक० ॥१८॥ नाक रहनके कारनै, रामचन्द्र जुध कीधो रे॥ सीता आणी वलकरी, वलि ते संयम लीधोरे,नाक० ॥१९॥ नाक राखण सीता सती, अगनी कुंडमें पैठी रे॥ सिंहासन देवन रच्यो, तिह ऊपर जा बैठीरे, नाक० ॥२०॥ दशार्णभद्र महा मुनि, नाक राखण व्रत लीधो रे ॥ इन्द्र नम्यो चरणे तिहाँ, मान सकल तज दीधोरे, नाक०॥२१ सगर थयो सौरो धणी, छलथी दीक्षा लीधीरे ॥ नाक तणी लज्जा करी, फिर नवि मनसा कीधीरे, नाक०२२ अभय कुंवर श्रेणिक तणों, वेटो आज्ञाकारीरे ॥ तूंकारो तातहि दियो, ततछिन दीक्षा धारीरे, नाकगार॥ नाम कहूँ केता तणां, जीव तस्या जगमाहीरे ॥ नाक तणे परसादथी, शिव संपति विलसाईरे, नाक०॥२४॥ (१) इन्नत. anPOOGVODAIADMAARADARWeewana
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२४१ है सुख विलसै संसारना, ते सहु मुझ परसादैरे ॥ नाना वृक्ष सुगंधता, नाक सकल आस्वादैरे, नाक कहै ॥२५॥
तीर्थकर त्रिभुवन धणी, तेहना तनमा वासोरे ॥ है परम सुगंधो घणी लस, ते सुख नाक निवासोरे, नाक कहै॥२६ ___ और सुगंधो अनेक छ, ते सव नाकज जाणैरे ॥ आनंदमां सुख भोगवे, 'भैया' एम वखाणैरे, नाक कहै ॥२७॥ है
दोहा. कान कह रे नाक सुन, तू कहा कर गुमान ॥
जो चाकर आगे चलें, तो नहिं भूप समान ॥२८॥ नाक मुरनि पानी झरे, बहै सलेम अपार ॥ __ गूपनि कर पूरित रहे, लाजै नहीं गवार ॥ २९ ॥ तेरी छींक सुनै जिते, करै न उत्तम काज ॥
मूदै तुह दुर्गधमें, तऊ न आवै लाज ॥ ३० ॥ वृपभ ऊंट नारी निरख, और जीव जग माहिं ॥
जित तित तोको छेदिये, तोऊ लजानो नाहिं ॥ ३१॥ कान कहे जिन वैनको, सुनै सदाचित लाय ॥
जस प्रसाद इह जीवको, सम्यग्दर्शन थाय ॥ ३२॥ कानन कुंडल झलकता, मणि मुक्का फल सार ।
जगमग जगमग है रहै, देखै सव संसार ॥ ३३ ॥ सातों सुरको गायबो, अद्भुत सुखमय स्वाद ॥
इन कानन कर परखिये, मीठे मीठे नाद ॥ ३४॥ कानन सुन श्रावक भये, कानन सुनि मुनिराज ॥ ___ कान सुनहि गुण द्रव्यके, कान वड़े शिरताज ॥ ३५ ॥ Tranowamp OnePOPPERSOppoporonpropers
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ब्रह्मविलासमें.
राग काफी धमालमें० कानन सुन ध्यानन ध्याइये हो, चिन्मूरत चेतन पाइये हो, कानन टेक । ___ कानन सरभर को करे हो, कान बड़े सिरदार ॥ छहों द्रव्यके गुण सुणै हो, जाने सकल विचार, कानन०॥३६॥
संघ चतुर्विध सब तरे हो, कानन सुनि जिन वैन । निज आतम सुख भोगवै हो, पावत शिवपद ऐन, काननः ॥३७॥
द्वादशांग वानी सुनै हो, काननके परसाद ॥ . गणधर तो गुरुवा कह्या हो, द्रव्य सूत्र सव याद, कानन०॥ ३८॥ ___ कानन सुनि भरतेश्वरे हो, प्रभुको उपज्यो ज्ञान ।। कियो महोच्छव हरखसें हो, पायो है पद निर्वान, कानन०॥३९॥
विकट वैन धन्ना सुने हो, निकस्यो तज आवास ॥ है दीक्षा गह किरिया करी हो, पायो शिवगति वास, कानन०॥४०,
साधु अनाथीसों सुन्यो हो, श्रेणिक जीव विचार ॥ क्षायक सम्यक तवलह्यो हो, पावैगो भवदधि पार, कामन०॥४१॥
नेमनाथवानी सुनी हो, लीनो संयम भार ॥ ते द्वारिकके दाहसों हो, उवरे हैं जीव अपार, कानन० ॥४२॥ __पार्श्वनाथके बैन सुने हो, महामन्त्र नवकार । धरणेधर पदमावती हो, भये हैं जु तिहि वार, कानन० ॥४३॥ __ कानन सुनि कानन गये हो, भूपति तज वहु राज ॥ काज सवारे आपने हो, केवलि ज्ञान उपाज, कानन०॥४४॥
जिनवानी कानन सुने हो, जीव तरे जग मांहि ॥ नाम कहां लो लीजिये हो, 'या'जे शिवपुर जाहि, कान० ४५ ४
_ . दोहा. 0 आंख कहरे कान तू, इस्यो करै अहंकार ।।
मैलनिकर मूंद्यों रहै, लाजै नहीं. लगार ॥ ४६॥ SonPOnPOORDPRESIDWAROOPARDARPAN
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पंचेद्रियसंवाद.
भली बुरी सुनतो रहे, तो तुरत सनेह ॥ तो सम दुष्ट न दूसरो, धारी ऐसी देह ॥ ४७ ॥ दुष्टवचन सुन तो जैरे, महा क्रोध उपजंत ॥ तो प्रसाद जीव बहु, नरकन जाय परंत ॥ ४८ ॥ पहिले तुमको बेधिये, नरनारीके कान ॥
तोह नही लजात है, बहुर धेरै अभिमान ॥ ४९ ॥ काननकी बातें सुनी, सांची झुंठी होय ॥
૪૨
आँखिन देखी बात जो, तामें फेर न कोय ॥ ५० ॥ इन आंखिनसां देखिये, तीर्थकरको रूप ॥
सुख असंख्य हिरंदे लसै, सो जानै चिद्रूप ॥ ५१ ॥ आँखिन लख रक्षा करै, उपजै पुण्य अपार ॥
आँखिनके परसादसों, सुखी होत संसार ॥ ५२ ॥ आँखिन सब देखिये, तात मात सुत भ्रात ॥ देव गुरू अरु ग्रन्थ सब, आँखिनतें विख्यात ॥ ५३ ॥ ढाल - " बनमालीके बाग चंपो मौलि रह्योरी" ए देशी । आंखिनके परसाद, देखे लोक सवैरी ॥ आवै निजपद याद, प्रतिमा पेखत बेरी, आंखनके० ॥ ५४ ॥ देखूं हग सिद्धान्त, ग्रन्थ अनेक कह्यारी ॥ जे भाख्या भगवंत, दर्वित तेह लह्यारी, आंखन० ॥ ५५ ॥ समवशरणकी रिद्धि, देखत हर्प धनोरी || प्रभु दर्शन फलसिद्धि, नाटक कौन गिनोरी, आँखन ० ॥५६॥ जिन मंदिर जयकार, प्रतिमा परम बनीरी ॥ देखत हर्प अपार, श्रुति नहिं जाहिं भनीरी, आँखन ० ॥५७॥
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ब्रह्मविलास में
ईर्ष्या समिति निहार, साधु चलै जु
भलेरी ॥
ते पावें शिवनार, सुखकी कीर्ति फलेरी, आँखिन० ॥ ५८ ॥ आँखिन विंद निहार, सम्यक शुद्ध लह्योरी ॥
गोत तीर्थकर धार, रावन नाम कह्योरी, आँखिन० ॥ ५९ ॥ चारों परतेक बुद्ध, देखत भाव फिरेरी ॥
लहि निज आतमशुद्ध, भवजल वेग तिरेरी, आँखिन० ॥ ६० ॥ पूरव भव आहार, देते दृष्टि परचोरी ||
इहि चौवीसी सार, अंस कुमर जु तरचोरी, आँखिन० ॥६२॥
२४४
॥
वाघिनि साधु विदार, दंतहि दृष्टि धरीरी ॥
पूरब भवहि निहार, त्यागन देह करीरी, आँखिन ० ॥ ६२ ॥ शालिभद्र सुकुमार, श्रेणिक दृष्टि परयोरी ॥
गहि संयमको भार, आतम काज करचोरी, आँखिन० ॥ ६३ ॥ देख्यो जुद्ध अकाज, दीक्षा बेग गहेरी ॥
पांडव तज सव राज, निज निधि वेग लहेरी, आंखन ० ॥ ६४ ॥ कहूं कहाँलों नाम, जीव अनेक तरेरी ॥ 'भैया' शिवपुर ठाम, आंखितें जाय बरेरी, आँखन० ॥ ६५ ॥ दोहा.
जीभ कहै रे आँखि तुम, काहे गर्व करांहि ॥
काजल कर जो रंगिये, तो हू नाहिं लजांहि ॥ ६६ ॥ कायर ज्यों डरती रहै, धीरज नहीं लगार ॥ वातवातमें रोयदे, वोलै गर्व अपार ॥ ६७ ॥ जहाँ तहाँ लागत फिरे, देख सलौनो रूप ॥ तेरे ही परसाद तैं, दुख पावै चिद्रूप ॥ ६८ ॥
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पंचेंद्रियसंवाद. कहा कहूं दृगदोपको, मोपें कहे न जाहिं ॥
देख विनाशी वस्तुको, वहुर तहाँ ललचाहिं ॥ ६९ ॥ जीभ कहै मोते सर्व, जीवत है संसार ॥
पटरस भुंजो स्वाद ले, पालों सव परिवार ॥७॥ मोविन आंखन खुल सके, कान सुनै नहिं वैन ।
नाक न सूंघे वासको, मो विन कहीं न चन ॥ ७१ ॥ मंत्र जपत इह जीभसी, आवत सुरनर धाय ।। .
किंकर ह सेवा करै, जीभहिके सुपसाय ॥ ७२ ॥ जीभहित जपत रहै, जगत जीव जिन नाम ।
जसु प्रसादतै सुख लहै, पावै उत्तम ठाम ॥ ७३ ॥ ढाल-रे जीया तो विन घडीरे छ मास" ए देशी। यतीश्वर जीभ वडी संसार, जपै पंच नवकार,
जतीश्वर० ॥ टेक ॥ द्वादशांगवाणी श्रवैजी, वोल वचन रसाल ॥ अर्थ कहै सूत्रन सवैजी, सिखवै धर्म विशाल, यतीश्वर०॥४॥
दुरजनतें सज्जन करजी, वोलत मीठे बोल ॥ ऐसीकलान आरपंजी,कौनआंख किह तोल, यतीश्वर०॥७५॥ __ जीभहित सब जीतिये जी, जीभहित सव हार ॥ जीभहित सव जीवकेजी, कीजतु हैं उपकार, यतीश्वर०॥७॥
जीभहित गणधर भयेजी, भव्यनि पंथ दिखाय ॥ आपन वे शिवपुर गयेजी, कर्मकलंक खपाय, यतीश्वर०॥७७॥
जीभहित उवझायजूजी, पावै पद परधान ॥
जीभहित समकित लडोज, परदेशी परवान, यतीश्वर०॥७॥ HOWROORPORATORE/Rocommopenwooks
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ब्रह्मविलास में
मथुरा नगरीमें हुवोजी, जंबूनाम कुमार ॥ कहिकै कथा सुहावनीजी, प्रति बोध्यो परिवार, यतीश्वर० ॥७९॥ रावनसों विरचे भलेजी, वाल महामुनि वाल || अष्टापद मुक्त गयाजी, देखहु ग्रंथ निहाल, यतीश्वर०॥ ८० ॥ मिटै उरझ उरकी सबैजी, पूछत प्रश्न प्रतक्ष ॥ प्रगट लहै परमात्माजी, विनसे भ्रमको पक्ष, यतीश्वर ० ॥ ८१ ॥
२४६
तीन लोकमें जीभही जी, दूर करै अपराध ॥ प्रतिक्रमणकिरिया करैजी, पढै सिझाये साध, यतीश्वर ॥ ८२ ॥ जीभहि तैं सब गाइयेजी, सातों सुरके भेद ॥ जीभहितै जस जंपियेजी, जीभहि पढिये वेद, यतीश्वर, ॥८३॥ नाम जीभतैं लीजियेजी, उत्तर जीभहि होय ॥ जीभहि जीव खिमाइयेजी, जीभ समौ नहि कोय, यतीश्वर ॥८४॥ केते जिय मुक्ति गयेजी, जीभहिके परसाद ॥ नाम कहांला लीजियेजी, भैया बात अनादि, जतीश्वर ॥ ८५ ॥ दोहा .
गर्व करंत ॥ नाहि लजंत ॥ ८६ ॥ महा कलेश ॥
फर्स कहैरे जीभ तू, एतो तो लागै झुंठगे कहें, तो हू कहै वचन कर्कस बुरे, उपजै तेरे ही परसादतें, भिड़ भिड़ मरै तेरे ही रस काजको, करत अरंभ अनेक ॥ तोहि तृपति क्यों ही नही, तोतैं सबै उदेक ॥ ८८ ॥ तोमै तो अवगुण घने, कहत न आवै पार ॥
नरेश ॥ ८७ ॥
तो प्रसादतें सीसको, जातं न लागे वार ॥ ८९ ॥ झूठे ग्रंथ न तू पढ़े, दै झूठो उपदेश ॥
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पंचेंद्रियसंवाद.
૨૩૭
जियको जगत फिरावती, और ह करे कलेश ॥ ९० ॥ जा दिन जिय थावर वसत, ता दिन तुममें कौन ॥ कहा गर्व खोटो करो, नाक आँख मुख श्रौन ॥ ९१ ॥ जीव अनंते हम धेरै, तुम तौ संख असंखि ॥ तितह तो हम विन नही, कहा उठत हो झंखि ॥ ९२ ॥ नाक कान नैना सुनो, जीभ कहा गवय
॥
सव कोऊ शिरनायकै, लागत मेरे झूठी झूठी सब कहै, सांची कहै न विन काया के तप तपे, मुक्ति कहांसों होय ॥ ९४ ॥
पाय ॥ ९३ ॥ कोय
॥
सह परीसह वीस है, महा कठिन मुनि राज || तब तो कर्म खपाइकै पावत हैं शिवराज ॥ ९५ ॥
ढाल - " मोरी सहियोरी जल न आवेगो" ए देशी । मोरासाधुजी फरस बडो संसार, करै कई उपकार, मोरा. दक्षिण करतें दीजिये जी, दान अनेक प्रकार ॥ तो तिहँ भवशिवपद लहैजी, मिटै मरनकी मार, मोरा० ॥९६॥ दान देत मुनिराजको जी, पावै परमानंद ॥ सुरनर कोटि सेवा करैजी, प्रतपै तेज दिनंद, मोरा० ॥ ९७ ॥ नरनारी कोऊ धरोजी, शील व्रतहिं शिरदार ॥
सुख अनेक सो जी लहैजी, देखो फरस प्रकार, मो० ॥ ९८ ॥ तपकर काया कृश करेजी, उपजै पुण्य अपार ॥
सुख विलसे सुर लोककेजी, अथवा भवदधि पार, मोरा० ॥ ९९ ॥ भाव जु आतम भावतोजी, सो वैठो मो माहिं ॥ काया विन किरिया नही जी, किरिया विन सुख नाहिं मो. ॥ १०० ॥
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गज सुकुमार गिरयो नहीं जी,फरसतपत भई जोर।। केवल ज्ञान उपायकैजी, पहुँच्यो शिवगति ओर, मोरा०॥१०॥
खंदक ऋषिकी खाल उतारी; सहयो परीसह जोर ॥ पूर्व बंध छूटै नहीजी, घट गये कर्म कठोर, मोरा० ॥१०२॥
देखहु मुनि दमदंतको जी, कौरों करी उपाधि ॥ ईटनमें गर्भितभयोजी, तऊन तजीय समाधि, मोराः ॥१०३॥
सेठ सुदर्शनको दियोजी, राजा दंड प्रहार ॥ सह्यो परीसह भावस्योंजी, प्रगव्यो पुण्य अपार, मोरा०॥१०॥
प्रसन्न चन्द्र शिरफरसियोजी, फिर जगये सव भाव॥ नरकहितज शिवगति लहीजी, देखहु फरस उपाव, मोरा०१०५
जेते जिय मुकते गयेजी, फरसहिक उपगार ॥ पंच महाव्रत विनधरेजी, कोऊ न उतरयो पार, मोरा०॥१०६॥ __नांव कहांलों लीजियजी, वीत्यो काल अनंत ॥ "भैया' मुझ उपकारकोजी, जानै श्रीभगवंत,मोरा०॥१०७॥
सोरठा. मन बोल्यो तिहँ और, अरे फरस संसारमें ॥ __तू मूरख शिरमौर, कहा गर्व झूठो करै ॥ १०८॥ इक अंगुल परमान, रोग छानवें भर रहे ॥ .' कहा करै अभिमान, देख अवस्था नरककी ॥ १०९ ॥ पांचों अव्रत सार, तिनसेती नित पोषिये ॥ . उपजै कई विकार, एते अभिमान यह ॥ ११०॥ छिन इकमें खिर जाय, देखतदृष्ट शरीर यह ॥
. एतेपैं गर्वाय, तोसम मुरख कौन है ॥ १११॥ . SanswerPROM/REPORDPawaneswers
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पंचेंद्रियसंवाद.
दोहा.
२४९
सिरदार ॥ संसार ॥ ११२ ॥
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मन राजा मन चत्रि हैं, मन सबको मनस वडो न दूसरो, देख्यो मनतें सबको जानिये, जीव जिते जगमाहिं ॥ मनतें कर्म खपाइये, मनसरभर कोउ नाहिं ॥ ११३ ॥ मनत करुणा कीजिये, मनते पुण्य अपार ॥
मनत आतमतत्त्वको, लखिये सर्व विचार ॥ ११४ ॥ मनहि सयोगी स्वामिपै, सत्य रह्यो ठहराय ॥
चार कर्मके नाशत, मन नहिं नाश्यो जाय ॥ ११५ ॥ मन इन्द्रिनको भूप है, इन्द्रिय मनके दास ॥
यह ती वात प्रसिद्ध है; कीन्हीं जिनपरकाश ॥ ११६ ॥ तत्र बोले मुनिरायजी, मन क्यों गर्व करंत ॥ देख हु तंदुल मच्छको, तुमतें नर्क परंत ॥ ११७ ॥ पाप जीव कोई करो, तू अनुमोदै ताहि ॥ तासम पापी तू कह्यो, अनरथ लेहि विसाहि ॥ ११८ ॥ इन्द्रिय तो बैठी रहें, तू दौर निशदीश ॥
छिन छिन बांध कर्मको, देखत है जगदीश ॥ ११९ ॥ बहुत वात कहिये कहा, मन सुनि एक विचार ॥ परमातमको ध्याइये, ज्यों लहिये भवपार ॥ १२० ॥ मन बोल्यो मुनि राजसों, परमातम है कौन ॥ स्वामी ताहि बताइये, ज्यों लहिये सुख भौन ॥ १२१ ॥ आतमको हम जानते, जो राजत घट माहिं ॥
परमातम किह ठौर हैं, हम तो जानत नाहिं ॥ १२२ ॥
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ब्रह्मविलासम परमातम उहि और है, रागद्वेप जिहिं नाहि ॥ ताको ध्यावत जीव ये, परमातम ह जाहिं ॥ १३ ॥ परमातम दै विधि लसै, सकल निकल परमान ।। तिसमें तेरे घट वस, देखि ताहि धर ध्यान ।।१२४॥ बाल-" कपूर हुवै अति उजलो रे मिरियासेती रंग" ए देशी. प्राणी आतम धरम अनूपरे,जगमें प्रगट चिद्रूप,पाणीटेका।
इन्द्रिनकी संगति कियेरे, जीव परै जग माहि ॥ जन्म भरन बहु दुख सहरे, कबहू छुटै नाहि, प्राणी० ॥१२५।। भोंरो परचो रस नाककेरे, कमलमुदित भये रैन ॥ केतकी काटन बाँधियोरे, कई न पायो चन , प्राणी० ॥१२॥ काननकी संगत कियरे, मृग मारयो वन माहिं ॥ अहिपकरयो रस कानकरे,कितह छुट्यो नाहि,प्राणी०॥१२७॥ आँखनिरूप निहारकैरे, दीप परत है धाय ॥ देखहु प्रगट पतंगकोरे,खोबत अपनो काय, प्राणी० ॥१२८॥ रसनारस मछ मारियोरे, दुर्जन कर विसवास ॥ यात जगत विगूचियोरे, सहेनरकदुख वास,प्राणी० ॥१२॥ फरसहित गज बसपस्योरे वंध्यो सांकल तान ॥ भूख प्यास सवदुखसहरे, किहविधिकहहिवखान प्राणी०१३०॥ पंचेन्द्रियकी प्रीतिसोरे, जीव सहै दुख घोर ।। काल अनंतहिं जग फिरैरे, कहूँ न पावे ठोर, प्राणी ॥१३॥ मन राजा कहिये वडोरे, इंद्रिनको सिरदार ॥ आठ पहर प्रेरत रहेरे, उपजै कई विकार, प्राणी ॥१३॥ मन इंद्री संगति कियेरे, जीव परै जग जोय ॥
विषयनकी इच्छा वढेरे, कैसे शिवपुर होय,प्राणी० ॥१३॥ kionawanwarRPORPORDERepairendenawanamudrama
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पंचेंद्रियसंवाद.
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इन्द्रित मन मारियर, जोरियं आतम माहिं ॥ तोरिये नातो रागसार, फोरिये चल क्यों थाहिं, प्राणी० ॥ १३४॥ इन्द्रिन नेह निवारियेरे, टारिये क्रोध कपाय ॥ धारिये संपति शास्त्रतीरे, तारिये त्रिभुवन राय प्राणी० ॥ १३५ ॥ गुण अनंत जामें उसरे, केवल दर्शन आदि || कंवल ज्ञान विराजतोरे, चेतन चिह्न अनादि, प्राणी० ॥ १३६ ॥ थिरता काल अनादिकार, राज जिहुँ पढ़ माहिं ॥ मुख अनंत स्वामी चहरे, दूजो कोऊ नाहिं, प्राणी० ॥ १३७ ॥ शक्ति अनंत विराजतीर, दोष न जामहि कोय ॥ समकित गुणकर सोभितोरे, चेतन लखिये सोय, प्राणी० १३८ || वढ घंटे कवह नहीरे, अविनाशी अविकार ॥
भिन्न रहे परद्रव्यसारे, सो चेतन निरधार, प्राणी० ॥ १३९ ॥ पंच वर्णम जो नहींरे, नही पंच रस माहिं ॥
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आठ फरसंत भिन्नंहरे, गंध दोक कोड नाहि, प्राणी० ॥१४०॥ जानत जो गुण द्रव्यकेरे, उपजन विनम्रन काल ॥ सो अविनाशी आतमारे, चिह्नह्न चिह्न दयाल, प्राणी० ॥ १४१॥ गुण अनंत या ब्रह्मकेरे, कहिये कि विधि नाम ॥ "मैंया' मनवचक्रायसोरे, कीजे तिपरिणाम, प्राणी० ॥ १४२ ॥ दोहा. परद्रव्यनसों भिन्न जो, स्वकिय भाव रसलीन ॥
सो चेतन परमातमा, देख्यो ज्ञान प्रवीन ॥ १४३॥ जो देखें गुण द्रव्यके, जॉन सबको भेद ॥ कहा करत हैं खेद ॥ १४४ ॥ चिदानंद भगवान ॥
सोया घटमें प्रगट हैं,
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ब्रह्मविलासमें दर्शन ज्ञान विराजतो, देखो धर निज ध्यान ॥१४५॥ देखनहारो ब्रह्म वह, घट घटमें परतच्छ ।
मिथ्यातमके नाशतें, सूझै सवको स्वच्छ ॥१४६।।, जैसो शिव तैसो इहाँ, भैया फेर न कोय ॥
देखो सम्यक नयनसों, प्रगट विराजै सोय ॥१४॥ निकट ज्ञानदृग देखतें, विकट चर्मदृग होय ।।
चिकट कटै जव रागकी, प्रगट चिदानंद जोय ॥१४॥ जिनवानी जो भगवती, दास तास जो कोय ॥ __सो पावहि सुखसास्वते, परम धर्म पद होय ॥१४९॥
संवत सत्र इक्यावने, नगर आगरे माहिं ॥ ___ भादों सुदि सुभ दोजको, वालख्याल प्रगटाहिं ॥१५०॥ सुरसमाहिं सव सुख वसै, कुरसमाहिं कछु नाहि ॥
दुरस वात इतनी यहै, पुरुष प्रगट समझांहिं ॥१५१॥ गुण लीजे गुणवंत नर, दोप न लीज्यो कोय ॥ जिनवानी हिरदै वसे, · सवको मंगल होय ॥१५॥
इति पंचेन्द्रियसंवाद । 'अथ ईश्वरनिर्णयपचीसी लिख्यते।
दोहा. परमेश्वर जो परमगुरु, परमज्योति जगदीस ॥
परममाव उर आन, वंदत हों नमि सीस ॥१॥ है ईश्वर ईश्वर सब कहै, ईश्वर लखै न कोय ॥
ईश्वर तो सो ही लखै, जो समदृष्टी होय ॥ २॥ : ब्रह्मा विष्णु महेश जे, ते पायें नहिं पार ॥ ए ता ईश्वरको और जन, क्यों पावै निरधार ॥३॥
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ईश्वरनिर्णयपचीसी. है ईश्वरकी गति अगम है, पार न पायी जाय ॥ वेदस्मृति सब कहत हैं, नाम भजोरे भाय ॥४॥
कवित्त. ब्रह्मा अरु विष्णु महादेव तीनों पच हारे, काहुन निहारे प्रभु कसे जगदीस है । दशां अवतार माहिं कॉनधी जनम लीन्हों, ईतिन हुन पाये परब्रह्म ऐसे ईस है। ध्रुव प्रहलाद दुरवासा लोम ऋषि भये, किन हुन कहे ऐसे आप विस्वावीस हैं। आयत अचंभो इह धावत सकल जग, पावत न कोऊ ताहिक नाय काहि सीस हैं ॥५॥
एक मतवारे कह अन्य मतवारे सव, मेरे मतवारे परवारे मत सारे हैं। एक पंचतत्त्ववारे एक एकतत्त्व वारे, एक भ्रममतपवार एक एक न्यारे हैं। जैसे मतवारे बकं तैसें मतवारे वक, है तामों मतवार तक विना मतवारे हैं। शांतिरसवारे कहें मतको निवार रहे, तई प्रानप्यारे लह और सव बारे हैं ॥ ६॥ .
अनङ्गशेखर. २ र अज्ञान आतमा लख न तू महातमा, लग्यो है तो महा
तमा निजातमा न सूझई । प्रसिद्ध जो विख्यातमा विराजे गात है, गातमा, कहाच पात पातमा चिदातमा न बूझई । मिथ्यात्व मोह मातमा लग्यो तु जीव घातमा, क्रोधादि वातवातमा अज्ञातमा
हे झूझई । अनंत शक्ति जातमा उद्योत ज्यों प्रभातमा, सु सूझै , है खंध आतमा तू बंधौ अरुझई ॥७॥
कवित्त. हिंसाके करया जोप जहं सुरलोक मध्य, नर्कमांहि कहो बुध 2(१) किरान. २ भोले. PasavammerupsserpenParPMRDarpan
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ब्रह्मविलासमें कौन जीव जावेंगे। लेक हाथ शस्त्र जेई छेदत. पराये पान, ते नहीं पिशाच कहो और को कहावेंगे? ॥ ऐसे दुष्ट पापी जे संतापी पर जीवनके, ते तो सुख संपतिसों कैसे के अघावेंगे॥ अहो ज्ञानवंत संत तंतकै विचार देखो, बोवें जे बंदूर ते तो आम कैसे खांवेगे? ॥८॥
कुंडलिया। सुख जो तुमको चाहिये, सो सुख सबको चाह । खान पान जीवत रहै, धन सनेह निरवाह ॥ धन सनेह निरवाह, दाह दुख काहि न व्यापै । थावर जंगम जीव, मरन भय धार जु कांपै ।।
आपै देह विचार, होयकै आपहि सनमुख । 'भैया' घटपट खोल, बोल कहि कौन चहै सुख ॥९॥
कवित्त. 6 वीतराग वानीकी न जानी बात प्रानी मूढ, ठानी से नि
अनेक आपनी हठाहठी । कर्मनके बंध कौन अन्ध कडू सूझै तोहि, रागदोष पर्णितसों होत जो गठागठी ॥ आतमाके जीतकी ६ न रीत कहू जानै रंच, ग्रन्थनके पाठ तू करै कहा पठापठी। मोहको न कियो नाश सम्यक न लियो भास, सूत न कपास
करै कोरीसों लठालठी ॥१०॥ ए हाथी घोरे पालकी नगारे रथ नालकी न, चकचोल चालकी न चढि रीझियतु है । स्वेतपट चालंकी न मोती मन मालकी है न, देख युति भाल की न मान कीजियतु है ॥ शैल बाग ताल, कीन जल जंतु जालकीन, दया वृद्ध वालकी न दंड दीजियतु है।" oh (१) कपड़ा बुननेवाळेसों. &00000000RRORIODSORPORPOWDMRPos
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.... २५५६ ॐ देख गति कालकी न ताह कौन हालकी न, चाविचूव गालकी न । हैवीन लीजियतु है ॥ ११ ॥
से कौउ स्वान परयो काचके महलबीच, ठौर और स्वान , * देख भूस घूस मरयो है । वानर ज्यों मूठी वांध परयो है पराये वश,
कूर्यमें निहार सिंह आप कूद परयो है । फटिककी शिलामें. विलोक गज जाय अरयो, नलिनीके सुवटाको कौनधों पकरयो ह है । तैसे ही अनादिको अज्ञानभाव मान हंस, आपनो स्वभाव भूलि जगतम फिरयो है ॥ १२ ॥
दोहा. ईश्वरके तो देह नहि, अविनाशी अविकार ।।
ताहि कह शठ देह धर, लीन्हों जग अवतार ॥ १३ ॥ जो ईश्वर अवतार ले, मरै बहुर पुन सोय ॥
जन्म मरन जो धरतु है, सो ईश्वर किम होय ॥ १४ ॥ एकनकी घां होय के, मरै एकही आन ॥
ताको जे ईश्वर कहें, ते मूरख पहचान ॥ १५ ॥ ईश्वरके सव एकसे, जगतमाहि जे जीव ।।
काहप नहिं द्वेप है, सवर्षे शांति सदीव ॥ १६ ॥ ईश्वरसों ईश्वर लरे, ईश्वर एक कि दोय ॥
परशुराम अरु रामको, देखहु किन जगलोय ॥ १७ ॥ रौद्र.ध्यान व जहां, तहां धर्म किम होय ।। ___ परम बंध निर्दय दशा, ईश्वर कहियेसोय ॥ १८ ॥ ब्रह्माके खरशीस हो, ता छेदन कियो ईस ॥
ताहि सृष्टिको कहै, रख्यो न अपनो सीस ॥१९॥ ManawwwrencpmrawranepaormORORSCOPPERIODE
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ब्रह्मविलासमें जो पालक सव सृष्टिको, विष्णु नाम भूपाल ॥
सो मारयो इक बानते, प्रान तजे ततकाल ॥२०॥ महादेव वर दैत्यको, दीनों होय दयाल ॥ ___ आपन पुन भाजत फिरचो, राख लेहु गोपाल ॥ २१ ॥ जिनको जग ईश्वर कहै, ते तो ईश्वर नाहि ॥
ये हू ईश्वर ध्यावते, सो ईश्वर घट माहिं ॥ २२॥ . ईश्वर सो ही आतमा, जाति एक है तंत॥
कर्म रहित ईश्वर भये, कर्म सहित जगजंत ॥ २३ ॥ जो गुण आतम द्रव्यके, सोगुण आतममाहि ॥
जड़के जड़में जनिये, यामै तो भ्रम नाहिं ॥ २४ ॥ दर्शन आदि अनंत गुण, जीव धरै तिहुं काल ॥ ___ वर्णादिक पुद्गल धरै, प्रगट दुहूंकी चाल ॥ २५ ॥ हूँ सत्यारथ पथ छोड़के, लगै मृषाकी ओर ॥
ते मूरख संसारमें, लहै न भवको छोर ॥ २६ ॥ 'भैया'ईश्वर जो लखै, सोजिय ईश्वर होय ॥ यो देख्यो सर्वज्ञने, यामें फेर न कोय ॥ २७ ॥
इति ईश्वरनिर्णयपचीसी ।
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अथ कोअकापचीसी लिख्यते।
दोहा. है कर्मनको कर्त्ता नहीं, धरता सुद्ध सुभाय ।।
ता ईश्वरके चरन को, वंदों सीस नवाय ॥१॥ जो ईश्वर करता कहैं, भुक्ता कहिये कौन ॥ ए जो करता सो भोगता, यहै न्यायको भौन ॥ २॥ POROPoopPRODAPAROOPowerPeopenia
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MaraPRGEORGAnnanWADAARAppronwanews कर्ताकपचीसी.
२५७ दुई दोपते रहित. है, ईश्वर ताको नाम ॥ मनवचशीस नवाइक, करूं ताहि परणाम ॥३॥ कर्मनको करता वहै, जा ज्ञान न होय ॥ ईश्वर ज्ञानसमूह है, किम कर्ता है सोय ॥४॥ ज्ञानवंत ज्ञानहिं कर, अज्ञानी अज्ञान ॥ जो ज्ञाता का कह, लगै दोष असमान ॥ ५ ॥ ज्ञानीप जड़ता कहा, कर्ता ताको होय ॥ पंडित हिये विचारक, उत्तर दीजे सोय ॥ ६ ॥ अज्ञानी जड़तामयी, करै अज्ञान निशंक ॥ कर्ता भुगता जीव यह, यो भाखै भगवंत ॥७॥ ईश्वरकी जिय जात है, ज्ञानी तथा अज्ञान ।। जो इह न कर्ता कहो, तो है वात प्रमान ॥ ८॥ अज्ञानी का कहै, तो सब वनै बनाव ।। ज्ञानी है जड़ता कर, यह तो वनै न न्याव ॥९॥ ज्ञानी करता ज्ञानको, करै न कहुं अज्ञान ॥ अज्ञानी जड़ता करे, यह तो बात प्रमान ॥१०॥ जो कर्त्ता जगदीश है, पुण्य पाप किहँ होय ।। सुख दुख काको दीजिये, न्याय करहु बुध लोय ॥ ११ ॥ नरकनमें जिय डारिये, पकर पकरके बाँह ॥ जो ईश्वर करता कहो, तिनको कहा गुनाह ॥ १२ ॥ ईश्वरकी आज्ञा विना, करत न कोऊ काम ॥.
हिंसादिक . उपदेशको, कर्त्ता कहिये राम ॥१३॥ ... कर्ता अपने कर्मको, अज्ञानी निर्धार ॥ : र दोप देत जगदीशको, यह मिथ्या आचार ॥ १४ ॥ FacnepontananewanapanesORDPawonasirsanasonalisa
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ब्रह्मविलासमें ईश्वर तौ निर्दोष है, करता भुक्ता नाहि ॥ ईश्वरको का कहै, ते मूरख जगमाहि ॥ १५ ॥ ईश्वर निर्मल मुकुरवत, तीनलोक आभास ॥ सुख सत्ता चैतन्यमय, निश्चय ज्ञान विलास ॥ १६ ॥ जांके गुन तामें बसै, नहीं औरमें होय ॥ सूधी दृष्टि निहारतें, दोष न लागै कोय ॥ १७ ॥ वीतरागवानी विमल, दोषरहित तिहुंकाल ॥ ताहि लखै नहिं मूढ जन, झूठे गुरुके बाल ॥ १८ ॥ गुरु अंधे शिष्य अंधकी, लखै न बाट कुवाट । विना चक्षु भटकत फिर, खुलै न हिये कपाट । १९ ।। जोलों मिथ्यादृष्टि है, तोलों . कर्ता होय ॥ सो हू भावित कर्मको, दर्वित करै न कोय ॥ २० दर्व कर्म प्रदल मयी, कर्चा पद्दल तास ज्ञानदृष्टिके होत ही, सूझे सब परकाश ॥ २१ ॥ जोलों जीव न जान ही, छहों कायके वीर ॥ तौलों रक्षा कौनकी, कर है साहस धीर ॥२२॥ जानत है सब जीवको, मानत आप समान ॥ रक्षा यातें करता है, सबमें दरसन ज्ञान॥ २३॥ अपने अपने सहजके, कर्ता हैं :सव दर्व ॥ यहै.धर्मको मूल है, समझ लेहु . जिय सर्व ॥ २४ ॥ 'भैया, बात अपार है, कहै कहालों कोय ॥.
थोरेहीमें; समझियो, ज्ञानवंत, जो होय.॥२५॥ (१) स्वभावके. RRRRRRRRRROSonawanaphonePORT
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दृष्टांतपचीसी.
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___ सत्रहसे इक्यावनै, पोष शुकल तिथि वार ॥ जो ईश्वरके गुण लखै, सो पावे भवपार ॥२६॥
. इंति कर्ताअकर्तापचीसी. · अथ दृष्टांतपचीसी लिख्यते ।
दोहा. केवल ज्ञान स्वरूपमें, वसै चिदातम देव ॥ मन वच शीस नवायकैं, कीजे तिनकी सेव ॥१॥ एक शुद्ध परमातमा, दुविधि तास पद जान ॥ . त्रिविधि नमत हो जोर कर, चहुं निक्षेपन वान ॥२॥ सुरसति वर्षति मेघ जिम, जिन मुख अम्रत धारं ॥ पीवत है भवि जीव जे, ते सुख लहै अपार ॥३॥ जिय हिंसा जगमें बुरी, हिंसा फलं दुख देत ॥ मकरी मांखी भक्ष्यती, ताहि चिरी भख लेत ॥४॥ जिय हिंसा करते नहीं, धरते शुद्ध स्वभाय ॥ तौ देखौ मुनिराजके, सेवत सुरनर पाय ॥ ५॥ झूठ भलो नहिं जगतमें, देखहु किन हग जोय ॥ झुंठी तूती बोलती, ता ढिग रहै न कोय ॥६॥ सांच.बडो संसारमें, मानत सब परमान ॥ सांच सूआ कहै रामको, सुनत सबै धर कान ॥ ७॥
विन दीनों जे लेत हैं, ताहि लगै वह पाप ॥ ' चौरहि सूरी दीजिये, देखहु जंग संताप ॥ ८॥
(१) सप्तमी. MananpanwomepBOROPOpppppps
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ब्रह्मविलासम लेत नहीं परद्रव्यको, देत सकल परत्याग | तौ लच्छी भगवानके, रहत चरन ढिग लाग॥९॥ शीलवत पालै नहीं, भाले परतिय रूप ॥ पेख हु रावन आदि वहु, परत नर्कके कूप ॥१०॥ मन वच काया योगसों, शीलव्रतहिं ठहराय॥ सेठ सुदर्शन देखिये, सुरगण भये सहाय ॥११॥ परिग्रह संग्रह ना भलो, परिग्रह दुखको मूल || माखी मधुको जोरती, देखहु दुखको शूल ॥ १२ ॥ जिनके परिग्रह रंच नहिं, मातजात. जिम वाल॥ तिह मुनिवरके इंद्र हू, सेवत चरन त्रिकाल ॥ १३ ॥ मन वच काया योगसों, सव त्यागी मुनिराज ॥ कछु त्यागी जिय अणुव्रती, तेहू हैं सिरताज ॥ १४ ॥ राग न कीजे जगतमें, राग किये दुख होय ॥ देखहु कोकिल पीजरे, गहि डारत है लोय ॥ १५ ॥ देख संडासी पकरिये, अहिरण ऊपर डार ॥ आगहि घनसों पीटिये, लोहै संग निवार ॥ १६ ॥ नेहन कीजै आनसों, नेह किये दुख होय ॥ नेह सहित तिल पेलिये, डार जंत्रमें जोय ॥ १७ ॥ परसंगति कीजे नहीं, परहि मिले दुख पेख ॥ पानी जैसें पीटिये, वस्त्र मिले दुख देख ॥१८॥ पवन जु पोषै मसकको, मसक थूल है जाय ॥ . देखहु संगति दुष्टकी, पौनहि देह जराय ॥ १९ ॥ चेतन चंदन वृक्षसों, कर्म साँप लपटाहिं॥
बोलत गुरुवच मोरके, सिथल होय दुर जाहिं ॥२०॥ : (१) लुहारकी धोंकनी. PappyARPARMSROPARDARPARDARPAN
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मनवत्तीसी. कुगुरु कुगतिक सारथी, मूढनको. ले जाहिं ॥ हिंसाके उपदेश दै, धर्म कहै तिहमाहि ॥ २१ ॥ दक्षनके हित दक्षसों, शठकै शठसों प्रीत ॥ अलि अम्बुजपै देखिये, दर्दुर कईम मीत ॥ २२ ॥ परभावनसों विरचके, निज भावनको ध्यान ॥ जो इह मारग अनुसरै, सो पावै निर्वान ॥२३॥ वहुत वात कहिये कहा, थोरे ही दृष्टन्त ।। जो पावै निज आतमा, सो पावै भव अन्त ॥ २४ ॥ 'भैया' निज पाये विना, भ्रमन अनंते कीन ॥ तेई तरे संसारमें, जिहँ आपो लखि लीन ॥२५॥ एक सात पण दोय है, अश्विन दिशा प्रकास ॥. यह दृष्टांत पचीसिका, कही भगोतीदास ॥२६॥
इति दृष्टान्तपचीसी
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अथ मनबत्तीसी लिख्यते।
दोहा. दर्शन ज्ञान चरित्र जिह, सुख अनंत प्रतिभास ॥ वंदत हो तिहँ देवको, मन धर परम हुलास ॥१॥ मनसों वंदन कीजिये, मनसों धरिये. ध्यान ॥ मनसों आतम तत्त्वको, लखिये सिद्ध समान ॥२॥ मन खोजत है ब्रह्मको, मन सव करै विचार ॥ मनविन आतम.तत्त्वको, करै कौन निरधार ॥३॥ मनसम खोजी जगतमें, और दूसरो कौन ॥
खोज गहै शिवनाथको, लहै सुखनको ..भौन ॥४॥ (१) दशमी. HARIDAPERRAHAPOOR
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ब्रह्मविलासमें
mmmmmmmmm...morrorreniram जो मन सुलटै आपको, तौ. सूझै सव सांन ॥ जो उलटै संसारको, तो मन सूझै कांच ॥५॥ सत असत्य अनुभय उभय, मनके चार प्रकार ॥ दोय झुकै संसारको, दै पहुंचावै पार ॥ ६॥ जो मन लागै ब्रह्मको, तो सुख होय अपार ॥ जो भटकै भ्रम भावमें, तो दुख पार न वार ॥७॥ मनसो बली न दूसरो, देख्यो इहि संसार ॥ तीन लोकमें फिरत ही, जातन लागै वार ॥ ८॥ मन दासनको दास है, मन भूपनको भूप ॥ . मन सब बातनि योग्य है, मनकी कथा अनूप ॥९॥ मन राजाकी सैन सब, इन्द्रिनसे उमराव ॥ रात दिना दौरत फिरै, करै अनेक अन्याव ॥१०॥ इन्द्रियसे उमराव जिहँ, विषय देश विचरंत ॥ भैया तिह मन भूपको, को जीत विन संत ॥११॥ मन चंचल मन चपल अति, मन बहु कर्म कमाय ॥ मन जीते विन आतमा, मुक्ति कहो किम थाय ॥१२॥ मनसो जोधा जगतमें, और दूसरों नाहि ॥ ताहि पछारै सो. सुभट, जीत लहै जग माहि ॥ १३॥ मन इन्द्रिनको भूप है, ताहि करै जो जेर ॥ सो. सुख पावे.. मुक्तिके,. यामें कछु न फेर ॥१४॥ जब मन मुद्यो ध्यानमें, इंद्रिय भई निराश ॥ तब इहः आतम ब्रह्मने, कीने निज परकाशः॥ १५॥ ‘मनसोः मूरख. जगतमें, दूजो. कौन कहायः॥
सुख समुद्रको छाडके, विषके बनमें जाय ॥ १६॥ WORGRO/ARORRUPERPROSPARRRORMERPROGRAM
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मनबत्तीसी.
२६३.
विप भक्षनतें दुख बढे, जानै सब संसार ॥ तवह मन समझे नहीं, विपयन सेती प्यार ॥ १७ ॥ छहों खंडके भूप सव, जीत किये निजदास ॥ जो मन एक न जीतियो, सह्रै नर्क दुख वास ॥ १८ ॥ छाँड़ तनकसी झुंपरी, और लंगोटी साज ॥ सुख अनंत विलसंत है, मन जीतै मुनिराज ॥ १९ ॥ कोटि सताइस अपछरा, वत्तिस लक्ष विमान ॥ मन जीते विन इन्द्र ह, सहै गर्भ दुख आन ॥ २० ॥
छाँड़ घरहि बनमें बसै, मन जीतनके काज ॥
धाम ॥ २२ ॥
तो देखो मुनिराजजू, विलसत शिवपुर राज ॥ २१ ॥. अरिजीतनको जोर है, मन जीतनको खाम ॥ देख त्रिखंडी भूपको, परत नर्कके मन जीतें जे जगतमें, ते सुख लहै अनंत ॥ यह तो बात प्रसिद्ध है, देख्यो श्रीभगवंत ॥ २३ ॥ देख वडे आरंभसों, चक्रवर्ति जग माहिं ॥ फेरत ही मन एकको, चले मुक्तिमें जांहिं ॥ २४ ॥ वाहिज परिगह रंच नहिं, मनमें घरै विकार ॥
तंदुल मच्छ निहारिये, पड़े नरक भावनहीतें बंध है,
निरधार ॥ २५ ॥ मुक्ति ॥
भावनहीतें
जो जानै गति भावकी, सो जाने यह युक्ति ॥ २६ ॥ परिग्रह कारन मोहको, इम भाख्यो भगवान ॥
जिह जिय मोह निवारियो, तिहिं पायो कल्यान ॥ २७ ॥ अरिल...
कहा भयो बहु फिरे तीर्थ अड़सडका ॥ कहा होय तन दहे, रैन दिन कडका ॥
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ब्रह्मविलासमे • कहा होय नित रटै राम मुख पठका ।
जो वस नाही तोहि पसेरी अठ्ठका ॥ २८ ॥ कहा मुंडाये मूंड बसे कहा महका । कहा नहाये गंग नदीके तट्टका ।। कहा कथाके सुने वचनके पढका। जो वस नाही तोहि पसेरी अहका ॥ २९ ॥
चौपाई १६ मात्रा. है कहा कहों जियकी जड़ताई । मोपें कछु वरनी नहिं जाई॥
आरज खंड मनुष्यभव पायो । सो विपयनसँग खेल गमायो॥३०॥ से आगे कहो कौन गति जैहो । ऐसे जनम बहुर कहाँ पैहो । इ अरे तू मूरख चेत सवेरे । आवत काल छिनहि छिन नेरे ॥३१॥ है जवलों जमकी फौज न आवै । तवलों जो मनको समुझावै ॥
आतम तत्त्व सिद्धसम राजै । ताहि विलोक मर्नभय भाजै ॥३२॥ वहुत बात कहिये कहु केती । कारज एक ब्रह्म ही सेती॥ ( ब्रह्म लखै सो ही सुख पावै । भैया सो परब्रह्म कहावै ॥ ३३ ॥
चौपाई १५ मात्रा. नगर आगरे जैनी बसे। गुण मणिरिद्ध वृद्धि कर लसै ॥ तिहँ थानक मन ब्रह्म प्रकाश। रचना कही 'भगोतीदास' ३४
- इति मनबत्तीसी।
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___ अथ स्वभबत्तीसी लिख्यते।
दोहा. स्वपनेवत संसारमें जागे श्रीजिनराय ।।
तिनके चरन चितारके, वंदत हों मन लाय ॥१॥ (१) आठ पसेरीका मन । WardPREPARMANPATRISMANARDARPARIVARIES
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मोह नींदमें जीवको, बीत गयो चिरकाल ॥ जाग न कवह आपकी, कीन्ही सुध संभाल ॥२॥ जानत है सब जगतमें, यह तन रहवो नाहिं ॥ पोपत है किहँ भावसों, मोह गहलता माहि ॥३॥ मेरे मीत नचीत तू, है वैठ्यो किह ठौर ॥ आज काल जम लेत है, तोहि सुपन भ्रम और ॥ ४॥ देखत देखत आंखसों, यह तन विनस्यो जाय ॥ एतेपर थिर मानिये, यहो मूढ शिरराय ॥ ५॥ जो प्रभातको देखिये, सो संध्याको नाहिं ॥ ताहि सांच कर मानिये, भ्रम अरु कहा कहाहि ॥६॥ ज्यों सुपनेमें देखिये, त्यों देखत परतच्छ । सर्व विनाशी वस्तु है, जात छिनकमें गच्छ ॥ ७ ॥ सुपनेमें भ्रम देखिये, जागत हू भ्रम मूल ॥ ताहि सांच शठ मानके, रह्यो जगतमें फूल ॥८॥ सुपनेमें अरु जागते, फेर कहा है वीर ॥ वाहमें भ्रम भूल है, वाहूमें भ्रम भीर ॥ ९ ॥ • सुपनेवत संसार है, मूढ़ न जाने भेव ॥
आठ पहर · अज्ञानमें, मग्न रहैं अहमेव ॥१०॥ सुपनेसों कहै झूठ है, जाग कहै निजगेह ॥ ते मूरख संसारम, लहै न भवको छेह ॥११॥ कहा सुपनमें सांच है ? कहा जगतमें सांच? ॥ भूल मूढ थिरमानके, नाचत डोलै नाच ॥ १२॥ है आँख मूंद खोलै कहा, जागत कोऊ नाहिं ॥
सोवत सब संसार है, मोह गहलता माहिं ॥१३॥ ()चली. RanwerPAWARAPOORSPOpponweppp/nepal
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मोह नींदको त्याग, जे जिय भये सचेत ।। ते. जागे संसारमें, अविनाशी सुख लेत ॥ १४॥ अविनाशी पद ब्रह्मको, सुख अनंतको मूल । जाग लह्यो जिहँ जगतमें, तिहँ पायो भवकूल।। १५ ॥ अविनाशी घट घट प्रगट, लखतन कोऊताहि ॥ सोय रहे भ्रम नींदमें, कहि समुझावें काहि ॥ १६ ॥ आप कहै हम दक्ष हैं, और न कहै अज्ञान ॥ अहो सुपनकी भूलमें, कहा गहै अभिमान ॥ १७ ॥ मान आपको भूपती, औरनसों कह रंक ॥ देख सुपनकी संपदा, मोहित मूढ निशंक ॥१८॥ देख सुपनकी साहिवी, मूरख रह्यो लुभाय ॥ छिन इकमें छय जायगी, धूम महलके न्याय ॥ १९ ॥ कहा सुपनकी साहिवी, मूरख हिये विचार ॥ जम जोधा छिन एकमें, लेहैं तोहि पछार ॥२०॥ सोवतमें इह जीवको; सुरति रहै नहिं रंच ॥ आप कछू मानै कछू, सवहि भरम परपंच ॥ २१॥ मूरख है यह आतमा, क्यों ही समझत नाहि ॥ देख सुपनवत आंखसों, बहुर मगन तिह माहि ॥ २२॥ जानत है जमराजकी, आवत फौज प्रचंड ॥ मार कर इह देहको, छिनक माहिं शत खंड ॥ २३ ॥ ऐसे जमको भय नहीं, पोषत तन मन लाय॥ तिनसम मूरख जगतमें, दूजो कौन कहाय ॥ २४ ॥ मूरख. सोवत जगतमें,. मोह गहलतामाहि ॥:.
जन्म मरन बहु दुख सहै, तो हू जागत नाहिं ॥ २५॥ HWowNepmenopauwenpoweOORDARPAPVT
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सूचावत्तीसी. जन ऊपर जम जोर है, जिनसों जम हु डराय ॥ तिनके पद जो सेइये, जमकी कहा वसाय ॥२६॥ जिनके पदको सेवते, निजपद परगट होय ॥ तिनते बडो न दूसरो, और जगतमें कोय ॥२७॥ निजपद परगट होत ही, शिवपद मिलै सुभाय ।। जनम मरन बहु दुख मिटै, जम विलख्यो है जाय॥२८॥ जम जीतेत जीवको, सुख अनंत ध्रुव होय ॥ बहुर न कबहू, सोयवो, जगे कहावें सोय ॥ २९ ॥ जम जीते जीते ग्रह, जागे वहै प्रमान ॥ वह सवन शिरमुकट है, चेतन धर तिहध्यान ॥ ३० ॥ ध्यान धरत परब्रह्मको, तोहि परमपद होय ॥ तुहू कहावै सिद्धमय, और कह कहा कोय ।। ३१ ।। चेतन ढील न कीजिये, धरहु ब्रह्मको ध्यान ॥ सुख अनंत शिवलोकमें, प्रगटै महा कल्यान ॥ ३२॥ इह विधि जो जागै पुरुप, निज हग कर परकास ॥ तिहँ पायो सुख शास्वतो,कहै "भगोतीदास ॥ ३३ ॥ उग्रसेनपुर अवनि, शोभत मुकट समान । तिह थानक रचना कही, समुझ लेहु गुणवान ॥ ३४ ॥
इति सुपनबत्तीसी ।
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अथ सूत्रावत्तीसी लिख्यते। .
. .. दोहा. नमस्कार जिन देवको, करों दुई करजोर ह
सुवा बतीसीं सुरस में, कई: अग्निदलमोर ॥१॥ Pawanwroomparavaanswoopanaeronomwwwand
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Bior जंग २६८
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ब्रह्मविलास में
आतम सुआ सुगुरु वचन, पंढत रहै दिन रैन | करत काज अंघरीतिके, यह अचरज लखि नैन ॥ २ ॥ सुगुरू पढावे प्रेमसों, यहू पढत मनलाय ॥ घटके पट जो ना खुलै, सबहि अकारथ जाय ॥ ३ ॥ चौपाई.
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सुवा पढायो सुगुरु बनाय । करम बनहि जिन जइयो भाय ॥ भूले चूके कबहु न जाहु । लोभनलिनिपैं दगा न खाहु ॥ ४ ॥ दुर्जन मोह दगाके काज । बांधी नलनी तर धर नाज ॥ तुम जिन बैठ हु सुवा सुजान । नाज विषयसुख लहि तिहँ थान ॥ ५ ॥ जो बैठहु तो पकरि न रहियो । जो पकरो तो दृढ जिन गहियो । जो दृढ. गहो तो उलटि न जइयो । जो उलटो तौ तजि भजि घइयो | ६ ॥ इह विधि सूआ पढायो नित्त । सुवटा पढिके भयो विचित्त ॥ पढत रहे निशदिन ये वैन | सुनत लहै सब प्रानी चैन ॥ ७ ॥ इक दिन सुवदैं आई मनै । गुरु संगत तज भज गये बनै ॥ वनमें लोभ नलिन अति बनी । दुर्जन मोह दगाको तनी ॥ ८ ॥ ता तरु विषयभोग अन धरे । सुवटै जान्यो ये सुख खरे ॥ उतरे विषयसुखनके काज | बैठ नलिनपैं बिलसै राज ॥ ९ ॥ बैठो लोभ नलिनपै जबै । विषय स्वाद रस लटके तबै ॥ लटकत तरें उलटि गये भाव । तर मूंडी ऊपर भये पांव ॥ १० ॥ नलिनी दृढं पकरै पुनि रहे । मुखतें वचन दीनता कहै कोड न बनमें छुडावनहार । नलनी पकरहि करहि पुकार ॥११॥ पढत रहै गुरुके सब वैन ! जे जे हितकर सिखये ऐन ॥ " सुवटा नमें उड जिन जाहु । जाहु तो भूल खता जिन खाहु ॥ १२ ॥
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२६९ नलनीके जिन जइयो तीर । जाहु तो तहां न बैठहु वीर ॥ जो इ बैठो तो दृढ जिन गहो । जो दृढ गहो तो पकरि न रहो॥१३॥ जो पकरो तो चुगा न खइयो । जो तुम खावो तो उलटन जइयो। जो उलटो तो तज भज धइयो । इतनी सीख हृदय में लहियो" ॥ १४ ॥ ऐसे वचन पढत पुन रहै । लोभ नलनि तज भन्यो न चहै ॥ आयो दुर्जन दुर्गति रूप । पकड़े सुवटा सुंदर है
भूप ॥ १५॥ डारे दुखके जाल मझार । सो दुख कहत न आहवे पार ॥ भूख प्यास बहु संकट सहै । परवस परे महा दुख
लह ॥ १६ ॥ सुवटाकी सुधि वुधि सव गई। यह कछु भई । आय परे दुख सागर माहिं । अव इतत कितको है भज जाहिं ॥ १७ ॥ केतो काल गयो इह ठौर । सुवटै जियमें है
गनी और ॥ यह दुख जाल कटै किहँ भाँति । ऐसी मनमें ८उपजी खाँति ॥ १८ ।। रात दिना प्रभु सुमरन करै । पाप जाल
काटन चित धरै ॥ क्रम क्रम कर काव्यो अघजाल । सुमरन फ
ल भयो दीनदयाल ॥ १९ ॥ अव इतत जो भजके जाउं । तो है इनलनीपर बैठ न खाउं॥पायो दाव भज्यो ततकाल । तज दुर्जन
दुर्गति जंजाल || २० । आये उडत बहुर वनमाहिं । वैठे नर-3 भव द्रुमकी छाहि ॥ तित इक साधु महा मुनिराय । धर्म देशना देत सुभाय ॥ २१॥ यह संसार कर्मवनरूप । तामहि चेतन सुआ अनूप ॥ पढत रहे गुरु वचन विशाल । तौ हून अपनी कर संभाल ॥ २२ ।। लोभ नलिन बैठे जाय । विषय स्वाद रस लटके आय ।। पकरहि दुर्जन दुर्गति परे। तामें दुःख ,
वहुत जिय भर ॥ २३ ॥ सो दुख कहत न आवै पार । जानत PHARMWAROOPondoscopencommons
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ब्रह्मविलास में
२७०
जिनंबर ज्ञानमझार ॥ सुनतें सुवटा चौंक्यो आप । यह तो मो२४ ॥ ये दुख तो सब मैं ही सहे । जो
हि परयो सब पाप ॥ मुनिवरने मुखतें कहे ॥ सुवटा सोचै हिये मझार । ये गुरु सांचे तारनहार ॥ २५ ॥ मैं शठ फिरधो करमवन माहिं । ऐसे गुरु कहुँ पाये नाहिं | अब मोहि पुण्य उदै कछु भयो । सांचे गुरुको दर्शन लयो ॥ २६ ॥ गुरुकी गुणस्तुति वारंवार । सुमिर सुवटा हिये मझार ॥ सुमरत आप पाप भज गयो । घटके पट है खुल सम्यक थयो ॥ २७ ॥ समकित होत लखी सब वात । यह मैं यह परद्रव्य विख्यात | चेतनके गुण निजमहि धरे । पुद्गल | रागादिक परिहरे ॥ २८ ॥ आप मगन अपने गुण माहिं । जन्म मरण भय जियको नाहिं ॥ सिद्ध समान निहारत हिये । कर्म कलंक सबहि तज दिये ॥ २९ ॥ ध्यावत आप माहिं जगदीश । दुहुपद एक विराजत ईश ॥ इहविधि सुवटा ध्यावत ध्यान । दिनदिन प्रति प्रगटत कल्यान ॥ ३० ॥ अनुक्रम शिवपद जियको भया । सुख अनंत विलसत नित नया || सतसंगति सबको सुख देय । जो कछु हियमें ज्ञान धरेय ॥ ३१ ॥ केवलिपद आतम अनुभूत | घट घट राजत ज्ञान संजूत ॥ सुख अनंत विलसै जिय सोय । जाके निजपद परगट होय ॥ ३२ ॥ सुवा बतीसी सुनहु सुजान। निजपद प्रगटत परम निधान || सुख अनंत बिसहु ध्रुव नित्त । 'भैयाकी' विनंती धर चित्त ॥ ३३ ॥ संवत सत्रह त्रेपन माहिं । अश्विन पहिले पक्ष कहाहिं ॥ दशमी दशों दिशा परकास । गुरु संगति तैं शिव सुखभास ॥ ३४ ॥ इति सूवाबत्तीसी ।
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ज्योतिपके छंद. अथ ज्योतिपके छन्द लिख्यते ।
छप्पय । दिन करके दिन वीस, चंद्र पंचास प्रमानहु । मंगल विंशति आठ, वुद्ध छप्पन शुभ ठानहु ॥ शनिके गण छत्तीस, देव गुरु दिनहि अठावन ।
राहु वियालिस लहिय, शुक्र सत्तर मन भावन ॥ इम गनहु दशा निजराशितै, सूरज जित संक्रमहिं तित । शुभफलहिं विचारहु भविक जन, परम धरम अवधार चित ॥१॥
मेप वृछिक पति भौम, वृषभ तुलनाथ शुक्र सुर। मीनराशि धनराशि ईश, तस कहत देव गुरु ॥
कन्या मिथुन बुधेश, कर्क स्वामी श्री चंद गणि ॥ 'मकर कुंभ नृप शनी, सिंह राशिहि प्रभु रवि भणि॥ ये राशी द्वादश जगतमें, ज्योतिष ग्रंथ वखानिये। तस नाथ सात लख भविकजन, परम तत्त्व उर आनिये ॥२॥
मेप सूर वृप चंद्र, मकर मंगल गण लिज्जै। कन्या बुध अति शुद्ध, कर्क सुरगुरुहि भणिजै ॥ मीन शुक्र सुख करन, तुलहि दुख हरन शनीश्वर ॥
मिथुन राहु जय करय, भरय भंडार धनीश्वर ॥ है इह विधि अनेक गुण उच्च महि, रिद्ध सिद्धि संपति भरय॥ तस नाथ सात लखि भविक जन, पर्म धर्म जिय जय करय।। ३॥
दोहा. तुल सूरज वृश्चिक शशी, कर्क भौम बुध मीन ॥
मकर वृहस्पति कन्य भृगु, मेप शनिश्चर दीन ॥४॥ KHARGAnwarwanawanpranconscoopenworopaper
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ब्रह्मविलासमें राहु होय धन राशि जो, ए सव कहिये नीच ॥ परमारथ इनमें इतो, रहिये निज सुख वीच ॥ ५॥ इति ज्योतिपछन्द।
. ___ अथ पद राग प्रभाती। साहिव जाके अमर है सेवक सब ताके ॥ दीप और पर दीपमें भर रहे सदाके, साहिव० ॥१॥ जामे तीर्थंकर भये चक्री वसु देवा ॥ काल अनन्तहु एकसे, घट वढ नहि टेवा, साहिव० ॥२॥. जाकी उत्पति नित्य है नित होय विनाशा॥ जीव विना पुद्गल विना सागर सम वासा, सहिब० ॥३॥ अर्थ कहो याको कहा विनती सौ बारा॥ नाव कह्योया पदविषै, तुम लेहु विचारा, साहिब० ॥४॥
पुनः कहा तनकसी आयु, मूरख तू नाचे ॥ सागरथितिधर खिर गये, तू कैसें वांचे, कहा० ॥१॥ देख सुपनकी संपदा, तू मानत सांच॥ वे जु नर्ककी आपदा, जर है को आंच, कहा० ॥२॥ धर्मकर्ममें को भलो परखो · मणि काचै ।। भैया आप निहारिये परसों मति मांचे, कहा०॥३॥
इति पद, अथ फुटकर कविता लिख्यते ।
कवित्त. तेरो ही स्वभाव चिनमूरति विराजत है, तेरो.ही स्वभाव सुख सागरमें लहिये । तेरों ही स्वभाव ज्ञान दरसन राजत है, तेरो ही PRORoomeOPA000-30MRPeopenwww
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...... फुटकर कविता. स्वभाव ध्रुव चारितमें कहिये ।। तेरो ही स्वभाव अविनाशी सदा दीसत है तेरो ही स्वभाव परभाव न गहिये । तेरो ही स्वभाव सब आन लसै ब्रह्ममाहिं यात तोहि जगतको ईश सरदहिये ॥२॥
मोह मेरे सारेने विगारे आन जीव सव, जगतके वासी तैसे वासी कर राखे हैं। कर्मगिरिकंदरामें वसत छिपाये आप, क१रत अनेक पाप जात कैसे भाखे हैं । विपैवन जोर तामे चोरको है निवास सदा, परधन हरवेके भाव अभिलाखे हैं । तापै जिनराज से जके वन फौजदार चढे, आन आन मिले तिन्हें मोक्ष देश दाखे।
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६ जोलों तेरे हिये भर्म तोलो तू न जानै मर्म, कौन आप कौन है
कर्म कौन धर्म सांच है। देखत शरीर चर्म जो न सह शीत धर्म, . ताहि धोय मान धर्म ऐसे भ्रम माच है।नेक हुन होय नर्म वात है वातमाहिं गर्म, रहो चाह हेम हर्म वसनाही पांच है। एते पैन गहै है। है शर्म कैसे द्वे प्रकाश पर्म, ऐसे मूढ भर्ममाहिं नाचै कर्म नाचहै। — अमल सुपी रहेरी अमल सुपीरहरी, अमल वही रहैरी अमल सु पीर है । वानी जो गहीरहैरी वानी जो वही रहैरी, वानी न कही लहरी वानी न कही रहै । परको शरीरहैरी परको नहीं, रहरी, परको नही रहरी वह दुख भीर है । भौदधि गहीरहरी आयो तिह तीरहरी, चेतै निज घां कहीरी पर है सही रहै ॥४॥
अरिनके ठट्ट दह वह कर डारे जिन, करम सुभट्टनके पट्टन उजारे हैं। नर्क तिरजंच चट पट्ट देके बैठ रहे, विपै चौर झट है झट्ट पकर पछारे हैं ।। भी वन कटाय डारे अहमद दुइ मारे, मदनके देश जार क्रोध हु संहारे हैं। चढत सम्यक्त सूर वढत प्रताप पूर, सुखके समूह भूर सिद्धके निहारे हैं ॥५॥
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ब्रह्मविलासम वारवार फिर आई वारवार फिर आई, वारवार फेर आई है ( आतमसो हरी है । वारवार जुर आई वारवार जर आई, है वारवार जार आई ऐसी नीच खरी है ॥ वारवार वार चाहै ,
वारवार वार चाहै,वारवार चार चाहै मानो चारदरी है। वारवार धोखो खाहि वारवार कहै काहि, वारवार पोपै ताहि वारवुधि
करी है ॥६॥ ए अपनी कमाई भैया पाई तुम यहां आय, अव कछु सोच किये , है हाथ कहा परि है । तब तो विचार कछु कीन्हों नाहिं बंधसमें, इयाके फल उदै आय हमै ऐसे करि है । अब पछताये कहा होत है है अज्ञानी जीव, भुगते ही वनै कृति कर्म कहूं हरि है । आगेको , संभारिकें विचार काम वही करि, जातें चिदानंद फंद फेरकै न धरि है ॥ ७॥
नाम मात्र जैनी पै न सरधान शुद्ध कहूं, मूंडके मुंड़ाये कहा है सिद्धि भई बावरे । काय कृश किये कछु कर्म तौ न कृश होहिं, है मोह कृश करिवेको भयो तो न चावरे ॥ छाँड्यो घरवार पैन छाड्यो घरवार कोऊ, वार वार ढूँढै धन वनै कहूं दावरे । कलियुगके साधुकी वडाई कहो केती कीजे, रात दिना जाके भाव रहैं हाव हावरे ॥८॥
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सवैया.
हु हे मन नीच निपात निरर्थक, काहेको सोच करै नित करो।
तू कितहू कितह पर द्रव्य है, ताहिकी चाह निशा दिन झुरो॥ B आवत हाथ कछू शठ तेरे जु, वांधत पाप प्रणाम न पूरो।
आगेकोबेल वढे दुखकी कछु, सूझत नाहिं किधोंभयोसूरो॥९॥ floreracopanpoPRRAORDARPANDEnrommami
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Reepavan/RepenSweenawRORPORAN फुटकर कविता.
२७५३ छप्पय छंदः .. शीश गर्व नहिं नम्यो, कान नहिं सुनै वैन संत ॥ नैन न निरखे साधु, वैनतें कहे न शिवपति ॥ करतं दान न दीन, हृदय कछु दया न कीनी ॥ पेट भरयो कर पाप, पीठ परतिय नहिं दीनी॥ चरन चले नहिं तीर्थ कहँ, तिहि शरीर कहा कीजिये ।। इमि कहैश्याल रेश्वान यह ! निंद निकृष्ट नलीजिये ॥१०॥ है
संवैया. (मात्रिक) मनवचकाय योग तीनहंसों, सब जीवनको रक्षक होय ॥ झूठे वचन न बोलै कवह, विना दिये कछु लेय न जोय ॥
शीलवतहिं पाल निरदूपन, दुविधि परिग्रह रंच न कोय ॥ र पंच महाव्रत ये जिन भापित, इहि मगचलै साधु है सोय ॥११॥
कवित्त. पेटहीके काज महाराजजूको छोड़ देत, पेटहीके काज झूठ जंपत वनायकें । पेटहीके काज राव रंकको वखान करै, पेटहीके Sकाज तिन्हें मेरु कह जायकें । पेटहीके काज पाप करत डरात हनाहिं, पेटहीके काज नीच नवे शिर नायके । पेटहीके काजको खुशामदी अनेक करे, ऐसे मूढ पेट भरै पंडित कहायकें ॥१२॥
छप्पय. वीतरागके विव सेव, समदृष्टी करई ॥ अटक द्रव्य चढाय, थाल भरि आगे धरई ।। पूजा पाठ प्रमान, जाप जप ध्यानहिं ध्यावै ॥ अचल अंग थिरभाव, शुद्ध आतम लौ लावै ॥
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ब्रह्मविलासमें मंजार निरखि नैवेद्यको, मर्कट फल इच्छा धरहि। तंदुलहिं चिरा पुष्पहिं मैंवर, एक थाल भुंजन करहि ॥१॥
मात्रिक कवित्त. जे जिह काल जीव मत ग्राही, किरिया भावहोहिं रस रत्त । कर करनी निज मन आनंदै, वांछा फल चिंतहिं दिन रत्त ॥ रहित विवेक सु ग्रंथ पाठ कर, झार धूर पद तीन धरत । तिनको कहिये औगुनथानक, चक्रीधरमें नृपति भरत॥१४॥
कवित्त. है केई केई वेर भये भूपर प्रचंड भूप, बड़े बड़े भूपनके देश है
छीनलीने हैं । केई केई बेर भये सुर भौनवासी देव, केई केई वेर तो निवास नर्क कीने हैं । केई केई वेर भये कीट मलमूत माहिं, ऐसी गति नीचवीच सुख मान भीने हैं। कौड़ीके अनंत है भाग आपन विकाय चुके, गर्व कहा करे मूढ़ ! देख ! हग दीने ।
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ए जब जोग मिल्यो जिनदेवजीके दरसको, तब तो संभार कछु है करी नाहिं छतियाँ । सुनि जिनवानीपै न आनी कहूं मन माहि., ऐसो यह पानी यों अज्ञानी भयो मतियाँ ॥ स्वपर विचारको प्रकार कछु कीन्हों नाहि, अव भयो बोध तब झूरे दिन रतियाँ। । इहाँ तो उपाय कछु बनै नाहिं संजमको, बीत गयो औसर बनाय कहै बतियाँ ॥ १६ ॥
छप्पय.
जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ अघ कैसे आवें।
जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ व्यंतर भज जावें ॥ coconadamaANGPROPOSPORENOODeman
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HARIRAMMAnwawenwRBomww wmore, फुटकर कविता.
२७७३ जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ सुख संपति होई ।
जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ दुख रहै न कोई ॥ नवकार जपत नव निधि मिलै, सुख समूह आवै सरव । सो महा मंत्र शुभ ध्यानसों, भैया' नित जपवो करव ॥ १७॥
दोहा. सीमंधर स्वामी प्रमुख, वर्तमान जिनदेव ॥ मन वच शीस नवायके, कीजे तिनकी सेव ॥१८॥ महिमा केवल ज्ञानकी, जानत है श्रुतज्ञान ॥ तात दुहु बरावरी, भापे श्री भगवान ॥१९॥ जितनो केवल ज्ञान है, तितनो है श्रुतज्ञान ॥ नाव भिन्न यातें कह्यो, कर्म पटल दरम्यान ॥२०॥ विन कपायके त्यागते, सुख नहिं पावै जीव ॥ ऐसे श्री जिनवर कही, वानी माहिं सदीव ॥ २१ ॥ जो.कुदेवमें देव बुधि, देव विष बुधि आन ॥ जो इन भावन परिणवै, सो मिथ्या सरधान ॥ २२ ॥ जैसे पटको पेखनो, तैसो यह संसार ॥ आय दिखाई देत है, जात न लागै वार ॥२३॥ त्याग विना तिरवो नहीं, देखहु हिये विचार ॥ तूंची लेपहिं त्यागती, तव तर पहुंचे पार ॥२४॥ त्याग बडो संसारमें, पहुँचावै शिवलोक ॥
त्यांगहित सव पाइये, सुख अनंतके थोक ॥ २५ ॥ ' सुगुरु कहत है शिष्यको, आपहि आप निहार ॥
भले रहे तुम भूलिकें, आपहि आप विसार ॥ २६ ॥ (१) बीचमें. २ पटवीजना. (खद्योत) HowanRanwonwepwapepepeopoG000000ROS
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ब्रह्मविलासमें जो घर तज्योतोकहा भयो,रागतज्यो नहिं वीर! ॥ साँप तजै ज्यों कंचुकी, विप नहिं तले शरीर ॥ २७ ॥ भरतक्षेत्र पंचम समय, साधु परिग्रहवंत ॥ कोटि सात अरु अर्ध सव, नरकहिं जाय परंत ॥ २८ ॥ देत मरन भव सांप इक, कुगुरु अनंती बार ।। वर सांपहिं गहपकरिये, कुगुरु न पकर गवार ॥ २९ ॥ वाघ सिंघको भय कहा? एकवार तन लेय ॥ भय आवत है कुगुरुको, भवभव अति दुख देय॥ ३०॥ दृगके दोप न छूटहीं, मृग जिमि फिरत अजान ॥ धृग जीवन या पुरुषको, भृगुकेदास समान ॥ ३१ ॥ केवलज्ञान स्वरूप मय, राजत श्री जिनराय ॥ वंदत हो तिनके चरन, मनवच शीस नवाय ॥ ३२॥ कर्मनके वश जीव सव, वसत जगतके माहि ।। जे कर्मनको वस किये, ते सव शिवपुर जाहि ॥ ३३ ॥
इति फुटकर कविता.
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अथ परमात्मशतक लिख्यते।
दोहा, पंच परम पद प्रणमिके, परम पुरुष आराधि । कहों का संक्षेपसों, केवल ब्रह्म समाधि ॥१॥ सकल देवमें देव यह, सकल सिद्धमें सिद्ध ॥
सकल साधुमें साधु यह, पेख निजातमरिद्ध ॥२॥ (२) यह निजातम की समृद्धि सम्पूर्ण देवोंमें देव, सम्पूर्ण सिद्ध पर-है १ एकाक्षी (काना).
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२७२३ सारे विभ्रम मोहके, सारे जगत मझार ॥ सारे तिनके तुम परे, सारे गुणहि विसार ॥३॥
सोरठा. पीरे होहु सुजान, पीरे का रे है रहे ॥ पीरे तुम विन ज्ञान, पीरे सुधा सुवुद्धि कह ॥ ४ ॥ विमल रूप निजमान, विमल आन तू ज्ञान में || विमल जगतमें जान, विमल समलतातें भयो ॥५॥ 'उजरे भाव अज्ञान, उजरे जिहत बंधये ।।
उजरे निरखे भान, उजरे चारहु गतिनतें ॥ ६ ॥ मात्माओंमें सिद्ध और सम्पूर्ण साधुओंमें साधु है इससे हे भव्य । उस निनातम रिद्धिको पेख अर्थात् देख ॥
(३) (सारे) सम्पूर्ण जगतमें जो मोहके (सारे) सब विभ्रम हैं, तुम (सारे) उत्तम २ गुणोंको विसारके उन्हींके (सारे) सहारे अर्थात् आश्रय पढ़े हो।
(१) हे मुनान ! (पीरे) पियरे अर्थात् प्यारे होमो. (पीरे) दु:खित (का रे) क्यों हो रहे हो, और तुम विना ज्ञानके ही (पीरे) पीड़े । है अर्थात् दुःखित हुए हो, इसलिये अब बुद्धि रूपी अमृत को ( पीरे) पान करो।
(५) हे विमल आत्मन् ! अपना (विमल) कर्मों से रहित स्वरूप मान करके (तू ज्ञानमें आन ) ज्ञानको प्राप्त हो, (विमल) विशेष मलद रहित सिद्ध संसारमें से ही जानों, क्योंकि विमल मलसहितसे होता है, भावार्थ मोक्ष संसारपूर्वकही होताहै।
(६) हे आत्मन 1 वह अज्ञानमाव (उजरे) उमड़े अर्थात् विनाश MandirmananARWADRAMARPATRAPPERSPERMAN
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ब्रह्मविलासमें सुमरहु आतम ध्यान, जिहि सुमरे सिधि होत है ॥ सुमरहिं भाव अज्ञान, सुमरन से तुम होतहो ॥७॥
दोहा. मैनकाम जीत्यो वली, मैनकाम रस लीन ॥ मैनकाम अपनो कियो, मैनकाम आधीन ॥ ८॥ मैनासे तुम क्यों भये, मैनासे सिध होय ॥ मैनाही वा ज्ञानमें, मैनरूप निज़ जोय ॥९॥ जोगी सो ही जानिये, वसै संजोगीगेह ॥
सोई जोगी जोगेहै, सब जोगी सिरतेह ॥ १० ॥ को प्राप्त हुए जिनसे आत्मा (उजरे) उनले अर्थात् प्रगटरूपसे वंद हो रहा था, और जब ज्ञान सूर्य (उजरे) उज्ज्वल देखे गये, तव चारों गतों से (उनरे) छूटे भावार्थ सिद्ध पदको प्राप्त हुए।
(७) हे भाई! ध्यानमें आत्माका स्मरण करो जिसके स्मरणसे कार्य सिद्ध ह होता है, अथवा जिससे सिद्ध होते हो, अज्ञान भावों के (सुमरोहिं) विलकुल नष्ट होजाने से तुम (सुमरनसे) स्मरण करने योग्य (परमात्मा) हो सक्ते हो।
(८) मैं बलवान कामको न जीत सका और (मैंनकाम ) मैं 'नकाम व्यर्थ रसलीन अर्थात् विषयाशक्त हुआ. मैनकाम कहिये कामदेवकें आधीन होकर मैंने अपना काम न कियाअर्थात् आत्मकल्यान नहिं किया ।
(१०) (पी) हे प्रिय ! तुम (तारी) ध्यानको भूल करके अथवा ६ तारी कहिये मोहरूपी नसापी कहिये पिया और(तारीतन) संसार कीअथवा मोहकी रीतियों में लवलीन हो रहेहो, इसलिये हे प्रवीण तुम ज्ञान की (तारी) ताली अर्थात् कुंजी (चाबी) खोजो' तलाश करो, जो (तारी)
१ तेरहवें गुणस्थानमें २ योग्य है. WommenPORARRORPOWewerupanoos
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परमात्मशतक. तरी पी तुम भूलके, तारीतन रसलीन ॥ तारी खोजहु ज्ञानकी, तारी पति परवीन ॥ ११॥ जिनं भूलहु तुम भर्ममें, जिन भूलहु जिनधर्म ॥ जिन भूलहिं तुम भूलहो, जिन शासनको मर्म ॥ १२॥ फिरें बहुत संसारमें, फिर २ थाके नाहिं।। फिरे जहिं निर्जरूपको, फिरे न चहं गति माहि ॥१३॥ हरी खात हो वावरे, हरी तोरि मति कौन ॥ हरी भजो आपा तजो, हरी रीति सुख हौन ॥१४॥
. द्वयक्षरी दोहा. जैनी जाने जैन नै, जिन जिन जानी जैन ।
जेजे जैनी जैन जन, जाने निज निज नैन ॥ १५ ॥ तुम्हारी (पत) लज्जा है अथवा तुम प्रवीन और तारीपति कहिये ज्ञान-2 रूपी तारीके पतिहो । (१४) हे (पावरे) भोले जीव ! तेरी मति किसने हरली है, जो तू (हरी) (सवित्त वस्तुएँ) खाता है, अब आपो (ममत्व) छोड़ करके (हरी) सिद्ध भगवान को भजो अर्थात् ध्यावो. यही सुखहोनेवाली (हरी) ताजी अथवा उत्तम रीति है,
(१५) नैनी जैनशास्त्रोक्त नयोंको जानता है, और (जिन) जिन्हों ने उन नयोंको (जिन)नहीं जानी, उनकी (जैन) जय नहीं होती है. इसलिये (जेने) जो जो (जैननन ) जिनधर्मके दास जैनी हैं वे अपनी २ (नैन ) नयोंको अवश्य ही जाने अर्थात् समझें.
(6) एक प्रकारका नशा. (२) मत (निषेधार्थ). (३) जिनेश्वर भगवानको. SC) अमण कर. (५) पलटे, सन्मुख होवे. (६) आत्मरूप. wawatan
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ब्रह्मविलासमे. . परमारथ परमें नहीं, परमारथ निज पास ॥ परमारथ परिचय विना, प्राणी रहै उदास ॥१६॥ परमारथ जानें परम, पर नहिं जाने भेद ॥ परमारथ निज परखियो, दर्शन ज्ञान अभेद ॥ १७ ॥ परमारथ निज जानियो, यहै परमको राज॥ परमारथ जाने नहीं, कही परम किहि काज ॥१८॥ आप पराये वश परे, आपा डारयो खोय ॥ आईं आप जाने नहीं, आप प्रगट क्यों होय ॥१९॥ सब सुख सांचेमें वसे, सांचो है सब झूठ॥ सांचो झूठ वहायके, चलो जगतसों रूठ ॥२०॥ जिनकी महिमा जेलखें, ते जिन होहिं निदान ।। जिनवानी यों कहत है, जिन जानहु कछु आन॥ २१॥ ध्यान धरो निजरूपको, ज्ञान माहिं उर आन ॥ तुम तो राजा जगतके, चेतहु विनती मान ॥ २२॥ चेतन रूप अनूप है, जो पहिचानें कोय ॥ तीन लोकके नाथकी, महिमा पावे सोय ॥ २३ ॥ जिन पूजहिं जिनवर नमहि, धरहिं सुथिरता ध्यान ॥
केवलपदमहिमा लखहिं, ते जिय सम्यकवान ॥२४॥ (२०) सम्पूर्ण सुख सचिमें अर्थात् सच्चे स्वरूपमें है,और सांचा अर्थात् है पौद्गलिकदेह रूपी सांचा बिलकुल झूठा अर्थात् अस्थिर है इसलिये, (सांचो
झूठ ) इस देहरूपी झूठे, सांचेको त्याग करके, संसारसों (रूठ) रुष्ट होहै कर चल ‘अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर. । १ दुखित.२ परन्तु.३ आतमा.४ आप अपनेंको नहीं जानता. ५ तीर्थंकर. ६ हृदयमें
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परमात्मशतक. मुद्दत लों परवश रहे, मुद्दत कर निज नैन । मुद्दत आई ज्ञानकी, मुद्दतकी, गुरु वैन ॥ २५॥ ज्ञान दृष्टि धर देखिये, शिष्ट न यामहिं कोय ॥ ईष्ट कर पर वस्तुसों, मिष्ट रीति है सोय ॥ २६॥ तुम तो पद्म समान हो, सदा अलिप्त स्वभाव ॥ लिप्त भये गोरस विपं, ताको कौन उपाव ॥ २७॥ वेदभाव सव त्याग कर, वेदं ब्रह्मको रूप ॥ वेद माहिं सब खोज है, जो वेदे चिंद्रूप ॥ २८॥ अनुभवमें जोलों नहीं, तोलों अनुभव नाहिं ॥ जे अनुभव जानें नहीं, ते जी अनुभव माहि ॥ २९॥ अपने रूप स्वरूपसी, जो जिय राखै प्रेम ॥ सो निहच शिवपद लहै, मनसावाचानेम ॥३०॥
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(२५) हे आत्मन्! तुम अपने नेत्रोंको (मुदित ) मुद्रित अर्थात् बंद करके ( मुद्दतलों ) बहुत समय तक परवश अर्थात् पुद्गलके वशमें रहे; परंतु नत्र ज्ञानकी ( मुद्दत ) अवधि आई, तव गुरुके वचनोंने क. ( मुद्दत ) मदत अर्थात् सहायता कीन्ही.
(२९) नबतक अनुभव- अनु-पश्चात् ' भव-संसारमें नहीं अर्थात् एनबतक थोड़े भव बाकी न रहे, तबतक 'अनुभव', अर्थात् सम्यक है
ज्ञान नहीं है, क्योंकि जो अनुभव (सम्यक ज्ञान ) नहीं जानते हे हैं, वे 'अनुभव', अर्थात् पीछे संसारमें ही पड़े रहते हैं, .
(१) उत्तम. (२) प्यार. () 'भूट' खराय. (४) 'गो' इन्द्रियोंके 'रस' विषयमें. (५)ीपुनपुसकमाव. (६) आत्माका स्वरूप जान. (0) शास्त्रोंमें. (0) पता.
(6) यदि चिद्रूपको जानता हो तो. नहीं तो कुछ नहीं. १० मनसे और वचनसे. SwwapmarwomenPREPOnPOOOOOPERIODEOS
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ब्रह्मविलासमें
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प्रश्नोत्तर. षट दर्शनों को शिरै? कहा धर्मको मूल? ॥ मिथ्यातीके है कहा? 'जैन' कह्यो सु कबूल ॥ ३१॥ वीतराग कीन्हों कहा ? को चन्दा की सैन ? ॥ घामद्वार को रहत हैं ? 'तारे' सुन शिख वैन ॥ ३२ ॥ धर्म पन्थ कोनें कह्यो ? कौन तरै संसार ॥ कहो रंकवल्लभ कहा? 'गुरु' वोले वच सार ॥ ३३ ॥ कहो स्वामि को देव है? को कोकिल सम काग? ॥ को न नेह सज्जन करै? सुनहु शिष्य विनराग ॥ ३४॥ गुरु सङ्गति कहा पाइये? किहि विन भूलै भर्म कहो जीव काहे मयी? 'ज्ञान' कह्यो गुरु मर्म • जिन पूर्जे ते हैं किसे? किहते जगमें मान! ॥ पंचमहाव्रत जे धरै, 'धन' बोले गुरु ज्ञान ॥ ३६॥ है छिन छिन छीजै देह नर, कित है रहो अचेत ॥ तेरे शिर पर अरि चढ्यो, काल दमामों देत ॥ ३७॥ जो जन परसों हित कर, निज सुधि सबै विसार । सो चिन्तामणि रत्न सम, गयो जन्म नर हार ।। ३८॥
जैसे प्रगट पतङ्के, दीप माहिं परकाश ॥ 8 (३१) छहों दर्शनमें जैनदर्शन श्रेष्ठ है, धर्मोंका मूल जैन है, मि
थ्यातीके जैन अर्थात् नै (विनय ) नहीं होती.
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(१) घर. (२) गरीवका बलम अर्थात् प्यारा गुरु (भारी) पदार्थ होता है. (३) जो कोयल विना राग ( मोटी आवाज) कीहो वह काग समान ही है. (४)
जो जिन भगवानकी पूजा करते हैं वे धन अर्थात् धन्य हैं. (५) सूर्य. hwomenomwwWAROOPERPROPERARY
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परमात्मशतकं.
तैसे ज्ञान उदोतसों, होय तिमिरको नाश ॥ ३९ ॥ चार माहिं जोलों फिरे, धेरै चारसों प्रीति ॥ तौलों चार लखै नहीं, चार खूंद यह रीति ॥ ४० ॥ जे लागे दशबीससों, ते तेरह पंचास ॥ सोरह वासठ कीजिये, छांड चारको वांस ॥ ४१ ॥ विधि कीजे विधि भाव तज, सिद्ध प्रसिद्ध न होय ॥ यह ज्ञानको अंग है, जो घट बूझ कोय ॥ ४२ ॥ वारे व्यसन को नृपति जो, प्रभु जुआ तो ज्ञान ॥ तुम राजा शिवलोकके, वह दुरमतिकी खान ॥ ४३ ॥ आप अकेलो ब्रह्म मय, परयो भरमके फंद ॥ ज्ञानशक्ति जानें नहीं, शिवस्वरूपके लखतहीं, शिवसुख होय अनन्त ॥ शिव समाधिमें रम रहे, शिव मूरति भगवंत ॥ ४५ ॥ (४०) जीव जब तक चार माहिं अर्थात् चार गतीन ( देव, मनुष्य नरक, तिर्यच ) में फिरता है और चार ( क्रोध, मान, माया, लोभ ) में प्रीति रखता है, तब तक चार अनन्त चतुष्टय ( अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तवल; अनंतवीर्य ) को प्राप्त भी नहीं कर सक्ता अर्थात् कर्मोंसे रहित नहीं हो सक्ता है, यह चार खूंटकी रीति है.
कैसे होय स्वछंद ॥ ४४ ॥
(१) सात.
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(४१) जो दश + वीस-तीस कहिये तृष्णासे अथवा खीसे अनुरक्त हुए. वह तेरह+पंचास+कहिये तेसठ हैं अर्थात् मूर्ख हैं. इसलिये सोलह + बासट + अठहत्तर कहिये आठ कर्मोंको हतकर तर कहिये तिरो और चार गतिनका बास छोड दो (इसमें संख्या शब्दोंसे श्लेष रूप द्वितीय अर्थ ग्रहण कर कविने चतुराई दिखाई है. )
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ब्रह्मविलासमें
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बालापन गोकुलवसे, यौवन मनमथ राजः ॥ वृन्दावन पर रस रचे, द्वारे कुवजा काज ॥४६॥ दिना दशकके कारणे, सब सुख डारयो खोय ॥ विकल भयो संसारमें, ताहि मुक्ति क्यों कोय ॥४७॥ या माया सों राचिके, तुम जिन भूलहु. हंस ॥ संगति याकी त्यागके, चीन्हों अपनो अंस || ४८॥ जोगी न्यारो जोगते, करै जोग सव काज ॥ जोगें जुगत जाने सवै, सो जोगी शिवराज ॥ जाकी महिमा जगतमें, लोकालोक प्रकाश ॥ सो अविनाशी घट विषे, कीन्हों आय निवास ॥५०॥ केवल रूप स्वरूपमें, कर्म कलङ्क न होय ॥ सो अविनाशी आतमा, निजघट परगट होय ॥५१॥ धर्माधर्म स्वभाव निज, धरह ध्यान उरआन ॥ दर्शन ज्ञान चरित्रमें, केवल ब्रह्म प्रमान ॥५२॥ निज चन्दाकी चाँदनी, जिहि घटमें परकाश ॥
तिहिँ घटमें उद्योत है, होय तिमरको नाश ॥५३॥ है (१६) कृष्णजी बालापनमें गोकुलमें रहे. यौवनमें मथुरामें, और फिर कुब्जा परस्त्रीके रसमें मग्न हो उसके द्वारे वन्दावनमें रहे. इसी प्र-5 कार हे जीव ! तू बालापनमें तो 'गोकुल, अर्थात् इन्द्रियोंके कुल समूहमें है अथवा उनकी केलिमें रहा, और जवानीमें मनमथ अर्थात् कामदेवके रा-2 ज्यमें रहा अर्थात् वशमें रहा, और पीछे वृन्दावन जो कुटुम्ब समूह उसमें रचा. काहेके लिये, 'द्वारे कुवनाकाज, कहिये द्वारजो आस्रव उसके कवजेमें में आनेको अथवा द्वार जो मोक्षका उसको कुन्ज अर्थात् वन्द करनेकेलिये, ५ १ आत्मा. २ मन वचन कायके योग. ३ योग्य (उचित). ४ योग. (ध्यान). ५मोक्ष. rompRepop-PARDASARAMPRODARDCOREAWERS
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परमात्मशतक. जित देखत तित चांदनी, जव निज नैनन जोत ॥ नैन मित्रत पेखै नहीं, कौन चांदनी होत ॥५४॥ ज्ञान भान परगट भयो, तम अरि नासे. दूर ॥ . धर्म कर्म. मारग लख्यो, यह महिमा रहिपूर ॥ ५५॥ जेतन की संगति किये, चेतन होत अजान ॥ ते तनसों ममता धरै, आपुनो कौन सान ॥५६॥ जे तन सों दुख होत है, यहै अचंभो मोहि ॥ चेतन सों ममता धरै, चेतन! चेतन तोहि ॥ ५७ ॥ जा तनसों तू निज कहै, सो तन तो तुझ नाहिं । ज्ञान प्राण संयुक्त जो, सो तन तौ तुझ माहिं ॥५॥ जाके लखत यहै लख्यो, यह मै यह पर होय ॥ . महिमा सम्यक् ज्ञानकी, बिरला झै कोय ॥ ५९॥ छहों द्रव्य अपने सहज, राजत हैं जग माहिं ।। निहचै दृष्टि विलोकिये, परमें कवहूं नाहिं ॥ ६० । जड़ चेतन की भिन्नता, परम देवको राज ॥ सम्यक होत यहै लख्यो, एक पंथ द्वै काज ॥११॥ समुझे पूरण ब्रह्मको, रहै लोभ लौ लाय ॥ जान बूझ कूए परै, तासों कहा वसाय ॥ २॥ जाकी प्रीतिप्रभावसों, जीत .न कवर होय ॥ ताकी महिमा जे घरे, दुरखुद्धी जिय सोय ॥६३ ॥ जाकी परम दशावि, कर्म कलङ्क न कोय ॥ ताकी प्रीतिप्रभावसों, · जीव जगतमें होय ॥६४ ॥
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१ज्योतिप्रकाश. २ बन्द होते. ३ सूर्य. ४ चातुर्य. ५ ममता. KapopranopanpreeMppromopencompan
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ब्रह्मविलासमें है अपनी नवनिधि छाडि कै, मांगत घर २ भीख ॥
जान बूझ कूए परै, ताहि कहाँ कहा सीख ॥६५॥ मूढं मगन मिथ्यातमें, समुझे नाहिं निठोल ॥ कांनी कौड़ी. कारणे, खोवै रतनं अमोल ॥६६॥ कानी कौड़ी विषय सुख, नरभव रतन अमोल ॥ पूरव पुन्यहिं कर चढ्यो, भेद न लहें निठोल ॥१७॥ चौरासी लखमें फिरै, रागद्वेप परसङ्ग ॥ तिनसों प्रीति न कीजिये, यह ज्ञानको. अङ्ग ॥६८॥ चल चेतन. तहां जाइये, जहां न राग विरोध ॥ निजस्वभाव परकाशिये; कीजे आतम बोध ॥ ६९ ॥ तेरे वाग सुज्ञान हैं, निज गुण फूल विशाल ॥ ताहि विलोकहु परमतुम, छांडि आल जंजाल ॥ ७० ॥ छहों द्रव्य अपने सहज, फूले फूल सुरंग ॥ तिनसों नेह न कीजिये, यहै ज्ञानको अंग ॥ ७१ ॥ सांच विसारथो भूलके, करी झूठसों प्रीति ॥ ताहीत दुख होत हैं, जो यह गही अनीति ॥७२॥ हित शिक्षा इतनी यहै, हंस सुनहु आदेश ॥ . गहिये शुद्ध स्वभावको, तजिये कर्म कलेश ॥ ७॥
सोरग. ज्यों नर सोवत कोय, स्वप्न माहिं राजा भयो । त्यों मन मूरख होय, देखहि सम्पति भरमकी ।। ७४ ॥ कहहु कौन यह रीति, मोहि वतावहु परमतुम ॥
तिन ही सों पुनि प्रीति,जो नरकहिं ले जात हैं ॥ ७५ ॥ १ निठल्ला वेकाम मूर्ख. २ फूटी. ३ वगीचा'४ शुद्धात्मा !
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परमात्मशतकं. अहो! जगतके राय, मानहु. एती. वीनंती ॥ त्यागहु पर परजाय, काहे भूले भरममें ॥ ७६॥. एहो! चेतनराय, परसों प्रीति कहा करी.॥ जो नरकहिँ ले जाय, तिनही सो रांचे सदा ॥ ७७ ॥ तुम तौ परम सयान, परसों प्रीति कहा करी॥ किहिगुण भये अयान, मोहि वतावडं सांच तुम ॥७॥ कर्म शुभाशुभ दोय, तिनसों आपो मानिये ॥ कहहु मुक्ति क्यों होय, जो इन मारग अनुसरै ।। ७९ ॥ मायाहीके फन्द, अरुझे चेतनराय तुम ॥ कैसे होहु स्वछन्द, देखहु ज्ञान विचारके ॥ ८॥ एहो! परम सयान, . कौन सयानप तुम करी ॥. . काहे भये अयान, अपनी जो रिधि छांडिके ।। ८१॥ तीन लोकके नाथ, जगवासी तुम क्यों भये ॥ गहह ज्ञानको साथ, आवहु अपने थैल विर्षे ।। ८२॥ तुम पूनों सम चन्द, पूरण ज्योति सदा भरे ॥ परे पराये फन्द, चेतहु चेतनरायजू ॥८३॥ जानहिं गुण पर्याय, ऐसे चेतनराय हैं ॥ नैनन लेहु लखाय, एहो! सन्त सुजान नर ॥ ८४ ॥ सव कोउ करत किलोल, अपने अपने सहजमें ॥ भेद न लहत निठोले, भूलत मिथ्या भरममें ॥ ८५॥1
दोहा. आन न मानहि औरकी, आने उर जिनवैन । (८६) जो और ( अन्यधर्मवालों) की (आन) आज्ञा अथवा है
१ किसकारण. २ चतुरता. ३ मोक्षस्थल. ४ पूर्णिमा. ५ मूर्ख. MapoenpanwwwERappeoppOPOROPOPorope
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ब्रह्मविलास में
आनन देखै परमको, सो आनें शिव ऐन ॥ ८६ ॥ 'लो' गनको लागो रहे, 'भ' वजल वोरै आन ॥ ये द्वयंअक्षर आदिके, तजहु ताह पहिचान ॥ ८७ ॥ जित देखहु तित देखिये, पुद्गलहीसों प्रीत ॥ पुद्गल हारे हार अरु, पुद्गल जीते जीत ॥ ८८ ॥ पुद्गलको कहा देखिये, धरै विनाशी रूप ॥ देखहु आतम सम्पदा, चिद्विलासचिद्रूप ॥ ८९ ॥ भोजन जल थोरो निर्पेट, थोरी नींद कपाय ॥ सो मुनि थोरे कालमें, वसहिं मुकतिमें जाय ॥ ९० ॥ जगत फिरत के जुगै भये, सो कछु कियो विचार ॥ चेतन अब किन चेतहू, नरभव लह अतिसौर ॥ ९१ ॥ दुर्लभ दश दृष्टान्तसों, सो नर भव तुम पाय ॥ विषय सुखनके कारणे, सर्वसे चले गँवाय ॥ ९२ ॥ ऐसी मति विभ्रम भई, विपयन लागत धय ॥ कै। दिन के छिन कै घरी, यह सुख थिर ठहराय ॥ ९३ ॥ देखहु नो निज दृष्टिसों, जगमें घिर कछु आह ॥ सबै निशी देखिये, को तज गहिये काह ॥ ९४ ॥
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नहीं मानता है, अपने हृदय में भगवान के वचनों को धारण करता और परम अर्थात् शुद्धा त्माका 'मनन' मुख अर्थात् रूप अवलोकन है, वह यथार्थ मोक्ष प्राप्त करता है.
३ युग.
लोभ. २ अत्यन्त - इस शतकके ९१. ९२. ९३. नं.
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४ श्रेष्ठ. ५ सर्वस्व. ६ दौड़के. के दोहे वैराग्यपच्चीसीमें भी आये हैं.
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केवल शुद्ध स्वभावमें, परम अतीन्द्रिय रूप ॥ सो अविनाशी आतमा, चिद्विलास चिद्रूप ॥९५ ॥3 जैसो शिवखेतहिं वसै, तैसो या तनमाहिं । निश्चय दृष्टि निहारिये, फेर रंच कहुं नाहिं ॥ ९६ ॥ चेतन कर्म उपाधि तज, रागद्वेपको संग॥ जे प्रगटै निज सम्पदा, शिव सुख होय अभंग॥९७॥ तू अनन्त सुखको धनी, सुखमय तोहि स्वभाव ॥ करते छिनमें प्रगट निज, होय वैठ शिवराव ॥९८॥ ज्ञान दिवाकर प्रगटते, दश दिशि होय प्रकाश ॥ ऐसी महिमा ब्रह्मकी, कहत भगवतीदास ॥ ९९ ॥ जुगल चन्दकी जे कला, अरु संयमके भेद ॥ सो संवत्सर जानिये, फाल्गुण तीज सुपेद ॥ १०॥
इति परमात्मशतकम्
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है १०० (जुगलचन्दकी जे कला ) चन्द्रकी सोलह कलाके नो जुगल
(दूने) बत्तीस और संयम (नियम) के भेदसत्रह अर्थात् १७३२
सम्बत्की फाल्गुण सुपेद (सुदी) तीन- “फाल्गुणशुक्ल । तृतीया सम्बत् १७३२ विक्रमाव्दको यह परमात्मशतक बनाया." ह , सिद्धपरमात्मा. २ मोक्षक्षेत्रमें. ३ सूर्य. MarwanamanPOORDARIANDERWORDAROOPAL
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चार भार रमा रचा ॥ राधा सील लसी धारा ।
साद साम मसा दसा ॥ १ ॥ पादानुपादगतागत चित्रम्,
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पर्म सेव पर सेव तज, निज उधरन मनधारि ॥ धर्म सेव वर सेव सज, निज सुधरन धनधारि ॥ २ ॥ त्रिपदीबद्ध चित्रम्,
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जैन धर्म में जीव की, कही जात तहकीक । जैन धर्म में जीत की, लही बात यह ठीक ॥३॥
एकाक्षर त्रिपदीबद्ध चक्रम्,
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छन्द (मात्रा १०) अनुप्रासरहित.
न तनमें मैंन तन, तहेम सु सुमहेत ॥ न मनमें मैन मन, मैं सु मैं हो हो मै सु मै ॥ ४ ॥
सर्वतोभद्रगति चित्रम्.
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ब्रह्मविलासमें
मात्रिक सवैया ( ३२मात्रा) या मनके मान हरनको भैया, तू निहचै निज जानि दया। को हित तोहि विचारत क्यों नहिं, रागरुद्वेष निवारि नया॥ भर्मादिक भाव विछेद करो, ज्यों तोहि लोपन प्रकाश भया। यामन मानह कोन भलो, नन लोभ न कोहन मान मया ॥५॥
पर्वतवद्ध चित्रम्.
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जैन धर्म में जीवकी, कही जान तहकीक ॥ अन धर्म में जीन की, लही बान यह ठीक ॥ ३ ॥ चटाई व चित्रम् .
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परम धरम अवधारि तू, पर संगति कर दूर ||
ज्यों प्रगटै परमातमा, सुख संपति रहे पूर ॥ ७ ॥ धनुषबद्धचित्रम्
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चित्रबद्ध कविता.
आभीर छंद. रामदेव चिन चाहि । सामदेव नित गाहि ॥ जामदेव मित पाहि। तामदेव हित ठाहि ॥ ८ ॥
सर्वनो भद्रगति चित्रम् .
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आप आप थप जापजप, तप वपखप वप पाप ।। काप कोप रिप लोप जिप, दिप दिप अप टप बाप ॥९॥
विंशतिपत्र कमलाकार वद्ध चित्रम्.
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आप आप थप जापनपनप नप खप वप पाप ॥ काप कोप रिप लोप जिप, दिप दिपत्रप टप साप ॥९॥
हारवचित्रमः
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सुमति नलिन सुपारचन्दप्रभवंदन ॥ सुविध शीनल अस वासुपूज्यअरिगंनन। | AT नाथ नगन भय हरै विमल अभिरंजन ॥ सुअनंत धर्म जिनचन्दशांतिभरिकुंतिमलि। दिमूलिमुनिन मिनेमिनरपासश्रीवीरवरिश
॥१०॥
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दोहा अरिपरि हरि भरि हेरि हरि, घेरि पेरि भरि टारि ।। करि करि थिरि थिरि पारि धरि, फिरि फिरि तरि तरि नारि ॥११॥
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षट्पद. तजहु पंचरिपु चलन, रचह्न निजपरजी पापरीतप हरहु रटतकिमवर जी ॥ मनधर धर्म स्वरूप, देख अदभुत वदन । पूर निज गुन भयो, सुमति जीते मदन ॥ यह एक बहुत कर्म, न मिलें, छिनर
नृत्य करन । यहि जान पंच पद सुम रिले सुमवसागरहिनरंत ॥
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घटपद. कहाँ अंसको जनम: नाम कहा दूजे जिनको । कौन सीय अपहरी ? कहो तीजो संहनको?॥
. दयान कहा करे ? कोन वर्णादिक पेखै को अति जल संग्रहे ? श्रवण गुण को कहु लेखै। साधु चलत किग परणिपर? मह लिपुर जिन कवनहुच। कपन अन्तिमारुवनप्रभु कवन शिरोमणिधर्मतुव?॥१३॥ PREDIBARTAawanRVARMENareenawanawameplanawanSARDanwromanasamwamwamarews
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PROPERMANGAARRORSCORRUPERORPORDER ग्रन्थकर्ता परिचय.
३०५४ अथग्रन्थकर्ता परिचय. चौपाई । जंबूद्वीप सु भारत वर्ष । तामें आर्य क्षेत्र उत्कर्ष ॥ ३ तहाँ उग्रसेन पुर थान । नगर आगरा नाम प्रधान ॥१॥
तहाँ वसहिं जिनधर्मी लोक । पुण्यवन्त वहु गुणके थोक ॥ में वुद्धिवन्त शुभ चर्चा करें। अखय भंडार धर्मको भरें।।२।।
नृपति तहाँ राजै औरंग । जाकी आज्ञा वहै अभंग ॥ ईति भीति व्यापै नहिं कोय । यह उपकार नृपतिको होय॥३॥ तहाँ जाति उत्तम बहु वसै । तामें ओसवाल पुनि लसै ॥ तिनके गोत बहुत विस्तार । नाम कहत नहिं आवैपारा॥४॥
सवते छोटो गोत प्रसिद्ध । नाम कटारिया रिद्धि समृद्ध ॥ ह दशरथसाहु पुण्यके धनी । तिनके रिद्ध वृद्धि अति घनी ५॥ तिनके पुत्र लालजी भये । धर्मवंत गुणगण निर्मये ॥ तिनके पुत्र भगवतीदास । जिन यह कीन्हों'ब्रह्मविलास'६॥ जाम निज आतमकी कथा । ब्रह्मविलास नाम है यथा ॥ बुद्धिवंत हँसियो मत कोय । अल्पमती भापा कवि होय ॥७॥ में भूल चूक निज नयन निहार । शुद्ध कीजियो अर्थ विचार ।।
संवत सत्रह पंचपचास । ऋतुवसंत वैशाख सुमास ॥८॥ २ शुक्लपक्ष तृतिया रविवार । संघ चतुर्विधको जयकार ॥
पढत सुनत सबको कल्यान । प्रगट होय निजआतम ज्ञान९॥ तिहूं कालके जिन भगवान । वंदन करों जोर जुग पान १
भैया नाम भगवतीदास । प्रगट होहुतसुब्रह्मविलास॥१०॥ है वहुत वात कहिये कहा धनी । जीव यहै त्रिभुवनको धनी ॥६.
प्रगट होय जब केवल ज्ञान । शुद्ध स्वरूप यही भगवान ॥१॥ में इति श्रीआगरानिवासी भैया भगवतीदासनीकृत ब्रह्मविलास सम्पूर्ण. JanuarantarwaRDARoanupamarpaROORPORPORAN
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