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ब्रह्मविलासमें
चौपाई. . हैं जैसे बच्छा बुंधै गाय । तैसें जिनवृष याहि सुहाय ।।
लग्यो रहै निशदिन तिह माहिं । और काजपर मनसा नाहिं१८५ सुनै जिनागमके विरतंत । त्योत्यों सुख तिह होत महत॥
जो देख्यो केवल भगवान । सो निहचे याकै परमान॥१९॥ ६ द्वादश अंग प्ररूपहि जोय । सो याके घट अविचल होय ॥ रहै सदा जिनमतको ध्यान । सो वत्सलता गुण परमान २० अब तीजी सजनता कहूं । जाके भेद यथारथ लहूं। देखै जो जिनधर्मी जीव । ताकी संगति करै सदीव ॥२१॥ सब प्राणीपर सजन भाव । मित्र समान करै चित चाव ॥2
जहां सुनै जिनधर्मी कोय । तहरोमांचित हुलसित होय।। । देखत ही मन लहै अनंद । सो सजनता है गुणवृंद ॥
अब अपनी निंदा अधिकार । कहूं जिनागमके अनुसार॥२३॥ जब जिय करै विषयसुख भोग । निंदित ताहि रहे उपयोग । अघकी रीति करै जिय जहां । भ्रष्टित रहै रैन दिन तहां॥२४ देह कुटुंबादिकसे नेह । जब है तव निंदै निज देह ॥ है व्रत पचखान करै नहिं रंच । तब कहै रे मूरख तिरजंच॥२५॥ जब कहू जियको हिंसा होय । तव धिक्कार करै निज सोय॥ जब परिणाम बहिर्मुख जाय । तब निज निंदा करै सुभाय२६ । इहविधि निज निंदहि जे जीव । ते. जिन धर्मी कहे सदीव ॥ धर्म विर्षे उद्यम नहिं होय । तब निज निंदहिं धर्मी सोय॥
• दोहा. आतमनिंदा पाठ इम । करत भविक निशदीस॥
अब समता लक्षण कहूं। जो भाषित जगदीश ।। २८॥ fromoppeoponPOORORSRPARPROORDAR
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