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गुणमंजरी.
१२९
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चौपाई
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समताभाव धरहि उरमाहिं । वैर भाव काइसौं नाहिं ।।। निज समान जाने सव हंस । क्रोधादिक तव करै विध्वंस ॥२९॥, उत्तम क्षमा धरहि उर आन । सुखदुख दुहमें एकहि वान ।। जो कोउ क्रोध करै इह आय । तवहू याके समता भाय ॥३०॥ उपजे क्रोध कपाय कदाच । तव तहँ रहै आपसों राच ॥ है सो समतादिक लच्छन जान । थोरेमें कछु कह्यो वखान॥३१॥
अव कह भगति भाव जो होय। सेवहि पंच पदहिं नित सोय ॥ देव गुरू जिन आगम सार । इनकी भक्ति रहै निरधार॥३२॥ जिनप्रतिमा जिन सरखी जान । पूजे भाव भगति उर आन॥ है साधर्मी जिय देखें कोय । ताकी भगति करै पुनि सोय३३ ६
जामहिं गुण देख अधिकाय । ताकी भगति करहि मन लाय. है भक्ति भावत नाहिं अघाय । समदृष्टीको यह स्वभाय ॥३४॥
अब कहुं गुण वैराग बखान । उदासीन सवसों तिहँ जान ॥ जोप रह गृहस्थावास । तोहू मन तिह रहै उदास ॥३५॥ है
जाने कबहूं चारित लेउँ । परिग्रह सबै त्यागकर दे ॥ है क्षणभंगुर देखहि संसार । तातै राग तजै निरधार ॥ ३६ ॥ निजशरीर विपलेपण करै । अशुचि देख ममता परिहरै ।। यह जड़मय चेतन सरवंग । कैसे राग करूं इहि संग ॥३७॥ मन लाग्यो आतम रस माहिं । तात वैरवासना नाहि ॥ इम वैराग्य धरहिं जे संत । ते समदृष्टि कहै सिद्धत ॥३८॥ अब कहुं धर्मरागकी वात । समदृष्टी जिय सबै सुहात ॥ पंच परम परमेष्ठी जान । तिनमें रागधरहिं उरआना॥३९॥ २ (१)आदत. (२) सहधर्मा (३-४) सम्यग्दृष्टि. annotandangan mengandrewnatos
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