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वाईसपरीसहनके कवित्त.
८. चर्यापरीसह-छप्पय। जब मुनि करहिं विहार, पंथ पग धरहिं परक्खत । ऊठ हाथ परवान, दृष्टि जुग भूमि परक्खत ॥ चलत ईरज्या समिति, पंच इन्द्रिय वश कीनें। दशहूं: दिशा मन रोक, एक करुणारस भीनें । इम चलत पूज्य मुनिराज जव, होय खेद संकट विकट । तिहँ सहहिं भाव थिर राखके, तब धावें भवउदधितट ॥११॥
९ तृणफांसपरीसह.-छप्पय । ' परत आंखि महँ कछुक, काढि नहिं डारत तिनको । चुभत फांस तन माहि, सार नहिं करते जिनको ।। लागत चोट प्रचंड, खेद नहिं कहूं जनावत ।
वाणादिक बहु शस्त्र, कहत कहुँ पार न आवत ॥ इम सहत सकल दुख देह दमि, रागादिक नहिं धरत मन। .? भैया त्रिकाल वंदत चरन, धन्य धन्य जग साधु धन ॥ १२॥
१०. ग्लानिपरीसह-छप्पय. लगत देहमें मैल, धोय नहिं तिनको झारत । देहादिकतै भिन्न, शुद्ध निज रूप विचारत ॥
जल थल सव जिय जंत, संत है काहि सताऊं। . . सवही मोहि समान, देत दुख में दुख पाऊं ॥ इम जान सहत दुरगंध दुख, तव गिलान विजयी भवत। भैया' त्रिकाल तिहँ साधु के, इंद्रादिक चरनन नमत ॥१३॥
(१) साढे तीन हाथ। Storaggiorno serverar esternst
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