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ब्रह्मविलास में
चौपाई १५ मात्रा.
मोह सराग भावके वान । मारहिं खैच जीवको तान ॥ जीव वीतरागहिं निजध्याय । मारहिं धनुषवाण इहि न्याय १६६ तबहिं मोहनृप खड्ग प्रहार । मारे पाप पुण्य दुइ धार ॥ हंस शुद्ध वेदै निज रूप । यही खरग मारें अरि भूप १६७ मोह चक्र ले आरत ध्यान । मारहि चेतनको पहिचान || जीव सुध्यान धर्मकी ओट । आप वचाय करे परचोट ॥ १६८ ॥ मोह रुद्र बेरछी गहि लेय । चेतन सन्मुख घाव जु देय ॥ हंस दयालुभावकी ढाल । निजहिं बचाय करहि परकाल १६९ मोह अविवेक है जमदाढि । घाव करे चेतन पर काढि ॥ चेतन ले यमधर सुविवेक । मारि हरै वैरिनकी टेक ॥ १७० ॥ चेतन क्षायक चक्र प्रधान । बैरिन मारि करहि घमसान ॥ अप्रत्याख्यान मूरछित भये । मोह मारि पीछे हट गये ॥ १७१ ॥ जीत्यो चेतन भयो अनंद । वाजहिं शुभ वाजे सुखकंद ॥
आयमिले अत्रतके भोग । दर्शनप्रतिमा आदि संयोग १७२ व्रतप्रतिज्ञा दूजो भाव । तीजो मिल्यो सामायिक राव ॥ प्रोषधत्रत चौथो बलवंत । त्यागसचित व्रत पंच महंत ॥ १७३ षष्टम ब्रह्मचर्य दिन राय । सप्तम निशदिन शील कहाय ॥ अष्टम पापारंभ निवार । नवमों दशपरिगह परिहार ॥ १७४ किंचित ग्राही परम प्रधान । महासुबुधि गुणरत्न निधान ॥ दशमों पापरहित उपदेश । एकादशम भवनतजवेश ॥ १७५ ॥ प्राशुक लेय अहार सुजैन । कहिये उदंड विहारी ऐन ॥ ये एकादश भूप अनूप । आय मिले श्रावकके रूप ॥ १७६ ॥ (१) धर्मध्यान । (२) रौद्रध्यानकी वरछी ।
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