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ब्रह्मविलास में.
ज्ञानप्रान तेरे ताहि नेरे तौ न जानत हो, आनप्रान मानि आनरूप मानि रहे हो । आतमके वंशको न अंश कहूं खुल्यो कीजै, पुग्गलके वंशसेती लागि लहलहे हो || पुग्गलके हारे हार पुग्गलके जीते जीत, पुग्गलकी प्रीतसंग कैसें वहबहे हो । लागत हो धायधाय लागे न उपाय कछू, सुनो चिदानंदराय ! कौन पंथ ग़हे हो ? ॥ ९ ॥
छंद द्रुमिला ।
इक बात कहूं शिवनायकजी, तुम लायक ठौर कहां अटके ? | यह कौन विचक्षन रीति गही, विनुदेखहि अक्षनसों भटके || अजहूं गुणमानो तो शीख कहूं, तुम खोलत क्यों न पटै घटके ? | चिनमूरति आपु विराजतु है, तिन सूरत देखे सुधा गटके ॥१०॥
सवैया
शुद्धितें मीन पियें पय बालक, रासभ अंगविभूति लगाये । राम कहे शुक ध्यान गहे वक, भेड़ तिरै पुनि मूंड़ मुड़ाये ॥ वस्त्र विना पशु व्योम चलें खग, व्याल तिरें नित पौनके खाये । एतो सबै जड़ रीत विचक्षन ! मोक्ष नहीं विनतत्वके पाये॥११॥ कर्म स्वभावसों तीतोसो तोरिकें, आतम लक्षन जानि लये हैं । ध्यान करे निचै पदको जिह, थानक और न कोऊ ठये हैं ॥ ज्ञान अनंत तहां प्रतिभासत, आपु ही आपु स्वरूप छये हैं । और उपाधिं पखारिक चेतन, शुद्ध भये तेंड सिद्धं भये हैं || १२ || देखत रूप अनूप अनूपम, सुंदरता छवि रोझिकै मोह | देखत इन्द्र नरेन्द्र महामुनि, लच्छिविभूषण कोटिक सोहै ॥
( १ ) जलशुद्धि. ( २ ) राख. (३) ' नातोसो तोरिके ' ऐसा भी पाठ है.
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