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चेतनकर्मचरित्र.
सावधान है नाथजी, रहियो तुम इह ठौर ॥
इहां मोहको जोर है, तुम जिन जानहु और || २५९ ॥ पहिले हानि जो तुम लही, सो थानक इह आहि ॥
तातै मैं विनंती करों, प्रभू भूल जिन जाहि ॥ २६० ॥ तव चेतन कहै ज्ञान सुनि, अब यह पंथ न लेहिं ॥ चलहिं उलंघि उतावले, आगे धोंसा देहिं ॥ २६१ ॥ कहे बहुत संक्षेपसों, इहविधि ये गुणधान ||
पूरब वरनन विधि सधैं, समझि लेहु गुणवान ॥ २६२ ॥ जो फिरके बरनन करें, है पुनरुक्ति प्रदोष ॥
तातें थोरेमें कह्यो, महा गुणनिके कोप ॥ २६३ ॥ पद्धरिछंद.
जहँ चेतन कर सब करम छीन । उपशांत मोहपुर उघि लीन । आयो द्वादशंमहि महमहंत । सब मोह कर्म छय करिय अंत ॥ जहँ यथाख्यात प्रगट्यो अनूप । सुखमय सब वेदै निजस्वरूप । जहँ अवधि ज्ञान पूरन प्रकास । केवल पुनि आयो निकट भास सो छीनमोह पुर प्रगट नाम । तिहि थानक विलसैं निजसुधाम. अब अंतराय कहुँ करिय अंत । पोडेश सब प्रकृति खपाय तंत ६६ जहँ घातिया चारों कर्म नाश । सव लोकालोक प्रत्यक्ष भास ॥ प्रगट्यो प्रभु केवल अतिप्रकाश । जहँ गुण अनंत कीन्हों निवास ६७ प्रगटी निज संपति सव प्रतच्छ । विनशी कुलकर्म अज्ञान अच्छ । प्रगट्यो जहँ ज्ञान अनंत ऐन । प्रगट्यो पुनि दरश अनंत नैन६८
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(१) ग्यारहवाँ गुणस्थान. (२) क्षीणमोह बारहवे गुणस्थानमें (३) यथाख्यातचारित्र. (४) बारहवाँ गुणस्थान. (५) ज्ञानावर्णकी ५ दर्शनवणींकी ४ यशकीति १ ऊंच गोत्र १ च अंतराय ५ इसप्रकार १६ प्रकृति.
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