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प्रस्तावना.
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ए मजी, विहारीलालजी आदि वडे २ भापाकवि जैनियोंमें हुए हैं. जिनकी काव्यशक्ति
प्रसंशनीय थी. इनमेंसे मैया भगवतीदासजीकृत यह ब्रह्मविलास प्रन्य (जिसको एक प्रकारका वेदांत कहनाचाहिये) है. इस प्रन्यके विषयमें कुछ कहनेसे पहिले हम उक्त कविवरके विषय में कुछ लिखकर पाठकोंको यथाशक्ति परिचय देना चाहते हैं। ___ कविवर भगवतीदासजीका जन्म आगरेमें ही हुआ था और वे अपने अन्तसमयतक प्रायः वहींपर रहे हैं, ऐसा उनके ग्रन्थसे जान पड़ता है. इनके पिताका नाम लालजी था. ये ओसवाल जातिके वणिकथे. इन्होंने प्रशस्तिमें अपना गोत्र कटारिया लिखा है. इनके समयमें औरंगजेब बादशाह मौजूद थे. इनकी जन्मतिथि व मृत्यु तिथिका अभीतक हमें पता नहीं लगा तो भीउनकी कवितासे जो वि० संवत् १७३१ से १७५५ तकका क्रमशः उल्लेख मिलता है. उससे जान पड़ता है कि, उनका जन्म अठारहवीं शताब्दीके पहिले ही हुआ होगा. इसके पहिले या आगेंकी कोई भी कविता अभीतक नहिं मिली है. कवितामें इन्होंने अपना पद व भोग 'भैया' वा 'भविक' तथा एक जगह 'दासकिशोर' भी रक्खा है.
एक दन्तकथासे प्रसिद्ध है कि कविवर केशवदासजी तथा दादू पंथी वावा सुंदरदासजी और भैया भगवतीदासजी एकही गुरुके शिष्यथे अर्थात् काव्य विषय इन्होंने एकही गुरुसे सीखा था. विद्याभ्यासके पश्चात् तीनों पृथक् २ होगये. कविवर केशवदासजीने नव रसिकप्रिया' ग्रन्थ निर्माण किया तो उसकी एक २ प्रति सहपाठी चा मित्र होनेके कारण वावा सुन्दरदासजी तथा भगवतीदासजीके पास समालोचनार्थ भेजी. भगवतीदासजीने रसिकप्रियाको देखकर एक छंद बनाया, और उसे रसिकप्रियाके पृष्ठपर लिखकर वापिस भेज दिया था. वह यह है.
वडी नीति लघु नीति करत है, चाय सरत वदवोय भरी। फोड़ा आदि फुनगुणी मंडित, सकल देह मनु रोग दरी॥ शोणित हाड मांसमय भूरत, तापर रीझत घरी घरी। ऐसीनारनिरखकर केशव, रसिकप्रिया' तुम कहा करी?॥१९॥
(ब्रह्मविलास पृष्ठ १८४) है इसी प्रकार बावा सुंदरदासजीने भी जो किवैराग्य वेदान्त विपयके अच्छे कवि थे, १ रसिकप्रियाकी बहुत कुछ निंदा की है, जो कि उनके बनाये हुए सुंदरविलाससे
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8. प्रगट है।
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