SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ RaprapapeppenwRroDOSGANDARADARWApan १२ प्रस्तावना. प्रस्तावना. Moonaprasacrampramasvaanorancoronarcoacrosoprapteraoerancovercorapmacrampapasan ___ वर्तमान समयमें हिंदी भाषा कान्यके प्राचीन वा अर्वाचीन जितने अन्य देसनेमें आते हैं. उनमेसें शतांश भी ऐसे अन्य नहिं निकलेंगे जिनमें कि वैराग्य वेदान्त नीति वा भफिरसका स्वाद मिलसके. ऐसे अन्य जिनमें कि अलार-नायकादि । । भेदोंकी भरमार है हजारों मिलते हैं तथा विलासितापूर्ण संसारमें दिन पर दिन नय १ बनते ही चलेजाते हैं. इन प्रन्योंसे सर्वसाधारणको कितना लाभ पहुंचता है सो तो हम नहिं कह सके परन्तु इस समय कविवर भूधरदासजीके दो संवैये याद आगये हैं, उन्हें पाठकोंको सुनाये देते हैं। राग उदै जग अन्ध भयो, सहजें सब लोगन लाज गमाई। सीख विना सब सीखत हैं, विपयानके सेवनकी सुघराई ।। तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अन्ध असूझनकी अखियाँनमें, झोंकत हैं रज रामदुहाई ॥१॥ हे विधि ? भूल भई तुमते, समझे न कहाँ कसरि बनाई। दीन कुरंगनके तनमें ! तृण दंत धरे करुणा नहिं आई ॥ क्यों न रची तिन जीभन-जे, रसकाव्य करें परको दुखदाई। साधुअनुग्रह दुर्जनदण्ड, दुहू सधते विसरी चतुराई ॥२॥ हर्षका विषय है कि ऐसे समय जब कि भाषा साहिल केवल मात्र माररसके भरोसेपरही जी रहाया, जैनकवियोंने उसमें वेदान्त, वैराग्य भफिरसका श्रेयस्कर संचार करनेकेलिये अतिशय प्रयत्न किया है. क्योंकि जैनकवियोंके बनाये हुये जितने ६ ग्रन्थ आजतक देखे व सुने गये हैं उनमेंसे किसीमें भी विषयान्ध करनेवाले रसोंका प्रवेश नहिं हुआ है. बल्कि यों कहना चाहिये कि उनके इस वातकी दृढ़ प्रतिज्ञा ही थी. जोकि उनके बनाये हुये नाटक समयसार, प्रवचनचार, वनारसीविलास, द्यानत विलास, ब्रह्मविलास भूधरविलास बुधजनशतसयी, वृंदावनशतसयो आदिप्रन्योंके ए देखनेसे भली भांति ज्ञात हो सकी है। १ पण्डित हेमराजजी वनारसीदासजी, भगवतीदासजी, धानतरायजी, भूधरदासजी, ॐ रामचन्द्रजी, सेवारामजी (जाट) जिनवख्श (मुसलमान) वृंदावनजी, दौलतरा (1-2) ये दोनोंकवि-तुलादासनी के समकालीन थे. MongoPARWARRIORMANANDHARPORAMROADS MaterapovasenasanvaavetvaadanteAIIAMENTRAavarINNEArsenasamartpreranasranamamGDS
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy