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ब्रह्मविलास में.
खाज सहित रोगी नर देख । पीव बहत पीड़ित पुनि पेख ॥
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लोहू दृष्टि परै जो कहीं । तो मुनि असन लेनके नहीं ॥१३॥ मांसादिक मल दृष्टिहि परै । कंद रु मूल मृतक परिहरै ॥ फल अरु बीज होंय तिहँ ठौर । तो मुनिलेहि न एको कौर ॥१४॥ बिना वीज ऊगो जो डार । ता निरखत नहिं लेय अहार ॥ ऐसे दोष छियालिस हीन । तजहिं ताहि संयमि परवीन ॥ १५ ॥ उत्तम कुल श्रावकको जान । द्वारापेखन शुद्ध प्रमान ॥ विनयवंत प्राशुक कर नीर । वोलें तिष्ठ स्वामि जगवीर ॥ १६ ॥ तार दृष्टि विलोकहिं साध । यहां न कोउ लागै अपराध ॥ तब तिहँ मंदिरमें अनुसरै । प्राशुक भूमि निरख पग धेरै ॥ १७ ॥ श्रावक जो प्राशुक आहार । कीन्हों दोष छियालिस टार || निजहित पोषनको परवार । ता महितें कछु भिन्न निकार ॥ १८ द्वै करजोर मुनीश्वर लेहिं । श्रावक निजकरसों तिहँ देहिं ॥ पुनि कर फेर नीरको धेरै । प्राशुकजल तिह करमें करे ॥ १९ ॥ लेय अहार नीर तिहँ ठौर । जिनकल्पी उत्तम शिरमौर ॥ थिवरकल्पिकी हू यह चाल । दोऊं मुनिवर दीनदयाल ॥ २० ॥ दोऊं वनवासी निर्ग्रन्थ । दोऊं चलहिं जिनेश्वर पंथ ॥ दोऊं जपतप किरिया करें। दोऊं अनुभव हिरदै धरें ॥ २१॥ जिनकल्पी एकाकी रहे । थिवरकल्पि शिष्यशाखा गहै ॥ अठ्ठाईस मूलगुण सार । आपसाधु पालहिं निरधार ॥ २२ ॥ षष्टम अरु सप्तम गुण थान । दोऊं रहे परम परधान ॥ पूरव कोटि वरष वसु घाट । उतकृष्टै वरतै यह बाट ॥ २३ ॥ : केवलज्ञान दोऊं उपजाय । पंचमि गतिमें पहुंचें जाय ॥ सुख. अनंत विलसै तिहँ ठौर । तातें कहैं जगत शिरमौर ॥ २४ ॥
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