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द्रव्यसंग्रह. किंचि विचितंतो, गिरीहवित्ती हवे जदा साह ॥ लढ्णय एयत्तं, तदा हु तं तस्स णिचयं ज्झाणं ॥ १५॥
छप्पय. जब कहुं साधु मुनीन्द्र, एक निज रूप विचारें। तव तहँ साधु मुनीन्द्र, अघनिके पुंज विदारें। जव कहुं साधु मुनीन्द्र, शुद्ध थिरतामहिं आवै।
तव तहँ साधु मुनीन्द्र, त्रिविधिके कर्म वहावै ॥ इम ध्यान करत मुनिराज जव, रागादिक त्रिक टारिके। तिनं प्रति निश्चै कहत जिन, वदहु सुरति सँभारिक ॥ ५५ ॥
मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिंतह किंचि जेण होइ थिरो॥ है अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥५६॥
कवित्त. मनवचकाय तिहूं जोगनिसों राचि कहूं, करो मति चेष्टा तुम इन
की कदाचिकें। वोलो जिन वैन कहूं इनसों मगन हैके, चिंतो । जिन आन कछु कहूं तोहि सांचिकें । पर वस्तु छांड निज रू. एप माहिं लीन होय, थिरताको ध्यान करि- आतमसों राचिके।
देख्यो जिन जिनवान यह उतकृष्ट ध्यान,जामे थिर होय पर्म कम नाच नाचिके.॥ ५६ ॥
तवसुदद्ववं चेदा, ज्झाणरहधुरंधरों जमा ॥ तमा तत्तियगिरदा, तल्लडीए सदा होह ॥ ५७ ॥
मात्रिक कवित्त. है जब यह आतम करै तपस्या, दाहै सकल कर्मवन कुंज
श्रुतसिद्धांत भेद बहु वेदत, जपै पंच पदके गुणपुंज ॥
(१) मत । (२) मत । ITRPANORMAWRAS/AROPARDARPAPPAMORE
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