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ब्रह्मविलासम.
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कहै चेतन सुनज्ञान, वह घेरयो पुर आयके ।
यह कहो कौन सयान, रहिये घरमें वैठके ॥६६॥ सूरनकी नहिं रीति, अरि आये घरमें रहै ॥ __ कै हारें के जीति, जैसी है तैसी वनै ॥ ६७ ॥ कहै ज्ञान सुनि सूर, तुम जो कहो सो सांच है ॥ __ कहा विचारो कूर, जिहँ ऊपर तुम चढ़त हौ।
पद्धरिछंद (१६ मात्रा) तव जीव कहै सुनिये सुज्ञान । तुम लायक नाहीं यह सयान ॥ है वह मिथ्यापुरको है नरेश । जिहँ धेरे अपने सकल देश॥६॥
जाके सँग सूरा हैं अनेक । अज्ञान भाव सव गहें टेक ॥ मंत्रीसुर रागद्वेष हेर । छिनमें सव सेनाकरहिं जे॥७०॥ र संशय सो गढ़ जाके अटूट । विभ्रम सी खाई जटाजूट ॥ हूँ विषया सी रानी जासु गेह । सुत जाके सूर कपायसेह ॥७॥ सैनापति चारों है अनंत । जिह घेरो अव्रतपुर महंत , व्रतनामी लीन्हों देश छीन । परमत्तहिं दोही आय कीन७२ इहि विधि सब घेरे देश जेह । चढ़ आई फौजें लगी तेह ॥ है तातें नृप आप अनंत जोर । वल जासुन पारावार ओरा॥७३॥
आयुध जाके भ्रम चक्र हाथ । बहु धारा जास उपाधि साथ ॥ महा नाग फाँस विद्या अनेक । धसत्तरकोड़ाकोड़ि टेक॥७४॥ है वाणादिक महा कठोर भाव । जिहिं लगैवचत नहिं रंक राव।। इहि विधि अनेक हथियार धार।कहुं नाम कहत नहिलहै पार७५॥
यह मोह महा बलवत भूप । तुम ज्ञाता जानत सव स्वरूप ॥ ए कैसे कर इन सों बचौ जाव ? । तुम स्यानें है चूको न दावा॥७॥
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