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चेतनकर्म चरित्र.
सोरठा.
तवं बोले यों ज्ञान, जिय! तुमने सांची कही ॥ पै मेरे अनुमान, तुम क्यों जानो बात यह ॥ ७७ ॥
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कहै जीव सुन मित्र, मैं वीतक अपनो कहूं ॥ तू धरि निश्चयचित्त, सुनहु वात विस्तारसों ॥ ७८ ॥ चौपाई.
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यही मोह नृप मोहि भुलाय । निजपुत्री दीन्ही परनाय ॥ ताकी याद मोह कछु : नाहिं | काल अनादि याहि विधि जाहिँ७९ मेरी सुधि बुधि सव हर लई । मोहि न सुरत रंच कहुं भई ॥ इहि कीन्हो जैसो नट कीस । विविध स्वांग नांच्यौ निशिदीस ८०
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चौरासी लख नाम धराय । कबहु स्वर्ग नरक लै जाय ॥ कवहू करै मनुष तिरजंच । लखेन जाहिं याके परपंच ॥८१॥ जडपुर को मुह किया नेरश । मैं जानो सब मेरो देश ॥ तब मैं पाप किये इहि संग । मानि मानि अपने रस रंग ॥ तव मै वसौ मोहके गेह । तातें सब विधि जानों येह ॥ ८२ ॥ कहो कहां लों बहु विस्तार | धोरे मेँ लख लेहु विचार॥८३॥
सोरठा.
तब बोलै इम ज्ञान, यह परमारथ मैं लह्यौ ॥ - अब तुम सुनहु सुजान, एक हमारी बीनती ॥ ८४ ॥
- सेवक भेजो एक, जो अतिही बलवंत हो || तब रहै तुम्हरी टेक, मेरे मन ऐसी बसी ॥ ८५ ॥ कहै जीव सुन ज्ञान, विना विचारे क्यों कहौ ॥
मोह महा बलवान, ताकी पटतर कौन है ? ॥ ८६ ॥
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