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ब्रह्मविलासमें. कहे जिनराजने। येही भाव जोलों तोलों संसारी कहाँव जीव ६ इनको उलंपिकरि मिलै शिव साजने ॥ शुद्धनै विलोकियेतो शुद्ध है है है सकलजीव, द्रव्यकी उपेक्षासो अनंत छवि छाजने । सिद्धके
समान ये विराजमान सवै हंस, चेतना सुभाव धरै कर निज का जनै ॥ १३॥
णिकम्मा अठगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। हूँ लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पाद्वयेहिं संजुत्ता ॥ १४ ॥
अष्टकर्महीन अष्ट गुणयुत चरमसु, देह तातें कछु ऊनो सुमें खको निवास है । लोकको जु अग्र तहाँ स्थित है अनंत सिद्ध
उत्पादव्यय संयुक्त सदा जाको वास है ॥ अनंतकाल है पर्यन्त थिति है अडोल जाकी, लोकालोकप्रतिभासी ज्ञानको प्र
काश है। निश्चै सुखराज करै बहुरि न जन्म धरै, ऐसो सिद्ध है राशनिको आतम विलास है ॥ १४
___ पयडिडिदिअणुभागप्पदेसर्वधेहि सचदो मुक्को है उड़ गच्छदि सेसा, विदिसावजं गर्दि जंति ॥१॥
प्रकृति ओ थितिबंध अनुभागबंध परदेशबंध एई चार बंध है। एभेद कहिये । इन्ही चहुं बंधतै अबंध के चिदानंद, अग्निशिखा
सम ऊर्द्धको सुभावी लहिये । और सब जगजीव तजै निज १ देह जब, परभोको गौन करै तबै सर्ल गहिये । ऐसें ही अनादि- थिति नई कछू, भई नाहि, कही ग्रंथमांहि जिन तैसी सरद-है हिये ॥१॥
. . . . (इति जीवस्य नवाधिकाराः) १ (१) 'अपेक्षासों' ऐसा भी पाठ है परन्तु ऐसा पाठ रखनेपर 'अनंत' शब्दका
अर्थ 'नित्य' ऐसा लेना चाहिये. । (२) "सिद्धराजनिको' ऐसा भी पाठ है। womanPROOPPERRORomwwwparents
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