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ब्रह्मविलासमें जिहँ थानक सुख सागर भरे । काल अनंतहु विलसहु खरे ॥ एजन्मजरादिक दुख मिट जाय । प्रगटै परमधरम अधिकाय॥५३॥ है वहुरन कबहू संकट होय । सुख अनंत विलसहु ध्रुवसोय ।। है यह उपदेश कहै मुनिराज भव्य जीव चेतह निजकाज॥५॥
दोहा. सुनके वचन मुनीन्द्रके, भवि चिंत मन माहिं ।। विषयसुखनसों मगनता, कवहूं कीजे नाहि ॥ ५५॥ विषयसुखनकी मगनसों, ये दुख होहिं अपार ॥ तातै विषय विहंडिये, मन वच क्रम निरधार ॥५६॥ यह विचार कर भविकजन, वंदत मुनिके पाय ॥ धन्य धन्य तारन तरन, जिन यह पंथ वताय ॥ ५७॥ एतो दुख संसारमें, एतो सुख सब जान ।। इम लखि भैया चेतिय, सुगुरु वचन उरआन || ५८॥ सत्रहसौ चालीसके, मारगसिर शित पक्ष । तिथि द्वादशी सुहावनी, भोमवार परतक्ष ॥ ५९ ।। मधुविंदवकी चौपई, कही ग्रंथ अनुसार ॥ जे समुझ वा सरदहे, ते पावहिं भवपार ॥ ६॥
इति मधुविदवकी चौपई.
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अथ सिद्धचतुर्दशी लिख्यते।
दोहा. . परमदेव परणाम कर, परम सुगुरु आराध ॥
परम ब्रह्म महिमा कहूं, परम धरम गुण साध ॥१॥ MoswwwAMPIERRORARRIOMMARWwwwanmanoos