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ब्रह्माविलासमें ' * पावे परम अनंद आज सुनि प्राणीरे॥ पूरव बांधे कर्म जो सुनि० है
सब छिनमें खप जांहिं, आज सुनि प्रानीरे ॥ १८६ ॥ इहिविधि भावन भावतै सुनि०आयो अति वैराग, आज सुनि प्रा०॥जिय चाहै संयम गहों सुनि० अबै कोन विधि होय, आज सुनि प्रानीरे ॥ १८७ ॥
दोहा. जिय चाहै संयम गह, मोह लेन नहिं देय ॥ o बैठ्यो आगे रोकिकें, अव प्रमत्तपुर जेय ॥ १८८॥
सुभट जु प्रत्याख्यान को, करिके आगें वान ।
वैव्यो घाटी रोकिकें, मोह महा अज्ञान ॥ १८९ ॥ केतक चाकर जोर जे, भेजे व्रतहिं छिपाय ॥
ते चेतनके दलनमें, निशदिन रहैं लुकाय ॥ १९०॥ कबहूं परगट होंय कछु, कबहू वे छिप जाहि ॥ इहविधि सेना मोहकी, रहै सुइहि दल माहिं ॥१९॥
चौपाई. ९ मोह सकल दलसों पुरद्वार । आय अरयो संग ले परवार ॥2
चेतन देश विरतपुर माहि । आगे पांव धरे कहुं नाहि॥१९॥ मोह किये परपंच अनेक । गहिवको गहि वैठ्यो टेक ॥ जो चेतन आवै पुरै मांहि । तौ राखों गहिकें निज पांहिं ॥१९॥ है बहुर न निकसन छिन इक देहुं । डारि मिथ्यात्व वैर निज लेहुं ॥ यह चेतन मोसों युध करै । जो आवै अवके कर तरें। तो फिर याको ऐसे करों। सुधि वुधिशक्ति सबहि परि इहविधि मोह दगाकी बात रचना करहि अनेक विख्यात॥१९५॥ (१) मुनिव्रत । (२) छठे गुणस्थानमें । (३) पांचवें गुणस्थानमें । (४) छठे गुणस्थानमें । down000000000Reacepcom/G/000000000
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