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परमार्थपदपंक्ति. निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभुको, जो टारै भव भीरा रे। 'भैया' चेत धरम निज अपनो, जो तारै भव.नीरा रे ॥४॥
२३ । राग धनाश्री। . जिनवाणी को को नहिं तारे, जिन० ॥ टेक॥ मिथ्यादृष्टी जगत निवासी,लहि समकित निज काज सुधारे । गौतम आदिक श्रुतिकेपाठी, सुनत शब्द अघ सकल निवारे, जिनक
परदेशी राजा छिन वादी, भेद सुतत्त्व भरम सब टारे। है पंचमहाव्रत धरतू भैया' मुक्तिपंथ मुनिराज सिधारे, जिन ॥२॥
२४ पुनः। जिनवाणी सुनि सुरत संभारे जिन०|| टेक ॥ है सम्यग्दृष्टी भवननिवासी,गह वृत केवल तत्त्वं निहारे, जिन०१॥
भये धरणेन्द्र पदमावति पलमें, जुगलनाग प्रभु पास उवारे ॥ है वाहवलि वहुमान धरत है;सुनत वचन शिव सुख अवधारे, जिन२॥
गणधर सबै प्रथम धुनि सुनिके, दुविध परिग्रह संग निवारे ॥ है गजसुकुमाल बरस वसुहीके, दिक्षाग्रहत करम सब टारे, जिन०३॥ मेघकुँवर श्रेणिकको नंदन, वीरवचन निजभवहिं चितारे । और हु जीव तर जे भैया,तेजिनवचन सवै उपगारे, जिन०॥४॥
२५|पुनः। ए चेतन परे मोह वश आय, चेतन ॥ टेक ॥ मानत नाहिं कहूं समुझायो,विपयन रहे लुभाय ।। नरक निगोद भ्रमन बहु कीन्हो, सो दुख कह्योन जाय, चेतन०,१॥ नरभव पाय धरम नहिं पायो, आगेको न उपाय ॥
जैसें डारि उदधि चिंतामणि, मूरख फिर पछताय, चेतन० ॥२॥ Manpanw/ONOMempowed/NPAPPRPAPawanwar
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