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ब्रह्मविलास में
अष्ट कर्म दल भंज प्रगट भई, चिन्मूरति मनु वन रहिये । इहि स्वभाव अपनो पद निरखहु, जो अजरामर पद चहिये, भविक० त्रिभुवन माहिं अकृत्रिम कृत्रिम, चंदन नितप्रति निरवहिये । महा पुण्यसंयोग मिलत है, भइया जिन प्रतिमा सरदहिये, भविक० २० । पुनः
हो न तो मति कौन हरी, चेतन०टेक ॥
कै लै गयो मिथ्यामति मूरख, कै कहुं कुमति धरी ॥ कै कहुं लोभ लग्यो तोहिनी को, कै विष प्रीति करी, हो चे०॥१
कहुं राग मिल्यो हितकारी, रीति न समुझि परी ॥ अब हूं चेत परमपद अपनो, सीख सु धार खरी, होचे० ॥२ २१ । पुनः
हो चेतन वे दुःख विसरि गये ॥ टेक ॥ परे नरकमें संकट सहते, अव महाराज भये ।
सूरी सेज सबै तन वेदत, रोग एकत्र ठये ॥ हो चे० ॥ १ ॥ करत पुकार परम पद पावत, कर मन आनंदये । कहूं शीत कहूं उष्ण महाभुवि, सागर आयु लये, हो चे० ||२|| २२ । राग मारू
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जो जो देख्यो वीतरागने सो सो होसी वीरारे ।
बिन देख्यो होसी नहिं क्योंही, काहे होत अधीरा रे ॥१॥ समयो एक बढ़े नहिं घटसी, जो सुख दुखकी पीरा रे । तू क्यों सोच करै मन कूड़ो, होय वज्र ज्यों हीरा रे ॥२॥ लगै नं तीर कमान वान कहुं, मार सकै नहिं मीरा रे । तूं सम्हारि पौरुष बल अपनो, सुख अनंत तो तीरा रे ॥३
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