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ब्रह्मविलासमे Ammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
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चौदह गुण देवन कृत होय । सर्व मागधी भाषा सोय ॥ मैत्री भाव जीव सब धरै । सर्वकाल तरु फूल न फरें ॥९॥ है दर्पणवत निर्मल है मही । समवशरण जिन आगम कही ॥ शुद्ध गंध दक्षिण चल पौन। सर्व जीव आनंद अनुभौन ॥१०॥ धूलिरु कटक वर्जित भूमि । गंधोदक वरपत है झूमि ॥ पद्म उपरि नित चलत जिनेश । सर्वनाज " निर्मल होय अकाश विशेष । निर्मल दशा धरतु है भेष ॥ धर्म चक्र जिन आगे चलै । मंगल अष्ट पाप तम दलै ॥१२॥ प्राति हायं वसु आनंदकंद । वृक्ष अशोक हेरै दुख द्वंद ॥ पुहुप वृष्टि शिव सुखदातार | दिव्य ध्वनि जिन जैजैका॥१३ है चौसठ चवर ढरहिं चहुंओर । सेवहिं इंद्र मेघ जिम मोर ।।। सिंहासन शोभन दुतिवंत । भामंडल छवि अधिक दिपंत ॥ वेदी माहिं अधिक दुति धरै । दुंदुभि जरा मरण दुख हरे॥ तीन छन त्रिभुवन जयकार । समवशरणको यह अधिकारा॥१५॥
दोहा. ज्ञान अनंत मय आतमा, दर्शन जासु अनंत ॥ सुख अरु वीर्य अनंत बल, सो वंदों भगवंत ॥१६॥ इन छयालीसनं गुणसहित, वर्तमान जिनदेव ॥ दोष अठारह नाशते, करहिं भविक नितसेव ॥ १७॥
चौपाई. क्षुधा त्रिषानभयाकुलजास । जनम न मरन जरादिक नाश॥ इन्द्रीविषय विषादन होया विस्मय आठमदहि नहिं कोया॥१८॥ रागरु दोष मोह नहि रंच । चिंता श्रम निद्रा नहि पंच॥१
रोग विना पर स्वेदन दीस इन दूषन विन है जगदीश१९॥ &peparponomwwwPARDP/APPesapna
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