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पुण्यपचीसिका.
राजनितें अधिके । इंद्र होतो, चंद्र होतो नरनागइन्द्र होतो करत तपस्या जो पैंठि साधुमधिकें ॥ इन्द्रिनको दम होतो यम ओ नियम होतो,' जमको न गम होतो ज्ञान होतो अधिकें । लोकालोक भास होतो अष्टकर्म नाश होतो, मोखमें सुवास होतो चलतो जो सधिकं ॥ १४ ॥ सवैया.
काहेको कूर तू भूरि सह दुख, पंचनके परपंच भखाये । ये अपने अपने रसको नित पोखतु हैं, तोहि लोभ लगाये ॥ तू कछु भेद न वूझतु रंचक, तोहि दगा करि देत बँधाये ॥ है अब यह दाव भलो नैर! जीत ले पंच जिनंद बताये ॥ १५ ॥ हे नर अंध तू बंधत क्यों निज, सूझत नाहिं के भंग खई है । जे अघ संचतु है नित आपको, ते तोहि सौज करेंगे गई है ॥ ये नरकादिकमें तोहि डारिकँ, देहैं सजा बहु ऐसी भई है । मानत नाहिं कहूं समुझाय, सुतोकों दई मति ऐसी दई हैं ॥ १६ ॥ कवित्त.
धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै, ये तो छिनमाहिं जांहि पौन परसत ही । संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग, दीपकपतंग जैसे काल गरसत ही ॥ सुपने में भूप जैसें इंद्रधनुरूप जैसे, ओसवृंद धूप जैसें दुरै दरसतं ही । ऐसोई भरम सब कर्मजालवर्गणाको, तामे मूढ मग्न होय मरै तरसत ही ॥ १७ ॥ मांत्रिक कवित्त,
देख तू दृष्टि विचार अभ्यंतर, या जगमहिं कछु सांचो आह । मात तात सुत बन्धवं वनिता, इनसो प्रीति करै कित चाह ।
(१) 'दूर सब तम हो तो ऐसा भी पाठ है. (२) बहकाये. (३) 'तोही ' ऐसा भी पाठ है. (४) 'शठ' ऐसा भी पाठ है..
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