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श्रीपद्मप्रभजिनस्तुति. पदमप्रभ धरराजानंदन, मात सुसीमा जगतजगीस । कोसंवी नगरी जिन जन्मे, इन्द्रादिक प्रणमहि निशदीस ॥ लच्छन कमल विराजै प्रभुके, शोभत तहँ अतिशय चौतीस। चरणकमल प्रभुके नित वंदै,भव्यत्रिकाल नाय निजशीस ॥६॥
श्रीसुपार्श्वजिनस्तुति. श्री सुपास जिन आश जु पूरै, सेवहु नित भविजन चरनं । पयराजा सीव सुलच्छन, पोहमिकुश प्रभु अवतरनं ॥ केवल वयन देशना देते, भविजनमन अम्रत झरनं । नगर वनारसि नित जन वंदै, भव्य जीव सब तुम शरनं॥७॥
श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुति. चन्द्रप्रभ चंदेरी उपजे, मंगला मात पिता महसेन। शशिलच्छन सेवै चरनादिक, समकित शुद्धदेत तिहँ ऐन ॥ लोकालोक प्रगट घट अंतर, वानि खिरै अबत मुख जैन । ताके चरण भव्य नितवंदित, अविचलरिद्ध देत प्रभु चैन ॥॥
. श्रीसुविधिजिनस्तुति. सेवहु सुविधि नाथ तीर्थकर, जसु सुमरे सुखसंपति होय । काकंदी नगरी जिन उपजे, मगर लंछ प्रभुके तन जोय ।। रामा मात जगत सब जाने, अरिकुल व्याप सकै नहिं कोय । अदनीपति सुग्रीव कहावत, ताके सुत वंदत तिहुँ लोय ॥९॥
श्रीशीतलनिनस्तुति-कवित्त. कंचन वरन तन रंचन डिगत मन, तिहुंलोक नाथ जिन . इन्द्रमुख भासई। नंदाजूकी कूख धन दृढरथ राजा-तन, अष्टकुल (१) सेही ! (२) जितसेन ऐसा भी पाठ है। RPROOcenePATRIORDCORIAORANPers
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