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ब्रह्मविलासमे
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गिरै तौ नवमें पुरकी वाट । च? इकादश उपशम घाट ॥१८॥ इमरन करै चौथै पुर सही । ऐसी रीति जिनागम कही ॥
एकादशम मोह उपशांत । पंथ दोयसिंह कह सिद्धांत ॥१९॥ गिरै तो दशमें पुर निरधार । मरन करे तो चौथै सार ॥ ऐसे भेद जिनागममाहिं गोमठसार ग्रंथकी छांहि ॥२०॥
भाषा करहिं 'भविक' इह हेत । याके पढ़त अर्थ कह देत ॥ र बाल गुपाल पढ़हिं जे जीव । भैया ते सुखलहहिं सदीव ॥२१॥
इति एकादशगुणस्थानकथनम् ।
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अथ कालाष्टक लिख्यते।
दोहा. तिहुं पुरके पुरहूत सव, वंदत शीस नवाय॥ तिहँ तीर्थकर देवसों, बचत नाहिं यमराय ॥१॥ जिनकी भ्रूके फरकतें, कंपत सुरनरवृन्द ।। तेहू काल छिनमें लये, जो योधा सुर इन्द्र ॥२॥ जाकी आज्ञामें रहै, छहों खंडके भूप ॥ ता चक्रीधरको ग्रस, काल महा भयरूप ।। ३ ॥ नारायण नरलोकमें, महा शूर वलवंत ॥ तीन खंड आज्ञा वहै, तिनैहु काल ग्रसंत ॥४॥
औरहु भूप बलिष्ट जे, वसत याहि जगमाहिं। तेहु कालकी चालसों, वचत रंच कहुं नाहिं ॥५॥ ताते काल महावली, करत सवनपै जोर ॥ .
धन धन सिधपरमात्मा, जिह कीनों इहि भोर ॥६॥ Yanw/mPREPARRRRRIDEOMROPEnwew/Opers
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