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ब्रह्मविलासमें हरका न राखसके जादों सव जरे हैं ॥ वौद्ध है विचारे मूढ मांस भक्षी कीने सब,पापपिंड भर भर नर्क माहिं परे हैं। बावन है जाच्यो बलि ईश्वर है लीन्हों छलि, अजहूं पातालद्वारपाल भये खरे हैं ॥८॥
मात्रिक कवित्त. पंचम गुण थानक जो श्रावक, उतकृष्टी प्रतिमा पर होय । सचित त्याग ताको जिन बोलत, एक सुपट परिग्रहमें जोय ॥ साधु चतुर्दश परिग्रह राखहि, पचखानन महिं एक न दोय । तीर्थकर लहि उड़द वाकुले, कहत लाज नहिं आवै लोय॥९॥
कवित्त. वापुरे विचारे मिथ्यादृष्टि जीव कहा जाने, कौन जीव कौन है कर्म कैसें के मिलाप है। सदा काल कर्मनसों एकमेक होय रहे.
भिन्नता न भासी कौन कर्म कौन आप है । यह तो सर्वज्ञ देव है देख्यो भिन्न भिन्न रूप, चिदानंद ज्ञान मयी कर्म जड़ व्याप है। है. इतिहँ भाति मोह हीन जानै सरधानवान, जैसो सर्वज्ञ देखो ते सोही प्रताप है ॥ १०॥
दोहा. मोहनमाष्टक कवितके, दोप न लीज्यो मित्त॥ 'भैया' हृदय. विवेकधर, कीज्यो निर्मल चित्त ॥११॥
इति मोहभ्रमाप्टक। अथ आश्चर्यचतुर्दशी लिख्यते ।
दोहा. _ नमों पदारथ सार को, निज अनुभूति प्रकाश ॥
'सर्व द्रव्य व्यापी प्रभू, केवल ज्ञान प्रकाश ॥१॥ NaiwwwpoPPOREGARDARPIONORAMARwere
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