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Korea १९२
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adhvali orator
ब्रह्मविलास
न नाश होय, देहके न नाश हंस नाच न बखानिये । देह दव पुगलकी चिदानंद ज्ञानमयी, दोऊ भिन्न भिन्न रूप 'भैया' उ र आनिये ॥ १० ॥
मात्रिक कवित.
ग्यारह अंग पढै नव पूरव, मिथ्या वल जिय करहिं बखान । दे उपदेश भव्य समुझावत, ते पावत पदवी निर्वान | अपने उरमें मोह गहलता, नहिं उपजै सत्यारथ ज्ञान । ऐसे दरवश्रुतके पाठी, फिरहिं जगत भाखं भगवान ॥ ११ ॥ प्रश्न कवित्त, (अर्द्धांली )
दर्शन भ्रष्ट भ्रष्ट सोई चेतन, दर्शन भ्रष्ट सुक्त नहिं होय | चारित भ्रष्ट तरे भवसागर, यह अचरज पूछत शिशु कोय ॥१२ उत्तर चौपाई.
तेरह विधि चारित जो धेरै । तिहँ विन तजे न भवद्धि तेरे ॥ जब ये भाव करहिं उर नाश । तब जिय हे मोक्षपद बात ॥ १३ कवित.
'मांस हाड़ लो सानि पूतरी बनाई काहु, चामसों लपेट तामें रोम केश लाये हैं । तामै मलमूत भर कृमि केई कोटि धर, रोग संचे कर कर लोकमे ले आये हैं। बोले वह खाउँ खाउं खाये विना गिर जाऊं, आगेको न धरों पाउं ताही पै लुभाये हैं । ऐसे भ्रम मोहने अनादिके भ्रमाचे जीव, देखे परतक्ष तोड मानो छाये हैं ॥ १४ ॥
चक्षु
यह आश्चर्य चतुर्दशी, पडत अचंभो होय ||
भैया लोचन ज्ञानके, खुलत लख सब कोय ॥ १५ ॥
इति आश्चर्यचतुर्दशी.
Vandres
nisvana