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बाईसपरीसहनके कवित्त. २०५१
छप्पय. प्रकृति विरोध अहार, मिले मुनि जो दुख पावै __ सोहि . अरति परिणाम, तहाँ समता रस भावै ।।
औरहु परसंयोग,. होत दुख उपजै तनमें ।
तहां अरति परनाम, त्याग थिरता धरै मनमें । इम सहत साधु दुख पुंज बहु, तवहु क्षमा नहिं उर टरत ।, 'भैया' त्रिकाल मुनिराज सो अरतिजीत शिवपद वरत ॥१८॥
१४. स्त्रीपरीसह-कवित्त.. है नारिके निहारत विचार सव भूलि जाय, नारीके निहारे । परिणाम फिरे जात हैं । नारिके निहारत अज्ञान भाव आय झुकै,
नारिके निहारत ही शील गुणघात हैं ॥ नारिके निहारत न है ए सूरवीर धीर धरै, लोहनके मार जे अडिग ठहरात हैं । ऐसी
नारि नागनिके नैनको निमेप जीत, भये हैं अजीत मुनि जगत विख्यात है।॥ १९ ॥
. .. १५. मानअपमान परीसह-कवित्त. ३ जहाँ होय मान तहाँ मानत महान सुख, अपमान होय ६ तहाँ मृत्युके समान है। मानके गुमान आप महाराज मान रहे, होत अपमान मूढ हरै दशों प्रान हैं। मानहीकी लाजजग सहत अनेक दुख, अपमान होत धरै नरक निदान है ॥ ऐसे मान अपमान दोऊ दुष्ट भाव तज, गनत समान मुनि रहै सावधान
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- १६. थिरपरीसह-छप्पय. जव थिर होहिं मुनिंद, एक आसन दृढ धरई।.
जव थिर होहिं मुनिंद, अंग एको नहिं टरई ॥ naepaperoMORPOSop/epaproppancers