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शतअष्टोत्तरी.
कर्म भर्म मिलि रच्यो, देह जड़ मूर्ति धरैया । तासों कहत कुटंब मोह मद माते भैया ॥ ७३ ॥ सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ । आये धोखे आमके, यापै पूरण इच्छ ॥ यापें पूरण इच्छ वृच्छको भेद न जान्यो । रहे विषय लपटाय, मुग्ध मति भरम भुलान्यो || फलमहिं निकसे तूल स्वाद पुन कछू न हूवा । यहै जगतकी रीति देखि, सेमर सम सूवा ॥ ७४ ॥ मात्रिक - कवित्त.
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खंच ॥
आठनकी करतूत विचारहु, कौन कौन यह करते ख्याल । कबहूं शिरपर छत्र धरावहिं कबहू रूप करें बेहाल || देवलोक कबहूं सुख भुगतहिं, कवहू नेकु नाजको काल । ये करतूत करें कर्मादिक, चेतन रूप तु आप संभाल ॥ ७५ ॥ चेतन रूप विचारि विचक्षन, ए सब हैं परके परपंच | आठ कर्म लगे निशिवासर, तिन्हें निवारि लेहु किन जिय समुझावत हों फिर तोका, इनसे मग्न होऊ जिन रंच ॥ ये अज्ञान तुम ज्ञान विराजत, तातें करहु न इनको संच ॥ ७६ ॥ चेतन जीव विचारहु तो तुम, निहचै ठौर रहनकी कौन । देव लोक सुरइंद्र कहावत, तेहू करहिं अंत पुनि गौन ॥ तीन लोकपति, नाथ जिनेश्वर, चक्रीधर पुनि नर हैं जौन । यह संसार सदा सुपनेसम, निशचे वास इहां नहिं हौंन ॥ ७७ ॥ चितके अंतर चेत विचक्षन, यह नरभव तेरो जो जाय । पूरव पुण्य किये कहूं अतिही, तातें यह उत्तम कुल पाय ॥ अव कछु सुक्रत ऐसो कर तू, जातें मरण जरा नहिं थाय । वार अनंती मरकें उपजे, अव चेतह चित चेतन राय ॥ ७८ ॥
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