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ब्रह्मविलास में
मनवचकाय जोग त्रिक डोलै । लखै आपनी कर्म कलोलें ॥ जितनी कर्म प्रकृति क्षय गई । तितनी कछु निर्मलता भई ॥ १६ प्रकटी शक्ति ताहि पहिचान । अरु जिनवरकी आज्ञा मानै ॥ अक्षर एक विरोधै कोय । ताको भ्रमन बहुत जग होय १७ तातें व्रत पचखान न करै । जिनवरकी आज्ञासों डरे ॥ लेकै व्रत जो भंजै जीव । ते महा पापी कहे सदीव ॥ १८ अप्रत्याख्यान जाय नहिं जहाँ । व्रत पचखान पलै नहिं तहाँ । सम्यकदृष्टी परम सुजान | धरहिं शुद्ध अनुभवको ध्यान १९ अनुभवमें आतमरस लसै । आतमरसमें शिव सुख वसै ॥ आतम ध्यान धरयो जिनदेव । तातैं भये मुक्ति स्वयमेव ॥२०॥ मुक्ति होनको वीज निहार । आतम ध्यान धेरै अरिटार ॥ ज्यों ज्यों कर्म विलयको जाहिं । त्यों त्यों सुख प्रगटै घट माहिं २१ अप्रत्याख्यान । कर चकचूर चढहिं गुण थान || आगें महा ध्यान धर धीर । कर्म शत्रु जीतै वल वीर ||२२|| प्रगट करै निज केवल ज्ञान । सुख अनंत विलसै तिहँ थान || लोक अलोक सबहि झलकंत । तातैं सब भाखै भगवंत ॥२३॥ चारों कर्म अघाती हार । तव वे पहुँचे मुकति मँझार ॥ काल अनंतहि ध्रुव है रहे । तास चरन भवि वंदन कहै २४ सुख अनंत की नीव यह, सम्यक दर्शन जान ॥
प्रत्याख्यान
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याहीतें शिवपद मिलै, 'भैया' लेहु पिछान ॥ २५ ॥
सत्रहसै पंचासके, मारगसिर सित पक्ष ||
तिथि लच्छन मुनिधर्मकी, मृगेपति वार प्रत्यक्ष ॥ २६॥ इति सम्यक्त्वपचीसिका ।
१ दशमीं. २ सोमवार.