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Que at op andere १४२
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ब्रह्मविलास में
छप्पय छंद.
त्रिविध कर्मत भिन्न भिन्न पररूप परसतें ॥ विविधि जगतके चिह्न, लखै निज ज्ञान दरसतें ॥ वसै आपथल माहिं, सिद्ध समसिद्ध विराजहि । प्रगटहि परम स्वरूप, ताहि उपमा सब छाजहि ॥ इह विधि अनेक गुणब्रह्ममहिं, चेतनता निर्मल लंस || तस पद त्रिकाल वंदत भविक', शुद्ध स्वभावहि नित वसै ॥६॥ अष्टकर्म रहित, सहित निज ज्ञान प्राण धर ॥ चिदानंद भगवान, वसत तिहुं लोक शीसपर ॥ विलसत सुखजु अनंत, संत ताको नित ध्यावहि ॥ वेदहि ताहि समान, आयु घट माहिं लखावहि || इमध्यान करहि निर्मल निरखि, गुणअनंत प्रगटहिं सरव ॥ तस पद त्रिकाल वंदत भविक,' शुद्ध सिद्ध आतम दरव ॥७॥ ज्ञान उदित गुण उदित, मुदित भई कर्म कपायें | प्रगटत धर्म स्वरूप, ताहिं निज लेत लखायें ॥ देत परिग्रह त्याग, हेत निहचै निज मानत । जानत सिद्ध समान, ताहि उर अंतर ठानत ॥ सो अविनाशी अविचल दरव, सर्व ज्ञेय ज्ञायक परम । निर्मल विशुद्ध शास्वत सुधिर, चिदानंद चेतन धरम ॥८॥
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कवित्त,
अरे मतवारे जीव जिन मतवारे होहु, जिनमत आन गहो जिनमत छोरकै । धरम न ध्यान गहो धरमन ध्यान गहो, धरम स्वभाव लहो, शकति सुफोरकें ॥ परसों सनेहकरो, परम सनेह
ॐ ॐ ॐ ॐ
SUNYANI
AINESEN