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बाईस परीसहनके कवित्त.
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हरे वृक्ष झाढ़े हैं । महा कारी निशा साहिं घोर घन गरजाहिं, चपलाह चमकाहिं तहां हग गाढे हैं । पौनकी झकोर चलै पाथ र हैं ते हिले, ओरानके ढेर लगे तामें ध्यान वाढ़े हैं। कहां लो बखान कहों हेमाचलकी समान, तहां मुनिराय पांय जोर ढाढ़े हैं ॥ ४ ॥
गाज
जोग देके जोगीश्वर जंगलमें ठाढ़े भये, वेदनीके उदैतै परीसह सहत हैं। कारी घन घटा लागे भारी भयानक अति, विजु देखे धीर कोऊ न गहत हैं । मेहकी भरन परै मूसरसी धार मानो, पौनकी झकोर किधों तीर से बहत हैं। ऐसी ऋतु पावसमें पावत अनेक दुःख, तऊ तहाँ सुख वेद आनंद लहत
५ ॥
३. क्षुधापरीसह.
जगतके जीव जिहँ जेर जीतराखे अरु, जाके जोर आगे सब जोरावर हारे हैं । मारत मरोरे नहिं छोरे राजारंक कहूं, आंखिन अंधेरी ज्वर सब दे पछारे हैं । दावाकीसी ज्वाला जो जराय डारै छाती छवि, देवनको लागै पशुपंछी को विचारे हैं । ऐसी क्षुधा जोर भैया कहित कहां लों और, ताहि जीत मुनिराज ध्यान थिर धारे हैं ॥ ६ ॥
18. तृपापरीसह.
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धूपकी धखनि परै आगसो शरीर जरै, उपचार कौन करे है द्वार आनंके । पानीकी पियास जेती कहें को बखान तेती, तीनों जोग थिरसेती सह कष्ट जानके ॥ एक छिन चाह नाहिं
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